Monday, September 7, 2009

नीतीश विरोध में कितना कामयाब हो पाएगा लोकमोर्चा


उमेश चतुर्वेदी
अंग्रेजों की वादाखिलाफी से परेशान होकर गांधीजी ने मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान से भारत छोड़ो का नारा दिया था। इस ऐतिहासिक ऐलान के ठीक 67 साल बाद समाजवादी नेताओं ने एक बार फिर नई लड़ाई के ऐलान के लिए मुंबई की को ही चुना। निश्चित तौर पर समाजवादी नेताओं के इस निशाने पर इस बार उनके अपने ही साथी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। कहावत है कि समाजवादी छह महीने साथ नहीं बैठ सकते तो दो साल दूर भी नहीं रह सकते। समाजवादी आंदोलन का यह पसोपेश मुंबई की इस पूरी बैठक के दौरान दिखता रहा। जहां दूसरी पंक्ति के नेता बाकायदा नाम लेकर नीतीश कुमार पर निशाना साधते रहे, लेकिन जिन दिग्विजय सिंह को इसकी निर्णायक लड़ाई की कमान सौंपी गई, उनके समेत किसी भी बड़े नेता ने ना तो नीतीश का नाम लिया, ना ही उन पर सीधा हमला किया।
मुंबई की धरती पर एक बार फिर समाजवादियों के पसंदीदा शब्द लोक को लेकर लोकमोर्चा बना, जिसकी अगुआई दिग्विजय सिंह को सौंपी गई है। चूंकि इसे अभी विधिवत राजनीतिक पार्टी नहीं बनाया गया है, यही वजह है कि इस मोर्चे के राष्ट्रीय संयोजक की जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह को सौंपी गई है। इस लोकमोर्चा को उन सभी समाजवादी नेताओं का साथ मिला है, जो ना तो नीतीश कुमार के साथ हैं, ना ही लालू और मुलायम सिंह के साथ। मुंबई में इस मोर्चे के ऐलान के बाद जिस तरह बिहार से आए गैर नीतीश और गैर लालू समाजवादी नेताओं ने हुंकार भरी, उससे साफ है कि आने वाले दिनों में ये मोर्चा एक राजनीतिक दल का गठन जरूर किया जाएगा और इसके संघर्षों के निशाने पर रहेंगे नीतीश कुमार। यानी साफ है कि बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार को अब विधिवत अपने एक और पुराने साथी दिग्विजय सिंह की अगुआई वाले मोर्चे का विरोध झेलना होगा। इस विरोधी खेमे में उनके कभी के साथी रहे रामजीवन सिंह और गजेंद्र हिमांशु के साथ ही इंद्रकुमार के साथ ही पूर्व विधायक शिवनंदन सिंह और मौजूदा निर्दलीय विधायक किशोर कुमार मुन्ना भी शामिल हैं।
बहरहाल नीतीश कुमार के विरोध की पूर्वपीठिका उसी दिन बन गई थी, जिस दिन उन्होंने बांका से चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटे अपने पुराने साथी और पूर्व केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह का टिकट काट दिया। दिग्विजय ने बिना देर लगाए राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और चुनावी मैदान में कूद पड़े। निश्चित तौर पर इसके लिए उन्हें अस्वस्थ ही सही उनके नेता जार्ज फर्नांडिस का समर्थन रहा ही, नीतीश की मौजूदा सोशल इंजीनियरिंग में किनारे किए जा चुके बिहार के तमाम नेताओं का भी साथ मिला। हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष प्रभाष जोशी, अनुराग चतुर्वेदी और क्रांति प्रकाश समेत तमाम शुभचिंतकों की सलाह के बाद चुनावी मैदान में उतरे दिग्विजय ने जीत हासिल की तो उनका वैसे ही स्वागत हुआ, जैसा उस अभिमन्यु का होता – जो चक्रव्यूह तोड़ कर बाहर आता। दिग्विजय इस तथ्य को जानते हैं, शायद यही वजह है कि हर मौके पर वे अभिमन्यु को याद करना नहीं भूलते। मुंबई में भी उन्होंने कहा कि अभिमन्यु तो चक्रव्यूह नहीं तोड़ पाया था, लेकिन उन्होंने जनता के सहयोग से ऐसा कर दिखाया। इस जीत के बाद से ही दिग्विजय सिंह पर बिहार में अलग से नई पार्टी बनाने का दबाव बढ़ने लगा था। उम्मीद तो ये भी थी कि समाजवाद का बूढ़ा शेर यानी जार्ज भी उनका साथ देंगे। लेकिन नीतीश ने दांव लगाकर जार्ज साहब को राज्य सभा में भेज कर उन्हें दिग्विजय से दूर कर दिया है।
लालू यादव और राम विलास पासवान जैसे नीतीश विरोधियों की चुनावी मैदान में दुर्गति ने दिग्विजय समर्थकों ने उन पर नई पार्टी बनाने का दबाव बढ़ा दिया। उनकी इस मुहिम में पुराने समाजवादी रघु ठाकुर और विजय प्रताप भी शामिल हो गए और बीते 12 और 13 अगस्त को मुंबई में समाजवादियों को जुटाने का माध्यम बना एक संवाद, जिसका विषय था - वर्तमान राजनीतिक संकट और लोकतांत्रिक समाजवाद का भविष्य। मुंबई की इस संवाद चर्चा पर बिहार की राजनीति की पैनी निगाह लगी हुई थी। लोगों में उत्सुकता इस बात को लेकर थी कि इस बैठक में जार्ज फर्नांडिस शामिल होते हैं या नहीं। लेकिन ऐसे लोगों की उम्मीदों पर पानी फिर गया। क्योंकि जार्ज शामिल नहीं हुए। वैसे इस संवाद चर्चा के प्रमुख आयोजक अनुराग चतुर्वेदी के मुताबिक जार्ज को बुलाया भी नहीं गया था।
इस संवाद में बड़े वक्ताओं ने जहां देश की मौजूदा हालत पर जहां तीखे सवाल उठाए, वहीं राजनीतिक सत्ता की चारदीवारी और चिंताओं से लगातार दूर होते जा रहे आम लोगों की हालत पर चिंता जाहिर की। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने जब ये कहा कि देश की राजनीति के लिए विद्यावती और कलावती पोस्टर ब्वाय बन गई हैं। लेकिन हकीकत में आज देश की करीब 120 करोड जनता उनकी ही तरह जिंदगी गुजारने के लिए मजबूर है। तो मौजूद लोग सोचने के लिए बाध्य हो गए। प्रभाष जी इतने पर ही नहीं रूके। उन्होंने घराना राजनीति के वर्चस्व को तोड़ने की आवश्यकता जताते हुए कहा कि आज हर पार्टी का सुप्रीमो तानाशाह हो गया है। उन्होंने इस प्रवृत्ति को राजनीतिक संस्कृति के लिए खतरनाक बताते हुए कहा कि इससे देश को निजात दिलाने के लिए मोर्चे को नई भूमिका निभानी होगी।
संवाद चर्चा में समाजवादियों ने अपने साथियों की भी कम लानत-मलामत नहीं की। संवाद में लालू यादव और नीतीश कुमार के तानाशाही रवैये को लेकर जमकर सवाल उठे। लेकिन रघु ठाकुर ने इसके लिए अपने पुराने साथियों को ही जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि जब समाजवाद का दावा करने वाली पार्टियों में तानाशाहों का जन्म हो रहा था तो हममें से तमाम लोग चुप थे। लेकिन रघु ठाकुर को मौजूदा दौर से उम्मीद कम नहीं हैं। उन्होंने कहा कि मीडिया जिस तरह नकारात्मक चीजों को उछाल रहा है, उसके असर से राजनीतिक दल भी नकारात्मक चीजों की ही ओर ध्यान दे रहे हैं। उनकी बातों से विजय प्रताप भी मुतमईन नजर आए। दलितों की सत्ता में बढ़ती भागीदारी और उनमें बढ़ रहे आत्मसम्मान के भाव का जिक्र करते हुए उन्होंने उम्मीद जताई कि मोर्चा जरूर सकारात्मक भूमिका निभाएगा।
संवाद चर्चा के ही बहाने जिस तरह अपने ही पुराने साथी और जनता दल यू की झारखंड इकाई के पूर्व अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी को दिग्विजय अपने साथ लाने में कामयाब हुए हैं, उससे लोकमोर्चा को लेकर उनके समाजवादी साथियों की उम्मीदें परवान चढ़ रही हैं। नामधारी और दिग्विजय दोनों ही सांसद हैं, लेकिन दोनों में एक अंतर है। दिग्विजय को जनता दल यूनाइटेड ने टिकट नहीं दिया तो पार्टी से विद्रोह करके बांका के चुनावी मैदान में उतरे और जीत हासिल की, वही नामधारी ने पार्टी टिकट को इनकार करके चतरा से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे हैं। लोकमोर्चा में उनकी मौजूदगी से निश्चित तौर से दिग्विजय और उनके समर्थकों को राहत मिली है। दिग्विजय के लोक मोर्चा का ये कारवां यहीं नहीं रूका। महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य कपिल पाटिल ना सिर्फ इस मोर्चे में शामिल हुए, बल्कि मोर्चे के नेताओं का स्वागत भी किया। उन्हें मोर्चा में लाने का श्रेय निश्चित तौर पर अनुराग चतुर्वेदी को जाता है। इस संवाद चर्चा में शामिल तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के महासचिव डी पी त्रिपाठी भी हुए। लेकिन उन्होंने मोर्चे से दूरी बना रखी है। लेकिन उनकी मौजूदगी से साफ है कि बिहार की राजनीति में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी दिग्विजय सिंह के लोकमोर्चा के साथ कंधा मिला सकती है।
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार की इन दिनों जो लोकप्रियता है, उससे साफ है कि लोकमोर्चा को शुरूआती कामयाबी मिलना आसान नहीं होगा। इसे मोर्चा में शामिल बिहार के पूर्व कद्दावर नेता भी स्वीकार करते हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने संवाद चर्चा में शामिल एक नेता से नीतीश की लोकप्रियता के दौर में मोर्चे की सफलता को लेकर जानना चाहा तो उनका जवाब बड़ा मौजूं था। नाम ना छापने के बिना पर उन्होंने कहा कि बिहार में कुर्ता पाजामा वालों यानी नेताओं का काम नहीं हो रहा है, जबकि आम लोगों का काम हो रहा है। ऐसे में नीतीश से निबटना आसान नहीं होगा। इसे रामजीवन सिंह ने यूं नकारा। उनका कहना था कि जब चिलचिलाती गर्मी के बाद हल्की भी बारिश होती है तो वह लोगों को राहत भरी लगती है। रामजीवन सिंह के मुताबिक लालू के पंद्रह साल के कुशासन के बाद आया नीतीश का राज उस हल्की बारिश के ही समान है। लेकिन इससे अच्छी खेती की उम्मीद नहीं की जा सकती। उन्होंने कहा कि इसी तथ्य को आम लोगों को समझाना होगा।
नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक आधार को बढ़ाने के लिए महादलित का जो फार्मूला दिया है, उसे लेकर रामविलास पासवान परेशान हैं। लेकिन उनके पुराने साथी और अब लोकमोर्चा में शामिल हुए नेताओं को परेशानी इस बात की है कि जिस सवर्ण वोटरों के सहारे नीतीश सत्ता में आए हैं, उन्हें लगातार किनारे पर रखा जा रहा है। मोर्चे के नेताओं का तर्क है कि पिछले लोकसभा चुनाव में एक भी ब्राह्मण को टिकट नहीं दिया गया। ठाकुरों और भूमिहार नेताओं को भी नीतीश कोई तवज्जो नहीं दे रहे हैं। लिहाजा अगर जोरदार कोशिश हो तो इन जातियों को गोलबंद करके नीतीश के खिलाफ ताकतवर मोर्चा बनाया जा सकता है।
नीतीश विरोधी ये मोर्चा कितना कामयाब होगा, इसकी परख होनी अभी बाकी है। लेकिन इस मोर्चे को जिस तरह लालू यादव की पार्टी से लेकर जनता दल यू के पुराने नेताओं तक का बिहार में समर्थन मिल रहा है, उससे साफ है कि नीतीश के सामने एक और मोर्चा खुल गया है। इसकी कामयाबी को लेकर मोर्चे में शामिल एक पूर्व मंत्री के बेटे की बातों पर गौर फरमाना ज्यादा मौजूं होगा। उनका कहना था कि 1995 में लालू के खिलाफ जब जार्ज और नीतीश ने मोर्चा संभाला था, तब भी उनका मजाक उड़ाया गया था। किसी ने सोचा भी नहीं था कि लालू की सत्ता को भी चुनौती मिल सकती है। लेकिन लालू हवा हो गए। नीतीश हवा होंगे या नहीं...इसका जवाब तो भविष्य ही बताएगा।

Thursday, August 6, 2009

बाबूजी नहीं आएंगे दिल्ली


उमेश चतुर्वेदी
दक्षिण पूर्वी मानसून महाराज ने दगा दे दी है। वर्षारानी के इंतजार में आंखें पथरा गईं हैं। कभी-कभार हो रही हल्की फुहारों से ही सब्र करना पड़ रहा है। खेती का काम चौपट हो गया है। लिहाजा इस बार गांव में काम कम ही रह गया है। बारिश की खुशखबरी के लिए गंवई मन फोन किए बिना नहीं रहता। लेकिन रोज निराशा ही हाथ लगती है। मानसून नहीं तो खेती नहीं...लिहाजा एक दिन बाबू जी को दिल्ली आने के लिए इसरार कर बैठा। दिल्ली की भागमभाग के बीच गांव कहीं पीछे छूट गया है। अगर कहीं है भी तो सिर्फ मन में..रोज घर लौटते वक्त गांव को जीने की इच्छा बलवती हो उठती है। मन ही मन रोजाना योजनाएं बनती हैं..कि कुछ ऐसा किया जाय को महीना-दो महीना में गांव का चक्कर लग ही जाए। लेकिन अगले दिन सूरज की किरणों के साथ जैसे अंधेरा गायब हो जाता है, गांव को जीने की ये लालसा फुर्र हो जाती है और नून-तेल की चिंता में शुरू हो जाती है एक अंतहीन दौ़ड़..लेकिन मन तो ठहरा गंवई...अंतर्मन में शायद माई और बाबूजी के ही बहाने गांव को जी लेने की इच्छा कहीं दबी हुई है। लिहाजा मैं बाबूजी और माई पर दिल्ली आने के लिए जोर डालने लगा। मोबाइल फोन के उस पार से आ रही आवाज से लगा कि मां हम लोगों से मिलने के लिए उत्सुक तो है...लेकिन बाबूजी की आवाज ठंडी और टाल-मटोल वाली लगी।
इसके साथ ही मुझे बाबूजी की पिछली दिल्ली यात्रा की याद आ गई। आंख का इलाज कराने के लिए उन्हें दिल्ली लाया गया था। यहां के आकर पता चला कि उन्हें सेहत से जुड़ी कई और समस्याएं भी हैं। लिहाजा उनका लंबा इलाज चला। चूंकि इलाज लंबा था, इसलिए उन्हें यहां देर तक ठहरना पड़ा। सुबह तो जैसे उनकी ताजगी में अखबार और चाय के साथ उत्फुल्लता से कट जाती। लेकिन शाम होते ही वे कुछ असहज हो जाते। लगता, वे उदास हैं और अपनी उदासी छुपाने की कोशिश करते वे प्रतीत होते। मैं उनकी परेशानी समझता था। पूरी जिंदगी अध्यापक के तौर पर गांव में गुजार चुके बाबूजी का अपना वहां भरा-पूरा समाज है। शाम को काम से फारिग होने के बाद वे अपने दोस्तों के साथ अड्डेबाजी में जुट जाते हैं। उनके दोस्तों में हर जाति के लोग हैं। ब्राह्मणत्व को किनारे रख कर अड्डेबाजी करने के लिए उनकी अपनी बिरादरी में आलोचना भी होती रही है। लेकिन वे कभी अपने दोस्तों से दूर नहीं हुए। लेकिन दिल्ली में वह समाज मिलने से रहा। फ्लैटों के बंद दरवाजे के पीछे टेलीविजन के सहारे चलती जिंदगी उन्हें रास नहीं आई। मुझे याद है जिस दिन वे दिल्ली से गांव लौटे तो उन्होंने पीछे मुड़कर देखना भी गवारा नहीं हुआ। उनका जाना ऐसे प्रतीत हो रहा था, मानो लंबी यातना से छूटा कैदी भाग रहा हो ।
हमारा दावा है कि आने वाले दिनों में शहरी आबादी में तेजी से विस्तार होगा। आजादी के बाद तकरीबन अस्सी फीसदी अपनी आबादी गांवों में रहती थी। अब ये आंकड़ा 67 के नजदीक पहुंच गया है। सच है कि गांवों के मुकाबले शहरों में जिंदगी गुजारने के लिए तमाम तरह की सुविधाएं हासिल हैं। इसके बावजूद एक पूरी की पूरी पीढ़ी ऐसी है, जिसे ये सुविधाएं नहीं लुभा पातीं। कवि शमशेर के शब्दों में कहें तो वह पीढ़ी गाती फिरती है-
अच्छी अपनी ठाठ फकीरी, मंगनी के सुखसाज से। शहर में सुखसाज तो है, लेकिन ठाठ नहीं है और मानवीयता और रिश्तों की उष्मा का तो खैर कम ही दर्शन होता है। मानव ही क्यों, जानवर भी अगर अपना समाज बनाता है तो उसमें इस उष्मा का ही बड़ा योगदान होता है। बाबूजी जैसे लोगों की पीढ़ी ने अपनी पूरी जिंदगी इसी उष्मा के सहारे गुजारी है। लिहाजा उन्हें जीवन की सांध्य बेला में सुखसाज से ज्यादा ठाठफकीरी में लिपटा अपना जीवंत समुदाय ही ज्यादा मुफीद लगता है। लिहाजा उनके लिए अपना गांव छोड़ना और दिल्ली में रहना...नरक भोगने जैसा है। इसीलिए वे दिल्ली या मुंबई का रूख करने से बचते हैं।
हमने अपने गांव में देखा है। एक दंपत्ति के सभी बच्चे उंची तालीम हासिल कर मोटी पगार और रसूख वाली नौकरियों में चले गए। सभी बच्चे माता-पिता को जोर देकर गांव से अपने साथ ले जाते रहे, लेकिन माता-पिता साल-छह महीने बाद लौटते रहे। उनके लिए गांव छोड़ना अपनी माटी से दगाबाजी करने जैसा रहा। हमारे एक और मित्र हैं। उनकी मां का देहांत हो गया है। प्रोफेसर पिता रिटायर हो गए हैं। मित्र अपने भाई के साथ दिल्ली में अच्छी तरह सेटल हैं। लेकिन उनकी रोजाना की सांझ पिता की चिंता में ही गुजरती है। क्योंकि पिता भी दिल के मरीज हैं। लेकिन पिता हैं कि दिल्ली रहने को तैयार नहीं। जोर देने पर दिल्ली आते हैं तो दस – पंद्रह दिन में ही उबकर वापस लौट जाते हैं।
आजादी के आंदोलन या नेहरू के स्वप्नवादी दौर में पैदा हुई इस पीढ़ी के ही सहारे गांवों का वजूद बचा हुआ है। जहां तमाम पेंचीदगियों के बावजूद जिंदगी की एक धार अब भी बह रही है। दुर्भाग्य ये कि अब ये पीढ़ी अपनी विदाई की बेला में है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि हमारे जैसे लोग क्या दिल्ली या मुंबई की कथित जिंदगी को कभी अपनी इस पूर्ववर्ती पीढ़ी की तरह निर्ममता पूर्वक छोड़ पाएंगे। या फिर जिंदगी की धार में डूबने का सिर्फ सपना ही देखते रह जाएंगे।

Monday, July 20, 2009

डंडे का धंधा


उमेश चतुर्वेदी
बुढ़ापे का सहारा, विकलांगों का साथी रही छड़ी का धंधा तो हम में से शायद ही कोई होगा, जिसने नहीं देखा होगा। लेकिन डंडे का धंधा...पहली बार सुनकर आपको हैरत होनी स्वाभाविक है। लेकिन हमने तो डंडे का धंधा जब अपनी नंगी आंखों से देखा तो हमें कितनी हैरानी हुई होगी, इसका अंदाजा लगाना आसान होगा। डंडे के इस धंधे से हमारा साबका पड़ा शिमला की जाखू पहाड़ियों पर विराजमान हनुमान मंदिर पर। सैलानियों की पसंदीदा जगहों पर स्थित मंदिरों पर जाते ही सबसे पहले साबका पड़ता है प्रसाद और पूजा की सामग्री बेचने वाले लपका किस्म के दुकानदारों से। पूरे शहर में प्रसाद और पूजा की सामग्री भले ही सस्ती होगी, लेकिन क्या मजाल कि मंदिर के ठीक दरवाजे पर स्थित इन दुकानों पर पूजा का सामान सस्ता मिले। लेकिन जाखू मंदिर पर दूसरी हैरत हमारा इंतजार कर रही थी। यहां वैसी महंगाई नजर नहीं आई, जिसके हम दूसरे तीर्थस्थलों पर आदी रहे हैं।
लेकिन यहां प्रसाद बेचते वक्त दुकानदार पास पड़े बेंत के तीन से पांच फीट लंबे डंडे के ढेर की ओर इशारा करना नहीं भूलता था। चूंकि किसी तीर्थ स्थल पर पूजा सामग्री के साथ पहली बार डंडा बिकते देखा तो हमने पहले तो कोई टोटका सोचा। हमें लगा कि शायद यहां हनुमान जी को डंडा भी चढ़ाया जाता होगा। लेकिन हमारा ऐसे टोटकों में कोई भरोसा नहीं रहा, लिहाजा हमने डंडा खरीदने से मना कर दिया। लेकिन प्रसाद लेकर जैसे ही हमने मंदिर की चढ़ाई की ओर पहला कदम रखा, हमें डंडे की वकत और जरूरत समझ में आ गई। हनुमान जी का मंदिर हो और बंदरों की फौज वहां ना हो, ऐसा आपने कहीं नहीं देखा होगा। तो जाखू भला इससे कैसे दूर रहता। बंदरों की फौज ने हमें घेर लिया। कई तो दो-दो पैरों पर खड़े होकर हमारे हाथ में लटके थैले की ओर लपक पड़े। डर के मारे मेरी छोटी बेटी मुझसे चिपक गई तो बड़ी श्रीमती जी का हाथ थामे आगे बढ़ने लगी। इसी बीच एक बंदर ने झपट्टा मारा और पॉलिथीन के बैग का हत्था ही श्रीमती जी के हाथ में रह गया, बाकी पूरा बैग हनुमान जी के जीते-जागते गणों के हाथ। डर के मारे बच्चे चिल्लाने लगे। इसके बाद तो मैंने सारी श्रद्धा एक किनारे रखी और मेरा गंवई अनुभव बंदरों पर पिल पड़ा। मेरे हाथ में लकड़ी का एक गिफ्ट आइटम था। उसके ही आगे बंदरों की फौज भाग खड़ी हुई। अभी हम इनसे निबटे ही थे कि आगे चल रहे एक दंपति की चीख-पुकार ने वहां फैली शांति में खलल डाल दी। दरअसल उस ग्रुप की महिला की आंखों से चश्मा ही बंदर महाराज छीन ले गए। इस दौरान महिला की आंख में बंदर का नाखून चुभते रह गया। हालांकि चेहरा लहू-लुहान जरूर हो उठा था।
बाद में मंदिर से लौटने के बाद पता चला कि प्रसाद के साथ बिक रहा डंडा दरअसल हनुमान जी को चढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि उनके आक्रामक हो चुके गणों को दूर रखने में मदद करता है। जो ज्यादा चालाकी दिखाने की कोशिश करता है, उसके आंख से चश्मा गायब हो जाता है या फिर हाथ से बैग। मंदिर प्रशासन इन बंदरों को भगाने के लिए कोई मुकम्मल इंतजाम नहीं करता। उसने जगह – जगह बंदरों को खाना ना देने और सावधान रहने की चेतावनी देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली है। लिहाजा डंडे का धंधा पूरी शिद्दत से जारी है। आप अगर डंडा खरीदना ना चाहें तो आपको दुकानदार किराए पर भी डंडा दे सकता है। किराया भी महज पांच रूपए। शिमला की पहाड़ियों पर स्थित इस हनुमान की दूर-दूर तक प्रसिद्धि इसलिए है, क्योंकि कहा जाता है कि लक्ष्मण को बचाने के लिए संजीवनी बूटी लाते वक्त हनुमान जी कुछ देर तक यहां सुस्ताने के लिए रूके थे। जाहिर है यहां सैलानियों की भारी भीड़ रोजाना जुटती है। ऐसे में आप अंदाजा लगा सकते हैं कि डंडे का ये धंधा कितनी बड़ी कमाई का स्रोत बन पड़ा है।
यूं तो बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग डंडे के धंधे के लिए बदनाम रहे हैं। लेकिन उनका धंधा डंडा बेचने की बजाय डंडे के दम पर काम कराना या काम निकालना रहा है। पिछले कुछ वक्त से महाराष्ट्र में यही काम राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना कर रही है। लेकिन उनका डंडे का धंधा सीधे पैसे कमाने के लिए नहीं , बल्कि वोटों की फसल काटने के लिए है। एक बार वोटों की फसल तैयार हो गई तो पैसे की भला कहां कमी रहती है। पिछले आम चुनावों में शिवसेना - बीजेपी के वोट बैंक में जिस तरह सेंध लगाई, उससे साफ है कि राज ठाकरे का धंधा कामयाब रहा। वैसे एक मुहावरा भी प्रचलन में है – डंडे के दम पर काम कराना। ये मुहावरा चलन में इतना है कि बंदूक और पिस्तौल के दम पर अच्छा चाहे बुरा, जैसा भी काम कराएं, कहा तो यही जाता है कि डंडे के दम पर काम हुआ। सही मायने में ये भी डंडे का धंधा ही है। ये बात और है कि जाखू में डंडे का धंधा, बाकी जगहों के व्यवसाय से तो अलग है ही।

Friday, June 26, 2009

ऐसे भी होते हैं लोग ....

उमेश चतुर्वेदी
जेठ की तपती दोपहरी के बीच शिमला जाकर इच्छा तो एक ही होती है... किसी पहाड़ी चोटी पर जाकर ठंडी हवाओं के बीच दूर-दूर तक पसरी वादियों का दीदार करें। लेकिन ऐसा कहां हो पाता है। मैदानी इलाके में रहने के आदी मानव मन को तपती गर्मी से निजात मिली नहीं कि पैरों में जैसे पंख लग जाते हैं और शुरू हो जाता है घूमने का सिलसिला...ठंडे मौसम के बीच पसरी खूबसूरत वादियों में फैले यहां के माल रोड और रिज इलाके का चप्पा-चप्पा छान मारने के लिए जी उछल पड़ता है।
जून की तपती गरमी मे दिल्ली से निकलकर शिमला पहुंचा हमारा मन भी कहां मानने वाला था। पूरा दिन कभी अंग्रेजों की ग्रीष्मकालीन राजधानी रही शिमला को अपने पैरों तले नापने में गुजर गया। शाम होते – होते पैरों ने जवाब देना शुरू कर दिया, लेकिन मन भला कहां मानने वाला था। लेकिन थकान और आंखों में तिर रही नींद के आगे पहले दिन हमें झुकना ही पड़ा। जाहिर है इसके बाद होटल में अपना बिस्तर ही सबसे बड़ा साथी नजर आया।
लेकिन शिमला आएं और लार्ड डफरिन के बनवाए भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान का दर्शन ना करें..ये कैसे हो सकता था। अंग्रेजों की गर्मी की राजधानी में कभी वायसराय का ये निवास हुआ करता था। ब्रिटिश और बेल्जियन वास्तुकला का बेहतरीन नमूना ये भवन आजादी के बाद भारत के राष्ट्रपति का ग्रीष्मकालीन निवास बना। तब सिर्फ गरमियों में कुछ दिनों के लिए राष्ट्रपति यहां रहने आते थे। पढ़ाई-लिखाई के शौकीन रहे दूसरे राष्ट्रपति डॉ.एस. राधाकृष्णन को इस खूबसूरत और विशाल भवन का बाकी समय खाली रहना खलता रहा, लिहाजा उन्होंने इसे 1965 में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान को दान दे दिया। तब से यहां पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च और अध्ययन मनन जारी है। बहरहाल आधुनिक भारत के इस बेहतरीन विद्यास्थान को देखने की इच्छा पढ़ने – लिखने में दिलचस्पी रखने वाले हर इंसान को होती है। लिहाजा सपरिवार हम भी माल रोड से भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान जा पहुंचे। पहले तो काफी देर तक टैक्सियों का इंतजार किया। साझे में चलने वाली इन टैक्सियों का कुछ ही महीनों से हिमाचल प्रदेश पर्यटन विभाग ने शुरू किया है। लेकिन उस दिन पता नहीं क्या वजह रही..घंटों इंतजार के बाद भी टैक्सियों के दर्शन नहीं हुए। तिस पर तुर्रा ये कि उनकी इस गैरहाजिरी के बारे में जानकारी देने की जरूरत भी कोई नहीं समझ रहा था। मजबूरी में हम बाल-बच्चों समेत पैदल ही उच्च अध्ययन संस्थान की ओर चल पड़े। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में लार्ड डफरिन द्वारा बनवाए इस भवन को देखने का लुत्फ उठाने के बाद जब होटल लौटने का वक्त हुआ तो सारा उत्साह काफूर हो चुका था। दरअसल लौटते वक्त की चढ़ाई के लिए पैर साथ नहीं दे रहे थे। लेकिन मजबूरी में पैदल लौटना ही था। घिसटते हुए हम अभी कुछ सौ कदम ही चले होंगे कि अचानक हमारे बगल में एक जिप्सी आकर रूकी। सेना पुलिस के जवानों की इस जिप्सी को देखकर हैरत होना स्वाभाविक था। हम अभी कुछ समझ पाते कि जिप्सी में से एक सवाल उछला – कहां जाना है?
जैसा कि सुरक्षा बलों की आवाज में जैसी तल्खीभरी कड़क होती है, वैसा कुछ नहीं था। हमें चूंकि माल रोड लौटना था, लिहाजा हमारा जवाब भी वही था। जिप्सी में सवार सेना पुलिस के दोनों जवान जवाब सुनकर कुछ देर ठिठके। दरअसल उन्हें कहीं और जाना था। लेकिन उन्होंने हमारे साथ छोटे बच्चों को देखा। इसके बाद उनका कर्तव्यबोध जाग गया। उन्होंने गाड़ी में बैठने का इशारा किया। इसके बाद हमने कब माल रोड की चढ़ाई पूरी कर ली, हमें पता ही नहीं चला। इस बीच उनसे हमारी निजी बातचीत भी हुई। मैं उनका नाम पूछते ही रह गया...लेकिन उन्होंने नाम नहीं बताया। बस उनका यही जवाब था, दूर-देश से आए लोगों के हम इतना भी काम आ सकें..बस यही काफी है। जब तक हम गाड़ी से उतरते, वे लोग जिस तेजी से आए थे, उसी तेजी से अपनी राह लौट गए।
जो हिमाचल सरकार सैलानियों के ही दम पर जमकर कमाई कर रही है..उसे भी ये आवाज सुननी चाहिए। टूरिस्ट स्थलों पर ठगी और लूट की घटनाएं देखते रहने के लिए आदी रहे हमारे मन के लिए तो ये अपनापा सुखद हैरत में डालने के काफी है।

Monday, June 8, 2009

ये हिंदी की जीत है....

उमेश चतुर्वेदी

ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, सचिन पायलट और अगाथा संगमा में अपने पिताओं की विरासत की राजनीति के अलावा क्या समानता है..ये सवाल कुछ लोगों को अटपटा जरूर लग सकता है। लेकिन जिन्होंने 28 मई को केंद्रीय मंत्रिमंडल का शपथ ग्रहण समारोह देखा है, उन्हें इस सवाल का जवाब मालूम है। अभिजात्य माहौल में पले-बढ़े, महंगे कान्वेंट और विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़े-लिखे इन नौजवानों के लिए अंग्रेजी वैसी ही है, जैसे छोटे-शहरों और गांवों के पिछड़े स्कूलों में पढ़े लोगों की सहज जबान हिंदी है। लेकिन इन नौजवान नेताओं ने राष्ट्रपति भवन के गरिमामय माहौल में जिस तरह हिंदी को अपनाया और देश की अहम भूमिका निभाने की शपथ इसी जबान में ली, उससे साफ है कि नए भारत को समझने का उनका नजरिया मनमोहन मंत्रिमंडल में शामिल उनके दूसरे साथियों से कुछ अलग है।
22 मई को जब मनमोहन मंत्रिमंडल की पहली खेप के 19 मंत्रियों में से महज चार ने ही हिंदी में ही शपथ ली थी। तब इसे लेकर खासकर हिंदी क्षेत्रों में हैरतनाक प्रतिक्रिया हुई थी। गैर हिंदीभाषी मंत्रियों को एक बारगी माफ भी कर दें तो ठेठ हिंदीभाषी इलाके के नेताओं का अंग्रेजी में शपथ लेना कम से कम हिंदीभाषी क्षेत्रों के लोग पचा नहीं पाए। वैसे कोई हिंदी में मंत्री पद की शपथ ले या फिर अंग्रेजी में, इसे वह नेता विशेष अपना निजी मामला बता सकता है, क्योंकि संविधान ने उसे ये छूट दे रखी है। लेकिन क्या सार्वजनिक जीवन में आए लोगों को इस आधार पर माफ किया जा सकता है। कम से कम उनके ज्यादातर वोटर इससे शायद ही सहमत हों। इसकी वजह ये नहीं है कि हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी है और एक आम भारतीय अपने नुमाइंदे से उसका भाग्यविधाता बनने की शपथ हिंदी में ही लेना पसंद करता है। दरअसल पूरे देश में वोट मांगने का जरिया भारतीय भाषाएं ही हैं। जहां हिंदी बोली-समझी जाती है, वहां नेता अपने वोटरों से हिंदी में ही वोट मांगते हैं। जहां हिंदी नहीं है, वहां के नेता अपने वोटरों से उर्दू, बंगला, गुजराती, मराठी, तमिल, मलयालम जैसी स्थानीय भारतीय भाषाओं में ही अपील करते हैं। अहिंदीभाषी इलाकों को छोड़ दें तो हिंदी भाषी इलाकों से चुनकर आए नेताओं का ये फर्ज नहीं बनता कि जिस भाषा में उन्होंने वोट मांगा है, उसी भाषा में अपने लोगों की नुमाइंदगी करें। कपिल सिब्बल, अजय माकन या श्रीप्रकाश जायसवाल ने शायद ही किसी से अंग्रेजी में ही वोट मांगा होगा। लेकिन उन्होंने जिस तरह अभिजात्य अंग्रेजी में शपथ ली, उससे लोग हैरत में पड़े। ऐसे लोगों के लिए पूर्वोत्तर के राज्य मेघालय से चुनकर आई अगाथा संगमा करारा जवाब ही मानी जाएंगीं, जिन्होंने गैरहिंदी भाषी होते हुए भी हिंदी में पूरे आत्मविश्वास से शपथ लेकर लोगों का मन मोह लिया, तालियां तो खैर सबसे ज्यादा बटोरी हीं।
आजादी के बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के सवाल पर पूरा देश एकमत था। लेकिन हिंदी को लेकर तत्कालीन नेहरूवादी व्यवस्था के दिल में क्या था, इसका उदाहरण है कि अंग्रेजी में सरकारी कामकाज करने को पंद्रह साल तक के लिए छूट दे दी गई। ऐसा माना गया कि इस दौरान हिंदी अपना असल मुकाम हासिल कर लेगी। लेकिन हुआ ठीक उलटा। सरकारी स्तर पर हिंदी आजतक अपना मुकाम हासिल नहीं कर पाई। लेकिन बाजार ने वह काम कर दिखाया, जो अंग्रेजी वर्चस्व वाली केंद्र सरकार की उपेक्षा के चलते नहीं हो पाया। जिस तमिलनाडु में हिंदी के खिलाफ हिंसक आंदोलन हुए, साठ से दशक में पूरा राज्य जलता रहा। उसी तमिलनाडु के लोग भी अब अपने बच्चों को खुशी-खुशी हिंदी पढ़ा रहे हैं। कभी अंग्रेजी अखबारों के लिए हिंदी की खबरें दोयम दर्जे की मानी जाती थीं। अब अंग्रेजी के ही अखबार चेन्नई में आ रहे इस बदलाव को खुशी-खुशी छाप रहे हैं। ये कोई मामूली बदलाव नहीं है।
एक दौर तक हिंदी फिल्में हिंदी भाषा के राजदूत की भूमिका निभा रही थीं। लेकिन नब्बे के दशक में आई टेलीविजन क्रांति ने इसमें और इजाफा ही किया है। इस दौरान टेलीविजन चैनलों ने हिंदी के प्रसार में जबर्दस्त भूमिका निभाई। कभी बंगाल, तमिलनाडु और कर्नाटक के लोग हिंदी के नाम पर नाकभौं सिकोड़ते थे, लेकिन ये टेलीविजन क्रांति का ही असर है कि अब इन गैर हिंदीभाषी इलाकों के बच्चों की पहली पसंद बंगला, तमिल या मलयालम टेलीविजन चैनल की बजाय हिंदी चैनल में ही काम करना है। इसके लिए उनका एक ही तर्क होता है, हिंदी टेलीविजन चैनल में काम करने से उनकी अखिल भारतीय पहचान बनती है। बंगला या मराठी में काम करने से उनकी दुनिया सिमट जाती है। और उन्हें ये सिमटी हुई दुनिया पसंद नहीं है। उदारीकरण में कई बुराइयां हैं। लेकिन ये भी सच है कि उसने मशहूर अंग्रेजी समालोचक ई एम फास्टर की उस अवधारणा को सच साबित किया है, जिसके मुताबिक अंतरराष्ट्रीय होने की पहली शर्त स्थानीय होना है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के जरिए स्थानीयता का जो महत्व बढ़ा है, उसके चलते हिंदी की ताकत बढ़ी है। मजे की बात ये है कि आज उदारीकरण के दौरान पली-बढ़ी पीढ़ी हिंदी की ताकत समझ रही है। लेकिन जिस मनमोहन सिंह ने इस उदारीकरण को बढ़ावा दिया, उनके ही मंत्रिमंडल के ज्यादातर मंत्री हिंदी और उसकी स्थानीयता की ताकत को नहीं समझ रहे हैं। मनमोहन मंत्रिमंडल के 56 सदस्यों ने अंग्रेजी में ही शपथ ली है, जबकि हिंदी में शपथ लेने वाले महज 22 लोगों ने ही देश की असल राष्ट्रभाषा हिंदी में शपथ ली।
मनमोहन मंत्रिमंडल के ज्यादातर मंत्रियों के इस रवैये से ये मान लिया जाय कि हिंदी अब भी गंवारों और जाहिलों की भाषा है। अंग्रेज हिंदी समेत समस्त भारतीय भाषाओं के लिए वर्नाक्युलर विशेषण का इस्तेमाल करते थे। जो आजाद भारत में भी चलन में है। वर्नाक्युलर लैंग्वेज का मतलब होता है दासों की भाषा। कहना ना होगा आजाद भारत में भी कम से कम हिंदी को लेकर ये मानसिकता शासक वर्ग के एक बड़े हिस्से में अब भी बनी हुई है। तभी हिंदी भाषी इलाके के भी राजनेता को भी सरकारी कामकाज अंग्रेजी में ही करने में गर्व का अनुभव होता है। कई के लिए तो अंग्रेजी का इस्तेमाल अमेरिका और यूरोप तक अपनी पैठ और पहुंच बनाने का माध्यम भी होती है। हालांकि वे अपने उभार को जनतंत्र का नतीजा बताते नहीं थकते। ये बात और है कि भाषा को लेकर उनका ये रवैया कम से कम उनके लोकतांत्रिक दावे को खोखला ही साबित करता है। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि ये पीढ़ी अब धीरे-धीरे बीते दिनों की बात बनती जाएगी। राहत की बात ये है कि हमारे पास अभिजात्य में रचे-पगे और अंग्रेजी माध्यम से पले-बढ़े ज्योतिरादित्य, सचिन, अगाथा या फिर जितिन प्रसाद जैसे नई पीढ़ी के लोग हैं। जो कम से कम अपनी पहली वाली पीढ़ी से भाषा के नाम पर प्रगतिशील और ठेठ देसी समझ जरूर रखते हैं। उम्मीद बनाए रखने के लिए उन पर भरोसा न करने का फिलहाल कोई कारण नजर नहीं आता।

Thursday, May 21, 2009

लोकतंत्र में बहिष्कार बना हथियार

उमेश चतुर्वेदी
हाल में संपन्न हुए आम चुनावों में कम मतदान को लेकर उठते सवालों का दौर अभी तक थमा नहीं है। गरमी के चलते मतदान कम हुआ या फिर वोटरों की उदासीनता इसकी बड़ी वजह बनी, इसे लेकर बहस-मुबाहिसे और चर्चाओं का दौर जारी है। लेकिन इन्हीं चुनावों का जिस बड़े पैमाने पर बहिष्कार हुआ..उस पर अभी लोगों का ध्यान कम गया है। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में ये पहला मौका है, जब लोगों ने खुलकर इतने बड़े पैमाने पर वोटिंग का बहिष्कार किया। अब तक लोग या तो वोट डालते रहे हैं या फिर मतदान केंद्र पर जाते नहीं रहे है। लेकिन इस बार जिस तरह तमाम लोकसभा सीटों के खासकर ग्रामीण इलाकों से मतदान के बहिष्कार की खबरें आईं...उससे लोकतांत्रिक भारत की नई तस्वीर उभरती है।
1973 में जयप्रकाश नारायण ने पीपुल्स फॉर डेमोक्रेसी का जो अभियान शुरू किया था, उसका मकसद था निचले पायदान तक लोकतंत्र को पहुंचाना। आज से करीब साढ़े तीन दशक पहले जब जेपी ने ये आंदोलन शुरू किया था..तो उसका मतलब साफ है कि उस वक्त भी देश की रहनुमाई करने वाले सफेदपोश लोगों का ध्यान मजलूम और कमजोर लोगों तक उस शिद्दत से नहीं पहुंच पाया था..जितनी की उम्मीद की जा रही थी। अगर 1952 के पहले आमचुनाव को छोड़ दें, तो बाद के तकरीबन सारे चुनावों में मतदाताओं को वायदों का लंबा पिटारा थमाया जाता रहा है और चुनाव बीतने के बाद उन्हें तबियत से भुलाया जाता रहा है। जयप्रकाश नारायण इसके लिए मौजूदा लोकतांत्रिक ढांचे को ही जिम्मेदार मानते थे। यही वजह है कि जब उन्होंने पीपुल्स फॉर डेमोक्रेसी का आंदोलन छेड़ा तो उसमें उनकी एक मांग जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने की भी थी। उनका मानना था कि देश के लोकतांत्रिक ढांचे में जनप्रतिनिधि, चाहे वह सांसद हो या विधानसभा का सदस्य..उसे तभी जिम्मेदार बनाया जा सकेगा, जब लोगों को उसे वापस बुलाने का अधिकार हो। स्विटजरलैंड जैसे कुछ देशों में ये नियम है भी। जेपी के आंदोलन में राइट टू रिकाल को भी अहम स्थान दिया गया था।
1973 के बाद से लेकर अब तक देशभर की नदियों में ना जाने कितना पानी बह गया है। राजनीति की दुनिया में भी ना जाने कितने बदलाव हो चुके हैं। लेकिन जयप्रकाश नारायण का ये सपना पूरा नहीं हो पाया। लेकिन लोग अब जागरूक होने लगे हैं। अब लोगों को लगने लगा है कि संसद और विधानसभा में हरे-लाल कालीनों पर पहुंचने वाले नेताओं की वकत उनके वोटों की ही बदौलत है। लोगों को ये भी पता चल गया है कि जब तक वे दबाव नहीं बनाएंगे, उनके ये नेता उनकी मांगों पर ध्यान नहीं देंगे। और एक बार जीत गए तो फिर जनता के दरबार में उनकी वापसी संभव नहीं होगी। रही बात उनकी जरूरी सुविधाएं भी पूरा करने की ...तो नेता शायद ही याद रखें। लिहाजा लोग पहले भी वोट के बहिष्कार का रास्ता अख्तियार करते रहे हैं। लेकिन बीते चुनावों में इस बार ये चलन कुछ ज्यादा ही दिखा। हरियाणा के जींद जिले के झांझकला के लोग पानी की गुहार लगाते- लगाते थक गए। लेकिन उनकी आवाज से उनके प्रतिनिधियों के कानों पर जूं नहीं रेंगीं। लिहाजा इस बार उन्होंने वोट के बहिष्कार का ऐलान कर दिया। उनके ऐलान ने हर पार्टी के नेताओं को मुश्किल में डाल दिया। शायद ही किसी बड़े दल का नेता था, जो वोटरों के दरबार में हाजिरी लगाने नहीं पहुंचा। उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के सिमरिया के लोग जहां विकास को लेकर वोटिंग के बहिष्कार पर आमादा हो गए तो टिकरा तिवारी, भारौनी, मजरा कंचनपुरा के लोगों ने कंचनौधा बांध में अधिग्रहीत की गई अपनी जमीनों के मुआवजे को पूरा करने की मांग को लेकर वोटिंग का बायकाट किया। औरैया जिले के गोपालपुर, चिरैयापुर और नवलपुर के लोगों का नारा ही था, विकास नहीं तो वोट नहीं। वोटिंग बहिष्कार की ये लिस्ट सिर्फ उत्तर प्रदेश से ही इतनी लंबी रही कि पूरा पेज ही भर जाय।
ऐसा नहीं कि उनके बहिष्कार को तुड़वाने और मतदान केंद्रों पर लाने के लिए उन्हें दबाव-धमकियां नहीं दी गईं। लेकिन गांधी की राह पर चलते हुए लोगों ने हर दबाव का मुकाबला किया और वोट डालने नहीं पहुंचे। फतेहपुर जिले के जुनैदपुर, सीतापुर के बिजनापुर, उन्नाव के बैरी रसूलपुर, बांगड़मउ, बिशनपुर, लढ़पुर के लोगों ने भी कुछ ऐसी ही हुंकार भरी कि नेताओं को दिन में ही तारे नजर आने लगे। मिश्रिख के गोंदरामऊ और गपोली इलाकों में भी लोगों ने कह रखा था कि वे इस बार नेताओं के झांसे में नहीं आने वाले हैं। फिरोजाबाद जिले के दलियापुर, नगला दुहिली और नसरीपुर के कुछ लोगों को पुलिस और अफसरों का कोपभाजन भी बनना पड़ा। लेकिन वे वोटिंग बहिष्कार के अपने फैसले से टस से मस नहीं हुए।
ऐसी खबरें तकरीबन देश के हर उस हिस्से से आईं, जो आजादी के बासठ साल बाद भी बुनियादी सहूलियतों से महरूम हैं। लोगों को लग गया है कि उनके वोट में कितनी ताकत है। अगर ऐसा नहीं होता तो नेताओं के मान-मनौव्वल का दौर बुनियादी सुविधाओं से दूर इन गांवों की धूल भरी गलियों के बीच नहीं चल पाता। कई जगह नेताओं को मुंह छुपाने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता। लोगों में आई इस तबदीली को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी और उनकी बढ़ती जागरूकता के तौर पर देखा जाना चाहिए। अगर ऐसे लोगों को जेपी द्वारा शुरू किए गए राइट टू रिकॉल का अधिकार मिल जाए तो सोचना पड़ेगा कि देश की लोकतांत्रिक दशा और दिशा क्या होगी।

Sunday, May 10, 2009

संजय दत्त को अब क्यों याद आ रहा है मुसलमान का बेटा होना


उमेश चतुर्वेदी
अपनी जादू की झप्पी से फिल्मी पर्दे पर लोगों की समस्याएं दूर करने में मुन्नाभाई भले ही सफल रहे हों, लेकिन राजनीति के अखाड़े में उनकी ये झप्पी उन्हीं पर भारी पड़ती नजर आ रही है। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को जादू की झप्पी देने की उनकी कोशिश को चुनाव आयोग ने सही नहीं माना और आखिरकार प्रतापगढ़ के जिलाधिकारी और जिला निर्वाचन अधिकारी को उन्हें लिखित में माफी मांगनी पड़ी। चूंकि चुनाव आयोग और अधिकारियों ने इस बयान का संज्ञान लिया, इसलिए कम से कम चुनाव प्रचार में अब संजय दत्त की इस झप्पी पर रोक तो लगती नजर आ रही है।
लेकिन इससे भी कहीं ज्यादा वे एक और खतरनाक बयान देते फिर रहे हैं। लेकिन इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। संजय दत्त कहते फिर रहे हैं कि जब वे टाडा के तहत जेल में बंद थे तो उन्हें पुलिस वाले मुसलमान का बेटा कहकर पिटाई किया करते थे। संजय कहते फिर रहे हैं कि चूंकि उनकी मां मुसलमान थीं, इसलिए उन्हें पुलिस वाले जेल में उत्पीड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। संजय दत्त ये बयान जिस समाजवादी पार्टी के मंचों से देते फिर रहे हैं, सियासी और वोटरों की दुनिया में माना जाता है कि वह मुसलमानों की रहनुमाई करती है। लिहाजा मुन्नाभाई के इस बयान पर जगह-जगह तालियां जमकर बज रही हैं और इस पर कोई सवाल नहीं उठ रहा है। अव्वल तो भारतीय जनता पार्टी को ये सवाल उठाना चाहिए था, हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की उसकी कोशिशों में एक कोशिश और भी जुट जाती। लेकिन उसे भी संजू बाबा का ये बयान भड़काऊ और सवालिया घेरे वाला नहीं लग रहा है। बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस इस बयान पर इसलिए सवाल नहीं उठा पा रहे हैं, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि चुनावी दौर में जो भी मुस्लिम मतदाता उसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं, वे कहीं विदक नहीं जायं।
लेकिन इससे इस बयान पर सवाल उठाने की गुंजाइश खत्म नहीं हो जाती। ये सच है कि संजय दत्त की मां नरगिस दत्त भले ही मुसलमान थीं, लेकिन उनका नाम सामने आते ही इस देश के जेहन में मदर इंडिया, श्री चार सौ बीस, आवारा जैसे ढेरों फिल्मों की नायिका की छवि उभरती है। बुर्के में ढंकी और लदी-फदी कोई आम मुसलमान महिला का अक्स नहीं उभरता। शायद ही किसी को याद है कि संजय दत्त को इसके पहले किसी ने किसी मुसलमान के बेटे के तौर पर याद किया हो। सब उन्हें सुनील दत्त के बेटे के ही तौर पर जानते रहे। अगर मुसलमान और हिंदू के खांचे में उन्हें बांटकर देखा जाता रहता तो नाम, राकी और साजन से लेकर खलनायक और मुन्नाभाई एमबीबीएस जैसी फिल्में सफलता का परचम नहीं लहरातीं। जिनके दम पर वे लोकप्रियता के उंचे पायदान पर खड़े हैं और उनकी ये लोकप्रियता ही है कि समाजवादी पार्टी और उसके कर्ता-धर्ता अमर सिंह ने उन्हें प्रचार मैदान में उतार रखा है।
संजय दत्त को सचमुच पुलिस वालों ने कितना उत्पीड़ित किया, इसे उन दिनों के टीवी फुटेज को ही देखकर समझा जा सकता है, जब वे टाडा कोर्ट में अपनी हाजिरी बजाने के लिए जाते थे। अदालत के बाहर सिक्युरिटी चेक के पहले उन्हें देखते ही जिस तरह पुलिस वालों की बांछें खिल उठती थीं, इसे पूरे देश ने देखा है। कुछ पुलिस वाले उत्साह में ये भूल भी जाते थे कि लोकप्रियता के पायदान पर जो शख्स खड़ा है और अदालत में पेशी के लिए आ रहा है. वह आरोपी है। इसी झोंके में वे संजय दत्त से हाथ तक मिला बैठते थे। क्या आपको लगता है कि दाऊद इब्राहीम या बबलू श्रीवास्तव कोर्ट में पेश करने के लिए लाया जाएगा तो लोग उससे हाथ मिला बैठेंगे। अदालतों में रसूखदार और ताकतवर ना जाने कितने तरह के अपराधी रोज आते हैं। लेकिन कितने पुलिस वालों की हिम्मत है कि वे सरेआम कैमरे के सामने उनसे हाथ मिला लें। लेकिन संजय दत्त से पुलिस वाले हाथ मिलाने से नहीं हिचकते थे। जिन्होंने ये फुटेज देखे हैं, उन्हें याद है कि जब संजय दत्त आते थे तो महिला सिपाहियों के चेहरे पर वैसी ही मुस्कुराहट और उत्साह नजर आता था, जैसे किसी लोकप्रिय अभिनेता को नजदीक से देखने के बाद आता है। अब जबकि संजय दत्त ये बयान देते फिर रहे हैं और समाजवादी पार्टी इसे जगह-जगह भुनाने की कोशिश कर रही है, ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि कोर्ट के बाहर संजय दत्त से हाथ मिलाने वाले सारे या अधिकतर सिपाही मुसलमान थे...निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में होगा। जब सिपाही कोर्ट में पेश होने जाते वक्त संजय दत्त से हाथ मिला सकते हैं तो क्या वे जेल में उन पर अत्याचार कर सकते हैं। ऐसा नहीं कि संजय दत्त जेल जाने से पहले सुपरहिट फिल्में नहीं दे सके थे। राकी और नाम उनके जेल जाने से पहले की सुपर हिट फिल्में हैं। क्या तब जेल कर्मचारियों को ये पता नहीं होगा कि संजय दत्त हिंदी रजतपट के कामयाब हीरो हैं। साफ है कि इन सब सवालों का जवाब ना में होगा।
अब संजय दत्त समाजवादी पार्टी के नेताओं के समझाने से खुद को मुसलमान का बेटा बताते फिर रहे हैं या फिर अपनी मनमर्जी से...ये तो गहन शोध का विषय है। लेकिन ये भी सच है कि संजय दत्त की असल दुनिया हिंदी सिनेमा का रजतपट ही है। जहां जाति और धर्म की बेड़ियों के खांचे में बांधकर अभिनेताओं के काम पर तालियां नहीं बजाई जातीं। वहां मधुबाला, तब्बू और माधुरी दीक्षित पर सीटियां धर्म और जाति को देखकर नहीं बजतीं। वहां उनका काम और उनका अभिनय देखा जाता है। सियासी मैदान में प्रचार से जाने के पहले काश संजय दत्त इस पर भी ध्यान देते।

सुबह सवेरे में