Friday, November 13, 2009

बलिया के चारबज्जी रेल की याद


उमेश चतुर्वेदी
1984 के जुलाई महीने की उमस भरी गर्मी में राहत की उम्मीद लेकर मैं अपने एक सहपाठी मित्र की दुकान पर पहुंचा। बलिया स्टेशन पर सर्वोदय बुक स्टाल नाम की आज भी ये दुकान वैसे ही खड़ी है – जैसी अस्सी के दशक में थी। तब मैं ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था और जिला मुख्यालय से रोज ब रोज के साबका ने किशोर आंखों में साहित्य और पत्रकारिता के लिए अनजान से सपने रोपने शुरू कर दिए थे। ऐसे में मेरे सहपाठी की दुकान मेरे लिए ज्यादा मुफीद थी। रोजाना छोटी लाइन की छुकछुक करती भाप इंजन से चलने वाली ट्रेनों के सहारे हमें अपने इंटर कालेज में आना होता था और वापसी भी ट्रेन से करनी होती। ऐसे में स्टेशन की भीड़भरी गर्मी में ये दुकान मुझे दो तरह की राहत देती थी- पंखे के नीचे सुकून से बैठने और मुफ्त में मनचाही किताबें पढ़ने की..यहां मैंने न जाने कितनी किताबें पढ़ी, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, पत्रकारिता और सेक्स...सबकुछ खैर....इसकी चर्चा फिर कभी .....

इसी दौरान किताबों के नए आए सेट की एक किताब पर नजर गई ...कोहबर की शर्त..किताब के लेखक के बारे में पढ़ा, बलिया जिले के बलिहार गांव के ही निवासी थे केशव प्रसाद मिश्र। इस किताब ने मुझे इसलिए भी आकर्षित किया – क्योंकि इसकी पहली ही लाइन की शुरूआत उसी चार बजे की ट्रेन की चर्चा से होती है – जिससे रोजाना शाम को हम अपने घरों के लिए लौटते थे। कोहबर की शर्त में आपको ये लाइन कुछ ऐसे मिलेगी – चारबज्जी ट्रेन हांफती हुई सी खड़ी थी। कोहबर की शर्त की जब-जब मेरे सामने चर्चा होती है – मेरी स्मृतियों में भाप इंजन वाली वह चार बजे वाली ट्रेन आ जाती है। जिसे हम पहली ट्रेन भी बोला करते थे। तो कुछ इस नास्टेलजिक अंदाज में मेरा कोहबर की शर्त से परिचय हुआ।
ये तो बहुत बाद में जान पाया कि 1982 में जिस गाने - कवन दिसा में लेके चला रे बटोहिया - को सुनकर मैं अपनी मां से उस फिल्म को देखने की जिद्द करता था, वह फिल्म नदिया के पार इसी उपन्यास पर बनी थी। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि अपनी ही माटी की कहानी पर बनी इस फिल्म को मैं बहुत बाद में देख पाया – क्योंकि तब मेरे परिवार की नजर में फिल्म देखना उतना ही खराब काम था – जितना शराब पीना। 1982 में बनी ये फिल्म सुपरडुपर हिट रही। हालत ये थी कि लोग किरासन तेल वाला स्टोव और खाना बनाने का बर्तन तक लेकर सिनेमा हाल जाते थे कि अगर उस शो का टिकट नहीं मिला तो बाद वाले शो में जरूर देखेंगे। लेकिन दुर्भाग्य देखिए....बलिया के पढ़े-लिखे लोगों तक को ये पता नहीं चला कि जिस चौबेछपरा, बलिहार और छेड़ी से वे रोजाना गुजरते हैं – उन्हीं गांवों की ये कहानी है। फिल्म की ज्यादातर शूटिंग जौनपुर में हुई थी। लिहाजा लोग इसे जौनपुर की ही कहानी मानते रहे। मजे की बात ये कि जिस लेखक की कहानी पर ये जबर्दस्त फिल्म बनी – उस लेखक को लोग जान भी नहीं पाए।
केशव प्रसाद मिश्र बलिया जिले के बलिहार गांव के ही निवासी थे। पढ़ाई-लिखाई के बाद उन्होंने इलाहाबाद के मशहूर एजी ऑफिस यानी ऑडिटर जनरल के दफ्तर में नौकरी कर ली। और इलाहाबाद के ही होकर रह गए। कोहबर की शर्त जैसा भावुकता पूर्ण उपन्यास लिखने वाले इस लेखक को वह चर्चा भी नहीं मिली – जिसके वे हकदार थे। उपन्यास पढ़ने के बाद अगर आपकी आंखों से आंसू ना गिरे – ऐसा हो ही नहीं सकता। फिल्म देखकर लोग भावुक तो होते ही रहे हैं। आखिर क्या वजह रही कि उन्हें वह चर्चा नहीं मिली – जिसके वे हकदार थे। इसे समझने के लिए वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह का एक अनुभव ही काफी रहेगा। 1982 में नदिया के पार के सुपर-डुपर हिट होने के बाद अरविंद , इलाहाबाद में केशवप्रसाद मिश्र का इंटरव्यू लेने जा पहुंचे। तब अरविंद इलाहाबाद में ही रहते थे। केशव प्रसाद मिश्र ने अरविंद की आवभगत तो की, लेकिन पहले नदिया के पार फिल्म देख आने का सुझाव दे डाला। बातचीत के लिए तैयार नहीं हुए। आज के दौर में जब किताबें आने से पहले ही चर्चाओं और गोष्ठियों के जरिए हंगामा बरपाने और खुद को चमकाने की कोशिशें तेज हो जाती हैं – केशव प्रसाद मिश्र इन सबसे दूर थे। हिंदी के बड़े-बड़े लेखकों से उनका साबका पड़ता रहा। उसी बलिया के दूधनाथ सिंह और अमरकांत से लेकर शेखर जोशी, उपेंद्र नाथ अश्क, भैरव प्रसाद गुप्त आदि से संपर्क रहा। लेकिन केशव जी चर्चाओं से दूर भागते रहते थे। पूर्वांचल की माटी के ही एक और मूर्धन्य कलमकार विवेकी राय उन्हें एक अच्छे इंसान के तौर पर शिद्दत से याद करते हैं। उनका कहना है कि केशव प्रसाद मिश्र में आधुनिक दौर का बड़बोलापन नहीं आ पाया था। इसलिए वे खुद की चर्चाओं से हमेशा दूर रहा करते थे। साहित्यिक गोष्ठियों और सेमिनारों में जाते तो थे – लेकिन खुद बोलने से बचते थे। कुछ वैसे ही जैसे उनके उपन्यास कोहबर की शर्त की नायिका गूंजा की बड़ी बहन चुपचाप सबकुछ खुद पर ही झेलती रहती है। कुछ – कुछ कोहबर की शर्त की वैद्य जी की तरह वे थे, जो अपनी जिम्मेदारियों को चुपचाप निभाते रहे।
1936 में - देहाती दुनिया - के जरिए आंचलिक उपन्यास की दुनिया में जो बिरवा आचार्य शिवपूजन सहाय ने रोपा था, नागार्जुन ने बलचनमा, रतिनाथ की चाची और वरूण के बेटे के जरिए उसे आगे बढ़ाया। लेकिन आंचलिक लेखन में नई क्रांति मैला आंचल और परती परिकथा के जरिए फणीश्वर नाथ रेणु लाने में सफल रहे। विवेकी राय ने भी नमामि ग्रामं, सोनामाटी और समर शेष है जैसे उपन्यासों के जरिए आंचलिक उपन्यासों की दुनिया में सार्थक हस्तक्षेप किया है। केशव प्रसाद मिश्र इसी कड़ी के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे। हैरतअंगेज समानता आचार्य शिवपूजन सहाय के देहाती दुनिया, मैला आंचल और कोहबर की शर्त – तीनों में है। जहां पहले और आखिरी उपन्यास में भोजपुरी इलाके की महिलाओं के दर्द को आवाज देने की कोशिश की गई है, वहीं यही काम मैला आंचल के जरिए रेणु जी पूर्णिया और कटिहार के आसपास की महिलाओं और लड़कियों की संवेदना को नए सुर देते हैं। मैला आंचल की कमली और कोहबर की शर्त की गूंजा की हालत में आज भी खास बदलाव नहीं आया है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि दोनों ही नायिकाएं अपने मनचाहे साथियों को पा लेती हैं। इसके लिए उन्हें भले ही चाहे जितना संघर्ष करना पड़ता है। लेकिन हकीकत में ये आज भी दूर की कौड़ी है। आज भी भोजपुरी इलाके की लड़कियों को वह स्वतंत्रता हासिल नहीं है। लेकिन इन लेखकों ने अपनी रचनाओं के जरिए एक क्रांति लाने की कोशिश जरूर की। फिल्म और टेलीविजन माध्यमों पर आकर इन नायिकाओं का दर्द घर-घर की महिलाओं का दर्द बन गया। फिल्म माध्यम में आने के बाद रेणु को लेकर चर्चाओं का विस्तार ही हुआ – उनकी कहानी लालपान की बेगम पर बनी फिल्म तीसरी कसम के जरिए भी लोग रेणु को जानते हैं। मैला आंचल को टीवी पर जब पेश किया गया - तब भी उन्हें ढंग से याद किया गया। लेकिन केशव प्रसाद मिश्र यहीं पर पिछड़ गए। 1982 में आई नदिया के पार के लेखक के तौर पर उन्हें उस बलिया के लोग भी कायदे से नहीं जान पाए – जिनके बीच के केशव जी थे। जहां रहकर उस चारबज्जी ट्रेन की उमस और दुर्गंधभरी कितनी यात्राएं बलिया से रेवती स्टेशन के बीच की थी। ( उपन्यास की भूमिका में इसका भी जिक्र है। ) राजश्री वालों ने 1982 में नदिया के पार बनाने के बाद केशव जी को सम्मान तो दिया था। लेकिन 1994 में जब सूरज बड़जात्या अपनी इसी फिल्म का शहरी संस्करण – हम आपके हैं कौन – बनाई तो उस समय इस लेखक को कायदे से याद नहीं किया गया। लेकिन माधुरी दीक्षित और सलमान खान की इस फिल्म से बड़जात्या परिवार की तिजोरी कितनी भरी – ये सबको पता है।
केशव प्रसाद मिश्र की एक और महत्वपूर्ण रचना है उनका उपन्यास, देहरी के आरपार । कोहबर की शर्त की नायिका गूंजा को उसकी चाहत तो मिल गई – लेकिन ममता की देहरी को पार करने की इच्छा पूरी ही नहीं होती। कभी उसके पिता रामाधार कौशिक की कृपणता तो कभी उनकी भोगवादी दृष्टि ममता की राह में आड़े आ जाती है। बिन मां की ये बच्ची अपनी चाहतों – अपने सपनों को रोजाना टूटते हुए देखती है। पूरबिया बाप इलाहाबाद के पढ़े-लिखे माहौल में खुद को आधुनिक दिखाने की कोशिशों में जुटा रहता है। लेकिन अंदर से वह अपनी दकियानूसी सोच को छोड़ नहीं पाता। मां नहीं है – लिहाजा अपना दर्द ममता किससे बांटे। इसी बीच उसकी हेमंत से भेंट होती है। कुछ ऐसा संयोग बनता है कि हेमंत से शादी के लिए रामाधार कौशिक तैयार हो जाते हैं। ममता हेमंत से बंध जाती है। लेकिन उसकी कसक बाकी रह जाती है। ममता जो ममता के तौर पर जाना जाना चाहती है – उसकी वह पहचान नहीं बन पाती। अब उसकी नई पहचान हेमंत बन जाते हैं। ममता का दर्द कुछ कम तो होता है – लेकिन कसक के साथ। उसकी कसक को केशव जी ने जो शब्द दिए हैं – भावुक आंखों में आंसू लाने के लिए काफी हैं। आप भी गौर फरमाइए –
“ आज रात के साढ़े दस बजे तक , परिचय के लिए डॉ. रामाधार कौशिक एमबीबीएस की बेटी ममता हूं , उसके बाद हेमंत से जुड़ जाउंगी। उस हेमंत से, जिन्होंने मुझे नई जिंदगी दी है। जिंदगी का अर्थ दिया है, जीने की रूचि जगाई है- इस थके –हारे, निराश मन में, आस और विश्वास भरा है। ”
इस ममता में मुझे आज भी बलिया, गाजीपुर, छपरा, बनारस जैसे इलाके की ढेरों ममताएं नजर आती हैं। इस उपन्यास के प्रकाशित हुए करीब तीन दशक बीत गए हैं – लेकिन ममता की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है।
आज के दौर के महत्वपूर्ण कवि हैं केदारनाथ सिंह। केदार जी का गांव चकिया , केशव जी के गांव बलिहार से चार-पांच किलोमीटर की ही दूरी पर है। दोनों ने रचनात्मकता के नए प्रतिमान बनाए। केदारजी को सभी जानते हैं। केशव जी की उतनी पूछ और पहुंच नहीं रही। लेकिन मेरी स्मृतियों में दोनों की रचनाओं का एक-एक बिंब टंगा हुआ है। केदार जी की एक कविता है – मांझी का पुल। बलिया-छपरा रेलमार्ग पर यूपी-बिहार सीमा पर घाघरा पर बने इस रेलवे पुल की धमक रात के गहरे सन्नाटे में दूर-दूर तक सुनाई देती है। केदार जी अपनी कविता में कहते हैं – दूर कहीं स्मृतियों में टंगा है मांझी का पुल।
बलिया की रचनात्मकता की जब भी चर्चा होती है – मेरे भी अंदर कहीं न कहीं मांझी का ये पुल फांस की तरह टंगा नजर आता है। इसके साथ ही याद आती है हांफती सी खड़ी चारबज्जी ट्रेन, जिसे इसी मांझी के पुल से रोजाना गुजरना होता है।
केशव जी हमारे बीच नहीं हैं – लेकिन उनकी रचनाधर्मिता की कीर्ति को कभी हम मांझी के पुल के पार भी ले जा सकेंगे। जवाब हम सबको ढूंढ़ना है।

Saturday, November 7, 2009

कोड़ा अभी क्यों नजर आ रहे हैं भ्रष्टाचारी



उमेश चतुर्वेदी

झारखंड में जारी चुनावों और पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के खिलाफ छापेमारी के बीच कोई संबंध है...ये सवाल इन दिनों बड़ी शिद्दत से उठ रहा है। सवाल उठने की वजह भी है। झारखंड जैसे छोटे और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर राज्य का पांच साल तक मधु कोड़ा बेरहमी से शोषण करते रहे और अकूत संपति बनाते रहे – इसकी जानकारी आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय और इंटेलिजेंस ब्यूरो को एक दिन में तो मिली नहीं होगी। जाहिर है- इसकी खबर पहले भी अपनी इन दमदार एजेंसियों के जरिए केंद्र सरकार को रही ही होगी। लेकिन तब तो केंद्र सरकार ने मधु कोड़ा के खिलाफ कोई कदम उठाया नहीं। उनके ठिकानों पर छापे भी नहीं मारे गए। लेकिन जैसे ही झारखंड में चुनावों का ऐलान हुआ- मधु कोड़ा अचानक ही केंद्र सरकार की नजर में इतने बड़े खलनायक बन गए कि उनके खिलाफ जांच में केंद्र सरकार को इंटरपोल की मदद लेनी पड़ रही है। इन विधायकों की अकूत कमाई के जो राज खुल रहे हैं, वे चौंकाने वाले हैं।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि जो मधु कोड़ा आज झारखंड के अब तक के सबसे बड़े घोटाले और निर्मम अवैध कमाई के चलते खलनायक बन चुके हैं, अब तक उनकी 1450 करोड़ की कमाई का पता चल चुका है, उसमें क्या कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं है। कांग्रेस गांधी जी के बताए रास्ते पर चलने का दावा करती है। गांधी जी ने कहा था कि अन्याय करने से ज्यादा अन्याय सहने वाला भी होता है। पता नहीं कांग्रेस ने अन्याय सहा या नहीं या फिर उसके विधायकों ने कोड़ा न्याय में हिस्सेदारी की या नहीं...लेकिन ये सच जरूर है कि इस भ्रष्टाचार में वह भी बराबर की भागीदार है। क्योंकि सांप्रदायिकता को सत्ता से दूर रखने के नाम पर अपने 11 विधायकों के सहयोग से उसने मधु कोड़ा की 2007 में सरकार बनवाई थी। इतना ही नहीं, उसने अपने विधायक आलमगीर को विधानसभा का अध्यक्ष भी बनवाया। सरकार की वह महत्वपूर्ण सहयोगी रही है। यह कौन भरोसा करेगा कि राज्य सरकार के आठ हजार करोड़ के बजट में से चार हजार करोड़ का घोटाला होता रहे। इतना बड़ा घोटाला कि राज्य के टटपूंजिए ठेकेदार और पत्रकार तक मालामाल होते रहे और सरकार की महत्वपूर्ण सहयोगी को पता तक नहीं चल पाया। शायद पंजाब के बाद ये झारखंड पहला राज्य है, जिसके राज्यपाल और उनके दफ्तर तक पर खुलेआम भ्रष्टाचार का आरोप लगा। तब कांग्रेस या केंद्र सरकार ने चुप्पी साधे रखी। उसे अपने राजधर्म के निर्वाह की याद नहीं आई।
झारखंड में चुनावी बिगुल बज चुका है। लोकसभा चुनावों को बीते अभी छह महीने भी नहीं बीते हैं। तब भारतीय जनता पार्टी ने इस राज्य में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई थी। केंद्रीय सरकार की अगुआई कर रही कांग्रेस को पता है कि भाजपा को जनसमर्थन का वह उफान अभी कम नहीं हुआ है। हरियाणा, महाराष्ट्र और अरूणाचल प्रदेश में कांग्रेस ने सत्ता की सीढ़ी को एक बार फिर पार कर लिया है, लेकिन झारखंड में एक बार फिर इन तीनों राज्यों का इतिहास दोहराया जाता नहीं दिख रहा है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी कांग्रेस को हिंदी पट्टी में जिंदा करने के अभियान में शिद्दत से जुटे हुए हैं। उनकी कोशिशों का फायदा पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में तो दिखा, लेकिन बिहार और झारखंड की धरती पर उनकी कोशिशें कामयाब होती नहीं दिख रही हैं। ऐसे में सत्ता की ताकत का सहारा लिया जा रहा है और ऐन चुनावों के वक्त ही मधु कोड़ा, एनोस एक्का और हरिनारायण सिंह समेत भ्रष्ट पूर्व मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ छापेमारी का अभियान शुरू कर दिया गया है।
इस पूरी कवायद का मकसद जितना झारखंड की भ्रष्टाचार मुक्त करना नहीं है, उससे कहीं ज्यादा राज्य की चुनावी बयार में फायदा उठाना है। अगर ऐसा नहीं होता तो केंद्र की ओर से इस भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए पहले से ही प्रयास किए जा रहे होते। मधु कोड़ा के भ्रष्टाचार के किस्से तो रांची के सियासी गलियारों से लेकर राजधानी दिल्ली के राजनीतिक चौराहों तक चटखारे लेकर सुनाए जा रहे थे। आम लोगों तक को पता था कि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर झारखंड की माटी का किस कदर दोहन हो रहा है। पत्रकारीय गलियारे भी इन चटखारों से भरे पड़े थे। तब किसी सरकारी एजेंसी या जिम्मेदार विभाग को इसके खिलाफ कार्रवाई करने की क्यों नहीं सूझी।
मधु कोड़ा हों या एनोस एक्का, उनके पास इतनी सियासी ताकत और कौशल नहीं है कि वे अपने पर हो रहे सरकारी अमले की छापेमारी को भी खुद के पक्ष में साबित कर दें। देश के दलित और पिछड़े वर्ग के कई नेताओं ने अपने खिलाफ छापेमारी और सरकारी कार्रवाई को पूरी कुशलता के साथ अपने वोटरों के खिलाफ भावनात्मक तौर पर उभारने में कामयाब होते रहे हैं। लेकिन झारखंड में ऐसा होता नहीं दिख रहा है। कांग्रेस को झारखंड के इन नेताओं की इस कमजोरी की पूरी जानकारी है। शायद यही वजह है कि कांग्रेस इसका भी चुनावी फायदा उठाने की तैयारी में है।
सन 2000 में जब छोटे राज्यों का गठन हुआ था तो उसकी सबसे बड़ी वजह ये बताई गई थी कि राजनीतिक आकाओं की उपेक्षा के चलते उस खास क्षेत्र का वह विकास नहीं हुआ, जिसके वे हकदार थे। तब तर्क दिया गया कि छोटे राज्यों की कमान उनके अपने बीच के नेताओं के हाथ होगी और वे अपनी माटी और अपने लोगों की समस्याओं को ध्यान में रखकर इलाके का समुचित विकास करेंगे। लेकिन दुर्भाग्य ये कि छोटे होने बाद ये राज्य भ्रष्टाचार के और बड़े भंवर में फंस गए। रही-सही कसर छोटे-छोटे ग्रुपों की राजनीतिक और चुनावी सफलता ने पूरी कर दी। झारखंड इस गिरावट का बेहतर उदाहरण बन गया है। उससे भी बड़ा दुर्भाग्य ये कि इस गिरावट में राष्ट्रीय पार्टियां - रहा किनारे बैठ - की तर्ज पर भागीदार रहीं। इससे भी बड़े दुर्भाग्य की बात ये कि भ्रष्टाचार पर रोक लगाने की असल वजह टैक्स चुकाने वाली माटी के असल हकदार लोगों को फायदा पहुंचाना नहीं रहा, बल्कि इसका भी इस्तेमाल सियासी फायदे के लिए किया जा रहा है। ये बात नंगी आंखों से सबको नजर आ रही है। इससे बड़े दुर्भाग्य की बात और क्या होगी कि झारखंड के भूखे-नंगे मूल निवासियों के हितों की बात दिल से कोई नहीं कर रहा है। यहां के माटी पुत्रों को आज भी छोटी नौकरियों के लिए बाहर जाना पड़ रहा है। दिल्ली- मुंबई की घरेलू नौकरानियों के तौर पर झारखंड की बच्चियों को अपने दिन काटने पड़ रहे हैं। आए दिन उनसे यौन दुर्व्यहार की खबरें महानगरीय अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं। साफ है इसके लिए जिम्मेदार मधु कोड़ा, एनोस एक्का और हरिनारायण जैसे राजनेता ही हैं। वहीं उनका साथ देने के चलते शिबू सोरेन, कांग्रेस और आरजेडी भी इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। ऐसा नहीं कि इस कुचक्र को झारखंड की जनता-जनार्दन नहीं समझ पाई है। देखना ये है कि वह चुनावी बयार में इसका हिसाब नेताओं से चुका पाती है या नहीं।

Wednesday, October 28, 2009

हिंदी वाले बिग बॉस


उमेश चतुर्वेदी
11 अक्टूबर को अमिताभ बच्चन ( सहस्राब्दी के महानायक कहने वाले लोग माफ करेंगे ) के जन्मदिन पर उनकी ब्रांड वैल्यू से लेकर सिनेमा में उनके योगदान की जयगाथा के गुणगान की जैसे परिपाटी ही चल पड़ी है। इस परिपाटी को चलाने वाले हर साल इसी प्रशस्तिगान को घुमा-फिराकर पेश करके इतिश्री कर लेते हैं। जाहिर है इस बार भी यही हुआ। लेकिन अमिताभ के उस योगदान की ओर प्रशस्तिगान की परिपाटी चलाने वाले लोगों का ध्यान शायद ही गया, जिसके सहारे कथित तौर पर क्लिष्ट मानी जाने वाली हिंदी को लोकप्रिय बनाने में वह योगदान दे रहे हैं।
हिंदी मीडिया में आने वाले छात्रों और प्रशिक्षार्थियों को पहले ही दिन से गांधीजी की हिंदुस्तानी के नाम पर ऐसी हिंदी लिखने-पढ़ाने की ट्रेनिंग दी जाने लगती है, जिसे आम आदमी यानी पान- चाय वाले से लेकर खेत-खलिहान में काम करने वाला आम मजदूर भी समझ सके। शावक पत्रकार को ये घुट्टी इस तरह पिला दी जाती है कि वह बेचारा हिंदी के उन आमफहम शब्दों के इस्तेमाल से भी बचने लगता है – जिसे वह अपने कॉलेज के दिनों में नहीं- बल्कि स्कूली पढ़ाई के दौरान सीखा और समझा होता है। जब टेलीविजन चैनलों का प्रसार बढ़ा और निजी चैनलों का दौर बढ़ा तो इस घुट्टी पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया जाने लगा। किशोरीदास वाजपेयी के लिए भले ही अच्छी हिंदी कभी भारत की भावी भाषाई अस्मिता का प्रतीक रही होगी – अच्छी हिंदी आज के मीडिया के लिए उपहास का पात्र बन चुकी है। हिंदी का उपहास सबसे ज्यादा हिंदी के ही खबरिया चैनलों में हुआ। इसके लिए मीडिया की लानत-मलामत भी खूब होती रही है।
लेकिन मुख्यधारा के हिंदी मीडिया में एक बदलाव नजर आ रहा है। अब वहां किशोरीदास वाजपेयी की तराशी अच्छी हिंदी भी परोसी जा रही है और मजे की बात ये है कि क्लिष्टता के नाम पर उसे अब तक नकारते रहे लोग भी इस हिंदी पर न्यौछावर होते नजर आ रहे हैं। कहना ना होगा कि बुद्धू बक्से पर इस हिंदी के सबसे बड़े पैरोकार के तौर पर अमिताभ बच्चन ही सामने आए हैं। जरा सोचिए...अगर बिग बॉस का तीसरा संस्करण कोई शिल्पा शेट्टी या फिर सामान्य टेलीविजन एंकर पेश कर रहा होता तो क्या वह उतनी सहजता से बिग बॉस तृतीय बोल पाता, जितनी सहजता से अमिताभ बोलते हैं। या फिर वह बोलने की कोशिश करता तो उस चैनल के प्रोड्यूसर और कर्ता-धर्ता ऐसी हिंदी को पचा पाते। अब तक हिंदी के साथ जो कुछ भी होता रहा है, कम से कम मीडिया में जो होता रहा है, उसका खयाल रखते हुए इसका जवाब निश्चित तौर पर ना में होगा। बिग बॉस कोई पहला कार्यक्रम नहीं है, जिसमें अमिताभ ऐसी हिंदी बोल रहे हैं। याद कीजिए – इसके पहले कौन बनेगा करोड़पति के दूसरे संस्करण को पेश करते वक्त भी अमिताभ कौन बनेगा करोड़पति सेकंड की बजाय कौन बनेगा करोड़पति द्वितीय बोलने में नहीं झिझकते थे।
कुछ लोगों को लग सकता है कि अमिताभ कुछ अलग दिखने के चक्कर में ऐसा बोल रहे हैं। कुछ लोगों की नजर में ये उनकी और संबद्ध चैनल की मार्केटिंग रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है। लोगों को इसमें भी बाजारवाद का हमला दिख सकता है। ये तथ्य अपनी जगह सही हो सकते हैं। लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि आज बाजारवाद और उपभोक्तावाद के दौर में बाजार से बचना नामुमकिन है। ऐसे में अपनी कथित क्लिष्ट हिंदी भी मार्केटिंग का हथियार बन सकती है तो इसे लेकर हम खुश भले ना हों, लेकिन संतोष का भाव तो दे ही सकते हैं।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या वजह है कि हमारी अपनी अच्छी हिंदी हमारे ही लोगों के लिए गंवारूपन और पिछड़ेपन का प्रतीक मानी जाती रही है। वह प्रगति में बाधक समझी जाती रही है। लेकिन अमिताभ के मुंह से निकलते ही वह इतनी ताकतवर बन जाती है कि उसे भी यूएसपी बनाकर पेश किया जाने लगता है। हकीकत तो ये है कि अब तक चाहे मीडिया के चलाने वाले ज्यादातर लोग रहे हों या फिर देश के प्रशासन के, वे खांटी और खालिस हिंदी वाले नहीं रहे हैं। खुद उनके लिए हिंदी उतनी ही बेगानी रही है, जितनी आम भारतीय के लिए अंग्रेजी। ऐसे में उन्हें लगता है कि वे जितनी हिंदी जानते हैं, उनका पाठक और दर्शक भी उतनी ही हिंदी जानता और समझता है और जैसे ही उनके सामने हिंदी के कम परिचित आम शब्द आते हैं तो वह हिंदी उन्हें कठिन लगने लगती है। हां उसकी जगह पर अंग्रेजी के शब्द चल पड़ें तो कोई बात नहीं। उनकी नजर में खेत में काम करने वाला और पनवाड़ी भी अंग्रेजी के आम शब्दों को जानता-समझता है। दुनिया के किसी और देश की भाषा के लिए भले ही ये चलन चिंता का सबब हो, अपने यहां यह प्रगति और बुद्धिवादी होने का बेहतरीन सबूत है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसी उटोपिया से प्रभावित रहा है। लिहाजा हिंदी के खबरिया से लेकर मनोरंजन के चैनलों पर भी आम फहम के नाम पर ऐसी हिंदी परोसी जाती रही है, जिसका जमीनी हकीकत से दूर-दूर तक का वास्ता नहीं रहा है। अमिताभ बच्चन ने इसी परिपाटी और इसी जड़ता को अपनी सहज और कथित तौर पर क्लिष्ट हिंदी का प्रयोग करके तोड़ा है। बिग बॉस में गालियां और अंदरूनी खींचतान के बाद हफ्ते में जब दो दिन अमिताभ बच्चन सामने आते हैं तो दर्शक उनका इंतजार करते हैं। उनकी हिंदी को सुनने के लिए अपने टेलीविजन चैनलों का ट्यून नहीं बदलते। अगर यह हिंदी इतनी ही लोगों के लिए कठिन होती तो बिग बॉस के प्रस्तुत कर्ता शमिता शेट्टी को हिंदी बोलने की सजा नहीं सुनाते। बिग बॉस के दूसरे सीजन में ऐसी सजा पूर्व मिस वर्ल्ड डॉयना हेडन को भी सुनाया जा चुका है।
उन्नीसवीं सदी के आखिरी दिनों में कहा जाता है कि देवकीनंदन खत्री की ऐयारीपूर्ण रचनाएं -चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी थी। हिंदी का विस्तार इसी तरह हुआ है। लेकिन आज ये मान्यता पूरी तरह बदल गई है। कथित क्लिष्ट हिंदी के इस्तेमाल को लेकर टीआरपी या सर्कुलेशन गिरने की चिंताएं जताई जाती रही हैं। लेकिन बिग बॉस तृतीय या फिर कौन बनेगा करोड़ पति द्वितीय के टीआरपी के आंकड़े इस मान्यता को झुठलाने के लिए काफी हैं। बिग बॉस तृतीय की टीआरपी 400 अंकों के स्तर पर पहुंच गई है। निश्चित तौर पर अमिताभ के इस हिंदी प्रेम के पीछे उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि का बड़ा योगदान रहा है। उनके पिता हरिवंश राय बच्चन हिंदी के मशहूर कवि थे। हिंदी के प्रति उन्हें बचपन से एक खास संस्कार मिला है। इसका असर बिग बॉस के तीसरे सीजन की उनकी प्रस्तुति पर भी दिख रहा है। ऐसे में मीडियाघर में हिंदी की इस नई प्रतिष्ठा को लेकर आशावान बनने में कोई हर्ज नजर नहीं आ रहा है। भले ही इसका जरिया अमिताभ ही क्यों ना बन रहे हों।

Sunday, October 25, 2009

किसे जरूरत है न्यूडिटी की


उमेश चतुर्वेदी
साल - 1995
मिलिंद सोमण और मधु सप्रे की न्यूड जोड़ी का एक फोटो एक पत्रिका के कवर पेज पर छपा है..टफ शूज के विज्ञापन में ये जोड़ी बिल्कुल नंगी नजर आ रही है। उनके शरीर के गोपन अंगों को अजगर के जरिए ढांप रखा गया है।
साल – 2009
मॉडलिंग बिल्कुल वैसी ही है। इस बार भी जूते ही हैं। बस किरदार बदल गए हैं। इस बार मधु की जगह पर हैं बॉलीवुड की अभिनेत्री शौर्या चौहान और उनका साथ दे रहे हैं बन्नी आनंद। इस बार शरीर के गोपन अंगों को एक ही कपड़े के जरिए ढंका गया है।
1995 और 2009 के बीच महज चौदह साल का फासला है, लेकिन सोच के धरातल पर हमारी दुनिया कितनी बदल गई है, इसका जीवंत उदाहरण है शौर्या और बन्नी के विज्ञापन का नोटिस भी नहीं लिया जाना। 1995 में जब ये विज्ञापन पहली बार एक फिल्मी पत्रिका के कवर पृष्ठ पर छपा था तो जैसे हंगामा बरप गया था। शिवसेना ने इसका ना सिर्फ जोरदार विरोध किया था, बल्कि इसके खिलाफ कोर्ट भी गई थी। लेकिन आज ना तो शौर्या पर कोई सवाल उठ रहा है और ना ही उसका साथ दे रहे बन्नी आनंद पर...1991 में मनमोहनी मुस्कान के सहारे जब अपनी अर्थव्यवस्था उदार हो रही थी, तब वामपंथी और दक्षिणपंथी- दोनों तरह की विचारधारा के लोग कम से कम एक मसले पर एक विचार रखते थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को समर्थन देने के अलावा कम ही मौके ऐसे रहे हैं- जब वैचारिकता के दो विपरीत ध्रुव एक राय रखते हों। दोनों का मानना था कि उदारीकरण हमारी अर्थव्यवस्था को ही नहीं, संस्कृति को भी बदलेगी। उदारीकरण की करीब डेढ़ दशक की यात्रा के बाद ये अंदेशा बिल्कुल सच साबित होता दिख रहा है। दिलचस्प बात ये है कि इसके समर्थकों की भी संख्या बढ़ती जा रही है। इसी साल के शुरूआत में जब फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी की पत्नी कार्ला ब्रूनी के न्यूड फोटो के करीब नौ लाख रूपए में बिकने की खबर आई तो इस पर सवाल उठाने वालों की लानत-मलामत करने वालों की फौज जुट आई थी। बदलाव की बयार का इससे बड़ा और क्या उदाहरण होगा !
1996 में दिल्ली की एक वकील अंजलि ने एक सेमी पोर्न पत्रिका के कवर पृष्ठ के लिए सेमी न्यूड मॉडलिंग की थी। तब दिल्ली समेत देश के तमाम बार एसोसिएशनों ने उनकी सदस्यता रद्द करने की मांग रखी थी। बार एसोसिएशन का मानना था कि न्यूडिटी का प्रचार करने वाली वकील की साख कैसे बन सकती है। उसके प्रति लोग आदर का भाव कैसे रख सकते हैं। पता नहीं उसके बाद कोई महिला वकील न्यूडिटी के ऐसे प्रचार के साथ बाजार में उतरी कि नहीं..लेकिन ये साफ है कि इस कृत्य के जरिए वकील बिरादरी ने अपने लिए एक लक्ष्मण रेखा जरूर खींच दी, जिससे लांघना आसान नहीं होगा।
हिंदी के प्रचार-प्रसार में अपनी अहम भूमिका निभाने वाले बॉलीवुड ने न्यूडिटी के प्रसार में भी कम भूमिकाएं नहीं निभाई हैं। राजकपूर के जमाने में बैजयंती माला सेमी न्यूड यानी बिकनी में संगम होगा कि नहीं गाते नजर आईं थीं। हिंदी सिनेमा के ग्रेट शो मैन राजकपूर ने बाद की फिल्मों में कला और कहानी के नाम पर सेमी न्यूडिटी का जमकर इस्तेमाल किया। सत्यम शिवम सुंदरम की जीनत अमान हों या फिर राम तेरी गंगा मैली की मंदाकिनी...कहानी की जरूरत और कला के नाम पर आपको सेमी न्यूडिटी दिख ही जाती है। सबसे बड़ी बात ये है कि फिल्मी अर्थशास्त्र को सफल बनाने में महिला न्यूडिटी का ही ज्यादा इस्तेमाल होता रहा है। बॉलीवुड में कदम रखने वाली हर अदाकारा पहले न्यूडिटी से इनकार करती रही है, फिर कहानी की जरूरत और मांग के मुताबिक सेमी न्यूडिटी की नुमाइश करने से पीछे नहीं रही है। लेकिन माया मेम साहब के जरिए केतन मेहता ने पुरूष न्यूडिटी को भी नया आयाम दे दिया। माया मेम साहब फिल्म की नायिका केतन की पत्नी दीपा मेहता थीं। इस फिल्म के एक अंतरंग दृश्य में शाहरूख खान और दीपा दोनों नंगे नजर आए थे। यह न्यूडिटी भी कला और कहानी की जरूरत के नाम पर फिल्मी दर्शकों को पेश की गई थी। शेखर कपूर ने दस्यु सुंदरी फूलन देवी की जिंदगी पर आधारित फिल्म बैंडिट क्वीन बनाई तो उसमें बलात्कार का खुलेआम सीन भी कहानी और जरूरत के तर्क के आधार पर ही पेश किया था। मीरा नायर की फिल्म कामसूत्र हो या फिर सलाम बांबे....उसमें भी न्यूडिटी कला के नाम पर जमकर परोसी गई।
पुरूष न्यूडिटी को हाल के दिनों में नया आयाम दिया है राजकपूर के पोते रणवीर कपूर ने। भारतीय कानूनों के मुताबिक बेशक वे पूरी तरह से निर्वस्त्र नहीं दिख सकते थे, लेकिन सांवरिया के निर्देशक ने उन्हें निर्वस्त्र तो कर ही दिया। अब इस कड़ी में नया नाम अपने सुरीले गीतों के लिए मशहूर मुकेश के पोते नील नितिन मुकेश का जुड़ गया है- जो जेल फिल्म में पूरी तरह निर्वस्त्र नजर आ रहे हैं। रानी मुखर्जी अब तक न्यूडिटी और अंग प्रदर्शन से बचती रही हैं- लेकिन अपना बाजार भाव बढ़ाने के लिए उन्हें भी सेमी न्यूडिटी पर ही आखिर में जाकर भरोसा बढ़ा नजर आ रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो बिकनी में वह हड़िप्पा बोलती नजर नहीं आतीं।
न्यूडिटी फिल्मों के जरिए टेलीविजन के पर्दे पर भी जमकर दिख रहा है और इसका सबसे बड़ा जरिया बन रहे हैं रियलिटी शो। बिग बॉस में जिस तरह भारतीय जनता पार्टी के चेहरा रहे प्रमोद महाजन के बेटे राहुल महाजन ने स्वीमिंग पूल में पायल रोहतगी और मोनिका बेदी के सीन दिए- उसे क्या कला के नाम पर पेश किया गया। टेलीविजन की एक सुशील बहू के तौर पर अपनी पहचान बना चुकी श्वेता तिवारी ने हाल के दिनों में प्रसारित हुए रियलिटी शो इस जंगल से मुझे बचाओ में जिस तरह झरने के नीचे नहाते हुए पोज दिए या फिर बाद में आई निगार खान और कश्मीरा शाह ने बिकनी बीच स्नान किया – सबके लिए कला की ही दुहाई दी जाती रही है।
बात इतनी तक ही रहती तो गनीमत थी...फैशन शो में कपड़ों के बहाने जिस तरह देह की नुमाइश की जाती है, उसे भी कला ही माना जाता है। पश्चिमी देशों में न्यूडिटी के नाम पर ऐसे फैशनेबल कपड़ों का चलन बढ़ रहा है – जिसके जरिए न्यूडिटी का ना सिर्फ प्रचार होता है, बल्कि ये कपड़े नैकेडनेस को रोकने का भी दावा करते हैं। अभी तक इस परिपाटी का प्रचार तो भारतीय बाजारों में नहीं हुआ है। लेकिन जिस तरह के कपड़े पहने लड़के-लड़कियां महानगरों में नजर आने लगे हैं, उसे अगर वैधानिक दर्जा देने के लिए पश्चिम के इस विचार को उधार ले लिया जाय तो हैरत नहीं होनी चाहिए।
महिला न्यूडिटी को विजय माल्या जैसे रसिक रईसों ने नई ऊंचाई ही दी है। हर साल वे दुनिया के खूबसूरत लोकेशनों पर न्यूडिटी के नाम पर हॉट बालाओं की तस्वीरें प्रोफेशनल फोटोग्राफरों के जरिए खिंचवाते हैं। इससे तैयार कैलेंडर रईस और रसूखदार लोगों के पास भेजे जाते हैं। जिन्हें ये कैलेंडर नहीं मिलते- वे खुद को कमतर करके आंकते हैं। न्यूडिटी के नाम पर तैयार इस कैलेंडर को कथित हाईप्रोफाइल सोसायटी में जिस तरह सम्मान हासिल हुआ है, उससे साफ है कि कथित हाई प्रोफाइल सोसायटी का जिंदगी के प्रति नजरिया पूरी तरह बदल गया है। चूंकि इस वर्ग के पास ना सिर्फ पैसा है, बल्कि रसूख भी है, लिहाजा इन्हें लुभाने के लिए अब न्यूडिटी को परोसने वाली कला दीर्घाएं भी खुलने लगी हैं।
दरअसल अपना देश दो हिस्सों में साफ बंटा नजर आ रहा है। एक तरफ बहुसंख्यक गरीब और बदहाल जनता है, जिसमें से ज्यादातर लोग गांवों या फिर शहरी स्लम में रहने को मजबूर हैं, वहीं उदारीकरण के बाद एक नव धनाढ्य वर्ग तेजी से उभरा है, जिसकी जिंदगी में मानवीय संवेदनाओं से कहीं ज्यादा पैसे की चमक भरी पड़ी है। रिश्तों की गरमाहट और संस्कारों से उनका कम ही नाता है। ऐसे में अपनी जिंदगी के खालीपन को भरने की जितनी वजहें समझ में आती हैं, उसमें न्यूडिटी भी एक है। उनकी ये भूख कला को प्रश्रय देने के नाम पर पूरी होती है। ऐसे में कलाकार भला क्यों पीछे रहते। हालत ये देखिए कि इस प्रवृत्ति के विरोध के भी अपने खतरे हैं। अगर आपने विरोध किया तो आपको दक्षिणपंथी या प्रतिक्रियावादी घोषित किए जाने का खतरा बढ़ सकता है। करीब डेढ़ दशक पहले मध्य प्रदेश के एक पत्रकार ओम नागपाल ने ऐसे सवाल उठाए थे तो उन्हें ऐसे लांछनों का भरपूर उपहार मिला था।
नव दौलतिया वर्ग को छोड़ दें तो आज भी भारतीय समाज के लिए जीवन मूल्य कहीं ज्यादा जरूरी हैं। लिहाजा अभी तक न्यूडिटी के मार्केट का आकलन नहीं हो पाया है। लेकिन ये भी सच है कि ये अरबों का कारोबार तो है ही। अकेले अमेरिका में ही पोर्न उद्योग करीब 13 अरब डॉलर का है। वहां बाकायदा इसे कानूनी मान्यता भी मिली हुई है। यही वजह है कि वहां कौमार्य बेचकर जब एक लड़की ने अपनी पढ़ाई की फीस जुटाया तो अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उस पर कोई सवाल नहीं उठाया। दरअसल अमेरिकी समाज व्यक्तिगत आजादी का हिमायती है, लेकिन तभी तक- जब तक समाज को इससे कोई नुकसान नहीं पहुंचता। वहां भी कुछ मूल्य हैं। ये मूल्यों के प्रति अमेरिकी समाज का आग्रह ही है कि वहां की कोई अहम शख्सियत नैतिकता के पहरे और सीमा रेखा से खुद को बाहर नहीं रख पाती। भयानक मंदी के दौर में जब पिछले साल 700 अरब डॉलर के सहायता पैकेज का ऐलान किया तो पोर्न उद्योग खुद के राहत के लिए भी सहायता पैकेज की मांग को लेकर उतर गया। लेकिन खुलेपन के हिमायती अमेरिका के प्रथम नागरिक ने इस मांग पर सिरे से ही ध्यान नहीं दिया।
ऐसे में ये सवाल उठता है कि आखिर हम न्यूडिटी के प्रचार के नाम पर किस तरह की दुनिया बसाना चाहते हैं। भारत की सबसे बड़ी जरूरत अब भी भूख और अशिक्षा से निबटारा पाने की है। गांधी जी के हिंद स्वराज लिखे पूरे सौ साल हो गए हैं। उनका सपना था कि आजादी के बाद ना सिर्फ हमारी सरकार अपनी होगी, बल्कि सामाजिक ढांचा भी हमारे जीवन मूल्यों और महान परंपराओं पर आधारित होंगे। गांधी जी की न्यूडिटी दया और गरीबों के लिए कुछ कर गुजरने, उनके जीवन में नई रोशनी लाने का सबब बनती थी। लेकिन आज की कथित न्यूडिटी में सेक्सुअल फैंटेसी और रोमांच के साथ भोग की इच्छा ज्यादा है। गांधी ने कहा था कि जब तक आखिरी एक भी आदमी दुखी है, राज्य और समाज को चैन से नहीं बैठना चाहिए। काश कि हम न्यूडिटी की दुनिया में खर्च होने वाली करोड़ों की रकम को गांधी के सपनों को पूरा करने में लगाते।

Tuesday, September 15, 2009

लालकालीन पर बूढ़ा शेर


उमेश चतुर्वेदी
लाल कालीन पर सांसद के तौर पर चहलकदमी जार्ज फर्नांडीस को हमेशा उसूलों के खिलाफ लगती रही है। लेकिन हालात का तकाजा देखिए कि अभी दो-तीन महीने पहले तक इसी उसूल के चलते राज्यसभा में जाने का विरोध करते रहे जार्ज को लाल कालीन पर खड़े होकर शपथ लेनी पड़ी। यहां जानकारी के लिए ये बता देना जरूरी है कि लोकसभा में ना सिर्फ हरे रंग की कालीन बिछी हुई है, बल्कि उसकी सीटें भी हरे रंग की ही हैं। जबकि राज्यसभा में लाल रंग का बोलबाला है। बहरहाल समाजवाद के इस बूढ़े शेर को जनता की ही राजनीति सुहाती रही है। राज्यसभा उनके लिए राजनीति का पिछला दरवाजा ही रहा है। उनके इस समझौते को लेकर उनके पुराने साथी चाहे जितने सवाल उठाएं, लेकिन एक चीज साफ है कि उनके राज्यसभा में जाने के साथ ही बिहार की राजनीति में एक नया अध्याय बनते-बनते रह गया है।
नीतीश कुमार की ओर से अपने गुरू को मिली इस गुरू दक्षिणा ने जार्ज के कई पुराने साथियों को भौंचक कर दिया है। आखिर जार्ज ने ये कदम क्यों उठाया, इसका जवाब उन्हें नहीं सूझ रहा है। आपसी बातचीत में जार्ज के ये पुराने दोस्त उनके इस कदम के लिए आसपास के लोगों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उनके इस तर्क के लिए सबूत मुहैया करा रही है जार्ज की खराब सेहत। जिस जार्ज के संसद में घुसते ही खबर बन जाती थी, समाजवाद का वही बूढ़ा शेर कायदे से शपथ भी नहीं ले पाया। यही वजह है कि जार्ज के पुराने दोस्तों को ये कहने का मौका मिल गया है कि जार्ज साहब की सोचने-समझने की शक्ति भी चूक गई है और उनके आसपास के लोगों ने उन्हें ये कदम उठाने के लिए मजबूर किया है।
ये सच है कि साठ के दशक में जार्ज फर्नांडिस युवाओं के हीरो थे। मजदूर आंदोलन से लेकर बड़ौदा डायनामाइट कांड तक जार्ज के संघर्ष को देखकर समाजवादी युवाओं की एक पूरी पीढ़ी राजनीति में उतरी थी। व्यवस्था विरोधी जार्ज की यह छवि ही थी, उन्होंने 1967 में कांग्रेस के दिग्गज एस के पाटिल को मुंबई में भारी मतों से हराकर सनसनी फैला दी। कांग्रेसियों ने सोचा भी नहीं था कि जिस मुंबई की जनता एस के पाटिल को अपने सर आंखों पर बैठाती रही है, उसकी आंखों का नूर जार्ज बन जाएंगे। संसद की हरी कालीन पर कदम रखने के बाद जार्ज ने जो इतिहास रचा, इंदिरा गांधी की सर्वशक्तिमान सत्ता से संसद और संसद के बाहर जो लोहा लिया, वह इतिहास बन चुका है। अगर जयप्रकाश नारायण 1942 की जनक्रांति के हीरो थे तो जार्ज इमर्जेंसी के हीरो बने। जार्ज की वही छवि एक पूरी की पूरी पीढ़ी के दिलों में बसी हुई है, यही वजह है कि उसे उसूलों से समझौता करता जार्ज पसंद नहीं आता। जब पिछले लोकसभा चुनाव में जार्ज को नीतीश कुमार ने टिकट देने से मना कर दिया तो उनके चाहने वालों की एक पूरी की पूरी जमात ही नीतीश के खिलाफ जार्ज को मैदान में उतारने के लिए कूद पड़ी। मुजफ्फरपुर के चुनाव में जार्ज भले ही हार गए, लेकिन अपने चहेतों के हीरो बने रहे। नीतीश तब भी उन्हें खराब सेहत का हवाला देते हुए राज्यसभा में भेजने की बात कर रहे थे। लेकिन उसूल वाले बूढ़े समाजवादी शेर को यह गवारा नहीं हुआ। ऐसे में वही शेर जब सिर्फ तीन महीने पुरानी बात से ही पलट जाए तो चाहने वालों को निराशा तो होगी ही।
जार्ज को राज्यसभा में भेजकर नीतीश कुमार की छवि एक ऐसे शिष्य के तौर पर उभरी है, जिसके लिए मौजूदा उठापटक की राजनीति में भी भलमनसाहत के लिए जगह बची हुई है। निश्चित तौर पर नीतीश कुमार इसमें सफल रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में जार्ज साहब का पत्ता काटने के बाद उनकी आलोचना भी हुई थी। क्योंकि ये जार्ज ही थे, जिनकी अगुआई में पहली बार 1993 में लालू यादव से विद्रोह के बाद बिहार में अलग से समता पार्टी का गठन किया। तब लालू अपने पूरे शवाब पर थे। मीडिया का एक वर्ग जार्ज के कदम की आलोचना भी कर रहा था। तब जार्ज के साथ नीतीश कुमार ही थे। समता पार्टी को लालू विद्रोह का चुनावी मैदान में कोई फायदा भी नहीं हुआ। इसके बाद जार्ज ने रणनीति बदली और बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद भारतीय राजनीति में अलग-थलग पड़ी भारतीय जनता पार्टी का हाथ थामकर नई शुरूआत की। जार्ज के इस कदम की तब भी आलोचना हुई थी। लेकिन बीजेपी को मिले उनके साथ ने नया इतिहास रचा। समता पार्टी के साथ के बाद ही भाजपा से दूसरे दलों के मिलने का रास्ता खुला, जिसकी परिणति एनडीए के सरकार के रूप में आई। नीतीश तब से जार्ज के साथ हैं। यही वजह है कि पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जार्ज को टिकट ना देने के लिए नीतीश एक वर्ग के कोपभाजन बने।
जार्ज भले ही पिछला लोकसभा चुनाव हार गए, भले ही खराब सेहत के चलते वे खड़े होने और बोलने में असमर्थ हो गए हों, लेकिन उनके जरिए व्यवस्था की मुखालफत की राजनीति करने वाले एक वर्ग की आस जिंदा रही। जार्ज को टिकट से इनकार उन्हें नीतीश विरोध का हथियार मुहैया कराता रहा है। पिछले महीने रामजीवन सिंह की अगुआई में जार्ज के पुराने साथियों ने दिल्ली में एक बैठक करके नीतीश विरोध की नई रणनीति बनाई थी। इसमें जार्ज की चुनावी राजनीति की कमान संभालते रहे कई पुराने समाजवादियों की शिरकत के बाद नीतीश विरोधियों को लग रहा था कि उनका विरोध जार्ज के बहाने परवान चढ़ जाएगा। यहां ध्यान देने की बात ये है कि टिकट से इनकार के बाद दिग्विजय सिंह भी नीतीश के विरोध में खड़े हैं। विद्रोह के बावजूद दिग्विजय सिंह की जीत के बाद से ही नीतीश विरोधी खेमे के नेता उनसे उम्मीद लगाए हुए हैं। वैसे भी जार्ज से दिग्विजय सिंह की नजदीकी कोई छुपी हुई बात नहीं है। इसके बावजूद दिग्विजय सिंह जार्ज के पुराने साथियों की इस बैठक में शामिल नहीं थे। नीतीश को पता है कि उनके सुशासन की चाहे जितनी अच्छी-अच्छी चर्चा हो, ये सच है कि उनके भी विरोधी कम नहीं हैं। और उनके विरोधी मौके की ताक में हैं। लेकिन नीतीश कुमार ने जार्ज को राज्यसभा में भेजकर अपने इन विरोधियों के दांव को पूरी तरह से पलट दिया है। यही वजह है कि जार्ज का राज्यसभा में जाना उनके साथियों को भले ही नहीं पच रहा है, लेकिन नीतीश के इस दांव के आगे वे चुप बैठने के लिए मजबूर हो गए हैं। शपथग्रहण के दिन के अखबारों में छपे फोटो जिन्होंने देखे हैं, उन्हें पता है कि जार्ज के साथ एक अरसे बाद उनकी पत्नी लैला कबीर दिखी हैं। उनके साथ छाया की तरह रहने वाली जया जेटली इस परिदृश्य से गायब हैं। जनता परिवार को करीब से जानने वाले जानते हैं कि जया का समता पार्टी में अलग ही वजूद था। मुजफ्फरपुर के चुनाव में भी वे जार्ज के साथ थीं। लेकिन वे इस बार गायब हैं। समझने वाले समझ सकते हैं कि जार्ज के साथी उनके बदलते आभामंडल को भी लेकर परेशान हैं।
सियासी अंत:पुर के तमाम खेल के बावजूद जार्ज की संसद में उपस्थिति के अपने खास मायने हैं। लेकिन अफसोस की बात ये है कि समाजवाद का ये बूढ़ा शेर संसद में फिलहाल निर्णायक उपस्थिति जताता नहीं दिख रहा।

Monday, September 7, 2009

नीतीश विरोध में कितना कामयाब हो पाएगा लोकमोर्चा


उमेश चतुर्वेदी
अंग्रेजों की वादाखिलाफी से परेशान होकर गांधीजी ने मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान से भारत छोड़ो का नारा दिया था। इस ऐतिहासिक ऐलान के ठीक 67 साल बाद समाजवादी नेताओं ने एक बार फिर नई लड़ाई के ऐलान के लिए मुंबई की को ही चुना। निश्चित तौर पर समाजवादी नेताओं के इस निशाने पर इस बार उनके अपने ही साथी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। कहावत है कि समाजवादी छह महीने साथ नहीं बैठ सकते तो दो साल दूर भी नहीं रह सकते। समाजवादी आंदोलन का यह पसोपेश मुंबई की इस पूरी बैठक के दौरान दिखता रहा। जहां दूसरी पंक्ति के नेता बाकायदा नाम लेकर नीतीश कुमार पर निशाना साधते रहे, लेकिन जिन दिग्विजय सिंह को इसकी निर्णायक लड़ाई की कमान सौंपी गई, उनके समेत किसी भी बड़े नेता ने ना तो नीतीश का नाम लिया, ना ही उन पर सीधा हमला किया।
मुंबई की धरती पर एक बार फिर समाजवादियों के पसंदीदा शब्द लोक को लेकर लोकमोर्चा बना, जिसकी अगुआई दिग्विजय सिंह को सौंपी गई है। चूंकि इसे अभी विधिवत राजनीतिक पार्टी नहीं बनाया गया है, यही वजह है कि इस मोर्चे के राष्ट्रीय संयोजक की जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह को सौंपी गई है। इस लोकमोर्चा को उन सभी समाजवादी नेताओं का साथ मिला है, जो ना तो नीतीश कुमार के साथ हैं, ना ही लालू और मुलायम सिंह के साथ। मुंबई में इस मोर्चे के ऐलान के बाद जिस तरह बिहार से आए गैर नीतीश और गैर लालू समाजवादी नेताओं ने हुंकार भरी, उससे साफ है कि आने वाले दिनों में ये मोर्चा एक राजनीतिक दल का गठन जरूर किया जाएगा और इसके संघर्षों के निशाने पर रहेंगे नीतीश कुमार। यानी साफ है कि बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार को अब विधिवत अपने एक और पुराने साथी दिग्विजय सिंह की अगुआई वाले मोर्चे का विरोध झेलना होगा। इस विरोधी खेमे में उनके कभी के साथी रहे रामजीवन सिंह और गजेंद्र हिमांशु के साथ ही इंद्रकुमार के साथ ही पूर्व विधायक शिवनंदन सिंह और मौजूदा निर्दलीय विधायक किशोर कुमार मुन्ना भी शामिल हैं।
बहरहाल नीतीश कुमार के विरोध की पूर्वपीठिका उसी दिन बन गई थी, जिस दिन उन्होंने बांका से चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटे अपने पुराने साथी और पूर्व केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह का टिकट काट दिया। दिग्विजय ने बिना देर लगाए राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और चुनावी मैदान में कूद पड़े। निश्चित तौर पर इसके लिए उन्हें अस्वस्थ ही सही उनके नेता जार्ज फर्नांडिस का समर्थन रहा ही, नीतीश की मौजूदा सोशल इंजीनियरिंग में किनारे किए जा चुके बिहार के तमाम नेताओं का भी साथ मिला। हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष प्रभाष जोशी, अनुराग चतुर्वेदी और क्रांति प्रकाश समेत तमाम शुभचिंतकों की सलाह के बाद चुनावी मैदान में उतरे दिग्विजय ने जीत हासिल की तो उनका वैसे ही स्वागत हुआ, जैसा उस अभिमन्यु का होता – जो चक्रव्यूह तोड़ कर बाहर आता। दिग्विजय इस तथ्य को जानते हैं, शायद यही वजह है कि हर मौके पर वे अभिमन्यु को याद करना नहीं भूलते। मुंबई में भी उन्होंने कहा कि अभिमन्यु तो चक्रव्यूह नहीं तोड़ पाया था, लेकिन उन्होंने जनता के सहयोग से ऐसा कर दिखाया। इस जीत के बाद से ही दिग्विजय सिंह पर बिहार में अलग से नई पार्टी बनाने का दबाव बढ़ने लगा था। उम्मीद तो ये भी थी कि समाजवाद का बूढ़ा शेर यानी जार्ज भी उनका साथ देंगे। लेकिन नीतीश ने दांव लगाकर जार्ज साहब को राज्य सभा में भेज कर उन्हें दिग्विजय से दूर कर दिया है।
लालू यादव और राम विलास पासवान जैसे नीतीश विरोधियों की चुनावी मैदान में दुर्गति ने दिग्विजय समर्थकों ने उन पर नई पार्टी बनाने का दबाव बढ़ा दिया। उनकी इस मुहिम में पुराने समाजवादी रघु ठाकुर और विजय प्रताप भी शामिल हो गए और बीते 12 और 13 अगस्त को मुंबई में समाजवादियों को जुटाने का माध्यम बना एक संवाद, जिसका विषय था - वर्तमान राजनीतिक संकट और लोकतांत्रिक समाजवाद का भविष्य। मुंबई की इस संवाद चर्चा पर बिहार की राजनीति की पैनी निगाह लगी हुई थी। लोगों में उत्सुकता इस बात को लेकर थी कि इस बैठक में जार्ज फर्नांडिस शामिल होते हैं या नहीं। लेकिन ऐसे लोगों की उम्मीदों पर पानी फिर गया। क्योंकि जार्ज शामिल नहीं हुए। वैसे इस संवाद चर्चा के प्रमुख आयोजक अनुराग चतुर्वेदी के मुताबिक जार्ज को बुलाया भी नहीं गया था।
इस संवाद में बड़े वक्ताओं ने जहां देश की मौजूदा हालत पर जहां तीखे सवाल उठाए, वहीं राजनीतिक सत्ता की चारदीवारी और चिंताओं से लगातार दूर होते जा रहे आम लोगों की हालत पर चिंता जाहिर की। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने जब ये कहा कि देश की राजनीति के लिए विद्यावती और कलावती पोस्टर ब्वाय बन गई हैं। लेकिन हकीकत में आज देश की करीब 120 करोड जनता उनकी ही तरह जिंदगी गुजारने के लिए मजबूर है। तो मौजूद लोग सोचने के लिए बाध्य हो गए। प्रभाष जी इतने पर ही नहीं रूके। उन्होंने घराना राजनीति के वर्चस्व को तोड़ने की आवश्यकता जताते हुए कहा कि आज हर पार्टी का सुप्रीमो तानाशाह हो गया है। उन्होंने इस प्रवृत्ति को राजनीतिक संस्कृति के लिए खतरनाक बताते हुए कहा कि इससे देश को निजात दिलाने के लिए मोर्चे को नई भूमिका निभानी होगी।
संवाद चर्चा में समाजवादियों ने अपने साथियों की भी कम लानत-मलामत नहीं की। संवाद में लालू यादव और नीतीश कुमार के तानाशाही रवैये को लेकर जमकर सवाल उठे। लेकिन रघु ठाकुर ने इसके लिए अपने पुराने साथियों को ही जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि जब समाजवाद का दावा करने वाली पार्टियों में तानाशाहों का जन्म हो रहा था तो हममें से तमाम लोग चुप थे। लेकिन रघु ठाकुर को मौजूदा दौर से उम्मीद कम नहीं हैं। उन्होंने कहा कि मीडिया जिस तरह नकारात्मक चीजों को उछाल रहा है, उसके असर से राजनीतिक दल भी नकारात्मक चीजों की ही ओर ध्यान दे रहे हैं। उनकी बातों से विजय प्रताप भी मुतमईन नजर आए। दलितों की सत्ता में बढ़ती भागीदारी और उनमें बढ़ रहे आत्मसम्मान के भाव का जिक्र करते हुए उन्होंने उम्मीद जताई कि मोर्चा जरूर सकारात्मक भूमिका निभाएगा।
संवाद चर्चा के ही बहाने जिस तरह अपने ही पुराने साथी और जनता दल यू की झारखंड इकाई के पूर्व अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी को दिग्विजय अपने साथ लाने में कामयाब हुए हैं, उससे लोकमोर्चा को लेकर उनके समाजवादी साथियों की उम्मीदें परवान चढ़ रही हैं। नामधारी और दिग्विजय दोनों ही सांसद हैं, लेकिन दोनों में एक अंतर है। दिग्विजय को जनता दल यूनाइटेड ने टिकट नहीं दिया तो पार्टी से विद्रोह करके बांका के चुनावी मैदान में उतरे और जीत हासिल की, वही नामधारी ने पार्टी टिकट को इनकार करके चतरा से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे हैं। लोकमोर्चा में उनकी मौजूदगी से निश्चित तौर से दिग्विजय और उनके समर्थकों को राहत मिली है। दिग्विजय के लोक मोर्चा का ये कारवां यहीं नहीं रूका। महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य कपिल पाटिल ना सिर्फ इस मोर्चे में शामिल हुए, बल्कि मोर्चे के नेताओं का स्वागत भी किया। उन्हें मोर्चा में लाने का श्रेय निश्चित तौर पर अनुराग चतुर्वेदी को जाता है। इस संवाद चर्चा में शामिल तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के महासचिव डी पी त्रिपाठी भी हुए। लेकिन उन्होंने मोर्चे से दूरी बना रखी है। लेकिन उनकी मौजूदगी से साफ है कि बिहार की राजनीति में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी दिग्विजय सिंह के लोकमोर्चा के साथ कंधा मिला सकती है।
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार की इन दिनों जो लोकप्रियता है, उससे साफ है कि लोकमोर्चा को शुरूआती कामयाबी मिलना आसान नहीं होगा। इसे मोर्चा में शामिल बिहार के पूर्व कद्दावर नेता भी स्वीकार करते हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने संवाद चर्चा में शामिल एक नेता से नीतीश की लोकप्रियता के दौर में मोर्चे की सफलता को लेकर जानना चाहा तो उनका जवाब बड़ा मौजूं था। नाम ना छापने के बिना पर उन्होंने कहा कि बिहार में कुर्ता पाजामा वालों यानी नेताओं का काम नहीं हो रहा है, जबकि आम लोगों का काम हो रहा है। ऐसे में नीतीश से निबटना आसान नहीं होगा। इसे रामजीवन सिंह ने यूं नकारा। उनका कहना था कि जब चिलचिलाती गर्मी के बाद हल्की भी बारिश होती है तो वह लोगों को राहत भरी लगती है। रामजीवन सिंह के मुताबिक लालू के पंद्रह साल के कुशासन के बाद आया नीतीश का राज उस हल्की बारिश के ही समान है। लेकिन इससे अच्छी खेती की उम्मीद नहीं की जा सकती। उन्होंने कहा कि इसी तथ्य को आम लोगों को समझाना होगा।
नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक आधार को बढ़ाने के लिए महादलित का जो फार्मूला दिया है, उसे लेकर रामविलास पासवान परेशान हैं। लेकिन उनके पुराने साथी और अब लोकमोर्चा में शामिल हुए नेताओं को परेशानी इस बात की है कि जिस सवर्ण वोटरों के सहारे नीतीश सत्ता में आए हैं, उन्हें लगातार किनारे पर रखा जा रहा है। मोर्चे के नेताओं का तर्क है कि पिछले लोकसभा चुनाव में एक भी ब्राह्मण को टिकट नहीं दिया गया। ठाकुरों और भूमिहार नेताओं को भी नीतीश कोई तवज्जो नहीं दे रहे हैं। लिहाजा अगर जोरदार कोशिश हो तो इन जातियों को गोलबंद करके नीतीश के खिलाफ ताकतवर मोर्चा बनाया जा सकता है।
नीतीश विरोधी ये मोर्चा कितना कामयाब होगा, इसकी परख होनी अभी बाकी है। लेकिन इस मोर्चे को जिस तरह लालू यादव की पार्टी से लेकर जनता दल यू के पुराने नेताओं तक का बिहार में समर्थन मिल रहा है, उससे साफ है कि नीतीश के सामने एक और मोर्चा खुल गया है। इसकी कामयाबी को लेकर मोर्चे में शामिल एक पूर्व मंत्री के बेटे की बातों पर गौर फरमाना ज्यादा मौजूं होगा। उनका कहना था कि 1995 में लालू के खिलाफ जब जार्ज और नीतीश ने मोर्चा संभाला था, तब भी उनका मजाक उड़ाया गया था। किसी ने सोचा भी नहीं था कि लालू की सत्ता को भी चुनौती मिल सकती है। लेकिन लालू हवा हो गए। नीतीश हवा होंगे या नहीं...इसका जवाब तो भविष्य ही बताएगा।

Thursday, August 6, 2009

बाबूजी नहीं आएंगे दिल्ली


उमेश चतुर्वेदी
दक्षिण पूर्वी मानसून महाराज ने दगा दे दी है। वर्षारानी के इंतजार में आंखें पथरा गईं हैं। कभी-कभार हो रही हल्की फुहारों से ही सब्र करना पड़ रहा है। खेती का काम चौपट हो गया है। लिहाजा इस बार गांव में काम कम ही रह गया है। बारिश की खुशखबरी के लिए गंवई मन फोन किए बिना नहीं रहता। लेकिन रोज निराशा ही हाथ लगती है। मानसून नहीं तो खेती नहीं...लिहाजा एक दिन बाबू जी को दिल्ली आने के लिए इसरार कर बैठा। दिल्ली की भागमभाग के बीच गांव कहीं पीछे छूट गया है। अगर कहीं है भी तो सिर्फ मन में..रोज घर लौटते वक्त गांव को जीने की इच्छा बलवती हो उठती है। मन ही मन रोजाना योजनाएं बनती हैं..कि कुछ ऐसा किया जाय को महीना-दो महीना में गांव का चक्कर लग ही जाए। लेकिन अगले दिन सूरज की किरणों के साथ जैसे अंधेरा गायब हो जाता है, गांव को जीने की ये लालसा फुर्र हो जाती है और नून-तेल की चिंता में शुरू हो जाती है एक अंतहीन दौ़ड़..लेकिन मन तो ठहरा गंवई...अंतर्मन में शायद माई और बाबूजी के ही बहाने गांव को जी लेने की इच्छा कहीं दबी हुई है। लिहाजा मैं बाबूजी और माई पर दिल्ली आने के लिए जोर डालने लगा। मोबाइल फोन के उस पार से आ रही आवाज से लगा कि मां हम लोगों से मिलने के लिए उत्सुक तो है...लेकिन बाबूजी की आवाज ठंडी और टाल-मटोल वाली लगी।
इसके साथ ही मुझे बाबूजी की पिछली दिल्ली यात्रा की याद आ गई। आंख का इलाज कराने के लिए उन्हें दिल्ली लाया गया था। यहां के आकर पता चला कि उन्हें सेहत से जुड़ी कई और समस्याएं भी हैं। लिहाजा उनका लंबा इलाज चला। चूंकि इलाज लंबा था, इसलिए उन्हें यहां देर तक ठहरना पड़ा। सुबह तो जैसे उनकी ताजगी में अखबार और चाय के साथ उत्फुल्लता से कट जाती। लेकिन शाम होते ही वे कुछ असहज हो जाते। लगता, वे उदास हैं और अपनी उदासी छुपाने की कोशिश करते वे प्रतीत होते। मैं उनकी परेशानी समझता था। पूरी जिंदगी अध्यापक के तौर पर गांव में गुजार चुके बाबूजी का अपना वहां भरा-पूरा समाज है। शाम को काम से फारिग होने के बाद वे अपने दोस्तों के साथ अड्डेबाजी में जुट जाते हैं। उनके दोस्तों में हर जाति के लोग हैं। ब्राह्मणत्व को किनारे रख कर अड्डेबाजी करने के लिए उनकी अपनी बिरादरी में आलोचना भी होती रही है। लेकिन वे कभी अपने दोस्तों से दूर नहीं हुए। लेकिन दिल्ली में वह समाज मिलने से रहा। फ्लैटों के बंद दरवाजे के पीछे टेलीविजन के सहारे चलती जिंदगी उन्हें रास नहीं आई। मुझे याद है जिस दिन वे दिल्ली से गांव लौटे तो उन्होंने पीछे मुड़कर देखना भी गवारा नहीं हुआ। उनका जाना ऐसे प्रतीत हो रहा था, मानो लंबी यातना से छूटा कैदी भाग रहा हो ।
हमारा दावा है कि आने वाले दिनों में शहरी आबादी में तेजी से विस्तार होगा। आजादी के बाद तकरीबन अस्सी फीसदी अपनी आबादी गांवों में रहती थी। अब ये आंकड़ा 67 के नजदीक पहुंच गया है। सच है कि गांवों के मुकाबले शहरों में जिंदगी गुजारने के लिए तमाम तरह की सुविधाएं हासिल हैं। इसके बावजूद एक पूरी की पूरी पीढ़ी ऐसी है, जिसे ये सुविधाएं नहीं लुभा पातीं। कवि शमशेर के शब्दों में कहें तो वह पीढ़ी गाती फिरती है-
अच्छी अपनी ठाठ फकीरी, मंगनी के सुखसाज से। शहर में सुखसाज तो है, लेकिन ठाठ नहीं है और मानवीयता और रिश्तों की उष्मा का तो खैर कम ही दर्शन होता है। मानव ही क्यों, जानवर भी अगर अपना समाज बनाता है तो उसमें इस उष्मा का ही बड़ा योगदान होता है। बाबूजी जैसे लोगों की पीढ़ी ने अपनी पूरी जिंदगी इसी उष्मा के सहारे गुजारी है। लिहाजा उन्हें जीवन की सांध्य बेला में सुखसाज से ज्यादा ठाठफकीरी में लिपटा अपना जीवंत समुदाय ही ज्यादा मुफीद लगता है। लिहाजा उनके लिए अपना गांव छोड़ना और दिल्ली में रहना...नरक भोगने जैसा है। इसीलिए वे दिल्ली या मुंबई का रूख करने से बचते हैं।
हमने अपने गांव में देखा है। एक दंपत्ति के सभी बच्चे उंची तालीम हासिल कर मोटी पगार और रसूख वाली नौकरियों में चले गए। सभी बच्चे माता-पिता को जोर देकर गांव से अपने साथ ले जाते रहे, लेकिन माता-पिता साल-छह महीने बाद लौटते रहे। उनके लिए गांव छोड़ना अपनी माटी से दगाबाजी करने जैसा रहा। हमारे एक और मित्र हैं। उनकी मां का देहांत हो गया है। प्रोफेसर पिता रिटायर हो गए हैं। मित्र अपने भाई के साथ दिल्ली में अच्छी तरह सेटल हैं। लेकिन उनकी रोजाना की सांझ पिता की चिंता में ही गुजरती है। क्योंकि पिता भी दिल के मरीज हैं। लेकिन पिता हैं कि दिल्ली रहने को तैयार नहीं। जोर देने पर दिल्ली आते हैं तो दस – पंद्रह दिन में ही उबकर वापस लौट जाते हैं।
आजादी के आंदोलन या नेहरू के स्वप्नवादी दौर में पैदा हुई इस पीढ़ी के ही सहारे गांवों का वजूद बचा हुआ है। जहां तमाम पेंचीदगियों के बावजूद जिंदगी की एक धार अब भी बह रही है। दुर्भाग्य ये कि अब ये पीढ़ी अपनी विदाई की बेला में है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि हमारे जैसे लोग क्या दिल्ली या मुंबई की कथित जिंदगी को कभी अपनी इस पूर्ववर्ती पीढ़ी की तरह निर्ममता पूर्वक छोड़ पाएंगे। या फिर जिंदगी की धार में डूबने का सिर्फ सपना ही देखते रह जाएंगे।

सुबह सवेरे में