Monday, May 9, 2016

उत्तराखंड में किस करवट बैठेगा राजनीतिक ऊंट



उमेश चतुर्वेदी
दुनियाभर के लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था वाले समाजों में आखिरी उम्मीद की किरण न्यायपालिका कितनी बन पाई है, यह शोध का विषय है। लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें तो भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका ही आखिरी उम्मीद की किरण बनकर उभरी है। हाल के दिनों आए जजों की नियुक्ति वाली कोलेजियम को बहाल करने वाले फैसले को छोड़ दें तो अभी-भी सर्वोच्च न्यायपालिका इंसाफ की आखिरी उम्मीद बनी हुई है। उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार के बहुमत परीक्षण कराने का आदेश भी कम से कम कांग्रेस पार्टी के लिए आखिरी उम्मीद की ही तरह आया है। इसलिए वह इसे लोकतंत्र की जीत बताते नहीं अघा रही है। अपने समाज में चूंकि न्यायिक फैसलों की आलोचना की परंपरा नहीं है, लिहाजा अगर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला नहीं भी आता तो यही कांग्रेस दुखी होने के बावजूद भी उस फैसले को लोकतंत्र की हार नहीं बताती। लेकिन यह तय है कि लोकतंत्र की असल जीत या हार इस फैसले से नहीं, बल्कि 10 मई को देहरादून में विधानसभा के पटल पर होगी। अगर हरीश रावत जीत गए तो निश्चित तौर पर कांग्रेस के लिए झूमने का मौका होगा। सत्ता तंत्र में लगातार छीजती जा रही कांग्रेस की उत्तर भारत में एक और सरकार लौट आएगी। लेकिन अगर हार हो गई तो इसमें कोई दो राय नहीं कि देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए वे क्षण बेहद दुखद होंगे।

आजाद भारत के इतिहास में उत्तराखंड को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक है। ऐतिहासिक इन अर्थों में सिर्फ दस मई को दो घंटे के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राज्य से राष्ट्रपति शासन हटाया जाएगा। इस दौरान विधानसभा की कार्यवाही की हर कोण से वीडियो रिकॉर्डिंग की जाएगी। ताकि विवाद की हालत में अगर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो उसकी बारीकी से पड़ताल की जा सके और अगर गड़बड़ी हुई तो उसे करने वाले की जवाबदेही तय की जा सके। संविधान विधानसभाओं की कार्यवाही को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए नियमावली के तहत स्वात्तता के अधिकार का संरक्षण करता है। लेकिन हाल के दिनों में विधानसभा की कार्यवाही को लेकर न्यायिक हस्तक्षेप की गुंजाइश बढ़ गई है। याद कीजिए 1998 के आम चुनावों के ठीक पहले की घटना को। अब उत्तर प्रदेश के डुमरियागंज से सांसद जगदंबिका पाल भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं। 19 साल पहले उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह की सरकार को तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने रातोंरात बर्खास्त कर दिया था और उन दिनों के कांग्रेसी नेता जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री बना दिया था। तब आज के कांग्रेस की तरह भारतीय जनता पार्टी ने उस घटना को लोकतंत्र की हत्या करार दिया था। रोमेश भंडारी के कृत्य के खिलाफ तब भारतीय जनता पार्टी ना सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर गई थी। बल्कि अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में प्रधानमंत्री निवास के बाहर भारतीय जनता पार्टी के सांसदों ने धरना दिया था। वाजपेयी जी खुद अनशन पर थे। शाम को उनका अनशन तुड़वाने के लिए खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल अपने राजकीय आवास के बाहर निकले थे और उन्हें जूस पिलाकर अनशन तुड़वाया था। तब कोर्ट के आदेश पर ही कोर्ट द्वारा तैनात पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में उत्तर प्रदेश विधानसभा की कार्यवाही चली थी। जिन राजनेताओं से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अमर सिपाहियों ने आजाद भारत में प्रेरक भूमिका की उम्मीद की थी, वे राजनेता विधानसभा में अपनी सीटों पर सुप्रीम कोर्ट के डर से प्रेरक भूमिका निभाने के लिए मजबूर हुए थे और कल्याण सिंह की सरकार फिर से बहाल हुई थी। निश्चित तौर पर विधानसभा में इस जीत और बाहर चले राजनीतिक उठापटक के घटनाक्रम ने भारतीय जनता पार्टी के प्रति सहानुभूति का एक माहौल तैयार किया था। जाने-अनजाने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से दूर रखने की चाहत वाली पार्टियों ने भारतीय जनता पार्टी का आधार बनाने के लिए मजबूत राह तैयार कर दी थी। जिसका नतीजा अगले ही आम चुनावों में दिखा और भारतीय जनता पार्टी केंद्रीय सत्ता पर काबिज हो गई।
तो क्या यह मान लिया जाय कि 1997 में उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहे उत्तराखंड की घटनाओं से कांग्रेस ने भी वैसी ही उम्मीद लगा रखी है। इस सवाल का जवाब तो अगले साल होने वाले राज्य विधानसभा के चुनाव के नतीजे ही देंगे। रही बात केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस की वापसी की तो अभी आम चुनावों में तीन साल का लंबा वक्त है। तब तक गंगा, ब्रह्मपुत्र और कावेरी जैसी बड़ी नदियों में काफी पानी बह चुका होगा। लेकिन यह जरूर तय है कि अगर हरीश रावत की सरकार बहाल होती है या विधानसभा में उसे जीत हासिल होती है तो निश्चित तौर पर केंद्र की मोदी सरकार की साख को चोट पहुंचेगी। बेशक एक चैनल के स्टिंग में विधायकों को घूस देने को लेकर हरीश रावत एक्सपोज हुए हैं। अब तक बनी-बची रही भले आदमी की उनकी शख्सियत को चोट भी पहुंची है। सीबीआई उनसे पूछताछ भी कर रही है। इससे उनकी साख भी कमजोर हुई है। उत्तराखंड के शराब माफिया को लेकर जिस तरह फायदे पहुंचाने के किस्से सामने आ रहे हैं, उससे रावत भी सवालों के घेरे में हैं। रावत की छवि को कितना नुकसान पहुंचा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड के जंगलों में करीब 2300 हेक्टेयर तक फैली आग के पीछे रावत के सहयोगियों के षडयंत्र को लेकर आम जनता में किस्से सुनाए जा रहे हैं।
वैसे उत्तराखंड में रावत की भाग्य का फैसला काफी हद तक उनकी पार्टी के कद्दावर नेता हरक सिंह रावत की अगुआई में बागी हुए नौ विधायकों की किस्मत पर भी निर्भर करने वाला था। जिन्हें राहत देने से पहले उत्तराखंड हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट ने मना कर दिया। ऐसे में हरीश रावत की वापसी तकरीबन निश्चित मानी जा रही है। क्योंकि 62 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत के लिए हरीश रावत को महज 32 वोटों की ही जरूरत होगी। अभी कांग्रेस के पास 28 विधायक हैं। जबकि बीजेपी के भी पास इतने ही विधायक हैं। लेकिन पीडीएफ के छह और नामित इकलौते विधायक का समर्थन कांग्रेस को ही है। इस लिहाज कांग्रेस के पास पैंतीस विधायकों का समर्थन है। दूसरे स्टिंग में फंसने के बाद हरीश रावत सवालों के घेरे में हैं और भारतीय जनता पार्टी ने पीडीएफ विधायक दल में तोड़फोड़ करने के लिए पूरा जोर लगा रखा है।
उत्तराखंड जैसी घटनाओं ने जो सबसे गहरा सबक दिया है, उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। ऐसी घटनाओं से राजनीतिक वर्ग के प्रति जनता में अविश्वास की एक और गहरी परत चढ़ गई है। जिसके चलते न्यायिक संस्थानों को विधानसभा तक की कार्यवाही में दखल देना पड़ रहा है। अब राजनीतिक दलों, उनके रहनुमाओं को सोचना होगा कि वे ऐसा आचरण करें, ताकि न्यायिक संस्थाओं को उनके द्वारा सुशोभित होने वाली विधायिकाओं के काम में हस्तक्षेप करने का न्यूनतम मौका मिले। यही लोकतंत्र के हित में होगा।

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