Wednesday, November 7, 2012

बिहार में गठबंधन के अंतर्विरोध



उमेश चतुर्वेदी
2010 में भारी बहुमत के बाद पाटलिपुत्र की गद्दी पर नीतीश की वापसी के बाद यह तय हो गया था कि संख्या बल के लिहाज से बेहतर स्थिति में आने के बावजूद गठबंधन में सबकुछ ठीक नहीं चलने वाला है। हालांकि विचारों और पत्रकारिता की अपनी दुनिया में ऐसी चर्चाएं और आशंकाएं करने की परिपाटी नहीं रही है। इसलिए ऐसी चर्चाओं और आशंकाओं को सिरे से नकार दिया जाता है। नीतीश और बीजेपी के बिहार के गठबंधन को लेकर भी जब 2010 में ऐसी कोई आशंका जताने की कोशिश शुरू हुई, उसे राजनीतिक पंडितों ने नकारने में देर नहीं लगाई थी। लेकिन महज दो साल की यात्रा के बाद ही वे आशंकाएं उठने लगी हैं।
दरअसल नीतीश कुमार को जो लोग नजदीक से जानते हैं, उन्हें पता है कि एक सीमा के बाद वे अपनी आलोचना ना तो सह पाते हैं और ना ही आलोचक को भूल पाते हैं। समाजवादी राजनीतिक प्रशिक्षण के बावजूद उनमें एक हद तक व्यक्तिवादिता भी नजर आती है। यही वजह है कि कभी उनके साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़े रहने वाली शख्सियतें भी उनसे किनारा कर चुकी हैं। कभी प्रेम कुमार मणि, ललन सिंह जैसे लोग उनके सबसे नजदीकी लोग हुआ करते थे। लेकिन अब वे उनसे खासे दूर हैं। उनकी यह सोच एक सीमा के बाद भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यू के गठबंधन पर असर डालने लगी है। यही वजह है कि बिहार में कई बार गठबंधन के भविष्य को लेकर सवाल भी उठे। हालांकि हर बार भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने ऐसे सवालों को फौरी तौर पर टालने में ही भलाई देखी। इसकी वजह से बिहार बीजेपी के कई ताकतवर और निष्ठावान नेता भी मन मसोसकर चुप रह गए।
बिहार में अधिकार यात्रा और उसके दौरान नीतीश कुमार के खिलाफ बढ़े हमलों ने दो चीजें साफ कीं। पहली तो यह कि भारी समर्थन की मजबूत नाव पर सवार नीतीश के खिलाफ भी दरिया में लहरें उठने लगीं हैं और दूसरी यह कि अब बीजेपी के नेता भी इस लहर की सवारी कर सकते हैं। पूर्णिया के बीजेपी के सांसद उदय सिंह का अपनी ही सरकार के खिलाफ हमला बोलना और उनके खिलाफ पार्टी के आलाकमान की चुप्पी साध लेना नीतीश के खिलाफ उठी लहर पर सवारी की चाहत के चलते ही संभव हुआ है। गठबंधन की मजबूरियों के चलते बीजेपी भले ही अपना वह अपमान भुला बैठी हो, जिसमें भोज का निमंत्रण देकर आखिरी दौर में नीतीश कुमार ने भोज ही खारिज कर दिया था। लेकिन वह उसे पचा नहीं पाई है। राज्य नेतृत्व का एक हिस्सा अब भी इसे लेकर अपनी कसक बयान करता रहा है। अधिकार यात्राओं में उठे विरोध ने बीजेपी को मौका दे दिया। लेकिन ऐसे हालात से कैसे निबटना चाहिए, यह नीतीश से भी सीखना होगा। अपनी कमजोर स्थिति देख उन्होंने जिस तरह से चुप्पी साध रखी है, उससे साफ है कि वे उलटी लहर को फिलहाल गुजर जाने देना चाहते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि नीतीश कुमार सबकुछ भूल जाएंगे और बीजेपी-जनता दल यू के बीच सबकुछ सामान्य हो जाएगा।
हकीकत तो यह है कि इस गठबंधन के दोनों प्रमुख तत्वों के बीच भारी अंतर्विरोध है। जनता दल यू को लगता है कि अगर वह बीजेपी का हर मायने में खुलकर साथ देने लगे तो अब तक प्रचलित मुस्लिम वोट बैंक की अवधारणा के मुताबिक उसके पाले से मुस्लिम वोटर खिसकने लगेगा। बिहार में तकरीबन साढ़े सोलह फीसदी मुस्लिम वोटर है। इन्हीं वोटरों के जरिए बिहार में पंद्रह साल तक निर्बाध शासन चला चुके लालू यादव की निगाह अब भी इन्हीं वोटरों पर है। नीतीश को डर है कि नरेंद्र मोदी या ऐसे कथित मुस्लिम विरोधी बीजेपी नेताओं को तवज्जो देने की वजह से उनका यह आधार खिसक जाएगा। बिहार में करीब 42 फीसदी पिछड़ी जातियां हैं। उनमें से साठ फीसदी यानी करीब साढ़े चौबीस फीसदी अति पिछड़ी जातियां हैं। नीतीश ने इन पिछड़ी जातियों में अपना आधार बनाने की कामयाब कोशिश की। लेकिन शासन में इन जातियों को अब खास भागीदारी नहीं दिख रही है। इसलिए अब इन जातियों में भी नीतीश को लेकर नाराजगी बढ़ती जा रही है। नीतीश को यह तथ्य पता है, इसलिए वे मुस्लिम वोटरों का साथ छोड़ना गवारा नहीं कर सकते। उन्हें पता है कि अगर मुस्लिम वोटर उनके साथ रहे तो अति पिछड़ी जातियां यादव जैसी ताकतवर पिछड़ी जातियों के दबदबे की आशंका की वजह से उनके साथ बने रहने के लिए मजबूर रहेंगी। इसी तरह उन्होंने मुसहर और दूसरी अति दलित जातियों में भी अपना आधार बनाने की कोशिश की है। इन आधारों के वजह से उन्हें खुद के बनाए जातीय समीकरण पर शायद ज्यादा भरोसा बन गया था। इसीलिए वे ना सिर्फ बीजेपी को खास दूरी पर बनाए रखते थे, बल्कि सार्वजनिक मंचों से उसे कमतर दिखाने की कोशिश करते रहते थे। लेकिन अधिकार यात्राओं में उठे विवाद के बवंडर ने उनके अभेद्य समझे जाने वाले किले जैसे ही दरार का संकेत दिया, बीजेपी के राज्य अध्यक्ष सीपी ठाकुर भी हुंकार भरने लगे। सीपी ठाकुर का हुंकार भरना उनकी मजबूरी भी है। यह सच है कि बीजेपी का सबसे बड़ा वोटर भूमिहार समुदाय नीतीश कुमार के साथ खुश नहीं है। लेकिन लालू ने अपने पंद्रह साल के शासन काल में जितना इस समुदाय पर हमला बोला था, उसे यह समुदाय अब तक नहीं भुला पाया है। यही वजह है कि वह बीजेपी का साथ नहीं छोड़ पा रहा है। हालांकि उसे नीतीश पर भी भरोसा नहीं है। ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद मचे तोड़फोड़ दरअसल नीतीश विरोधी आक्रोश का ही प्रदर्शन था। नीतीश के पहले शासन काल में बंदोपाध्याय समिति की सिफारिश के मुताबिक बटाईदार को खेती की जमीन पर मालिकाना हक देने की अफवाह फैली थी। इससे जमीनों का मालिक यह समुदाय खासे आक्रोश में था। इसी समुदाय से आने वाले एक बड़े जेडीयू नेता ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि अगर लालू विरोध की मजबूरी भूमिहार समुदाय के पास नहीं होती तो वह बीजेपी-जेडीयू गठबंधन का साथ छोड़ देता। बहरहाल यह समुदाय बीजेपी के साथ बना हुआ है। बीजेपी के साथ ब्राह्मणों का एक बड़ा वर्ग भी है। उसे भी नीतीश के हाथों बीजेपी का अपमान पसंद नहीं आता और उससे भी ज्यादा उसे अपमान के बावजूद बीजेपी की चुप्पी खलती है। यही वजह है कि अब सीपी ठाकुर भी राज्य की सभी 40 लोकसभा सीटों और सभी 243 विधानसभा सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने की तैयारी का ऐलान करने की हिम्मत दिखाने लगे हैं। पहले चूंकि बीजेपी की तरफ से किसी बड़े नेता ने ऐसी प्रतिक्रिया नहीं जताई थी तो नीतीश इस स्थिति का आनंद उठाते रहते थे। लेकिन इन पंक्तियों के लेखक के पास पक्की खबर है कि जब सीपी ठाकुर ने सभी संसदीय सीटों पर अकेले दम पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया तो घबराए नीतीश ने अगले दिन सीपी ठाकुर को फोन करके पूछा था कि डॉक्टर साहब आपने क्या बयान दे दिया। तब शिष्टाचार वश सीपी ठाकुर को कहना पड़ा था कि क्या पता कि समझौते में कौन सी सीट बीजेपी को मिले। इसीलिए उन्हें यह बयान देना पड़ा।
बहरहाल यह तय है कि बिहार में बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन दरअसल मजबूरी का साथ है। बीजेपी की मजबूरी है कि उसे केंद्र की सत्ता के लिए बिहार का आधार चाहिए। नीतीश की मजबूरी यह है कि अकेले दम पर वे लालू से लड़ नहीं सकते। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि कई बार तल्खी इतनी बढ़ जाती है कि राजनीतिक मजबूरियों के बावजूद साथ छोड़ना पड़ता है। वैसे भी बीजेपी का इतिहास कम से कम गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में समाजवादी साथियों के आधार को पूरी तरह खुद में समाहित करने का रहा है। लेकिन बिहार, उड़ीसा और हरियाणा उसकी इस कामयाबी की राह में रोड़ा बनकर खड़े हुए हैं। यानी बीजेपी का पूरा कौशल और हुनर भी यहां काम नहीं आ पाया। इसलिए उसे चुप भी रहना पड़ता है। हालांकि यह चुप्पी जितना केंद्रीय स्तर पर नजर आती है, राज्य स्तर पर नजर नहीं आती। लेकिन राज्य नेतृत्व की भी एक सीमा होती है। उसे भी कम से कम अपने आधार वोट बैंक को जवाब देना होता है। इसलिए उसे भी तल्ख जुबान बोलने के लिए मजबूर होना पड़ता है। अधिकार यात्राओं के दौरान उठी विरोध की आवाजों ने बीजेपी को इसके लिए जरूरी साहस जरूर मुहैया करा दिया है।
हकीकत तो यह है कि बिहार में जनता दल यू और बीजेपी गठबंधन आकांक्षाओं की ऊंची लहरों पर सवार होकर आया था। सड़कें भले ही बेहतर हो गईं, लेकिन बिजली और शिक्षा के स्तर पर वे सारे लक्ष्य हासिल नहीं किये जा सकें हैं, जिनकी उम्मीद जनता ने की थी। प्राथमिक शिक्षा में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। बिहार के पास ना तो अपनी बिजली बनाने के वैसे संसाधन हैं ना ही उतना पैसा कि बाहर से बिजली खरीदकर आपूर्ति की जा सके। अफसरशाही ने बाबूवादी भ्रष्टाचार की तरफ कदम एक बार फिर बढ़ा दिए हैं। इन सब कारणों ने भी दोनों ही पार्टियों के बीच जारी अंतर्विरोधों को जाहिर करने का मौका दे दिया। अब देखना यह होगा कि नीतीश मौजूदा हालात से कैसे निबटते हैं और दिल्ली के तख्त पर नजर गड़ाए बैठी भारतीय जनता पार्टी नीतीश का साथ किस तरह देती और हासिल करती है।

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