Friday, December 5, 2014

बीएचयू विवाद में पुलिस कार्रवाई पर सवाल

उमेश चतुर्वेदी
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्र संघ बहाली के मसले पर हुए छात्र संघर्ष ने हाल के दिनों में रैंकिंग में टॉ तीन में स्थान बनाने वाले इस विश्वविद्यालय के माहौल पर तो सवाल खड़ा किया ही है, उससे बड़ा सवाल इस संघर्ष से निबटने के तरीकों को लेकर उत्तर प्रदेश के प्रशासनिक और पुलिस अमले पर भी उठा है. बड़ा सवाल यह है कि छात्रों के संघर्ष को रोकने और आपसी तनाव को भापने में वाराणसी प्रशासन क्यों चूक गया? उससे भी बड़ा सवाल यह है कि हजारों कीं संख्या वाले विश्वविद्यालय के दो बड़े छात्रावासों बरला और ब्रोचा को सिर्फ दो घंटे में खाली कराने का तुगलकी फरमान पुलिस को क्यों दिया गया? अपनी लाठियों के जरिए मासूम जनता पर क्रूरता के लिए मशहूर उत्तरप्रदेश की पीएसी के जवानों ने जिस तरह लाठी मार-मार कर छात्रावासों को खाली कराया, उससे सवाल यह उठता है कि क्या उत्तर प्रदेश पुलिस अब भी उन्नसवीं सदीं में ही जी रही है? इक्कीसवीं सदीं में चल रही हैदराबाद की पुलिस अकादमी में दी जाने वाली ट्रेनिंग पर भी सवाल उठाने का वक्त गया है, क्योंकि हॉस्टल खाली कराए जाने के प्रशासनिक फैसले के चलते 200 से ज्यादा छात्र घायल हुए हैं. पुलिस लाठियों और बर्बर कार्रवाही से चोर का निशान लेकर ये छात्र पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अपने गांवों में लौट गए हैं. लेकिन उनमें से ज्यादातर के घरवालों का सवाल है कि आखिर उनके बच्चों का क्या दोष था कि उन्हें हल्दी-दूध पिलाकर और मरहम पट्टी करके पीठ-पैर पर पड़े जख्मों को भरने का इंतजार करना पड़ रहा है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपने छात्र जीवन का लंबा वक्त जिन्होंने गुजारा है, उन्हें पता है कि राजनीतिक तंत्र ने यहा के पढ़ाई के माहौल को बर्बाद कर दिया है. इसके बीच पिछले कुछ वर्षों में महामना मालवीय का यह विद्यामंदिर पढ़ाई के बेहतर माहौल के चलते विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में टॉ तीन-चार से स्थान बना रहा था. जिस विश्वविद्यालय ने जयप्रकाश आंदोलन के जरिए राजनीति बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, राष्ट्रीय राजनीति में जिसके छात्र संघ ने मोहन प्रकाश और आनंद कुमार जैसे नाम दिए, जहां के छात्र संघ अध्यक्ष चंचल शतरुद्र प्रकाश, मनोज सिन्हा और भरत सिंह ने स्थान बनाया, जिसकी माटी में पले-बढ़े रामबहादुर राय ने जय प्रकाश आंदोलन से लगायत पत्रकारिता में अपनी छाप छोड़ी, उस विश्वविद्यालय में छात्र संघ का नहीं होना सवाल तो खड़े करेगा ही. इस पर विवाद भी होगा. लेकिन यह हिंसक होगा तो इसकी जिम्मेदारी छात्रों के साथ ही प्रशासन पर भी होगी. दुर्भाग्यवश छात्र संघर्ष के बाद सवालों के घेरे में सिर्फ छात्र ही हैं, जबकि उनसे तिबटने वाले प्रशासनिक तंत्र पर सवाल ही नहीं उठ रहा है.
उत्तर प्रदेश में जब की ऐसे संघर्ष या छात्र आंदोलन होते हैं, पुलिस और प्रशासनिक अमला छात्रों पर ऐसे टूट पड़ता है, मानो वह अब भी अंग्रेज सरकार के निर्देश पर काम कर रहा हो और उसके सामने खड़े छात्र देशी आंदोलनकारी नहीं, दुश्मन देश की हों. ऐसे में छात्रों के साथ बर्बर तरीके से पुलिस निबटने में ही अपनी बड़ाई समझती है. इसमें छात्र घायल हों तो हों, उनके हाथ-पैर टूटे तो टूटें बड़ा सवाल यह है कि ऐसे मौकों पर हर छात्र को दुश्मन की ही तरह प्रशासनिक अमला क्यों देखता है, वह तार्किक फैसले और कार्रवाही क्यों नहीं करता? अव्वल तो ऐसे संघर्षों और हिंसक कार्रवाइयों के लिए कुछ ही छात्र और उनके नेता जिम्मेदार होते हैं? भावी राजनीतिक परिदृश्य में छा जाने और कैरियर बनाने की चिंताएं कुछ-एक छात्रों की ही होती है और संघर्षों में आगे वे ही आते हैं। ज्यादातर की चाहत तो पीछे छोड़ आए छोटी नौकरी करके या अपनी खेती किसकीं से पेट काटकर बचाकर रुपयों के आधर पर पढ़ाई करना और उसके बाद कैरियर बनाकर या नौकरी हासिल करके अपने परिवार का संबल बनाना होती है? अव्वल तो पुलिस के हत्थे संघर्षशील छात्र कम ही चढ़ते हैं, फिर मासूम छात्रों की पिटाई का शिकार बनाया जाना कितना जायज है और उससे भी बड़ी बात यह है कि इक्कीसवीं सदी में उन्नीसवीं सदी के तौर वाली पुलिस कार्रवाही कितनी जायज है?

उत्तर प्रदेश के जब चौधरी चरण सिंह मुख्यमंत्री बने थे तो उन्होंने छात्र संघों को गुंडों का केन्द्र बताकर छात्रसंघ चुनावों पर रोक लगादी थी. हालांकि तब भी विरोध हुआ था. तब भी पुलिस छात्र आन्दोलनों पर बर्बर ढंग से टूटती रही. यह बात और है कि तब भी पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठे थे.अब वक्त गया है कि से आन्दोलनों से निबटने के अपने तरीकों पर पुलिस और प्रशासनिक अमला विचार करें. देश में अब बदलाव की बयार बहाने की चर्चा चल पड़ी है. आखिर इसमें उत्तर प्रदेश को भला क्यों पीछे रहना चाहिए? अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह तय है कि आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश पुलिस के लिए जवाब देना मुश्किल हो जायगा, जैसे नब्बे के दशक में कुछ मुठभेड़ों के लिए पीएसी को जबाव देना परेशानी का सबब बन गया था.

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