Tuesday, August 5, 2008

भोजपुरी-मैथिली अकादमी का उद्घाटन

उमेश चतुर्वेदी
दिल्ली विधानसभा की चुनावी आहट के बीच आखिरकार भोजपुरी मैथिली अकादमी का शुभारंभ हो ही गया। दिल्ली के श्रीराम सेंटर में पांच अगस्त की शाम जिस तरह पूरबिया लोग जुटे, उससे साफ है कि राजधानी की सांस्कृतिक दुनिया में अब भदेसपन के पर्याय रहे लोग अपनी छाप छोड़ने के लिए तैयार हो चुके हैं। राजधानी में चालीस लाख के करीब भोजपुरी और पूरबिया मतदाता हैं। जाहिर है दिल्ली सरकार की इस पर निगाह है। एक साथ मतदाताओं के इतने बड़े वर्ग को नजरअंदाज कर पाना आसान नहीं होगा। लिहाजा उन्हें भी एक अकादमी दे दी गई है। इस अकादमी के उद्घाटन समारोह की सबसे उल्लेखनीय चीज रही संजय उपाध्याय के निर्देशन में पेश विदेसिया की प्रस्तुति। भोजपुरी के भारतेंदु भिखारी ठाकुर की इस अमर रचना को संजय की टीम ने जबर्दस्त तरीके से पेश किया। खासतौर पर प्राण प्यारी की भूमिका में शारदा सिंह और बटोही की भूमिका में अभिषेक शर्मा का अभिनय शानदार रहा।
लेकिन इस उद्घाटन में खटकने वाली बात ये रही कि पूरी तरह सांस्कृतिक इस मंच को सियासी रंग देने की पुरजोर कोशिश की गई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपने निर्धारित वक्त से करीब तीन घंटे देर से पहुंचीं। और आखिर में मंच पर वे ही वे रहीं। अगर किसी ने उनका साथ दिया तो अकादमी के सदस्यों और उपाध्यक्ष ने। सांस्कृतिक मंच को सियासी को सियासी रंग देने मे आगे रहे अकादमी के सदस्य अजित दुबे - उन्होंने एक तरह से मौजूद दर्शकों से अपील ही कर डाली कि जो लोग आपके मान सम्मान का खयाल करते हैं - उनका खयाल आप भी रखिए। यानी शीला दीक्षित को नवंबर के विधानसभा चुनावों में वोट दीजिए।
उद्घाटन समारोह में एक बात और बार-बार खटकी। इस समारोह को भोजपुरी या मैथिली से ना जोड़कर बिहार से जोड़ दिया गया। भोजपुरी भाषा संस्कृति सिर्फ बिहार में नहीं है - बल्कि बस्ती से लेकर गोरखपुर, बलिया होते हुए बनारस तक उत्तर प्रदेश का एक बड़ा इलाका भोजपुरी भाषी है और राजधानी में वहां के बाशिंदे भी बहुत हैं। भोजपुरी का पर्याय बिहार नहीं है। अकादमी को ये सोचना होगा - अन्यथा आने वाले दिनों कई तरह की समस्याएं उठ खड़ी होंगी।

Friday, August 1, 2008

चला गया गठबंधन राजनीति का चाणक्य


उमेश चतुर्वेदी
राजनीति की दुनिया में शिखर पर हों और अदना से पत्रकार के फोन पर भी सामने आ जाएं - कम से कम आज की सियासी दुनिया में ऐसा कम ही नजर आता है। लेकिन हरिकिशन सिंह सुरजीत इनसे अलग थे। उनके गुजरने के बाद भी उनके घर के फोन की घंटी तो बजेगी - लेकिन खास अंदाज में ये..स की आवाज सुनाई नहीं देगी। सुरजीत जब तक स्वस्थ रहे, अपना फोन खुद ही उठाते थे। खास ढंग से येस की आवाज सुनाई देते ही एक आश्वस्ति बोध जागता था कि दार जी इंटरव्यू के लिए तैयार हो जाएंगे। ऐसे कई मौके आए भी - जब उन्होंने इंटरव्यू देने से इनकार कर दिया, लेकिन कभी बुरा नहीं लगा।
दैनिक भास्कर के राजनीतिक ब्यूरो में काम करते वक्त सबसे जूनियर होने के नाते सीपीएम और सीपीआई मेरी ही बीट थी। आज का तेज बढ़ता अखबार जब तक मध्यप्रदेश और राजस्थान की ही सीमा में रहा,सीपीएम और सीपीआई से जुड़ी खबरों पर उसका न तो ज्यादा ध्यान था, ना ही उसकी जरूरत थी। नब्बे के दशक के आखिरी दिनों में इस बीट में कोई ग्लैमर भी नहीं था, लिहाजा तब के दैनिक भास्कर के वरिष्ठ और नामी रिपोर्टर शायद ही कभी दोनों पार्टियों की ओर रूख करते थे। ऐसे में नया होने के चलते मुझे ही ये बीट मिली। तभी मैंने जाना कि जिसे भारतीय राजनीति का चाणक्य कहा जाता है, वह निजी जिंदगी में कितना सहज है। ये स्थिति सीपीआई के महासचिव एबी वर्धन के भी साथ है। भारतीय राजनीति का चाणक्य उन्हें ऐसे ही नहीं कहा जाता था। गैर कांग्रेसवाद की लहर पर सवार विपक्ष को जब 1996 के चुनावों में बहुमत नहीं मिला तो यह सुरजीत ही थे, जिनकी वजह से देवेगौड़ा की अगुआई में कांग्रेस और वाम समर्थित सरकार बनी। जब देवेगौड़ा से नाराज होकर कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने संयुक्त मोर्चा की सरकार से समर्थन वापस ले लिया, तब भी सुरजीत ने हार नहीं मानी और इंद्रकुमार गुजराल की अगुआई में दूसरी सरकार बनाई। तब उनका एक उद्देश्य सांप्रदायिकता के नाम पर किसी भी कीमत पर भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में नहीं आने देना था। कहना न होगा , सुरजीत इसमें कामयाब रहे।
लेकिन दुर्भाग्यवश इंद्रकुमार गुजराल की भी सरकार नहीं टिक पाई। 1998 में मध्यावधि चुनाव हुए और भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में एनडीए को बहुमत मिला। सुरजीत की तमाम कोशिशों के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। लेकिन 1999 में जब एक वोट से वाजपेयी सरकार गिर गई तो गैर कांग्रेसवाद का झंडा बुलंद करने वाले सुरजीत ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने की पुरजोर लेकिन नाकामयाब कोशिश की। दरअसल उनके ही चेले मुलायम सिंह ने कांग्रेस का साथ देने से इनकार कर दिया था। तब सुरजीत की सोनिया लाइन की सीपीएम में भी जमकर मुखालफत हुई। कई सांसदों ने खुद मुझसे सुरजीत की इस लाइन का विरोध जताया था। यहां यह ध्यान देने की बात है कि इन्हीं सुरजीत ने पार्टी के तेजतर्रार सांसद सैफुद्दीन चौधरी को 1996 में पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। उनका गुनाह सिर्फ इतना था कि 1995 में हुए पार्टी के चंडीगढ़ कांग्रेस में उन्होंने सांप्रदायिकता से लड़ने के लिए सीपीएम को कांग्रेस की लाइन पर चलने का सुझाव दिया था। तब पार्टी सैफुद्दीन चौधरी के इस सुझाव को पचा नहीं पाई और उनका टिकट तक काट दिया था। आज जब सोमनाथ चटर्जी को सीपीएम से निकाल दिया गया है – एक बार फिर सैफुद्दीन चौधरी की लोगों को याद आ रही है। लेकिन तीन ही साल में सुरजीत बदल गए।
तब सुरजीत भले ही कामयाब नहीं रहे। लेकिन उनकी बनाई नींव पर ही 2004 में एनडीए का इंडिया शाइनिंग का नारा ध्वस्त हो गया और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी। तब सुरजीत ही थे कि सांप्रदायिकता विरोध के बहाने सोनिया गांधी के घर डिनर पर समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह को लेकर गए थे। यह बात दीगर है कि तब सोनिया ने सुरजीत की उपस्थिति के बावजूद अमर सिंह से सीधे मुंह बात भी नहीं किया था। यह संयोग ही है कि सुरजीत की पार्टी अब सोनिया की अगुआई वाली कांग्रेस से अलग हो गई है और अमर सिंह पूरी पार्टी समेत कांग्रेस के साथ हैं।
वामपंथी राजनीति के इस महायोद्धा से मैंने मार्च 2000 में जो इंटरव्यू किया था, वह बंगला और मलयालम के पत्रकारों तक को आज भी याद है। दैनिक हिंदुस्तान में 26 मार्च 2000 को यह इंटरव्यू छपा था। इसी इंटरव्यू में उन्होंने बतौर सीपीएम महासचिव पहली बार स्वीकार किया था कि बुद्धदेव भट्टाचार्य ही ज्योति बसु के उत्तराधिकारी होंगे। इस इंटरव्यू में मैंने उनसे कई तीखे सवाल पूछे थे। जिसमें एक सवाल था कि आपके यहां जब तक भगवान नहीं हटाता, तब तक सीपीएम महासचिव के पद से कोई नहीं हटता। ऐसे तीखे सवाल का जवाब भी उन्होंने हंसते हुए दिया था। लेकिन उन्होंने मेरे इस सवाल को दो हजार पांच में ही झुठला दिया। जब प्रकाश करात को सीपीएम की बागडोर थमा दी गई।
अब सुरजीत हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन गठबंधन राजनीति के इस चाणक्य की याद हमेशा आती रहेगी।

Tuesday, July 29, 2008

अमर सिंह का समाजवाद

उमेश चतुर्वेदी
गैर कांग्रेसवाद की सियासी घुट्टी के साथ राजनीति की दुनिया में पले-बढ़े मुलायम सिंह यादव के कांग्रेसीराग ने हलचल मचा दी है। इसे न तो उनके दोस्त समाजवादी पचा पा रहे हैं और न ही उनके दुश्मन। सबसे ज्यादा हैरत में उनके साथ समाजवाद को ओढ़ना-बिछौना बनाए रखे उनके दोस्तों को हो रही है। वे एक ही सवाल का जवाब ढूंढ़ रहे हैं कि आखिर वह कौन सी वजह रही कि चार साल से संसद और सड़क – दोनों जगहों पर अमेरिका को पानी पी-पीकर गाली देते रहे मुलायम सिंह को अमेरिका के साथ परमाणु करार में राष्ट्रीय हित नजर आने लगा है। यह राष्ट्रीय हित इतना बड़ा हो गया है कि उनके चेले और दोस्त तक उनका साथ छोड़-छोड़कर निकलते जा रहे हैं। लेकिन मुलायम सिंह की पेशानी पर बल भी नहीं दिख रहा है। अमर सिंह की मुस्कान और चौड़ी होती जा रही है। शाहिद सिद्दीकी और एसपी बघेल समेत मुलायम सिंह के छह सांसदों को अमर सिंह के ब्रांड वाले समाजवाद का चोला उतार गए हैं।
समाजवादी पार्टी को कवर करने वाले पत्रकारों को पता है कि अमर सिंह ऑफ द रिकॉर्ड संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की नेता और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बारे में कैसे विचार रखते रहे हैं। पानी पी-पीकर कांग्रेस को गाली देने वाले अमर सिंह ना सिर्फ बदल जाएं, बल्कि एक जमाने के धरती पुत्र मुलायम सिंह जैसे कद्दावर नेता को भी बदलने के लिए मजबूर कर दें तो सवाल उठेंगे ही। इसकी वजह पूरा देश जानना चाहेगा। सवाल तो ये भी है कि अमर सिंह की हालिया अमेरिका यात्रा के दौरान आखिर ऐसा क्या हुआ कि समाजवादी पार्टी का रूख एकदम से बदल गया। या फिर अमेरिकी हवा की तासीर ही ऐसी है कि वहां जाने वाला करार-करार चिल्लाने लगता है। इसका जवाब तो अमर सिंह ही दे सकते हैं या फिर मुलायम सिंह।
सवालों की वजह भी है। जब से मनमोहन सिंह की अगुआई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार चल रही है, मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी अमेरिका का विरोध करते रहे हैं। संसद में कभी ईरान के मसले पर तो कभी इराक तो कभी अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप का समाजवादी पार्टी वामपंथियों के साथ पुरजोर विरोध करती रही है। दरअसल समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश में जो वोट बैंक रहा है, उसमें पिछड़े और मुस्लिम तबके की भागीदारी रही है। बाबरी मस्जिद पर 1990 में पुलिस कार्रवाई के बाद से तो सूबे का मुसलमान मुलायम सिंह को ही अपना नेता मानता रहा है। कहा तो ये जा रहा है कि समाजवादी पार्टी पिछले विधानसभा चुनाव की हार को अब तक पचा नहीं पाई है। इस चुनाव में करीब चालीस प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं ने समाजवादी पार्टी का साथ छोड़ बहुजन समाज पार्टी का दामन थाम लिया। जिसका खामियाजा समाजवादी पार्टी की सत्ता से बाहर होकर चुकाना पड़ा। यही वजह रही कि संसद से लेकर सड़क तक – हर मौके पर पार्टी ने अपने मुस्लिम मतदाताओं का ध्यान रखा। ईरान को लेकर अमेरिकी नजरिए को लेकर आज भी भारत का आम मुसलमान पचा नहीं पाता। उसे अमेरिकी रवैये को लेकर क्षोभ और नाराजगी भी रहती है। इराक में अमेरिकी कार्रवाई को देश के वामपंथियों और मुसलमानों – दोनों ने कभी स्वीकार नहीं किया। जाहिर है मुलायम सिंह को अपने वोटरों की परवाह रही और उनकी पार्टी संसद में अमेरिका को इराक का हत्यारा तक बताती रही है। अमेरिका विरोध का एक भी मौका समाजवादी पार्टी ने नहीं खोया है। सरकार चलाते हुए भी उसने लखनऊ में अमेरिका विरोधी रैली भी आयोजित की थी।
यही वजह रही कि समाजवादी पार्टी संसद के पिछले बजट सत्र तक अमेरिका से करार का विरोध करती रही। लेकिन अब उसका सुर बदल गया है। वह कांग्रेस के नजदीक आ गई है और अपने अपमान तक भुला बैठी है। पिछले साल 22 फरवरी को लखनऊ में मुलायम सिंह समेत पूरी पार्टी दम साधे कांग्रेस सरकार के हाथों अपनी राज्य सरकार की बर्खास्तगी का आशंकित इंतजार कर रही थी। तब समाजवादी पार्टी के लोगों को कांग्रेस के लिए गालियां ही सूझ रही थीं। राज्यपाल टीवी राजेश्वर के खिलाफ वाराणसी में समाजवादी पार्टी की यूथ विंग ने प्रदर्शन भी किया और कांग्रेस के एजेंट के तौर पर काम करने का आरोप भी लगाया। ऐसे आरोप मुलायम सिंह भी लगाते रहे हैं। लेकिन अब पूरी तस्वीर बदल गई है।
मुलायम सिंह यादव की पूरी सियासी यात्रा संघर्षों के साथ आगे बढ़ी है। सड़क से लेकर विधानसभा से होते हुए संसद तक संघर्ष का उनका अपना इतिहास रहा है। उन्हें धरतीपुत्र कहने की यही अहम वजह भी रही है। लेकिन जब से उनके साथ सोशलाइट अमर सिंह का साथ मिला है, मुलायम सिंह की भी संघर्ष क्षमता पर आंच आने लगी है। राजबब्बर ने पिछले साल जब समाजवादी पार्टी से विद्रोह किया था तो उन्होंने बड़ा मौजूं सवाल उठाया था। उनका कहना था कि आखिर क्या वजह रही कि रघु ठाकुर और मोहन प्रकाश जैसे तपे-तपाए जुझारू नेताओं को मुलायम सिंह का साथ छोड़ना पड़ा और अमर सिंह उनके करीब होते गए। रघु ठाकुर राजनीतिक बियाबान में अपनी अलग पार्टी चला रहे हैं, जिसका नाम अब भी कम ही लोगों को पता होगा और मोहन प्रकाश अब कांग्रेस के प्रवक्ता की जिम्मेदारी निभा रहे हैं।
दरअसल अमर सिंह के साथ ही पार्टी के संघर्षशील चरित्र में कमी आती गई। ऐसा नहीं कि पार्टी में आए इन बदलावों से मुलायम सिंह अनजान रहे। शायद बदले दौर में उन्हें भी यह बदलाव मुफीद नज़र आ रहा था और उन्होंने इसे मौन बढ़ावा देने में ही भलाई समझा। 1993 में बहुजन समाजपार्टी के साथ सरकार बनाने के बाद मुलायम ने जातिवाद का खुला खेल तो शुरू किया, लेकिन पार्टी की संघर्षशीलता में कमी नहीं आई। इस दौरान एक खास बिरादरी के पार्टी कार्यकर्ताओं ने जमकर गुंडई और लूटखसोट की और मुलायम सिंह इससे आंखें मूंदे रहे। इसके बावजूद उनका नजरिया जमीनी ही था। लेकिन कांग्रेसी राजनीति से समाजवादी पार्टी के साथ अमर सिंह के जुड़ते ही पार्टी के चरित्र और मुलायम के नजरिए में भी बदलाव दिखने लगा। पार्टी के लिए अब संघर्ष से ज्यादा सत्ता साध्य होती गई। इस राह में बाधक बने तब के महासचिव रघु ठाकुर और मोहन प्रकाश को पार्टी छोड़ना पड़ा। साथ तो बाद में उन बेनीप्रसाद वर्मा को भी छोड़ना पड़ा- जिनका दावा है कि वे कभी एक ही थाली में मुलायम के साथ खाते थे और कई बार एक ही चारपाई पर सोए भी हैं।
कहा जा रहा है मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में लगातार कम होती अपनी कमजोर जमीन को हासिल करने के लिए कांग्रेस का हाथ थामा है। कांग्रेस को भी एक ऐसे साथी की जरूरत थी,जो वामपंथियों से अलगाव के बाद संसद में उसका साथ तो दे ही, संसद के बाहर उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में भी उसे सियासी जमीन मुहैया कराए। उत्तर प्रदेश के पिछले विधान सभा चुनाव में करीब 132 सीटों पर मुलायम सिंह के उम्मीदवार पांच सौ से लेकर पांच हजार वोटों से हारे। उन्हें उम्मीद है कि कांग्रेस का साथ उनकी साइकिल की चाल को तेज कर देगा।
लेकिन हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि मुलायम सिंह की पहचान उनके संघर्षों से रही है, जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर 1991 में अपनी सरकार की भी परवाह नहीं की, उनके चरित्र में यह बदलाव लोगों को हैरतनाक नजर आए तो इस पर कोई अचरज नहीं होना चाहिए। दरअसल अमर सिंह का कभी संघर्षों का इतिहास नहीं रहा है। वे भले ही समाजवादी पार्टी के महासचिव हैं, लेकिन उन्हें यह कहने में हिचक नहीं होती कि वे राज खानदान से हैं। जिन्हें इसकी जानकारी लेनी हो, वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पूर्व सांसद डॉ.चंद्रकला पांडे से ले सकते हैं। ऐसे में पार्टी का मूल चरित्र बदलना ही था। समाजवादी पार्टी अब सड़क से लेकर संघर्ष करने वाली पार्टी नहीं रही। दरअसल वह अब सत्ता से अलग रह ही नहीं सकती। यानी नए दौर में वह सत्ताधारी समाजवाद के नजदीक पहुंचती जा रही है। पिछले कुछ साल में समाजवादी पार्टी का जो चरित्र विकसित हुआ है, उसमें सत्ता के बिना न तो कार्यकर्ताओं को बांधना संभव है और ना ही सांसदों को। सत्ता की चाबी के बिना अमर सिंह तो कत्तई नहीं रह सकते। जिस तरह कांग्रेस को समर्थन के ऐलान के बाद उन्होंने फौरन पेट्रोलियम सचिव को तलब कराया, उससे उनका मकसद साफ हो गया।
इस पूरे प्रकरण में न तो मीडिया का एक तथ्य की ओर ध्यान गया है और ना ही समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं का। कांग्रेस का हाथ थामने जैसे अहम प्रकरण को लेकर मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश की चुप्पी की ओर किसी की निगाह नहीं है। क्या इस चुप्पी की भी कोई वजह है या समाजवादी पार्टी में किसी नई हलचल के पहले की शांति है। फिलहाल सबकी निगाह इस पर ज्यादा है कि कांग्रेस का साथ यूपी की सियासी जमींन पर मुलायम की सियासत और अमर सिंह की सत्ता की हनक का कितना फायदा समाजवादी पार्टी को मिल पाता है।

Sunday, June 8, 2008

बलिया में सब जायज है

उमेश चतुर्वेदी
जब भी बलिया जाता हूं तो मन में एक आस होती है कि महानगरीय भागदौड़ के बाद सुकून मिलेगा और अपनी माटी की गंध मन-मस्तिष्क में नई ऊर्जा का संचार करेगी। लेकिन हर बार इस आस पर तुषारापात ही होता है। जून के पहले हफ्ते की बलिया की यात्रा के दौरान मिली एक जानकारी ने मुझे चौंका दिया। बलिया में साल-दो साल पहले प्राथमिक स्कूलों के अध्यापकों की मेरिट के आधार पर भारी भर्तियां हुईं थीं। इनका काम है-बलिया के अबोध बच्चों को अक्षर ज्ञान कराना। लेकिन जिला बेसिक शिक्षाधिकारी की सहायता से ये लोग अपना मूल काम ही नहीं कर रहे हैं। इनमें से करीब पच्चीस अध्यापक - अध्यापिकाएं ऐसे हैं, जो बलिया के बाहर रहते हैं और छह-सात महीने बाद अपने स्कूल का दर्शन करते हैं। उनके इस अहसान के बदले उनकी तनख्वाह लगातार मिल रही है। इनमें से कई अध्यापिकाओं के पति दूसरे राज्यों में तैनात हैं और वे अपने पतियों के साथ हैं। लेकिन उनका नाम स्कूल की लिस्ट में ना सिर्फ चल रहा है-बल्कि उन्हें बाकायदा वेतन भी मिल रहा है। कई अध्यापक दिल्ली या जेएनयू में पढ़ रहे हैं। बदले में उनकी जगह पर उनके भाई या कोई और पढ़ाने जा रहे हैं। मजे की बात ये है कि इसकी जानकारी इलाके के एसडीआई और जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी को भी है। लेकिन कार्रवाई करना तो दूर वे खुद भी इसमें सहायता मुहैय्या करा रहे हैं। इसके लिए उन्हें बाकायदा हर ऐसे अध्यापक से दो हजार रूपए महीने का वेतन मिल रहा है। ऐसे ही एक अध्यापक का कहना है कि इसमें से एक हजार रूपए बेसिक शिक्षा अधिकारी को मिलता है। जबकि बाकी एक हजार का निचले स्तर के अधिकारियों में बंटवारा हो जाता है। सबसे दिलचस्प बात ये है कि इन अध्यापक-अध्यापिकाओं में सबसे ज्यादा समाज के नैतिक अलंबरदार माने जाने वाले लोगों के घरों के हैं। स्थानीय अखबारों में उनके गाहे-बगाहे सुवचन - प्रवचन छपते रहते हैं। लेकिन घर की इस अनैतिकता को रोकने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है।

Monday, May 19, 2008

जनभागीदारी से बदल सकती है गांवों की तस्वीर

मोहन धारिया से उमेश चतुर्वेदी की बातचीत

आपके मन में वनराई और सीएनआरआई का विचार कैसे आया ?
देखिए, हमने जनता पार्टी के जरिए देश की तस्वीर बदलने का सपना देखा था। इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ एक हुए थे। लोगों ने हम पर भरोसा भी किया। मुझे याद है – 1977 के चुनाव प्रचार में कई जगहों पर हमने कहा कि हमारा उम्मीदवार अच्छा आदमी है। उसके पास पैसा नहीं है तो लोगों ने हमारी तरफ सिक्के तक उछाल कर फेंके थे। हमें रूपए भी दिए। जनता ने हम पर भरोसा किया। लेकिन हमने 1980 आते-आते उसे भरोसे को तोड़ दिया। तब मुझे लगा कि मौजूदा राजनीति में हमारे लिए कोई जगह नहीं है। और मैंने राजनीति को विदा कह दिया। इसके बाद ही मैंने वनराई का गठन किया। गांधी के सपनों के मुताबिक गांवों को आत्मनिर्भर और हरा-भरा बनाने की दिशा में जुट गया। वैसे 1972 में स्टॉकहोम में पर्यावरण को लेकर पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। उसमें धरती के बदले वातावरण और पर्यावरण को हो रहे नुकसान को बचाने को लेकर विचार हुआ था। उसमें मैंने भी हिस्सा लिया था। बाद में जब आपातकाल के दौरान जेल में 16 महीने तक बंद रहा तो उस दौरान भी मैंने इस विषय पर खूब सोचा। तभी मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि अगर धरती और पेड़-पौधों को बचाने की कवायद शुरू नहीं की गई तो मानवता ही खतरे में पड़ जाएगी। जनता पार्टी के टूटने के बाद उसी विचार की बुनियाद पर हमने काम शुरू किया।

आप पर्यावरण को लगातार पहुंच रहे इस नुकसान के लिए किसे जिम्मेदार मानते हैं?
देखिए, पहले पर्यावरण की रक्षा पूरे समाज का सरोकार था। मुझे याद है कि जब बरसात आने को होती थी तो मेरे बाबा पूरे गांव को इकट्ठा करके गांव के तालाब को साफ और गहरा करने की बात कहते थे। फिर पूरा गांव श्रमदान करके तालाब को गहरा कर देता था। इसके लिए पैसे की जरूरत नहीं होती थी। लोगों को लगता था कि अगर उन्होंने तालाब को नहीं सुधारा तो गांव में पानी नहीं बचेगा और पानी नहीं होगा तो उन्हें पीने के साथ ही खेती के लिए भी पानी की कमी होगी। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। तालाब को सुधारने की इच्छा तो सभी रखते हैं – लेकिन ये काम ठेकेदार करता है। उसका काम सरकारी पैसे की लूट-खसोट में ज्यादा रहता है। हमने सीएनआरआई का गठन इसी लिए किया है कि वह ठेकेदारों और ऐसे कामों की निगरानी रखे। वैसे मेरा मानना है कि आज भी लोगों को समझाया जाय तो अपने गांव-घर की खातिर पर्यावरण की रक्षा के लिए श्रमदान करने से नहीं हिचकेंगे।

देश में महंगाई और अनाज संकट की आजकल खूब चर्चा हो रही है। लेकिन लोगों का इस ओर ध्यान नहीं है कि शहर के विस्तार और सेज के लिए लगातार उपजाऊ जमीनों का ही इस्तेमाल हो रहा है। इसे लेकर आपके क्या विचार हैं ?
बिल्कुल गलत हो रहा है। चीन जैसे बड़े देश में सिर्फ 75 स्पेशल इकोनॉमिक जोन हैं। लेकिन भारत में सेज की ऐसी आंधी चल पड़ी है कि हर राज्य दस-बीस को कौन कहे सौ-दो सौ सेज बनाना चाहता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। इतने सेज की देश में जरूरत नहीं है। वैसे भी सेज के लिए देश में अब भी काफी ज्यादा बंजर भूमि है। उसका इस्तेमाल होना चाहिए। अगर इसे लेकर सरकार नहीं चेती तो साफ है आने वाले दिनों में देश को और ज्यादा अनाज संकट से जूझना पड़ेगा।

आप युवा तुर्क के ग्रुप के सदस्य रहे। आपके साथी चंद्रशेखर और रामधन तो उत्तर प्रदेश के ही थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की बदहाली किसी से छुपी नहीं है। क्या आपका ध्यान कभी पूर्वी उत्तर और बिहार के गांवों को बदलने की ओर नहीं गया।
ऐसा नहीं है। मैंने अपने दोस्त चंद्रशेखर से कई बार कहा कि तुम मुझे लोग दो- मैं तुम्हारे इलाके के गांवों की भी तस्वीर बदलना चाहता हूं। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। मैं लोग इसलिए चाहता था – क्योंकि बलिया या बिहार के लोगों से वह सीधे संपर्क में था। उसका कहा लोग मानते – लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। चंद्रशेखर ऐसे विकास करने-कराने के लिए नहीं बना था। उसने मेरी बात नहीं सुनीं। लिहाजा हमने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों को बदलने का काम हाथ में नहीं लिया। मैंने तो उसे भोंडसी में निर्माण कराने से भी मना किया था। लेकिन वह नहीं माना। वैसे भी वन भूमि पर निर्माण गैरकानूनी ही होता है। इसका हश्र बाद में दिखा भी।

लेकिन चंद्रशेखर ने भी तो भारत यात्रा केंद्र के जरिए विकास का सपना देखा था।
चंद्रशेखर के भारत यात्रा केंद्र बाद में किस तरह की राजनीति के अड्डे बन गए। ये भी किसी से छुपा नहीं है।

आपने ग्रामीण भारत के स्वयंसहायता समूहों का राष्ट्रीय परिसंघ (सीएनआरआई) बनाया है। आम एनजीओ को लेकर धारणा ये है कि ये सिर्फ पैसे बनाने का जरिया हैं-विकास से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। एनजीओ को लेकर इस धारणा को बदलने को लेकर आपकी कोई योजना है?
देखिए, सीएनआरआई की सदस्यता के लिए हमने पहली शर्त रखी है कि उस एनजीओ को अपने काम में पूरी पारदर्शिता रखनी होगी। हमारा मानना है कि एनजीओ का काम ठेका लेना नहीं- बल्कि ठेकेदार और सरकारी मशीनरी की मॉनिटरिंग करना है। हमारे संगठन में शामिल हर एनजीओ पर हमारी कड़ी निगाह रहती है। अगर उसकी गड़बड़ी की शिकायत मिलती है तो उसे अपने संगठन से निकालने से हमें कोई परहेज नहीं होगा।

आम भागीदारी से गांवों की तस्वीर बदलता युवा तुर्क


उमेश चतुर्वेदी
चौरासी साल की उम्र में आम आदमी थककर जिंदगी के आखिरी वक्त को रामनाम के सहारे काटने लगता है। पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशक में युवा तुर्क के नाम से भारतीय राजनीति में विख्यात रहे मोहन धारिया उनमें से नहीं हैं। उम्र के इस पड़ाव पर भी वे पूरी शिद्दत से जुटे हुए हैं। ये उनकी सक्रियता और कुशल नेतृत्व का ही असर है कि इस समय ग्रामीण भारत के स्वयं सहायता समूहों के परिसंघ में छह हजार से ज्यादा एनजीओ एक छतरी के नीचे काम कर रहे हैं। राजधानी दिल्ली में 25 अप्रैल को जब इसी संगठन सीएनआरआई का तीसरा राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ तो उसके उद्घाटन सत्र में ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह को कहना पड़ा कि अब सरकारी मशीनरी और सरकार को गांवों में विकास कार्य कराने के स्वयं सहायता समूहों के पास आना पड़ेगा।
ग्रामीण भारत के स्वयं सहायता समूहों के परिसंघ की स्थापना तीन साल पहले कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के गुरूकुल में मोहन धारिया ने की।
इस देश में करीब 29 लाख एनजीओ हैं जो ग्रामीण से लेकर शहरी भारत में अपनी-अपनी तरह से विकास का काम कर रहे हैं। वैसे भी एनजीओ का नाम आते ही आम लोगों के सामने सहायता के नाम पर पैसा बनाने वाले जेबी संगठनों की ही तस्वीर उभरती है। इसके लिए स्वयं एनजीओ का गोरखधंधा ही जिम्मेदार है। राजनीति और अफसरशाही में कई ऐसे लोग मिल जाएंगे- जिन्होंने एनजीओ के नाम पर जेबी संगठन बनाकर मलाई काट रहे हैं। मोहन धारिया का नाम उसूलों की राजनीति के लिए जाना जाता रहा है। ऐसे में उनके सामने ये चुनौती है कि उनके संगठन पर ऐसे दाग ना लगें। इसके लिए उन्होंने चाकचौबंद व्यवस्था करने की कोशिश की है। उनका कहना है कि सीएनआरआई के गठन के दिन ही ये तय कर दिया गया कि इसका सदस्य बनने वाले एनजीओ को पारदर्शी तरीके से काम करना होगा और अपने आय-व्यय और काम करने का ब्यौरा हर साल पेश करना होगा। इस संगठन के छह हजार से ज्यादा सदस्य होने से साबित होता है कि अब भी देश में काम करने वाले और उसूलों वाले लोग कम नहीं हैं। सीएनआरआई के लिए उन्होंने तय कर दिया है कि एनजीओ का काम ठेकेदारी करना नहीं है- बल्कि उसका मानिटरिंग करना है। राजधानी दिल्ली में 25 अप्रैल से 27 अप्रैल तक चले इसके तीसरे सालाना सम्मेलन में इसकी बार-बार चर्चा हुई। ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने अपने उद्घाटन भाषण में इससे जहां सहमति जताई- वहीं पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री वेंकैया नायडू तक ने एनजीओ को ये भूमिका देने की जोरदार वकालत की।

साठ और सत्तर के दशक में भारतीय राजनीति में युवा तुर्क के तौर पर विख्यात पांच नेताओं में से अब सिर्फ मोहन धारिया ही सक्रिय हैं। अपनी समाजवादी सोच के साथ कांग्रेस के अंदर काम करने वाले बाकी चार युवा तुर्क रामधन, ओम मेहता, कृष्णकांत और चंद्रशेखर इस दुनिया में नहीं हैं। इंदिरा गांधी ने जब देश पर आपातकाल थोप दिया तो उसका विरोध करने वाले लोगों में ये युवा तुर्क ही थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने उनके विरोध को तवज्जो नहीं दी और उन्हें भी जेल के सींखचों के भीतर पहुंचाने में देर नहीं लगाई। जबकि इसके ठीक पहले इन युवा तुर्कों की ही रिपोर्ट पर उसी इंदिरा गांधी ने राजाओं के प्रिवीपर्स खत्म किए, 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। जब जनता पार्टी बनी तो ये युवा तुर्क कांग्रेस को छोड़ जनता पार्टी में शामिल हो गए। चंद्रशेखर तो अध्यक्ष ही चुने गए। मोहन धारिया उसके महासचिव थे। लेकिन जनता पार्टी का प्रयोग जब असफल हुआ तो मोहन धारिया को बहुत चोट पहुंची। इसके बाद से ही उन्होंने राजनीति की दुनिया को अलविदा कह दिया और बनराई नाम का संगठन बना कर पर्यावरण के लिए जागरूकता फैलाने के काम में जुट गए। जनता पार्टी का प्रयोग असफल रहने की पीड़ा उनके चेहरे अब भी उभर आती है। उन्हें ये कहने से गुरेज नहीं है कि उन्होंने यानी जनता पार्टी के नेताओं ने जनता से धोखा किया।
1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में पहला पृथ्वी सम्मेलन हुआ था। जिसमें धरती के लगातार बदल रहे पर्यावरण को लेकर दुनियाभर के नेताओं और संगठनों ने चिंताएं जताईं थीं। उस सम्मेलन में बतौर सरकारी प्रतिनिधि मोहन धारिया भी शामिल हुए थे। तभी से सृजनशीलता की राजनीति का बीज उनके मन में पड़ गया था। आपातकाल के दिनों की 16 महीने के जेल प्रवास के दौरान इसे लेकर खासा विचार-मनन किया। और जनता पार्टी की सरकार जब गिर गई तो उन्होंने पर्यावरण को लेकर नई जागरूकता फैलाने और उसे जमीनी हकीकत बनाने में जुट गए। इसे स्वयं सहायता समूह वनराई का 1982 में गठन करके मूर्त रूप दिया। आज ये संगठन 250 गांवों के लोगों को गांधी के सपने के मुताबिक आत्मनिर्भर बना चुका है। जहां आधुनिक तरीकों से खेती होती है, पशुपालन का पूरा फायदा उठाने के लिए वैज्ञानिक तरीकों को अख्तियार किया गया है। इन गांवों की गलियां इनके ही मानव मल और गोबर गैस के जरिए बनाई गई बिजली के जरिए रात को रौशन होती रहती हैं। मोहन धारिया कहते हैं कि दादरा नागर हवेली की राजधानी सिलवासा के आसपास के गांवों की पूरी तस्वीर बदल गई है। धारिया का दावा है कि वनराई का काम इतना सफल रहा है कि पूना के आसपास के कई गांवों के वे लोग अपने घरों को वापस लौट आए हैं – जो मुंबई की झुग्गियों में बदतर जिंदगी गुजार रहे थे। उनका काम महाराष्ट्र के बाहर भी फैलता जा रहा है। हाल ही में उन्होंने हरिद्वार के बगल में पांच गांवों की तस्वीर बदलने का जिम्मा उठाया है।
दुनिया में पर्यावरण को लगातार हो रहे नुकसान को रोकने और बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए आज साझा वन प्रबंध को अपनाया जा रहा है। योजना आयोग का उपाध्यक्ष रहते मोहन धारिया ने इस विचार को मूर्त रूप दिया था। उनका ये विचार कितना सफल है – इसी का असर है कि 1992 में राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने इसे अपना लिया। धारिया कहते हैं कि भले ही अभी-भी पेड़ों और जंगलों की गैरकानूनी कटाई हो रही हो- लेकिन इस प्रबंध का ही असर है कि एक करोड़ तिहत्तर लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर वन लगाए जा चुके हैं। जिसका फायदा एक लाख 64 हजार 63 गांवों को फायदा हुआ है। इसी के जरिए करीब नौ लाख आदिवासी परिवारों की आय बढ़ी है और उनका जीवन स्तर ऊंचा उठा है। धारिया कहते हैं पंद्रह साल की ये कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है।
आज भी देश की पैंसठ फीसदी आबादी गांवों में रहती है। बिना इनके विकास के देश की की तरक्की की कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं उभर सकती। शहरी मध्य वर्ग को लुभाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियों की गांवों के विकास में कोई सीधी भूमिका नहीं है। लेकिन वनराई के प्रयासों से जुआरी ग्रुप और हिंदुस्तान लीवर जैसी कंपनियां भी कुछ गांवों के विकास में दिलचस्पी ले रही हैं। लेकिन ये कोशिशें ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं। तकलीफ तो इस बात की है कि युवा तुर्क के ग्रुप के तीन नेता उत्तर भारतीय ही थे। लेकिन चंद्रशेखर इनमें सबसे ज्यादा असरदार रहे। लेकिन मोहन धारिया को ये कहने में गुरेज नहीं है कि उनके दोस्त ने अपने इलाके के गांवों के विकास में उनके अनुरोध के बावजूद कोई दिलचस्पी नहीं ली। अन्यथा बदहाली और भ्रष्टाचार के लिए बदनाम उत्तर भारत – खासतौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार की बदहाली की तस्वीर बदलने में ये प्रयास सकारात्मक भूमिका निभा सकता था।
इतिहास के इस युवा तुर्क का मानना है कि सरकार साथ ना दे तो भी लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाई जा सकती है। बस जरूरत है लोगों को भरोसा दिलाने की। लोगों को एक बार भरोसा हो गया कि सामने वाला सचमुच उनके साथ काम करेगा – उनके सुखदुख का ख्याल रखेगा, वे गोवर्धन पर्वत में टेक लगाने के लिए साथ खड़े होने में देर नहीं लगाएंगे।

Friday, April 25, 2008

पुरोहित जी हुए `हाईटेक´

आपको याद होगा एक मोबाइल कंपनी का विज्ञापन – जिसमें एक पुरोहित जी काफी व्यस्त नजर आ रहे हैं। उनके पास शादियां कराने का इतना ठेका होता है कि कुछ शादियां वे एक मंडप में बैठे-बैठे मोबाइल फोन के जरिए ही करा देते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में इन दिनों विज्ञापन की तरह हूबहू नजारा तो नहीं दिख रहा है- लेकिन उसके जैसी हालत तो दिख ही रही है। इन दिनों लग्न का जोर है – सिर्फ अप्रैल महीने में ही शादी-विवाह का मुहूर्त है, लिहाजा एक ही गांव में एक ही दिन तीन-तीन, चार-चार शादियां हो रही हैं। जाहिर हैं इससे नाई और पुरोहित की मशरूफियत बढ़ गई है। लेकिन विकास की बाट जोह रहे पूर्वी इलाके में अभी – भी बिजली की जो हालत है , उसमें नेटवर्क मिल जाए तो गनीमत ही समझिए। लेकिन नाई और पुरोहित जी के हाथ में पंडोरा बाक्स ( पूर्व प्रधानमंत्री अटलविहारी वाजपेयी ने बीएसएनएल की मोबाइल सेवा का उद्घाटन करते वक्त इसे पंडोरा बॉक्स ही कहा था ) आ गया है। लिहाजा आप को दुआ करनी होगी कि आपके सात फेरे लेने से पहले तक मोबाइल का नेटवर्क दुरुस्त रहे। अगर कोई परेशानी हुई तो तय मानिए विवाह का मुहूर्त पंडित और हज्जाम को खोजने में ही गुजर जाएगा। संचार सुविधाओं के बढ़ते पांव का ही असर है कि विवाह मंडप में वैदिक मंत्रोंचार के बीच मोबाइल की घंटी घनघनाते लगती है। कोई कहीं रुककर इंतजार करने के चक्कर में नहीं रहा। सब अपने काम में मगन, जब जरूरत पड़े तो काल कीजिए। छोटे-मोटे रस्म तो मोबाइल पर ही पूरे हो रहे हैं। बदले मौसम में हर कोई बदला-बदला नजर आ रहा है। पवनी हाईटेक हो गए हैं, तो पुरोहित आनलाइन उपलब्ध है। पंडित लोगों की हालत यह है कि छोटे-मोटे रस्म मोबाइल पर ही पूरे कराए जा रहे हैं। आसानी से दो-तीन जगह का काम देख लेते हैं। यजमान भी हर छोटी-बड़ी मुश्किल पर पंडितजी की सलाह तुरंत लेते हैं। पहले पूजा-पाठ से घंटों पहले पंडित पहुंच जाते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है। शादी-विवाह के मौके पर नाई से संपर्क बनाए रखते हैं और हमेशा तैयारी करते रहने के लिए निर्देश देते रहते हैं। सीताकुंड निवासी पंडित अक्षयवर नाथ दूबे बताते हैं कि मोबाइल के कारण काफी आसानी हो गई है। समय-समय पर सूचना मिलने के कारण ठीक वक्त पर पहुंच जाते हैं। विवाह मंडप में वे सारी तैयारी पहले से ही कराए रहते हैं और पंडितजी की `इंट्री´ बालीवुडिया फिल्मों के `मेन हीरो´ की तरह होती है। चौका पर बैठते ही इस बात की चिंता नहीं रहती कि तैयारी क्या हुई है। दनदनाते हुए मंत्रोच्चार शुरू कर देते हैं।

सुबह सवेरे में