Sunday, October 20, 2013

बदलाव के दौर से गुजर रही भारतीय जनता पार्टी

उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख उत्तराखंड से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र संडे पोस्ट के भारतीय जनता पार्टी विशेषांक में प्रकाशित हो चुका है।)
नरेंद्र मोदी को पहले चुनाव प्रचार अभियान की कमान और बाद में प्रधानमंत्री पद की उम्मदीवारी पर उठा विवाद फिलहाल थमता नजर आ रहा है। छत्तीसगढ़ के कोरबा में लालकृष्ण आडवाणी नेअपने चेले की सरकार का गुणगान करके यह संदेश दे दिया है कि वे तकरीबन मान गए हैं। हालांकि पहले प्रचार अभियान की कमान और दूसरी बार प्रधानमंत्री पद पर मोदी की उम्मीदवारी पर मुहर के बाद लालकृष्ण आडवाणी के कोपभवन में जाने और नाराज होने के बाद  उनके खिलाफ के इर्द-गिर्द घटी घटनाएं भारतीय जनता पार्टी के मौजूदा चाल, चेहरा और चरित्र को उजागर करने के लिए काफी है। छह अप्रैल 1980 को दिल्ली में पार्टी का गठन करते वक्त जिस आडवाणी ने पार्टी विथ डिफरेंस का नारा दिया था, मोदी को कमान मिलने के बाद कोपभवन में जाकर उन्हीं आडवाणी ने साफ कर दिया कि पार्टी बदलाव के दौर से गुजर रही है। लेकिन वे खुद इस बदलाव को सहजता से स्वीकार करने को तैयार नहीं है। अलबत्ता इस पूरी प्रक्रिया में एक बात जरूर रही कि उन्होंने अपनी खुद की छवि जरूर बदल ली। राममंदिर आंदोलन के साथ ही उन्हें रेडिकल छवि वाले नेता के तौर पर देखा जाता था। दिलचस्प यह है कि उनकी इस रेडिकल और हिंदूवादी छवि में नब्बे के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने निष्ठावान स्वयंसेवक की छवि नजर आती थी। उनकी तुलना में अटल बिहारी वाजपेयी कहीं ज्यादा उदार नजर आते थे। लेकिन उनके कोपभवन में जाने और इस्तीफे की खबरों के बाहर प्रचारित होने के बाद उन्हें लोग नरेंद्र मोदी की तुलना में उदार मानने लगे। इस लिहाज से देखें तो बहुलतावादी दर्शन के जबर्दस्त पैरोकारों के बीच आडवाणी की यह छवि उनकी उपलब्धि ही है।

इस पूरे घटनाक्रम ने एक बात जरूर साबित की है कि भारतीय जनता पार्टी बदलाव के दौर से गुजर रही है। लेकिन इसे जिस स्वाभाविकता के साथ स्वीकार किए जाने की जरूरत होती है। उसका पार्टी में सर्वथा अभाव है। निश्चित तौर पर नरेंद्र मोदी की कार्यकर्ताओं के बीच स्वीकार्यता बढ़ी है। इसी का दबाव है कि राजनाथ सिंह को उन्हें पार्टी की प्रचार अभियान समिति का मुखिया घोषित करना पड़ा। राजनाथ सिंह ने भले ही पार्टी में आ रहे इस बदलाव को मुखर अभिव्यक्ति दे दी। लेकिन पार्टी का बड़ा तबका इसे स्वीकार करने को अभी तक तैयार नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि कभी भारतीय जनता पार्टी को अपनी दूसरी पांति के नेताओं पर बड़ा गर्व हुआ करता था। 1996 में वाजपेयी की तेरह दिनी सरकार के विश्वास प्रस्ताव पर संसद में चर्चा के दौरान सुषमा स्वराज ने कांग्रेस से बड़ी गर्वीले भाव से पूछा था कि कहां है आपकी दूसरी लाइन। तब उन्होंने प्रमोद महाजन, अनंत कुमार, वेंकैया नायडू, उमा भारती, अरूण जेटली का उल्लेख करते हुए अपना नाम नहीं लिया था। लेकिन यह साफ था कि इस लिस्ट में वह अपना भी नाम स्वत: ही शामिल मान रही थीं। तब भारतीय जनता पार्टी की पहली पंक्ति के नेता अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी ही माने जाते थे। हालांकि सुंदर सिंह भंडारी, के एल शर्मा, सिकंदर बख्त, केदारनाथ साहनी आदि नेता उस समय तक मौजूद थे। बेशक प्रमोद महाजन को क्रूर काल ने छीन लिया। लेकिन सत्रह साल बाद का नजारा देखिए। बीजेपी की दूसरी पंक्ति के योद्धा पस्त पड़े हैं। इनमें से शायद ही किसी का जनाधार हो। बेशक नरेंद्र मोदी इसके अपवाद हैं और शायद यही वजह है कि पार्टी में वे दूसरी पंक्ति के नेताओं को पीछे करते हुए आगे बढ़ चुके हैं। रही बात पहली पंक्ति के नेताओं की तो अटल बिहारी वाजपेयी लगातार बीमार और करीबन निष्क्रिय हैं। मुरली मनोहर जोशी ने अपनी सीमाएं मान ली हैं। लेकिन लालकृष्ण आडवाणी अपनी सीमा मानने को तैयार नहीं हैं। लिहाजा मौका लगते ही उन्होंने अपने उस चेले के खिलाफ अभियान छेड़ दिया, जो कभी उनका ही आदमी माना जाता था। इस अभियान में उन्हें उम्मीद थी कि उनके सहयोगी और गणेश परिक्रमा करने वाले वेंकैया नायडू, अनंत कुमार, उमा भारती और सुषमा स्वराज का साथ मिलेगा। मोदी विरोध में सभी पदों से इस्तीफे के मसले पर आडवाणी को इनमें से सिर्फ सुषमा का ही साथ मिलता नजर आया। आडवाणी को तभी समझ जाना चाहिए था कि वे भी मुरली मनोहर जोशी जैसी परिधि में आ चुके हैं। लेकिन केंद्रीय सत्ता पर अपना हक़ समझने वाले आडवाणी ये स्वीकार नहीं कर पाए। जिसकी परिणति यह हुई कि अपने ही लाखों कार्यकर्ताओं की नजर में उनका सम्मान कम हो गया। उनके घर के सामने आठ जून को प्रदर्शन तक हुआ। अगर आडवाणी बदलते दौर के मूड को भांप कर खुद भी मोदी को आशीर्वाद दे दिए होते तो भारतीय राजनीति में उनका कद उस उंचाई पर पहुंच चुका होता, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन इस पूरे प्रकरण से उनकी छवि सत्ता के पीछे भागने वाली हस्ती की ही बनी। रही बात दूसरी पंक्ति के भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की तो उनमें से एक अनंत कुमार और दूसरे उमा भारती ही हैं जो कम से कम अपनी सीटों पर जनता के बीच जाकर समर्थन हासिल कर सकते हैं। सुषमा स्वराज एक दौर में जननेता थीं। लेकिन अब वे भाषण बढ़िया दे सकती हैं, लेकिन लोकसभा का चुनाव आसान सीट से ही जीत सकती हैं। अरूण जेटली उस दिल्ली की भी किसी लोकसभा सीट से चुनाव शायद ही जीत सकते हैं, जहां के दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के वे अध्यक्ष रहे हैं। वेंकैया नायडू अपने ही राज्य आंध्र प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को नहीं उठा सके तो बाहर उनसे उम्मीद भी बेमानी है। अनंत कुमार भी बेंगलुरू की अपनी सीट के अलावा कहीं और से समर्थन का दावा नहीं कर सकते।
बेशक भारतीय जनता पार्टी का उभार और विकास जनांदोलनों के जरिए ही हुआ है। लेकिन आज भारतीय जनता पार्टी में शीर्ष पर काबिज नेताओं में से ज्यादातर के पास जमीनी आधार नहीं है। सही मायने में इनमें से ज्यादातर नेता हवाई हैं। कुल मिलाकर उनकी भी हैसियत कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी जैसी ही है। राहुल को पारिवारिक विरासत संभालनी है तो भारतीय जनता पार्टी के ज्यादातर शीर्ष नेता आडवाणी-अटल के प्रभामंडल का ही दोहन करते रहे हैं। शायद यही वजह है कि पिछले दो चुनावों से भारतीय जनता पार्टी उस विंदु पर पहुंच गई है, जहां से फिसलन ही नजर आती है। निश्चित तौर पर इस चरम विंदु से आगे ना बढ़ पाने का दर्द उस राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सता रहा है, जिसने हिंदुत्व के वैचारिक आधार पर एक राष्ट्र राज्य गठित करने और भारतीय जनता पार्टी के जरिए पल्लवित करने का सपना देखा है। उसने आडवाणी को मौका भी दिया। लेकिन अब वह छूट देने के मूड में नहीं है। उसे पता है कि अगर छूट दी गई तो उसके कार्यकर्ताओं को भारत की भावी सरकारों से छूट हासिल नहीं होने वाली है। प्रज्ञा भारती का मामला हो या इंद्रेश कुमार का, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रत्यक्ष तौर पर उन्हें प्रताड़ित करने की बात स्वीकार नहीं कर पा रहा हो, लेकिन अंदरूनी हलके की आपसी चर्चाओं में संघ अपनी ये पीड़ा जाहिर करने से रोक नहीं पाता। उसे अब लगता है कि अगर केंद्र की सत्ता हासिल नहीं हुई तो उसके लोगों की प्रताड़ना बढ़ेगी और हिंदुत्व की नींव पर राष्ट्र राज्य साकार करने का उसका सपना साकार नहीं हो पाएगा। यही वजह है कि उसने नरेंद्र मोदी का नाम आगे किया है। हालांकि नरेंद्र मोदी के अड़ियल रवैये को वह जानता है। मोदी के अड़ियल रवैये का आगे अपने ही वरिष्ठ और निष्ठावान कार्यकर्ता संजय जोशी का हश्र संघ देख चुका है। उसे भी डर है कि मोदी को एक बार मौका मिला तो शायद ही वे उसे भी भाव देंगे। इसके बावजूद अगर वह मोदी को आगे ला रहा है तो उसे पता है कि उसके पास मोदी तुरूप का पत्ता हैं। एक बात और, भारतीय जनता पार्टी खुद को संघ से इतर बताती रही है। इसी तर्ज पर संघ खुद को भारतीय जनता पार्टी से अलहदा दिखाने की कोशिश करता रहा है। लेकिन हकीकत इसके ठीक विपरीत है। जब जरूरत पड़ती है तो संघ अपना चाबुक भारतीय जनता पार्टी के आलाकमान पर चलाने से नहीं चूकता। आडवाणी के इस्तीफे की चरम परिणति संघ प्रमुख मोहन राव भागवत के हस्तक्षेप के बाद ही हुई। संघ परिवार में संघ प्रमुख को नाम से नहीं, सिर्फ परम पूज्य के तौर पर पुकारा जाता है। लालकृष्ण आडवाणी भी खुद को संघ का समर्पित कार्यकर्ता बताते रहे हैं। इसके बावजूद आखिर क्या वजह है कि आडवाणी कई बार संघ और उसकी विचारधारा को किनारे रख देते हैं। इसका जवाब यह है कि मौजूदा संघ प्रमुख मोहन राव भागवत के पिता और लालकृष्ण आडवाणी दोस्त थे और तकरीबन साथ-साथ संघ में सक्रिय थे। उम्र और रिश्तों का यह लिहाज ही भागवत को कम के कम आडवाणी के संदर्भ में सीमाओं में बांधते रहा है।
भारतीय जनता पार्टी के पूर्व संगठन जनसंघ का पहली बार 1967 के चुनावों में समाजवादी पार्टियों से गैरकांग्रेसवाद के नाम पर सहयोगी संबंध बना था। जिसका असर यह हुआ कि देश के नौ राज्यों में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। इस रिश्ते की बुनियाद भारतीय जनसंघ के तत्कालीन महामंत्री दीनदयाल उपाध्याय और डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने रखी थी। यही वजह है कि आपातकाल के बाद जब गैरकांग्रेसवाद के नाम पर जनता पार्टी का गठन हुआ तो जनसंघ को उसमें शामिल होने से परहेज नहीं रहा। यह प्रयोग सफल भी रहा और 1977 के चुनावों में जनता पार्टी की सरकार बनी। लेकिन इसके बाद जनसंघ के धड़े वाले लोगों पर दोहरी सदस्यता का सवाल राजनारायण और मधु लिमये ने उठाया। यह विवाद इतना बढ़ा कि जनसंघ अलग हुआ और भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ। भारतीय जनता पार्टी के इस पूरे इतिहास में एक बात पर गौर फरमानी होगी। गुजरात,महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्य प्रदेश से उसने अपने साथी समाजवादियों को निगल लिया। वह बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और हरियाणा में यह कमाल नहीं दिखा पाई। यही वजह है कि वहां क्रमश: जनता दल यू, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, बीजू जनता दल और इंडियन नेशनल लोकदल पूरे ताकत के साथ मौजूद है। अतीत में उसकी कोशिश इन दलों को भी समाहित करने की रही है। लेकिन 1998 में गठबंधन युग की शुरूआत के बाद उसने अपने ये विचार परे रख दिए। जिसका उसे तत्काल सत्ता के तौर पर फायदा भी मिला। लेकिन परे रखने की इस वैचारिक प्रक्रिया की सीमाएं भी जाहिर होने लगी हैं। इसलिए भारतीय जनता पार्टी चाहे ऐसी चाहत ना रखे, उसकी नाभिनाल के उत्सकेंद्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह विचार भूल नहीं पाया है। संघ को लगता है कि नरेंद्र मोदी में ही वह ताकत है, जो उसके इस वैचारिकता को बढ़ावा दे सके। यानी उसकी निगाह नीतीश कुमार,नवीन पटनायक और ओमप्रकाश चौटाला के जनाधार पर भी है। इसलिए वह गठबंधन को मजबूरी बनाने के चक्कर में नहीं है।

वैसे अभी यह माना जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी को अगर सहयोगी नहीं मिले तो 2014 के समर से पार पाना और सत्ता के शीर्ष पर उसके लिए पहुंचना आसान नहीं होगा। लेकिन एक बात और है। वोटर की उम्र सीमा 18 साल करने के संवैधानिक बदलाव के बाद 1989 में पहली बार चुनाव हुआ था। इस चुनाव में राजीव गांधी ने इन युवाओं से उम्मीद लगा रखी थी, जिन्हें उन्होंने मताधिकार का तोहफा दिया था। लेकिन नतीजे उनके खिलाफ रहे। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि तब आज की तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया नहीं था। इस बार नया मीडिया भी है और टेलीविजन भी है। ब्लॉग और ब्लॉगर भी सक्रिय हैं। इस बार माना जा रहा है कि करीब 11 करोड़ लोग नए वोटर होंगे। भारतीय जनता पार्टी और उसकी नई उम्मीद मोदी को लगता है कि अगर इन युवाओं में से सत्तर फीसदी यानी पौने आठ करोड़ ने भी वोटिंग की तो देश की दिशा बदल जाएगी। इनमें से जिसे पचास फीसदी यानी करीब पौने चार करोड़ वोटरों का साथ मिला, देश की किस्मत लिखने की कलम उसके हाथ होगी। नया और सोशल मीडिया पर मोदी की तरफ से धुआंधार बल्लेबाजी के पीछे यही वजह काम कर रही है। कहना न होगा कि नौजवान वोटरों की फौज भी भारतीय जनता पार्टी में बदलाव का वाहक बन रही है। जिसका असर उसके वैचारिक संघर्ष पर भी पड़ रहा है।  इन सारे बदलावों और वैचारिक आलोड़न के बीच से गुजर रही बीजेपी के बारे में यह मानने में हर्ज नहीं है कि उसके अंदर मौजूदा सत्ता संघर्ष अभी जारी रहेगा। संघ की कोशिश इस सत्ता संघर्ष के बाद नया अमृत पाने की है, जो उसके वैचारिक आधार को मजबूती प्रदान करे। इसके साथ ही ना सिर्फ संघ, बल्कि भारतीय जनता पार्टी को भी सावधान रहना होगा। क्योंकि समुद्र मंथन के बीच से अमृत के साथ विष भी निकला था।

1 comment:

सुबह सवेरे में