Friday, April 17, 2015

इस एकता के बावजूद बचे रहेंगे कई पेच

उमेश चतुर्वेदी
(दैनिक जागरण राष्ट्रीय और राज एक्सप्रेस में प्रकाशित)
लोहिया ने पचास के दशक में समाजवादियों को एक मंत्र दिया था, सुधरो या टूट जाओ। लोहिया के नाम पर बार-बार सिर्फ राजनीतिक कसमें खाने वाले भारतीय समाजवादियों ने सुधरने की सीख को उतना आत्मसात नहीं किया, जितना टूटने वाले पाठ को अंगीकार किया। समाजवादी राजनीति की जब भी चर्चा होती है, एक पुराना फिल्मी गीत बरबस मन में गूंजने लगता है- इस दल (दिल) के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा, कोई यहां गिरा। लेकिन समाजवाद की धारा पर चलने वाले जनता परिवार रूपी समाजवाद के दिल से अलग होकर जितने टुकड़े हो चुके हैं, उन्होंने अब एक होने का फैसला कर लिया है।

बीस साल पहले बिहार की राजनीति में लालू यादव बड़े भाई की भूमिका में होते थे तो नीतीश कुमार को उनके छोटे भाई के तौर पर मान्यता थी। लालू यादव ने बड़े भाई की भूमिका निभा दी है। उनकी अगुआई वाला राष्ट्रीय जनता दल एका के पक्ष में आधिकारिक प्रस्ताव पारित करने वाला पहला दल बन गया है। ऐसे में छोटे भाई कैसे पीछे रहते। नीतीश कुमार की अगुआई वाले जनता दल-यू ने भी विलय के पक्ष में प्रस्ताव पास कर दिया है। अब देखना यह है कि मुलायम सिंह यादव की अगुआई वाली समाजवादी पार्टी कब एका का प्रस्ताव पास करती है। वैसे तो जनता परिवार में विलय के प्रति आस्था जताने वालों में जनता दल-सेक्युलर वाले हरदनहल्ली डोड्डेगौड़ा देवगौड़ा भी शामिल हैं और शिक्षक भर्ती घोटाले में तिहाड़ जेल में सजा काट रहे ओमप्रकाश चौटाला के इंडियन नेशनल लोकदल ने भी विलय के लिए हामी भर दी है। हां, इसी जनता परिवार का कभी हिस्सा रहे बीजू पटनायक के नाम पर चल रही पार्टी बीजू जनता दल के नेता नवीन पटनायक ने इस एका में दिलचस्पी नहीं दिखाई है। केंद्र सरकार में सहयोगी राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा भी कभी जनता परिवार के अंग थे। लेकिन उन्हें तो इस एकता में भी खोट नजर आ रही है। जनता परिवार के अहम स्तंभ रहे रामविलास पासवान भी मोदी की ही अगुआई में केंद्रीय सत्ता का रसास्वादन कर रहे हैं।
पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों में एक कहावत प्रचलित है, बांस और वंश एक जगह नहीं रहते। कहने का मतलब यह है कि बांस का एक पौधा लगाओ तो वह फैलकर कोठी बन जाता है। इसी तरह वंश यानी औलाद में एकता रहना मुश्किल है। लेकिन जहां परिवार में एकता होती है, उस परिवार की बलैया लेने और उसकी कसमें खाने में भी गांव पीछे नहीं रहता। लेकिन सवाल यह है कि क्या सचमुच दिल से जनता परिवार एक होने की तैयारी में है और क्या उनकी यह एकता बनी रह पाएगी। फिर क्या गारंटी है कि लोहिया की दूसरी यानी टूटने की सीख को यह परिवार छोड़ देगा और जब आपसी अहम का टकराव होगा, तब भी यह एकता बनी रहेगी। देश के गरीबों-मजलूमों को उनका हक दिलाने के लिए इस परिवार के नेता अपने निजी अहंकार को परे रख पाएंगे ?
अव्वल तो जनता परिवार की इस एकता का राग केंद्रीय राजनीति में मोदी के उभार के बाद ही तब सामने आया, जब 1990 के बाद उभरी स्थानीय राजनीतिक ताकतों को आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने धूल चटा दी। तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल को छोड़ दें तो तकरीबन देश के हर इलाके में वोटों का जो नया समीकरण और गणित उभरा, उसने करीब ढाई दशक से चल रहे वोटिंग पैटर्न को बदल दिया। इससे स्थानीय स्तर पर उभरे मुलायम, लालू, देवेगौड़ा, चौटाला जैसे क्षत्रपों को अपनी जमीन ही खिसकती नजर आने लगी। अव्वल तो ये राजनीतिक ताकतें स्थानीय स्तर पर अपनी-अपनी ही जातियों की अगुआई तक ही सिमट गई हैं। बेशक साठ के दशक में लोहिया के दिए नारे सौ में साठ की हिस्सेदारी ने इन क्षत्रपों को स्थानीय स्तर पर उभरने में राजनीतिक आधार भले ही मुहैया कराया, लेकिन यह भी सच है कि जैसे-जैसे इनकी ताकत बढ़ती गई, उन्होंने अपने जातीय आधार को ही मजबूत करना शुरू किया। लालू यादव लाख दावे कर लें कि वे लोहिया और जयप्रकाश के अनुआई हैं, लेकिन उन्हें सिर्फ बिहार में ही नेता माना जाता है और उनका राजनीतिक आधार उनका यादव वोटबैंक ही है। लेकिन उनकी पड़ोस के उत्तर प्रदेश और झारखंड के भी यादवों में अपील नहीं है। इसी तरह मुलायम सिंह यादव को भी उत्तर प्रदेश में मोटे तौर पर यादवों का ही नेता माना जाता है। इसी तरह ओमप्रकाश चौटाला को भी हरियाणा मे ही जाटों का नेता माना जाता है। दिलचस्प यह है कि जाट समुदाय से होने के बावजूद उन्हें हरियाणा से सटे उत्तर प्रदेश के जिलों में भी समर्थन हासिल नहीं होता। मथुरा, मेरठ, सहारनपुर आदि जगहों पर उन्होंने 2002 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में अपने उम्मीदवार उतारे थे। लेकिन ज्यादातर की जमानत जब्त हो गई थी। इसी तरह देवेगौड़ा की पहचान सिर्फ कर्नाटक के अपने ही वोक्कालिगा समुदाय में ही है। यहां एक ऐतिहासिक तथ्य की तरफ ध्यान दिलाए जाने की भी जरूरत है। जयप्रकाश आंदोलन में ये तमाम नेता या उनके परिवार के बड़े बुजुर्ग शामिल थे। तब जयप्रकाश को इनसे सामाजिक बदलाव की उम्मीद थी। लेकिन तब कांग्रेस छोड़कर जयप्रकाश के साथ आए चंद्रशेखर का नजरिया इन नेताओं को लेकर साफ था। उन्होंने जयप्रकाश को लिखे एक खत में कहा था कि जिन्हें वे सामाजिक बदलाव का माध्यम मानते हैं, वे एक दिन अपनी जातियों के ही नेता साबित होंगे। इतिहास ने साबित किया है कि चंद्रशेखर सही थे। यह बात और है कि इन नेताओं की जातिवादी राजनीति का विरोध करने वाले चंद्रशेखर ने इन्हीं के सहारे 1996 से लेकर 2004 तक की संसदीय यात्रा पूरी की।
इन नेताओं के परिवारवाद को छोड़ दें तो इन्होंने सही मायने में समाजवादी सोच और दर्शन को ही नुकसान पहुंचाया है। एक दौर था कि विचारधारा के तौर पर समाजवादी सोच सबसे बेहतर मानी जाती थी। भारतीय संविधान की प्रस्तावना तक में समाजवादी शब्द जोड़ा गया। लेकिन समाजवाद का दंभ भरने वाली राजनीतिक धाराएं कालांतर में पारिवारिक प्राइवेट लिमिटेड पार्टियों में तब्दील होती गईं। इसके चलते उनके स्थानीय क्षत्रपों का गैरजातीय राजनीतिक आधार छिटकना शुरू हुआ। इसकी परिणति 2014 के चुनाव के तौर पर हुई। इस चुनाव ने राजनीतिक पंडितों की उस भविष्यवाणी को भी खारिज किया, जो 1990 से मानने लगे थे कि भारत में स्थानीय क्षत्रपों की ही ताकत बढ़ेगी। इसे एक मायने में संघवाद के विकास से भी जोड़कर देखा गया। लेकिन अपरिहार्य मानी जाने वाला यह विचार 2014 में धाराशायी हो गया। यह तो शुक्र है कि भारतीय जनता पार्टी की भारी जीत के बावजूद यह आरोप नहीं लगा कि भारतीय मतदाता केंद्रीकृत एकात्मक राजनीतिक व्यवस्था की तरफ बढ़ रहा है।
बेशक इस परिवार में शामिल होने वाले नेताओं की राजनीति एक-दूसरे के स्थानीय आधार वाले इलाके में नहीं टकराएगी। लेकिन इससे यह नहीं होने वाला है कि अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में वे वोटों के बिखराव को रोक पाएंगे। देवेगौड़ा से एकता का फायदा बिहार में लालू-नीतीश कैसे उठाएंगे या फिर मुलायम सिंह को कैसे लाभ होगा। इसके उलट भी इसे समझा जा सकता है कि मुलायम के साथ से कर्नाटक में देवेगौड़ा और हरियाणा में चौटाला को कैसे फायदा होगा। रही बात बिहार में फायदे की तो इस विलय से उम्मीद लगाए बैठे लोग यह भूल गए हैं कि पिछले बीस साल में नीतीश और लालू यादव के समर्थक अलग-अलग कैडर के तौर पर विकसित हो चुके हैं। शायद ही कोई विधानसभा सीट हो, जहां दोनों के अपने नेता और कार्यकर्ता न हों। जाहिर है कि उन्होंने चुनावी राजनीति से अपने लिए अलग-अलग उम्मीदें लगा रखीं है। लेकिन विलय के बाद आरजेडी या जेडीयू खेमे में से किसी एक ही चुनावी मौका मिलेगा। इसका ज्यादातर हश्र यह होगा कि जिस धड़े या व्यक्ति के हाथ से टिकट छिनेगा, वह या तो मायूस होकर घर बैठ जाएगा या फिर भीतरघात करेगा। रही बात राज्य के सवर्ण मतदाताओं की तो उसे लालू का नाम अब भी डराता है। पिछले विधानसभा चुनावों तक वह लालू विरोध के नाम पर ही नीतीश के पीछे गोलबंद होता रहा है। लेकिन इस बार चूंकि नीतीश खुद लालू के साथ हैं तो वह नीतीश के साथ जाने से हिचकेगा। इसलिए कुछ दिनों बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में नीतीश-लालू के संयुक्त परिवार को फायदा शायद ही मिल पाए।

एक बात और है कि इस परिवार में कम से कम तीन नेता ऐसे हैं, जिनकी निगाह प्रधानमंत्री पद पर है। नीतीश कुमार और मुलायम सिंह यादव ने जहां प्रधानमंत्री बनने का सपना देखा है, वहीं 1996 में विनम्र किसान के नाम से खुद को प्रचारित करने वाले देवेगौड़ा अब भी कहीं न कहीं प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद पाले हुए हैं। इसलिए इस बात की गारंटी नहीं दी जा सकती कि खुदा न खास्ता अगर जनता परिवार में एका हो गया और चुनावी समर वह पार कर भी गया तो एक रह पाएगा और टूट जाने वाले लोहिया की सीख को भुला देगा। 

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