Wednesday, April 8, 2015

राजस्थान की अछूत महिला को लंदन से बुलावा

उमेश चतुर्वेदी
कभी वह समाज से उपेक्षित और अछूत थी। कभी हाथों से ही मैला साफ करती थी, रजवाड़ों की नगरी अलवर की उसी महिला को अब लंदन से बुलावा  मिला है। लंदन की यूनिवसिटी आफ पोर्ट्समाउथ में ब्रिटिश एसोसिएशन आफ साउथ एशियन स्टडीज के सालाना कांफ्रेंस में उस अगले हफ्ते भाग लेने के लिए निमंत्रण मिला है। ब्रिटिश एसोसिएशन फॉर साउथ एशियन स्टडीज दक्षिण एशियायी अध्ययन का दुनिया का प्रमुख केंद्र है।अलवर के हजूरीगेट के हरिजन कॉलोनी की 42 साल की उषा चौमूर  अगले हफ्ते ब्रिटेन के नीति निर्माताओं  और बुद्धिजीवियों के बीच स्वच्छता और भारत में  महिला अधिकार विषय पर अपना विचार रखेंगी। उषा जाने-माने एनजीओ सुलभ इंटरनेशनल द्वारा पुनर्वासित किए जाने से पहले हाथों से घर-घर में मैला की सफाई करती थीं। तब उन्हें अछूत माना जाता था। उषा अब हाथ से मैला साफ करने की पुरातन परंपरा से मुक्ति की दिशा में दूसरे लोगों के लिए मोटीवेटर की भूमिका निभा रही हैं। श्रीमती चौमूर भारत में स्वच्छका अभियान की प्रमुख हस्ती और सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ बिंदेश्वर पाठक के साथ इस सम्मेलन में हिस्सा लेंगी । डॉ पाठक को भी इस सम्मेलन के विशेष सत्र को संबोधित करने के लिए बुलाया गया है।
जन्म के साथ ही उषा चौमूर की जिंदगी की कहानी जैसे पहले ही लिख दी गई थी। अशिक्षित और दस साल की उम्र में ही शादी के बंधन में बंध चुकी उषा को जीवन यापन के लिए पीढ़ियों से चले आ रहे  काम में झोंक दिया गया। भारत के जटिल जातीय समाज में सबसे निम्न तबके में अछूत बिरादरी से उषा चौमूर आती हैं। जिसका काम हाथ से उच्च जातियों के घरों से मानव मल की सफाई करना और उसे ढोना था। कई लोगों की नजर में यह अपमानजनक और अछूत का काम था।

भारत में सार्वजनिक शौचालय चलाने वाले सुलभ इंटरनेशनल ने सैकड़ों सफाईकर्मियों और मैला ढोने वाले लोगों को उनके पीढ़ीगत अपमानजनक काम से बाहर निकालने में अहम भूमिका निभाई है। इसके तहत सुलभ सफाईकर्मियों को कढ़ाई-सिलाई, अचार और नूडल बनाने की ट्रेनिंग देकर उन्हें समाज की मुख्यधारा में सम्मान से जीने की दिशा में अहम भूमिका निभाई है। राजस्थान के दो शहरों टोंक और अलवर में सुलभ के अभियान के चलते सैकड़ों सफाईकर्मी अब छोटे-मोटे व्यवसायी हो गए हैं और उन्हें अब ब्राह्मण परिवारों तक से चाय पीने और शादियों में शामिल होने के लिए बुलावा मिलता है। कभी सफाईकर्मी रही महिलाएं अब अचार और पापड़ बनाती हैं। कई तो ब्यूटिशियन तक का काम करती हैं और उन्हें बड़ी जातियों तक के घरों से फेसियल करने के लिए बुलावा मिलता है। सुलभ का कहना है कि अस्पृश्यता खत्म करने के लिए कड़े कानून बनाने की बजाय सरकार को अछूतों को मुख्यधारा में लाने के लिए इस मॉडल को अपनाना चाहिए।
वैसे अब भी देश में लाखों घरों में अब भी शौचालय की व्यवस्था नहीं है और हजारों महिलाएं हाथों के जरिए खुले शौचालयों से मैला साफ करने को मजबूर है। चार दशकों से ज्यादा वक्त से डॉक्टर पाठक लगातार अस्पृश्यता के खिलाफ अभियान चलाए हुए हैं। इसके तहत वे देशभर में तमाम रचनात्मक कार्यों और सफाईकर्मियों की बेहतर ट्रेनिंग के जरिए उन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिश जारी रखे हुए हैं। सुलभ इंटरनेशनल देशभर में सफाईकर्मियों के लिए ट्रेनिंग कार्यक्रम चला रही है। ताकि वे मैला ढोने के घिनौने और अमानवीय कार्य से मुक्त होकर सम्मानित जीवन जी सकें।

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