Tuesday, February 21, 2012


नई राह पर उत्तर प्रदेश
उमेश चतुर्वेदी
उत्तर प्रदेश के मतदान के दूसरे दौर में गोरखपुर के भारतीय जनता पार्टी के सांसद आदित्यनाथ का बयान भले ही उनकी पार्टी को नागवार गुजरा हो..लेकिन अब तक के चुनावी दौर के बाद माना तो यही जा रहा है कि मौजूदा चुनावों में राज्य में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने जा रहा। अगर 2007 की तरह कोई चमत्कार हुआ और किसी पार्टी को आसानी से बहुमत हासिल हो जाए तो यह बात और है। क्योंकि भारतीय मतदाता के मन की थाह लगा पाना आसान नहीं है। वह वोट किसी खास को देता है और मतदान केंद्र से बाहर आता है तो वह किसी और का साथ देने की बात करने लगता है। इस सोच के पीछे उसके अपने संस्कारों का असर कहीं ज्यादा होता है। लेकिन अगर राजनेता की जमीनी पकड़ रही, राजनीतिक सवालों और उससे पड़ते जमीनी असर पर उसका ध्यान रहा तो निश्चित तौर पर वह अपने राजनीतिक उत्थान और हश्र की असल कहानी समझ रहा होता है। लेकिन गांधी के नाम पर सत्य और अंहिसा की जिस परंपरावादी राजनीति की घुट्टी मौजूदा राजनीति के कर्णधार पीते रहे हैं,
उसमें खरे-खरे सवालों से जूझना और उनकी कसौटी से निकले सत्य और नतीजों को खुलेतौर पर स्वीकार करना रणनीतिक विफलता मानी जाती है। शायद यही वजह है कि आदित्यनाथ की खरी-खरी को उनकी अपनी ही पार्टी ने नकारने में देर नहीं लगाई। दूसरी तरफ राष्ट्रीय राजनीति में बीजेपी को ही अपने प्रबल प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखने वाली कांग्रेस को आदित्यनाथ की जुबान ने मजाक को मौका मुहैया करा दिया। इसलिए वह सवाल पूछने से नहीं चूकी कि क्या बीजेपी सचमुच सत्ता की रेस में है।
बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी स्टार छवि नहीं होने के बावजूद उत्तर प्रदेश फतह करने के लिए आमादा तो हैं, लेकिन उनका पार्टी में ही पूरी तरह साथ नहीं मिल रहा है। उत्तर प्रदेश के गांवों में बीजेपी के अध्यक्ष के तौर पर उन्हें जानने वालों की संख्या उतनी नहीं है, जितने लोग बीजेपी के नेता के तौर पर लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और नरेंद्र मोदी को जानते हैं। नरेंद्र मोदी की छवि भीड़ लुभाऊ नेता के तौर पर स्थापित हो चुकी है। उनकी छवि गुजरात से बाहर भी देखी और समझी जाती है। एक राष्ट्रीय समाचार पत्रिका के सर्वेक्षण में भावी प्रधानमंत्री के तौर पर वे पाठकों की पहली पसंद बने हुए हैं। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के महासमर में उनकी मौजूदगी अब तक नजर नहीं आई और आगे भी नजर आना संभव नहीं है। बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व का एक बड़ा हिस्सा अब भी उत्तर प्रदेश के चुनाव में पूरे मन से नहीं उतर पाया है। बीजेपी के राज्य के क्षत्रप अब तक इसी उहापोह में फंसे हैं कि उमा भारती को बाहरी माना जाय या नहीं। जाहिर है कि उहापोह और आपसी खींचतान के बीच फंसी भारतीय जनता पार्टी भी जानती है कि अगर कोई चमत्कार हुआ, तभी चुनाव नतीजे उसके लिए बेहतर संभावनाएं दे पाएंगे। लेकिन पार्टी की मजबूरी ये है कि अगर आदित्यनाथ की बातों को वह ज्यों का त्यों स्वीकार करती है तो उसे चुनावी हार को स्वीकार करने के तौर पर देखा जाएगा। फिर उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी बहुजन समाज पार्टी या समाजवादी पार्टी उसकी चाहे बड़ी आलोचना न करे, लेकिन कांग्रेस इसे प्रचारित करने के लिए अपने एक भी मंच और मौके को जाया नहीं होने देगी।
लेकिन सवाल यह है कि क्या कांग्रेस भी सचमुच सूबे की सत्ता की दौड़ में शामिल है। चुनावी पंडित तो मान रहे हैं कि सत्ता की रेस बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ही है। लेकिन जिस तरह बहुजन समाज पार्टी ने अपने 110 विधायकों को चुनाव मैदान से ही बाहर कर दिया, क्या इसके बावजूद बहुजन समाज पार्टी दोबारा सत्ता में आ सकती है या फिर अखिलेश यादव की क्रांति यात्रा ने समाजवादी पार्टी में इतना जोश भर दिया है कि वह अपने बूते पर उत्तर प्रदेश की सत्ता की सीढ़ी नाप सकती है। जाहिर है कि किसी के पास इस सवाल का जवाब नहीं है। सूबे के चुनाव मैदान में उतरीं चारों बड़ी पार्टियां आदित्यनाथ के बयान को लाख झुठलाएं, लेकिन ऑफ द रिकॉर्ड में सबके नेता यही मान रहे हैं कि उन्हें या उनकी पार्टी को विधानसभा में वह जादुई आंकड़ा हासिल नहीं होने जा रहा है, जिसके दम पर वह सरकार बना पाएगी।
चूंकि चार दौर का मतदान हो गया है, लिहाजा अब सोचने का वक्त नजदीक आ गया है कि उत्तर प्रदेश का क्या होगा। क्या उत्तर प्रदेश उसी राह पर चलता रहेगा, जिस राह पर वह सिवा 1991 में चला। इसी चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत मिला था। बहुमत तो 1993 में सपा-बसपा गठबंधन को भी मिला था। लेकिन वैचारिकता और सैद्धांतिक आधार ना होने के चलते वह कितने महीने तक चल पाया, यह वाकया आज भी लोगों के जेहन में ताजा है। जून 1995 में गेस्ट हाउस कांड के बाद बसपा और सपा के बीच जो अदावत जारी है, उसका असर यह है कि दोनों पार्टियों के आला नेता एक-दूसरे को देखना तक पसंद नहीं कर रहे। यानी उत्तर प्रदेश की राजनीति फिर से गठबंधन के दलदल में धंसकर राज्य के लोगों को एक ऐसा शासन देने की कोशिश करेगी,जिसमें लखनऊ में भले ही चमक हो, लेकिन गांवों से बिजली लापता रहेगी, पूर्वांचल से पलायन के लिए जवानी मजबूर रहेगी और मुंबई नासिक में मार खाएगी या फिर दिल्ली-पंजाब में बिहारी के नाम पर उपेक्षा सहेगी और मजदूरी करती रहेगी। हालांकि पिछले पांच साल के दौरान उत्तर प्रदेश मे पूर्ण बहुमत की सरकार रही, लेकिन उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल और बुंदेलखंड की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। लोग बिजली के लिए तरसते रहे, भ्रष्टाचार की गंगा बहती रही, अधिकारियों तक की खुलेआम हत्याएं हुईं। ऐसे में अगर कोई इलहाम यह पाल लेता है कि बीएसपी के बरक्स समाजवादी पार्टी की सरकार आ जाएगी तो वह गुणात्मक बदलाव ला पाएगी...गलत ही होगा। शायद यही वजह है कि उत्तर प्रदेश का मतदाता किसी एक दल के साथ खुद को जुड़ा महसूस नहीं कर पा रहा है। क्योंकि उसने अतीत में समाजवादी पार्टी की सरकार और उसकी उपलब्धियों को देखा है, जहां गुणात्मक विकास ना के बराबर रहा है।
लेकिन सवाल यह है कि अगर आदित्यनाथ का जाहिर किया हुआ तथ्य हकीकत में बदलता है तो क्या राजनीतिक दलों के पास कोई वैकल्पिक व्यवस्था है? उमा भारती समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी के साथ सरकार बनाने के सवाल पर डूब मरने का ऐलान कर ही चुकी हैं, राहुल गांधी भी अकेले दम पर सरकार बनाने का दावा कर चुके हैं। लेकिन यह मान लेना बेमानी ही होगा कि राजनीतिक दलों के पास वैकल्पिक इंतजाम नहीं होगा। भले ही यह हकीकत हो, लेकिन उन्हें यह खतरा सता रहा है कि अगर उन्होंने वैकल्पिक रणनीति का ऐलान कर दिया या किसी दल के साथ गठबंधन करने की गलती से भी चर्चा कर दी तो उनकी चुनावी संभावना कमजोर हो जाएगी। लेकिन गलती से भी से राज्य के तमाम प्रमुख दल अपनी मौजूदा अकड़ और ऐलान पर कायम रहे तो तय मानिए कि इस बार उत्तर प्रदेश की वही हालत होने वाली है, जो 2005 में बिहार की हुई थी। जब किसी भी गठबंधन और पार्टी को बहुमत नहीं मिला था। मजबूरी में छह महीने के भीतर दोबारा चुनाव हुए थे और उस चुनाव ने बिहार ही नहीं, नीतीश कुमार का नया इतिहास लिख दिया। उत्तर प्रदेश बिहार का पड़ोसी है। तो क्या यह मान लिया जाय कि उत्तर प्रदेश भी अपने पड़ोसी की तरह बदलाव की वैसी ही राह पर चल पड़ा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या बिहार की तरह उत्तर प्रदेश का भी अपना कोई नीतीश कुमार उभरेगा, जिसके नाम पर राज्य की राजनीति पक्ष और विपक्ष में गोलबंद होगी..जो उत्तर प्रदेश की राजनीति की नई धुरी होगा...बदलाव और संभावनाएं राजनीति का हिस्सा है। भविष्य में चाहे जो हो, लेकिन फिलहाल ऐसा कोई व्यक्तित्व तो नजर नहीं आ रहा है। 

1 comment:

  1. dis report is quite nice sir which tied me from starting to d end i specially lyk d end part wher u compaired 2005 bihar,s situation with current up,s status.even i think dat current leaders of up have yet not proved there fruitfullness in up

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