Saturday, February 13, 2010

अब नहीं जलती लालटेन

उमेश चतुर्वेदी
हम जैसे – जैसे एक उम्र की सीमा को पार करने लगते हैं, अपने पुराने दिन, घर-परिवार की बातें और स्कूल की शरारतें याद आने लगती हैं। भले ही किसी की उम्र ज्यादा क्यों न हो गई हो, उसकी मौत उसके साथ बिताए दिनों की बेसाख्ता याद दिलाने लगती है। अपने मिडिल स्कूल के एक गुरूजी की मौत के बाद मुझे जितनी उनकी याद आई, उसके साथ ही उनकी छड़ी की सोहबत में गुजारे स्कूली दिन भी स्मृतियों में ताजा हो गए। यही वजह रही कि इस बार गांव जाने के बाद मैं अपने मिडिल स्कूल जा पहुंचा। स्कूल की बिल्डिंग वैसी ही खड़ी है, जैसी शायद पिछली सदी के चालीस के दशक में खड़ी थी। लेकिन चालीस के दशक से ही चलती रही एक परंपरा ने यहां भी अपना दम तोड़ दिया है।
दरअसल तब आठवीं का इम्तहान भी बोर्ड के तहत देना होता था। हमारे स्कूल की चूंकि पढ़ाई की दुनिया में बरसों पुरानी साख थी, लिहाजा इस साख को बचाए रखने के लिए हमारे गुरूजी लोग जाड़े का दिन आते ही स्कूल में ही छात्रों के बिस्तर लगवा देते। इसके लिए धान की पुआल दो कमरों में डालकर उस पर दरी बिछा दी जाती। ये इंतजाम स्कूल की तरफ से ही होता था। फिर उस पर अपने घरों से ओढ़ना-बिछौना लाकर आठवीं के छात्र डाल देते। सिरहाने उनकी पूरी किताबें और नोटबुक होती। तब स्कूल में बिजली नहीं थी, लिहाजा सबको अपने लिए लालटेन भी लानी होती थी। दीपावली बाद से लेकर मार्च – अप्रैल में इम्तहान होने तक सभी छात्र को सिर्फ दिन में एक बार घर जाने की अनुमति होती थी। यह मौका शाम की छुट्टियों के बाद ही आता। घर जाकर सभी लोग खाना खाते, कपड़े बदलते और रात के खाने के साथ ही देसी फास्टफूड की पोटली लेकर आते थे। दिन में कक्षाओं में पढ़ाई होती और रात में गुरूजी लोग के निर्देशन में लालटेन की रोशनी में पढ़ाई होती। छात्रों का रिजल्ट खराब न हो, इसके लिए गुरूजी लोग खास ध्यान देते। छात्रों को गुरूकुल की भांति हर दिन चार बजे भोर में जगाया जाता। गुरूजी लोग भी जागते और पढ़ाई कराते। इतनी मेहनत के बाद भी गुरू लोग अपने ही खर्च से स्कूल में खाना बनाते। इसके लिए अलग से कोई फीस नहीं ली जाती थी। हां, परीक्षा पास होने के बाद हर छात्र गुरू दक्षिणा के तौर पर पांच या दस रूपए देता था। अगर मानें तो तीन-चार महीने की पढ़ाई का यही गुरूओं का मेहनताना होता।
स्कूल में पहुंचते ही मुझे अपने जमाने के वे दिन याद आने लगे। मैंने पूछताछ शुरू की तो पता चला कि यह परंपरा टूटे कई साल हो गए। वैसे तो अब खाते-पीते परिवारों के बच्चे यहां पढ़ने ही नहीं आते। उनके लिए अब कस्बे में ही अंग्रेजी नाम वाले कई स्कूल खुल गए हैं। जहां वे मोटी फीस देकर पढ़ते हैं। ये बात और है कि इन स्कूलों के चलाने वाले लोग हमारे स्कूल की लालटेन की रोशनी से ही निकले हुए हैं। कहते हैं, व्यक्ति अपने शुरूआती जीवन में सीखता है, उसे बाद के दिनों में भी अख्तियार किए रखता है। लेकिन तकरीबन इस नि:स्वार्थ परंपरा को हम अपनी जिंदगी में उतार नहीं पाए हैं। बाजार के दबाव ने हमारी शिक्षा व्यवस्था को भी पूरी तरह निगल लिया है। जहां अब गुरू न तो छात्रों को अपने परिवार का अंग समझता है ना ही छात्रों के मन में उसके लिए श्रद्धा ही बची है। ऐसे में शिक्षा भी व्यवसाय बन गई है। जहां लोग अपनी हैसियत के मुताबिक कीमत देकर उसे हासिल कर रहे हैं। जो बड़ी कीमत देकर ऊंची तालीम हासिल नहीं कर पाता है, उसे बाजार में खुद के पिछड़ने का मलाल रह जाता है। लेकिन आज से करीब दो दशक पहले तक स्थिति ऐसी नहीं थी। कस्बे के जमींदार, थानेदार से लेकर चौकीदार तक का बेटा एक साथ पढ़ते थे। सबकी लालटेनें एक साथ जलती थीं और इनकी सम्मिलित रोशनी समाज में मौजूद अंधियारे को मिटाने की कोशिश करती थीं। ऐसा नहीं कि तब सारे गुरू दूध के धुले ही थे। समाज में कभी-भी सबकुछ दूध का धुला ही नहीं होता। लेकिन उसकी फिजाओं में इसकी तासीर कम या ज्यादा जरूर होती है। कहना ना होगा कि तब के दिनों में शिक्षा कम से कम दुकानदारी के तासीर से मुक्त थी, जहां अध्यापक हर छात्र को पढ़ाना और उसे काबिल आदमी बनाना अपना कर्तव्य समझता था। शायद यही वजह है कि लालटेन से जो रोशनी निकलती थी, वह शिक्षा के साथ एक रिश्ते का भी प्रसार करती थी। आज स्कूल भी वही है। अध्यापकों को पहले से कई गुना ज्यादा पगार मिलती है। वहां बिजली भी आ गई है। उसकी रोशनी की चमक भी कहीं ज्यादा है। लेकिन अफसोस रिश्तों की वह डोर बाकी नहीं बची है, जो लालटेन वाले दिनों की खास पहचान हुआ करती थी।
जनसत्ता के कॉलम दुनिया मेरे आगे में प्रकाशित

Thursday, January 21, 2010

एक दुनिया ऐसी भी

उमेश चतुर्वेदी
किसी सभा संगत में बोलने का मौका मिले तो अच्छे-भले लोगों की बांछें खिल उठती हैं, ऐसे में किसी नए-नवेले को अवसर मिले तो उसकी खुशियों का पारावार नहीं होगा। दिल्ली की एक संगत से बुलावा मिला तो मेरी भी हालत कुछ वैसी ही थी। लेकिन वहां पहुंचकर जो अनुभव हुआ, उसने मेरी आंखें ही खोल दीं। देश की हालत पर चर्चा करते हुए मैंने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की उस रिपोर्ट का जिक्र कर बैठा – जिसके मुताबिक देश के आज भी करीब चौरासी करोड़ लोग रोजाना सिर्फ बीस रूपए या उससे नीचे पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। योजना आयोग की बनाई इस कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र मैंने इसलिए किया, ताकि वहां बैठे नौजवान श्रोताओं को पता चला कि मॉल और महंगी गाड़ियों से अटी दिल्ली-मुंबई के बाहर की देसी दुनिया और उसके लोग कैसे हैं। इस उदाहरण के बाद पता नहीं कितने नौजवानों की आंखें खुलीं, लेकिन एक नौजवान ने जैसे सवाल मेरी ओर उछाले, उससे चौंकने की बारी मेरी थी।
दरअसल वह नौजवान मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत की इतनी बदतर हालत है। जिस कॉलेज से वह आया था, वह दिल्ली के संभ्रांत कॉलेजों में गिना जाता है। माना जाता है कि वहां संभ्रांत तबके के लोगों के ही बच्चे पढ़ते हैं। जाहिर है वह बच्चा भी वैसे ही समाज से था। महंगे और आधुनिक फ्लैट से निकल कर महंगी गाड़ियों के बाद चमकते मॉल और रेस्तरां और बेहतरीन स्कूलों के बीच उसकी जिंदगी गुजरी थी या गुजर रही है। वह मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत में सचमुच इतनी गरीबी और बदहाली है। उसे लगता था कि मैं उसे बेवकूफ बना रहा हूं। अव्वल तो वह यह मानने को तैयार ही नहीं था कि योजना आयोग ने ऐसी कमेटी भी बनाई थी, जिसने कोई ऐसी रिपोर्ट भी दी थी। भारत में ऐसी गरीबी और बदहाली को तो खैर वह मान ही नहीं रहा था। वह तो शुक्र है कि जिस संगत में गया था, वहां इंटरनेट की सुविधा थी। लिहाजा मैंने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की वह रिपोर्ट डाउनलोड की और उसे पढ़ने के लिए दे दिया।
कई लोगों को लग सकता है कि दिल्ली में संभ्रांत घरों के ऐसे भी बच्चे हैं, जिन्हें अखबारी और टीवी की दुनिया से इतना भी वास्ता नहीं है कि वे ऐसी जानकारियों से लैस रह सकें। लेकिन यही सच है। खाए-अघाए वर्ग के बच्चों का एक बड़ा तबका ना सिर्फ ऐसी जानकारियों से दूर है, बल्कि उसे सामान्य ज्ञान की भी जानकारी नहीं है। रही बात भारत की गरीबी की, तो इस बारे में भी उनकी जानकारी अधूरी या अधकचरी है।
इस अनुभव के बाद मुझे लगा कि मैकाले की स्वर्ग में बैठी आत्मा बेहद खुश होगी। मैकाले ने 1835 में जिस शिक्षा व्यस्था की नींव रखी थी, उसका मकसद था भारत नहीं इंडिया का निर्माण। मैकाले सफल कितना सफल हो पाया, यह तो अलग शोध का विषय है, लेकिन उदारीकरण के दौरान या उसके बाद पैदा हुई महानगरीय पीढ़ी ने उसकी मंशा जरूर पूरी कर दी है। मैकाले तो सफल नहीं हुआ, लेकिन उदारीकरण ने वह सीमा रेखा जरूर खींच दी है, जिससे भारत और इंडिया साफ बंटे नजर आ रहे हैं।
इस घटना के बाद मुझे प्रिंस क्रोपाटकिन की किताब – नवयुवकों से दो बातें – काफी शिद्दत से याद आने लगी। जिसे मैंने किशोरावस्था की ओर कदम रखते वक्त पढ़ा था। इस किताब में वह डॉक्टर, अध्यापक और वकील जैसे प्रोफेशनल से पूछते हैं कि अगर उनके सामने गरीब और बेसहारा आम आदमी और उसके बच्चे अपनी समस्या लेकर आते हैं तो उनका क्या जवाब होगा या फिर वे कैसे उससे निबटेंगे। जाहिर है, जवाब पारंपरिक ही होंगे कि मसलन डॉक्टर रोगी के लिए फल और दूध के साथ दवाइयां ही सुझाएगा। तब क्रोपाटकिन दूसरा सवाल उछालते हैं कि जब उनके पास इसकी सामर्थ्य ही नहीं होगी, तब ... और क्रोपाटकिन का यह सवाल ही आंख खोल देता है। काश कि ऐसी किताबें आज की महानगरीय पीढ़ी को पढ़ने को दी जातीं और वह इससे कुछ संदेश लेती। तब शायद उन्हें पता चलता कि देश की असल हालत क्या है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या आज की यह महानगरीय पीढ़ी इसके लिए तैयार भी है या नहीं...

Friday, November 13, 2009

बलिया के चारबज्जी रेल की याद


उमेश चतुर्वेदी
1984 के जुलाई महीने की उमस भरी गर्मी में राहत की उम्मीद लेकर मैं अपने एक सहपाठी मित्र की दुकान पर पहुंचा। बलिया स्टेशन पर सर्वोदय बुक स्टाल नाम की आज भी ये दुकान वैसे ही खड़ी है – जैसी अस्सी के दशक में थी। तब मैं ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था और जिला मुख्यालय से रोज ब रोज के साबका ने किशोर आंखों में साहित्य और पत्रकारिता के लिए अनजान से सपने रोपने शुरू कर दिए थे। ऐसे में मेरे सहपाठी की दुकान मेरे लिए ज्यादा मुफीद थी। रोजाना छोटी लाइन की छुकछुक करती भाप इंजन से चलने वाली ट्रेनों के सहारे हमें अपने इंटर कालेज में आना होता था और वापसी भी ट्रेन से करनी होती। ऐसे में स्टेशन की भीड़भरी गर्मी में ये दुकान मुझे दो तरह की राहत देती थी- पंखे के नीचे सुकून से बैठने और मुफ्त में मनचाही किताबें पढ़ने की..यहां मैंने न जाने कितनी किताबें पढ़ी, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, पत्रकारिता और सेक्स...सबकुछ खैर....इसकी चर्चा फिर कभी .....

इसी दौरान किताबों के नए आए सेट की एक किताब पर नजर गई ...कोहबर की शर्त..किताब के लेखक के बारे में पढ़ा, बलिया जिले के बलिहार गांव के ही निवासी थे केशव प्रसाद मिश्र। इस किताब ने मुझे इसलिए भी आकर्षित किया – क्योंकि इसकी पहली ही लाइन की शुरूआत उसी चार बजे की ट्रेन की चर्चा से होती है – जिससे रोजाना शाम को हम अपने घरों के लिए लौटते थे। कोहबर की शर्त में आपको ये लाइन कुछ ऐसे मिलेगी – चारबज्जी ट्रेन हांफती हुई सी खड़ी थी। कोहबर की शर्त की जब-जब मेरे सामने चर्चा होती है – मेरी स्मृतियों में भाप इंजन वाली वह चार बजे वाली ट्रेन आ जाती है। जिसे हम पहली ट्रेन भी बोला करते थे। तो कुछ इस नास्टेलजिक अंदाज में मेरा कोहबर की शर्त से परिचय हुआ।
ये तो बहुत बाद में जान पाया कि 1982 में जिस गाने - कवन दिसा में लेके चला रे बटोहिया - को सुनकर मैं अपनी मां से उस फिल्म को देखने की जिद्द करता था, वह फिल्म नदिया के पार इसी उपन्यास पर बनी थी। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि अपनी ही माटी की कहानी पर बनी इस फिल्म को मैं बहुत बाद में देख पाया – क्योंकि तब मेरे परिवार की नजर में फिल्म देखना उतना ही खराब काम था – जितना शराब पीना। 1982 में बनी ये फिल्म सुपरडुपर हिट रही। हालत ये थी कि लोग किरासन तेल वाला स्टोव और खाना बनाने का बर्तन तक लेकर सिनेमा हाल जाते थे कि अगर उस शो का टिकट नहीं मिला तो बाद वाले शो में जरूर देखेंगे। लेकिन दुर्भाग्य देखिए....बलिया के पढ़े-लिखे लोगों तक को ये पता नहीं चला कि जिस चौबेछपरा, बलिहार और छेड़ी से वे रोजाना गुजरते हैं – उन्हीं गांवों की ये कहानी है। फिल्म की ज्यादातर शूटिंग जौनपुर में हुई थी। लिहाजा लोग इसे जौनपुर की ही कहानी मानते रहे। मजे की बात ये कि जिस लेखक की कहानी पर ये जबर्दस्त फिल्म बनी – उस लेखक को लोग जान भी नहीं पाए।
केशव प्रसाद मिश्र बलिया जिले के बलिहार गांव के ही निवासी थे। पढ़ाई-लिखाई के बाद उन्होंने इलाहाबाद के मशहूर एजी ऑफिस यानी ऑडिटर जनरल के दफ्तर में नौकरी कर ली। और इलाहाबाद के ही होकर रह गए। कोहबर की शर्त जैसा भावुकता पूर्ण उपन्यास लिखने वाले इस लेखक को वह चर्चा भी नहीं मिली – जिसके वे हकदार थे। उपन्यास पढ़ने के बाद अगर आपकी आंखों से आंसू ना गिरे – ऐसा हो ही नहीं सकता। फिल्म देखकर लोग भावुक तो होते ही रहे हैं। आखिर क्या वजह रही कि उन्हें वह चर्चा नहीं मिली – जिसके वे हकदार थे। इसे समझने के लिए वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह का एक अनुभव ही काफी रहेगा। 1982 में नदिया के पार के सुपर-डुपर हिट होने के बाद अरविंद , इलाहाबाद में केशवप्रसाद मिश्र का इंटरव्यू लेने जा पहुंचे। तब अरविंद इलाहाबाद में ही रहते थे। केशव प्रसाद मिश्र ने अरविंद की आवभगत तो की, लेकिन पहले नदिया के पार फिल्म देख आने का सुझाव दे डाला। बातचीत के लिए तैयार नहीं हुए। आज के दौर में जब किताबें आने से पहले ही चर्चाओं और गोष्ठियों के जरिए हंगामा बरपाने और खुद को चमकाने की कोशिशें तेज हो जाती हैं – केशव प्रसाद मिश्र इन सबसे दूर थे। हिंदी के बड़े-बड़े लेखकों से उनका साबका पड़ता रहा। उसी बलिया के दूधनाथ सिंह और अमरकांत से लेकर शेखर जोशी, उपेंद्र नाथ अश्क, भैरव प्रसाद गुप्त आदि से संपर्क रहा। लेकिन केशव जी चर्चाओं से दूर भागते रहते थे। पूर्वांचल की माटी के ही एक और मूर्धन्य कलमकार विवेकी राय उन्हें एक अच्छे इंसान के तौर पर शिद्दत से याद करते हैं। उनका कहना है कि केशव प्रसाद मिश्र में आधुनिक दौर का बड़बोलापन नहीं आ पाया था। इसलिए वे खुद की चर्चाओं से हमेशा दूर रहा करते थे। साहित्यिक गोष्ठियों और सेमिनारों में जाते तो थे – लेकिन खुद बोलने से बचते थे। कुछ वैसे ही जैसे उनके उपन्यास कोहबर की शर्त की नायिका गूंजा की बड़ी बहन चुपचाप सबकुछ खुद पर ही झेलती रहती है। कुछ – कुछ कोहबर की शर्त की वैद्य जी की तरह वे थे, जो अपनी जिम्मेदारियों को चुपचाप निभाते रहे।
1936 में - देहाती दुनिया - के जरिए आंचलिक उपन्यास की दुनिया में जो बिरवा आचार्य शिवपूजन सहाय ने रोपा था, नागार्जुन ने बलचनमा, रतिनाथ की चाची और वरूण के बेटे के जरिए उसे आगे बढ़ाया। लेकिन आंचलिक लेखन में नई क्रांति मैला आंचल और परती परिकथा के जरिए फणीश्वर नाथ रेणु लाने में सफल रहे। विवेकी राय ने भी नमामि ग्रामं, सोनामाटी और समर शेष है जैसे उपन्यासों के जरिए आंचलिक उपन्यासों की दुनिया में सार्थक हस्तक्षेप किया है। केशव प्रसाद मिश्र इसी कड़ी के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे। हैरतअंगेज समानता आचार्य शिवपूजन सहाय के देहाती दुनिया, मैला आंचल और कोहबर की शर्त – तीनों में है। जहां पहले और आखिरी उपन्यास में भोजपुरी इलाके की महिलाओं के दर्द को आवाज देने की कोशिश की गई है, वहीं यही काम मैला आंचल के जरिए रेणु जी पूर्णिया और कटिहार के आसपास की महिलाओं और लड़कियों की संवेदना को नए सुर देते हैं। मैला आंचल की कमली और कोहबर की शर्त की गूंजा की हालत में आज भी खास बदलाव नहीं आया है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि दोनों ही नायिकाएं अपने मनचाहे साथियों को पा लेती हैं। इसके लिए उन्हें भले ही चाहे जितना संघर्ष करना पड़ता है। लेकिन हकीकत में ये आज भी दूर की कौड़ी है। आज भी भोजपुरी इलाके की लड़कियों को वह स्वतंत्रता हासिल नहीं है। लेकिन इन लेखकों ने अपनी रचनाओं के जरिए एक क्रांति लाने की कोशिश जरूर की। फिल्म और टेलीविजन माध्यमों पर आकर इन नायिकाओं का दर्द घर-घर की महिलाओं का दर्द बन गया। फिल्म माध्यम में आने के बाद रेणु को लेकर चर्चाओं का विस्तार ही हुआ – उनकी कहानी लालपान की बेगम पर बनी फिल्म तीसरी कसम के जरिए भी लोग रेणु को जानते हैं। मैला आंचल को टीवी पर जब पेश किया गया - तब भी उन्हें ढंग से याद किया गया। लेकिन केशव प्रसाद मिश्र यहीं पर पिछड़ गए। 1982 में आई नदिया के पार के लेखक के तौर पर उन्हें उस बलिया के लोग भी कायदे से नहीं जान पाए – जिनके बीच के केशव जी थे। जहां रहकर उस चारबज्जी ट्रेन की उमस और दुर्गंधभरी कितनी यात्राएं बलिया से रेवती स्टेशन के बीच की थी। ( उपन्यास की भूमिका में इसका भी जिक्र है। ) राजश्री वालों ने 1982 में नदिया के पार बनाने के बाद केशव जी को सम्मान तो दिया था। लेकिन 1994 में जब सूरज बड़जात्या अपनी इसी फिल्म का शहरी संस्करण – हम आपके हैं कौन – बनाई तो उस समय इस लेखक को कायदे से याद नहीं किया गया। लेकिन माधुरी दीक्षित और सलमान खान की इस फिल्म से बड़जात्या परिवार की तिजोरी कितनी भरी – ये सबको पता है।
केशव प्रसाद मिश्र की एक और महत्वपूर्ण रचना है उनका उपन्यास, देहरी के आरपार । कोहबर की शर्त की नायिका गूंजा को उसकी चाहत तो मिल गई – लेकिन ममता की देहरी को पार करने की इच्छा पूरी ही नहीं होती। कभी उसके पिता रामाधार कौशिक की कृपणता तो कभी उनकी भोगवादी दृष्टि ममता की राह में आड़े आ जाती है। बिन मां की ये बच्ची अपनी चाहतों – अपने सपनों को रोजाना टूटते हुए देखती है। पूरबिया बाप इलाहाबाद के पढ़े-लिखे माहौल में खुद को आधुनिक दिखाने की कोशिशों में जुटा रहता है। लेकिन अंदर से वह अपनी दकियानूसी सोच को छोड़ नहीं पाता। मां नहीं है – लिहाजा अपना दर्द ममता किससे बांटे। इसी बीच उसकी हेमंत से भेंट होती है। कुछ ऐसा संयोग बनता है कि हेमंत से शादी के लिए रामाधार कौशिक तैयार हो जाते हैं। ममता हेमंत से बंध जाती है। लेकिन उसकी कसक बाकी रह जाती है। ममता जो ममता के तौर पर जाना जाना चाहती है – उसकी वह पहचान नहीं बन पाती। अब उसकी नई पहचान हेमंत बन जाते हैं। ममता का दर्द कुछ कम तो होता है – लेकिन कसक के साथ। उसकी कसक को केशव जी ने जो शब्द दिए हैं – भावुक आंखों में आंसू लाने के लिए काफी हैं। आप भी गौर फरमाइए –
“ आज रात के साढ़े दस बजे तक , परिचय के लिए डॉ. रामाधार कौशिक एमबीबीएस की बेटी ममता हूं , उसके बाद हेमंत से जुड़ जाउंगी। उस हेमंत से, जिन्होंने मुझे नई जिंदगी दी है। जिंदगी का अर्थ दिया है, जीने की रूचि जगाई है- इस थके –हारे, निराश मन में, आस और विश्वास भरा है। ”
इस ममता में मुझे आज भी बलिया, गाजीपुर, छपरा, बनारस जैसे इलाके की ढेरों ममताएं नजर आती हैं। इस उपन्यास के प्रकाशित हुए करीब तीन दशक बीत गए हैं – लेकिन ममता की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है।
आज के दौर के महत्वपूर्ण कवि हैं केदारनाथ सिंह। केदार जी का गांव चकिया , केशव जी के गांव बलिहार से चार-पांच किलोमीटर की ही दूरी पर है। दोनों ने रचनात्मकता के नए प्रतिमान बनाए। केदारजी को सभी जानते हैं। केशव जी की उतनी पूछ और पहुंच नहीं रही। लेकिन मेरी स्मृतियों में दोनों की रचनाओं का एक-एक बिंब टंगा हुआ है। केदार जी की एक कविता है – मांझी का पुल। बलिया-छपरा रेलमार्ग पर यूपी-बिहार सीमा पर घाघरा पर बने इस रेलवे पुल की धमक रात के गहरे सन्नाटे में दूर-दूर तक सुनाई देती है। केदार जी अपनी कविता में कहते हैं – दूर कहीं स्मृतियों में टंगा है मांझी का पुल।
बलिया की रचनात्मकता की जब भी चर्चा होती है – मेरे भी अंदर कहीं न कहीं मांझी का ये पुल फांस की तरह टंगा नजर आता है। इसके साथ ही याद आती है हांफती सी खड़ी चारबज्जी ट्रेन, जिसे इसी मांझी के पुल से रोजाना गुजरना होता है।
केशव जी हमारे बीच नहीं हैं – लेकिन उनकी रचनाधर्मिता की कीर्ति को कभी हम मांझी के पुल के पार भी ले जा सकेंगे। जवाब हम सबको ढूंढ़ना है।

Saturday, November 7, 2009

कोड़ा अभी क्यों नजर आ रहे हैं भ्रष्टाचारी



उमेश चतुर्वेदी

झारखंड में जारी चुनावों और पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के खिलाफ छापेमारी के बीच कोई संबंध है...ये सवाल इन दिनों बड़ी शिद्दत से उठ रहा है। सवाल उठने की वजह भी है। झारखंड जैसे छोटे और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर राज्य का पांच साल तक मधु कोड़ा बेरहमी से शोषण करते रहे और अकूत संपति बनाते रहे – इसकी जानकारी आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय और इंटेलिजेंस ब्यूरो को एक दिन में तो मिली नहीं होगी। जाहिर है- इसकी खबर पहले भी अपनी इन दमदार एजेंसियों के जरिए केंद्र सरकार को रही ही होगी। लेकिन तब तो केंद्र सरकार ने मधु कोड़ा के खिलाफ कोई कदम उठाया नहीं। उनके ठिकानों पर छापे भी नहीं मारे गए। लेकिन जैसे ही झारखंड में चुनावों का ऐलान हुआ- मधु कोड़ा अचानक ही केंद्र सरकार की नजर में इतने बड़े खलनायक बन गए कि उनके खिलाफ जांच में केंद्र सरकार को इंटरपोल की मदद लेनी पड़ रही है। इन विधायकों की अकूत कमाई के जो राज खुल रहे हैं, वे चौंकाने वाले हैं।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि जो मधु कोड़ा आज झारखंड के अब तक के सबसे बड़े घोटाले और निर्मम अवैध कमाई के चलते खलनायक बन चुके हैं, अब तक उनकी 1450 करोड़ की कमाई का पता चल चुका है, उसमें क्या कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं है। कांग्रेस गांधी जी के बताए रास्ते पर चलने का दावा करती है। गांधी जी ने कहा था कि अन्याय करने से ज्यादा अन्याय सहने वाला भी होता है। पता नहीं कांग्रेस ने अन्याय सहा या नहीं या फिर उसके विधायकों ने कोड़ा न्याय में हिस्सेदारी की या नहीं...लेकिन ये सच जरूर है कि इस भ्रष्टाचार में वह भी बराबर की भागीदार है। क्योंकि सांप्रदायिकता को सत्ता से दूर रखने के नाम पर अपने 11 विधायकों के सहयोग से उसने मधु कोड़ा की 2007 में सरकार बनवाई थी। इतना ही नहीं, उसने अपने विधायक आलमगीर को विधानसभा का अध्यक्ष भी बनवाया। सरकार की वह महत्वपूर्ण सहयोगी रही है। यह कौन भरोसा करेगा कि राज्य सरकार के आठ हजार करोड़ के बजट में से चार हजार करोड़ का घोटाला होता रहे। इतना बड़ा घोटाला कि राज्य के टटपूंजिए ठेकेदार और पत्रकार तक मालामाल होते रहे और सरकार की महत्वपूर्ण सहयोगी को पता तक नहीं चल पाया। शायद पंजाब के बाद ये झारखंड पहला राज्य है, जिसके राज्यपाल और उनके दफ्तर तक पर खुलेआम भ्रष्टाचार का आरोप लगा। तब कांग्रेस या केंद्र सरकार ने चुप्पी साधे रखी। उसे अपने राजधर्म के निर्वाह की याद नहीं आई।
झारखंड में चुनावी बिगुल बज चुका है। लोकसभा चुनावों को बीते अभी छह महीने भी नहीं बीते हैं। तब भारतीय जनता पार्टी ने इस राज्य में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई थी। केंद्रीय सरकार की अगुआई कर रही कांग्रेस को पता है कि भाजपा को जनसमर्थन का वह उफान अभी कम नहीं हुआ है। हरियाणा, महाराष्ट्र और अरूणाचल प्रदेश में कांग्रेस ने सत्ता की सीढ़ी को एक बार फिर पार कर लिया है, लेकिन झारखंड में एक बार फिर इन तीनों राज्यों का इतिहास दोहराया जाता नहीं दिख रहा है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी कांग्रेस को हिंदी पट्टी में जिंदा करने के अभियान में शिद्दत से जुटे हुए हैं। उनकी कोशिशों का फायदा पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में तो दिखा, लेकिन बिहार और झारखंड की धरती पर उनकी कोशिशें कामयाब होती नहीं दिख रही हैं। ऐसे में सत्ता की ताकत का सहारा लिया जा रहा है और ऐन चुनावों के वक्त ही मधु कोड़ा, एनोस एक्का और हरिनारायण सिंह समेत भ्रष्ट पूर्व मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ छापेमारी का अभियान शुरू कर दिया गया है।
इस पूरी कवायद का मकसद जितना झारखंड की भ्रष्टाचार मुक्त करना नहीं है, उससे कहीं ज्यादा राज्य की चुनावी बयार में फायदा उठाना है। अगर ऐसा नहीं होता तो केंद्र की ओर से इस भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए पहले से ही प्रयास किए जा रहे होते। मधु कोड़ा के भ्रष्टाचार के किस्से तो रांची के सियासी गलियारों से लेकर राजधानी दिल्ली के राजनीतिक चौराहों तक चटखारे लेकर सुनाए जा रहे थे। आम लोगों तक को पता था कि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर झारखंड की माटी का किस कदर दोहन हो रहा है। पत्रकारीय गलियारे भी इन चटखारों से भरे पड़े थे। तब किसी सरकारी एजेंसी या जिम्मेदार विभाग को इसके खिलाफ कार्रवाई करने की क्यों नहीं सूझी।
मधु कोड़ा हों या एनोस एक्का, उनके पास इतनी सियासी ताकत और कौशल नहीं है कि वे अपने पर हो रहे सरकारी अमले की छापेमारी को भी खुद के पक्ष में साबित कर दें। देश के दलित और पिछड़े वर्ग के कई नेताओं ने अपने खिलाफ छापेमारी और सरकारी कार्रवाई को पूरी कुशलता के साथ अपने वोटरों के खिलाफ भावनात्मक तौर पर उभारने में कामयाब होते रहे हैं। लेकिन झारखंड में ऐसा होता नहीं दिख रहा है। कांग्रेस को झारखंड के इन नेताओं की इस कमजोरी की पूरी जानकारी है। शायद यही वजह है कि कांग्रेस इसका भी चुनावी फायदा उठाने की तैयारी में है।
सन 2000 में जब छोटे राज्यों का गठन हुआ था तो उसकी सबसे बड़ी वजह ये बताई गई थी कि राजनीतिक आकाओं की उपेक्षा के चलते उस खास क्षेत्र का वह विकास नहीं हुआ, जिसके वे हकदार थे। तब तर्क दिया गया कि छोटे राज्यों की कमान उनके अपने बीच के नेताओं के हाथ होगी और वे अपनी माटी और अपने लोगों की समस्याओं को ध्यान में रखकर इलाके का समुचित विकास करेंगे। लेकिन दुर्भाग्य ये कि छोटे होने बाद ये राज्य भ्रष्टाचार के और बड़े भंवर में फंस गए। रही-सही कसर छोटे-छोटे ग्रुपों की राजनीतिक और चुनावी सफलता ने पूरी कर दी। झारखंड इस गिरावट का बेहतर उदाहरण बन गया है। उससे भी बड़ा दुर्भाग्य ये कि इस गिरावट में राष्ट्रीय पार्टियां - रहा किनारे बैठ - की तर्ज पर भागीदार रहीं। इससे भी बड़े दुर्भाग्य की बात ये कि भ्रष्टाचार पर रोक लगाने की असल वजह टैक्स चुकाने वाली माटी के असल हकदार लोगों को फायदा पहुंचाना नहीं रहा, बल्कि इसका भी इस्तेमाल सियासी फायदे के लिए किया जा रहा है। ये बात नंगी आंखों से सबको नजर आ रही है। इससे बड़े दुर्भाग्य की बात और क्या होगी कि झारखंड के भूखे-नंगे मूल निवासियों के हितों की बात दिल से कोई नहीं कर रहा है। यहां के माटी पुत्रों को आज भी छोटी नौकरियों के लिए बाहर जाना पड़ रहा है। दिल्ली- मुंबई की घरेलू नौकरानियों के तौर पर झारखंड की बच्चियों को अपने दिन काटने पड़ रहे हैं। आए दिन उनसे यौन दुर्व्यहार की खबरें महानगरीय अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं। साफ है इसके लिए जिम्मेदार मधु कोड़ा, एनोस एक्का और हरिनारायण जैसे राजनेता ही हैं। वहीं उनका साथ देने के चलते शिबू सोरेन, कांग्रेस और आरजेडी भी इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। ऐसा नहीं कि इस कुचक्र को झारखंड की जनता-जनार्दन नहीं समझ पाई है। देखना ये है कि वह चुनावी बयार में इसका हिसाब नेताओं से चुका पाती है या नहीं।

Wednesday, October 28, 2009

हिंदी वाले बिग बॉस


उमेश चतुर्वेदी
11 अक्टूबर को अमिताभ बच्चन ( सहस्राब्दी के महानायक कहने वाले लोग माफ करेंगे ) के जन्मदिन पर उनकी ब्रांड वैल्यू से लेकर सिनेमा में उनके योगदान की जयगाथा के गुणगान की जैसे परिपाटी ही चल पड़ी है। इस परिपाटी को चलाने वाले हर साल इसी प्रशस्तिगान को घुमा-फिराकर पेश करके इतिश्री कर लेते हैं। जाहिर है इस बार भी यही हुआ। लेकिन अमिताभ के उस योगदान की ओर प्रशस्तिगान की परिपाटी चलाने वाले लोगों का ध्यान शायद ही गया, जिसके सहारे कथित तौर पर क्लिष्ट मानी जाने वाली हिंदी को लोकप्रिय बनाने में वह योगदान दे रहे हैं।
हिंदी मीडिया में आने वाले छात्रों और प्रशिक्षार्थियों को पहले ही दिन से गांधीजी की हिंदुस्तानी के नाम पर ऐसी हिंदी लिखने-पढ़ाने की ट्रेनिंग दी जाने लगती है, जिसे आम आदमी यानी पान- चाय वाले से लेकर खेत-खलिहान में काम करने वाला आम मजदूर भी समझ सके। शावक पत्रकार को ये घुट्टी इस तरह पिला दी जाती है कि वह बेचारा हिंदी के उन आमफहम शब्दों के इस्तेमाल से भी बचने लगता है – जिसे वह अपने कॉलेज के दिनों में नहीं- बल्कि स्कूली पढ़ाई के दौरान सीखा और समझा होता है। जब टेलीविजन चैनलों का प्रसार बढ़ा और निजी चैनलों का दौर बढ़ा तो इस घुट्टी पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया जाने लगा। किशोरीदास वाजपेयी के लिए भले ही अच्छी हिंदी कभी भारत की भावी भाषाई अस्मिता का प्रतीक रही होगी – अच्छी हिंदी आज के मीडिया के लिए उपहास का पात्र बन चुकी है। हिंदी का उपहास सबसे ज्यादा हिंदी के ही खबरिया चैनलों में हुआ। इसके लिए मीडिया की लानत-मलामत भी खूब होती रही है।
लेकिन मुख्यधारा के हिंदी मीडिया में एक बदलाव नजर आ रहा है। अब वहां किशोरीदास वाजपेयी की तराशी अच्छी हिंदी भी परोसी जा रही है और मजे की बात ये है कि क्लिष्टता के नाम पर उसे अब तक नकारते रहे लोग भी इस हिंदी पर न्यौछावर होते नजर आ रहे हैं। कहना ना होगा कि बुद्धू बक्से पर इस हिंदी के सबसे बड़े पैरोकार के तौर पर अमिताभ बच्चन ही सामने आए हैं। जरा सोचिए...अगर बिग बॉस का तीसरा संस्करण कोई शिल्पा शेट्टी या फिर सामान्य टेलीविजन एंकर पेश कर रहा होता तो क्या वह उतनी सहजता से बिग बॉस तृतीय बोल पाता, जितनी सहजता से अमिताभ बोलते हैं। या फिर वह बोलने की कोशिश करता तो उस चैनल के प्रोड्यूसर और कर्ता-धर्ता ऐसी हिंदी को पचा पाते। अब तक हिंदी के साथ जो कुछ भी होता रहा है, कम से कम मीडिया में जो होता रहा है, उसका खयाल रखते हुए इसका जवाब निश्चित तौर पर ना में होगा। बिग बॉस कोई पहला कार्यक्रम नहीं है, जिसमें अमिताभ ऐसी हिंदी बोल रहे हैं। याद कीजिए – इसके पहले कौन बनेगा करोड़पति के दूसरे संस्करण को पेश करते वक्त भी अमिताभ कौन बनेगा करोड़पति सेकंड की बजाय कौन बनेगा करोड़पति द्वितीय बोलने में नहीं झिझकते थे।
कुछ लोगों को लग सकता है कि अमिताभ कुछ अलग दिखने के चक्कर में ऐसा बोल रहे हैं। कुछ लोगों की नजर में ये उनकी और संबद्ध चैनल की मार्केटिंग रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है। लोगों को इसमें भी बाजारवाद का हमला दिख सकता है। ये तथ्य अपनी जगह सही हो सकते हैं। लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि आज बाजारवाद और उपभोक्तावाद के दौर में बाजार से बचना नामुमकिन है। ऐसे में अपनी कथित क्लिष्ट हिंदी भी मार्केटिंग का हथियार बन सकती है तो इसे लेकर हम खुश भले ना हों, लेकिन संतोष का भाव तो दे ही सकते हैं।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या वजह है कि हमारी अपनी अच्छी हिंदी हमारे ही लोगों के लिए गंवारूपन और पिछड़ेपन का प्रतीक मानी जाती रही है। वह प्रगति में बाधक समझी जाती रही है। लेकिन अमिताभ के मुंह से निकलते ही वह इतनी ताकतवर बन जाती है कि उसे भी यूएसपी बनाकर पेश किया जाने लगता है। हकीकत तो ये है कि अब तक चाहे मीडिया के चलाने वाले ज्यादातर लोग रहे हों या फिर देश के प्रशासन के, वे खांटी और खालिस हिंदी वाले नहीं रहे हैं। खुद उनके लिए हिंदी उतनी ही बेगानी रही है, जितनी आम भारतीय के लिए अंग्रेजी। ऐसे में उन्हें लगता है कि वे जितनी हिंदी जानते हैं, उनका पाठक और दर्शक भी उतनी ही हिंदी जानता और समझता है और जैसे ही उनके सामने हिंदी के कम परिचित आम शब्द आते हैं तो वह हिंदी उन्हें कठिन लगने लगती है। हां उसकी जगह पर अंग्रेजी के शब्द चल पड़ें तो कोई बात नहीं। उनकी नजर में खेत में काम करने वाला और पनवाड़ी भी अंग्रेजी के आम शब्दों को जानता-समझता है। दुनिया के किसी और देश की भाषा के लिए भले ही ये चलन चिंता का सबब हो, अपने यहां यह प्रगति और बुद्धिवादी होने का बेहतरीन सबूत है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसी उटोपिया से प्रभावित रहा है। लिहाजा हिंदी के खबरिया से लेकर मनोरंजन के चैनलों पर भी आम फहम के नाम पर ऐसी हिंदी परोसी जाती रही है, जिसका जमीनी हकीकत से दूर-दूर तक का वास्ता नहीं रहा है। अमिताभ बच्चन ने इसी परिपाटी और इसी जड़ता को अपनी सहज और कथित तौर पर क्लिष्ट हिंदी का प्रयोग करके तोड़ा है। बिग बॉस में गालियां और अंदरूनी खींचतान के बाद हफ्ते में जब दो दिन अमिताभ बच्चन सामने आते हैं तो दर्शक उनका इंतजार करते हैं। उनकी हिंदी को सुनने के लिए अपने टेलीविजन चैनलों का ट्यून नहीं बदलते। अगर यह हिंदी इतनी ही लोगों के लिए कठिन होती तो बिग बॉस के प्रस्तुत कर्ता शमिता शेट्टी को हिंदी बोलने की सजा नहीं सुनाते। बिग बॉस के दूसरे सीजन में ऐसी सजा पूर्व मिस वर्ल्ड डॉयना हेडन को भी सुनाया जा चुका है।
उन्नीसवीं सदी के आखिरी दिनों में कहा जाता है कि देवकीनंदन खत्री की ऐयारीपूर्ण रचनाएं -चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी थी। हिंदी का विस्तार इसी तरह हुआ है। लेकिन आज ये मान्यता पूरी तरह बदल गई है। कथित क्लिष्ट हिंदी के इस्तेमाल को लेकर टीआरपी या सर्कुलेशन गिरने की चिंताएं जताई जाती रही हैं। लेकिन बिग बॉस तृतीय या फिर कौन बनेगा करोड़ पति द्वितीय के टीआरपी के आंकड़े इस मान्यता को झुठलाने के लिए काफी हैं। बिग बॉस तृतीय की टीआरपी 400 अंकों के स्तर पर पहुंच गई है। निश्चित तौर पर अमिताभ के इस हिंदी प्रेम के पीछे उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि का बड़ा योगदान रहा है। उनके पिता हरिवंश राय बच्चन हिंदी के मशहूर कवि थे। हिंदी के प्रति उन्हें बचपन से एक खास संस्कार मिला है। इसका असर बिग बॉस के तीसरे सीजन की उनकी प्रस्तुति पर भी दिख रहा है। ऐसे में मीडियाघर में हिंदी की इस नई प्रतिष्ठा को लेकर आशावान बनने में कोई हर्ज नजर नहीं आ रहा है। भले ही इसका जरिया अमिताभ ही क्यों ना बन रहे हों।

Sunday, October 25, 2009

किसे जरूरत है न्यूडिटी की


उमेश चतुर्वेदी
साल - 1995
मिलिंद सोमण और मधु सप्रे की न्यूड जोड़ी का एक फोटो एक पत्रिका के कवर पेज पर छपा है..टफ शूज के विज्ञापन में ये जोड़ी बिल्कुल नंगी नजर आ रही है। उनके शरीर के गोपन अंगों को अजगर के जरिए ढांप रखा गया है।
साल – 2009
मॉडलिंग बिल्कुल वैसी ही है। इस बार भी जूते ही हैं। बस किरदार बदल गए हैं। इस बार मधु की जगह पर हैं बॉलीवुड की अभिनेत्री शौर्या चौहान और उनका साथ दे रहे हैं बन्नी आनंद। इस बार शरीर के गोपन अंगों को एक ही कपड़े के जरिए ढंका गया है।
1995 और 2009 के बीच महज चौदह साल का फासला है, लेकिन सोच के धरातल पर हमारी दुनिया कितनी बदल गई है, इसका जीवंत उदाहरण है शौर्या और बन्नी के विज्ञापन का नोटिस भी नहीं लिया जाना। 1995 में जब ये विज्ञापन पहली बार एक फिल्मी पत्रिका के कवर पृष्ठ पर छपा था तो जैसे हंगामा बरप गया था। शिवसेना ने इसका ना सिर्फ जोरदार विरोध किया था, बल्कि इसके खिलाफ कोर्ट भी गई थी। लेकिन आज ना तो शौर्या पर कोई सवाल उठ रहा है और ना ही उसका साथ दे रहे बन्नी आनंद पर...1991 में मनमोहनी मुस्कान के सहारे जब अपनी अर्थव्यवस्था उदार हो रही थी, तब वामपंथी और दक्षिणपंथी- दोनों तरह की विचारधारा के लोग कम से कम एक मसले पर एक विचार रखते थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को समर्थन देने के अलावा कम ही मौके ऐसे रहे हैं- जब वैचारिकता के दो विपरीत ध्रुव एक राय रखते हों। दोनों का मानना था कि उदारीकरण हमारी अर्थव्यवस्था को ही नहीं, संस्कृति को भी बदलेगी। उदारीकरण की करीब डेढ़ दशक की यात्रा के बाद ये अंदेशा बिल्कुल सच साबित होता दिख रहा है। दिलचस्प बात ये है कि इसके समर्थकों की भी संख्या बढ़ती जा रही है। इसी साल के शुरूआत में जब फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी की पत्नी कार्ला ब्रूनी के न्यूड फोटो के करीब नौ लाख रूपए में बिकने की खबर आई तो इस पर सवाल उठाने वालों की लानत-मलामत करने वालों की फौज जुट आई थी। बदलाव की बयार का इससे बड़ा और क्या उदाहरण होगा !
1996 में दिल्ली की एक वकील अंजलि ने एक सेमी पोर्न पत्रिका के कवर पृष्ठ के लिए सेमी न्यूड मॉडलिंग की थी। तब दिल्ली समेत देश के तमाम बार एसोसिएशनों ने उनकी सदस्यता रद्द करने की मांग रखी थी। बार एसोसिएशन का मानना था कि न्यूडिटी का प्रचार करने वाली वकील की साख कैसे बन सकती है। उसके प्रति लोग आदर का भाव कैसे रख सकते हैं। पता नहीं उसके बाद कोई महिला वकील न्यूडिटी के ऐसे प्रचार के साथ बाजार में उतरी कि नहीं..लेकिन ये साफ है कि इस कृत्य के जरिए वकील बिरादरी ने अपने लिए एक लक्ष्मण रेखा जरूर खींच दी, जिससे लांघना आसान नहीं होगा।
हिंदी के प्रचार-प्रसार में अपनी अहम भूमिका निभाने वाले बॉलीवुड ने न्यूडिटी के प्रसार में भी कम भूमिकाएं नहीं निभाई हैं। राजकपूर के जमाने में बैजयंती माला सेमी न्यूड यानी बिकनी में संगम होगा कि नहीं गाते नजर आईं थीं। हिंदी सिनेमा के ग्रेट शो मैन राजकपूर ने बाद की फिल्मों में कला और कहानी के नाम पर सेमी न्यूडिटी का जमकर इस्तेमाल किया। सत्यम शिवम सुंदरम की जीनत अमान हों या फिर राम तेरी गंगा मैली की मंदाकिनी...कहानी की जरूरत और कला के नाम पर आपको सेमी न्यूडिटी दिख ही जाती है। सबसे बड़ी बात ये है कि फिल्मी अर्थशास्त्र को सफल बनाने में महिला न्यूडिटी का ही ज्यादा इस्तेमाल होता रहा है। बॉलीवुड में कदम रखने वाली हर अदाकारा पहले न्यूडिटी से इनकार करती रही है, फिर कहानी की जरूरत और मांग के मुताबिक सेमी न्यूडिटी की नुमाइश करने से पीछे नहीं रही है। लेकिन माया मेम साहब के जरिए केतन मेहता ने पुरूष न्यूडिटी को भी नया आयाम दे दिया। माया मेम साहब फिल्म की नायिका केतन की पत्नी दीपा मेहता थीं। इस फिल्म के एक अंतरंग दृश्य में शाहरूख खान और दीपा दोनों नंगे नजर आए थे। यह न्यूडिटी भी कला और कहानी की जरूरत के नाम पर फिल्मी दर्शकों को पेश की गई थी। शेखर कपूर ने दस्यु सुंदरी फूलन देवी की जिंदगी पर आधारित फिल्म बैंडिट क्वीन बनाई तो उसमें बलात्कार का खुलेआम सीन भी कहानी और जरूरत के तर्क के आधार पर ही पेश किया था। मीरा नायर की फिल्म कामसूत्र हो या फिर सलाम बांबे....उसमें भी न्यूडिटी कला के नाम पर जमकर परोसी गई।
पुरूष न्यूडिटी को हाल के दिनों में नया आयाम दिया है राजकपूर के पोते रणवीर कपूर ने। भारतीय कानूनों के मुताबिक बेशक वे पूरी तरह से निर्वस्त्र नहीं दिख सकते थे, लेकिन सांवरिया के निर्देशक ने उन्हें निर्वस्त्र तो कर ही दिया। अब इस कड़ी में नया नाम अपने सुरीले गीतों के लिए मशहूर मुकेश के पोते नील नितिन मुकेश का जुड़ गया है- जो जेल फिल्म में पूरी तरह निर्वस्त्र नजर आ रहे हैं। रानी मुखर्जी अब तक न्यूडिटी और अंग प्रदर्शन से बचती रही हैं- लेकिन अपना बाजार भाव बढ़ाने के लिए उन्हें भी सेमी न्यूडिटी पर ही आखिर में जाकर भरोसा बढ़ा नजर आ रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो बिकनी में वह हड़िप्पा बोलती नजर नहीं आतीं।
न्यूडिटी फिल्मों के जरिए टेलीविजन के पर्दे पर भी जमकर दिख रहा है और इसका सबसे बड़ा जरिया बन रहे हैं रियलिटी शो। बिग बॉस में जिस तरह भारतीय जनता पार्टी के चेहरा रहे प्रमोद महाजन के बेटे राहुल महाजन ने स्वीमिंग पूल में पायल रोहतगी और मोनिका बेदी के सीन दिए- उसे क्या कला के नाम पर पेश किया गया। टेलीविजन की एक सुशील बहू के तौर पर अपनी पहचान बना चुकी श्वेता तिवारी ने हाल के दिनों में प्रसारित हुए रियलिटी शो इस जंगल से मुझे बचाओ में जिस तरह झरने के नीचे नहाते हुए पोज दिए या फिर बाद में आई निगार खान और कश्मीरा शाह ने बिकनी बीच स्नान किया – सबके लिए कला की ही दुहाई दी जाती रही है।
बात इतनी तक ही रहती तो गनीमत थी...फैशन शो में कपड़ों के बहाने जिस तरह देह की नुमाइश की जाती है, उसे भी कला ही माना जाता है। पश्चिमी देशों में न्यूडिटी के नाम पर ऐसे फैशनेबल कपड़ों का चलन बढ़ रहा है – जिसके जरिए न्यूडिटी का ना सिर्फ प्रचार होता है, बल्कि ये कपड़े नैकेडनेस को रोकने का भी दावा करते हैं। अभी तक इस परिपाटी का प्रचार तो भारतीय बाजारों में नहीं हुआ है। लेकिन जिस तरह के कपड़े पहने लड़के-लड़कियां महानगरों में नजर आने लगे हैं, उसे अगर वैधानिक दर्जा देने के लिए पश्चिम के इस विचार को उधार ले लिया जाय तो हैरत नहीं होनी चाहिए।
महिला न्यूडिटी को विजय माल्या जैसे रसिक रईसों ने नई ऊंचाई ही दी है। हर साल वे दुनिया के खूबसूरत लोकेशनों पर न्यूडिटी के नाम पर हॉट बालाओं की तस्वीरें प्रोफेशनल फोटोग्राफरों के जरिए खिंचवाते हैं। इससे तैयार कैलेंडर रईस और रसूखदार लोगों के पास भेजे जाते हैं। जिन्हें ये कैलेंडर नहीं मिलते- वे खुद को कमतर करके आंकते हैं। न्यूडिटी के नाम पर तैयार इस कैलेंडर को कथित हाईप्रोफाइल सोसायटी में जिस तरह सम्मान हासिल हुआ है, उससे साफ है कि कथित हाई प्रोफाइल सोसायटी का जिंदगी के प्रति नजरिया पूरी तरह बदल गया है। चूंकि इस वर्ग के पास ना सिर्फ पैसा है, बल्कि रसूख भी है, लिहाजा इन्हें लुभाने के लिए अब न्यूडिटी को परोसने वाली कला दीर्घाएं भी खुलने लगी हैं।
दरअसल अपना देश दो हिस्सों में साफ बंटा नजर आ रहा है। एक तरफ बहुसंख्यक गरीब और बदहाल जनता है, जिसमें से ज्यादातर लोग गांवों या फिर शहरी स्लम में रहने को मजबूर हैं, वहीं उदारीकरण के बाद एक नव धनाढ्य वर्ग तेजी से उभरा है, जिसकी जिंदगी में मानवीय संवेदनाओं से कहीं ज्यादा पैसे की चमक भरी पड़ी है। रिश्तों की गरमाहट और संस्कारों से उनका कम ही नाता है। ऐसे में अपनी जिंदगी के खालीपन को भरने की जितनी वजहें समझ में आती हैं, उसमें न्यूडिटी भी एक है। उनकी ये भूख कला को प्रश्रय देने के नाम पर पूरी होती है। ऐसे में कलाकार भला क्यों पीछे रहते। हालत ये देखिए कि इस प्रवृत्ति के विरोध के भी अपने खतरे हैं। अगर आपने विरोध किया तो आपको दक्षिणपंथी या प्रतिक्रियावादी घोषित किए जाने का खतरा बढ़ सकता है। करीब डेढ़ दशक पहले मध्य प्रदेश के एक पत्रकार ओम नागपाल ने ऐसे सवाल उठाए थे तो उन्हें ऐसे लांछनों का भरपूर उपहार मिला था।
नव दौलतिया वर्ग को छोड़ दें तो आज भी भारतीय समाज के लिए जीवन मूल्य कहीं ज्यादा जरूरी हैं। लिहाजा अभी तक न्यूडिटी के मार्केट का आकलन नहीं हो पाया है। लेकिन ये भी सच है कि ये अरबों का कारोबार तो है ही। अकेले अमेरिका में ही पोर्न उद्योग करीब 13 अरब डॉलर का है। वहां बाकायदा इसे कानूनी मान्यता भी मिली हुई है। यही वजह है कि वहां कौमार्य बेचकर जब एक लड़की ने अपनी पढ़ाई की फीस जुटाया तो अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उस पर कोई सवाल नहीं उठाया। दरअसल अमेरिकी समाज व्यक्तिगत आजादी का हिमायती है, लेकिन तभी तक- जब तक समाज को इससे कोई नुकसान नहीं पहुंचता। वहां भी कुछ मूल्य हैं। ये मूल्यों के प्रति अमेरिकी समाज का आग्रह ही है कि वहां की कोई अहम शख्सियत नैतिकता के पहरे और सीमा रेखा से खुद को बाहर नहीं रख पाती। भयानक मंदी के दौर में जब पिछले साल 700 अरब डॉलर के सहायता पैकेज का ऐलान किया तो पोर्न उद्योग खुद के राहत के लिए भी सहायता पैकेज की मांग को लेकर उतर गया। लेकिन खुलेपन के हिमायती अमेरिका के प्रथम नागरिक ने इस मांग पर सिरे से ही ध्यान नहीं दिया।
ऐसे में ये सवाल उठता है कि आखिर हम न्यूडिटी के प्रचार के नाम पर किस तरह की दुनिया बसाना चाहते हैं। भारत की सबसे बड़ी जरूरत अब भी भूख और अशिक्षा से निबटारा पाने की है। गांधी जी के हिंद स्वराज लिखे पूरे सौ साल हो गए हैं। उनका सपना था कि आजादी के बाद ना सिर्फ हमारी सरकार अपनी होगी, बल्कि सामाजिक ढांचा भी हमारे जीवन मूल्यों और महान परंपराओं पर आधारित होंगे। गांधी जी की न्यूडिटी दया और गरीबों के लिए कुछ कर गुजरने, उनके जीवन में नई रोशनी लाने का सबब बनती थी। लेकिन आज की कथित न्यूडिटी में सेक्सुअल फैंटेसी और रोमांच के साथ भोग की इच्छा ज्यादा है। गांधी ने कहा था कि जब तक आखिरी एक भी आदमी दुखी है, राज्य और समाज को चैन से नहीं बैठना चाहिए। काश कि हम न्यूडिटी की दुनिया में खर्च होने वाली करोड़ों की रकम को गांधी के सपनों को पूरा करने में लगाते।

Tuesday, September 15, 2009

लालकालीन पर बूढ़ा शेर


उमेश चतुर्वेदी
लाल कालीन पर सांसद के तौर पर चहलकदमी जार्ज फर्नांडीस को हमेशा उसूलों के खिलाफ लगती रही है। लेकिन हालात का तकाजा देखिए कि अभी दो-तीन महीने पहले तक इसी उसूल के चलते राज्यसभा में जाने का विरोध करते रहे जार्ज को लाल कालीन पर खड़े होकर शपथ लेनी पड़ी। यहां जानकारी के लिए ये बता देना जरूरी है कि लोकसभा में ना सिर्फ हरे रंग की कालीन बिछी हुई है, बल्कि उसकी सीटें भी हरे रंग की ही हैं। जबकि राज्यसभा में लाल रंग का बोलबाला है। बहरहाल समाजवाद के इस बूढ़े शेर को जनता की ही राजनीति सुहाती रही है। राज्यसभा उनके लिए राजनीति का पिछला दरवाजा ही रहा है। उनके इस समझौते को लेकर उनके पुराने साथी चाहे जितने सवाल उठाएं, लेकिन एक चीज साफ है कि उनके राज्यसभा में जाने के साथ ही बिहार की राजनीति में एक नया अध्याय बनते-बनते रह गया है।
नीतीश कुमार की ओर से अपने गुरू को मिली इस गुरू दक्षिणा ने जार्ज के कई पुराने साथियों को भौंचक कर दिया है। आखिर जार्ज ने ये कदम क्यों उठाया, इसका जवाब उन्हें नहीं सूझ रहा है। आपसी बातचीत में जार्ज के ये पुराने दोस्त उनके इस कदम के लिए आसपास के लोगों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उनके इस तर्क के लिए सबूत मुहैया करा रही है जार्ज की खराब सेहत। जिस जार्ज के संसद में घुसते ही खबर बन जाती थी, समाजवाद का वही बूढ़ा शेर कायदे से शपथ भी नहीं ले पाया। यही वजह है कि जार्ज के पुराने दोस्तों को ये कहने का मौका मिल गया है कि जार्ज साहब की सोचने-समझने की शक्ति भी चूक गई है और उनके आसपास के लोगों ने उन्हें ये कदम उठाने के लिए मजबूर किया है।
ये सच है कि साठ के दशक में जार्ज फर्नांडिस युवाओं के हीरो थे। मजदूर आंदोलन से लेकर बड़ौदा डायनामाइट कांड तक जार्ज के संघर्ष को देखकर समाजवादी युवाओं की एक पूरी पीढ़ी राजनीति में उतरी थी। व्यवस्था विरोधी जार्ज की यह छवि ही थी, उन्होंने 1967 में कांग्रेस के दिग्गज एस के पाटिल को मुंबई में भारी मतों से हराकर सनसनी फैला दी। कांग्रेसियों ने सोचा भी नहीं था कि जिस मुंबई की जनता एस के पाटिल को अपने सर आंखों पर बैठाती रही है, उसकी आंखों का नूर जार्ज बन जाएंगे। संसद की हरी कालीन पर कदम रखने के बाद जार्ज ने जो इतिहास रचा, इंदिरा गांधी की सर्वशक्तिमान सत्ता से संसद और संसद के बाहर जो लोहा लिया, वह इतिहास बन चुका है। अगर जयप्रकाश नारायण 1942 की जनक्रांति के हीरो थे तो जार्ज इमर्जेंसी के हीरो बने। जार्ज की वही छवि एक पूरी की पूरी पीढ़ी के दिलों में बसी हुई है, यही वजह है कि उसे उसूलों से समझौता करता जार्ज पसंद नहीं आता। जब पिछले लोकसभा चुनाव में जार्ज को नीतीश कुमार ने टिकट देने से मना कर दिया तो उनके चाहने वालों की एक पूरी की पूरी जमात ही नीतीश के खिलाफ जार्ज को मैदान में उतारने के लिए कूद पड़ी। मुजफ्फरपुर के चुनाव में जार्ज भले ही हार गए, लेकिन अपने चहेतों के हीरो बने रहे। नीतीश तब भी उन्हें खराब सेहत का हवाला देते हुए राज्यसभा में भेजने की बात कर रहे थे। लेकिन उसूल वाले बूढ़े समाजवादी शेर को यह गवारा नहीं हुआ। ऐसे में वही शेर जब सिर्फ तीन महीने पुरानी बात से ही पलट जाए तो चाहने वालों को निराशा तो होगी ही।
जार्ज को राज्यसभा में भेजकर नीतीश कुमार की छवि एक ऐसे शिष्य के तौर पर उभरी है, जिसके लिए मौजूदा उठापटक की राजनीति में भी भलमनसाहत के लिए जगह बची हुई है। निश्चित तौर पर नीतीश कुमार इसमें सफल रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में जार्ज साहब का पत्ता काटने के बाद उनकी आलोचना भी हुई थी। क्योंकि ये जार्ज ही थे, जिनकी अगुआई में पहली बार 1993 में लालू यादव से विद्रोह के बाद बिहार में अलग से समता पार्टी का गठन किया। तब लालू अपने पूरे शवाब पर थे। मीडिया का एक वर्ग जार्ज के कदम की आलोचना भी कर रहा था। तब जार्ज के साथ नीतीश कुमार ही थे। समता पार्टी को लालू विद्रोह का चुनावी मैदान में कोई फायदा भी नहीं हुआ। इसके बाद जार्ज ने रणनीति बदली और बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद भारतीय राजनीति में अलग-थलग पड़ी भारतीय जनता पार्टी का हाथ थामकर नई शुरूआत की। जार्ज के इस कदम की तब भी आलोचना हुई थी। लेकिन बीजेपी को मिले उनके साथ ने नया इतिहास रचा। समता पार्टी के साथ के बाद ही भाजपा से दूसरे दलों के मिलने का रास्ता खुला, जिसकी परिणति एनडीए के सरकार के रूप में आई। नीतीश तब से जार्ज के साथ हैं। यही वजह है कि पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जार्ज को टिकट ना देने के लिए नीतीश एक वर्ग के कोपभाजन बने।
जार्ज भले ही पिछला लोकसभा चुनाव हार गए, भले ही खराब सेहत के चलते वे खड़े होने और बोलने में असमर्थ हो गए हों, लेकिन उनके जरिए व्यवस्था की मुखालफत की राजनीति करने वाले एक वर्ग की आस जिंदा रही। जार्ज को टिकट से इनकार उन्हें नीतीश विरोध का हथियार मुहैया कराता रहा है। पिछले महीने रामजीवन सिंह की अगुआई में जार्ज के पुराने साथियों ने दिल्ली में एक बैठक करके नीतीश विरोध की नई रणनीति बनाई थी। इसमें जार्ज की चुनावी राजनीति की कमान संभालते रहे कई पुराने समाजवादियों की शिरकत के बाद नीतीश विरोधियों को लग रहा था कि उनका विरोध जार्ज के बहाने परवान चढ़ जाएगा। यहां ध्यान देने की बात ये है कि टिकट से इनकार के बाद दिग्विजय सिंह भी नीतीश के विरोध में खड़े हैं। विद्रोह के बावजूद दिग्विजय सिंह की जीत के बाद से ही नीतीश विरोधी खेमे के नेता उनसे उम्मीद लगाए हुए हैं। वैसे भी जार्ज से दिग्विजय सिंह की नजदीकी कोई छुपी हुई बात नहीं है। इसके बावजूद दिग्विजय सिंह जार्ज के पुराने साथियों की इस बैठक में शामिल नहीं थे। नीतीश को पता है कि उनके सुशासन की चाहे जितनी अच्छी-अच्छी चर्चा हो, ये सच है कि उनके भी विरोधी कम नहीं हैं। और उनके विरोधी मौके की ताक में हैं। लेकिन नीतीश कुमार ने जार्ज को राज्यसभा में भेजकर अपने इन विरोधियों के दांव को पूरी तरह से पलट दिया है। यही वजह है कि जार्ज का राज्यसभा में जाना उनके साथियों को भले ही नहीं पच रहा है, लेकिन नीतीश के इस दांव के आगे वे चुप बैठने के लिए मजबूर हो गए हैं। शपथग्रहण के दिन के अखबारों में छपे फोटो जिन्होंने देखे हैं, उन्हें पता है कि जार्ज के साथ एक अरसे बाद उनकी पत्नी लैला कबीर दिखी हैं। उनके साथ छाया की तरह रहने वाली जया जेटली इस परिदृश्य से गायब हैं। जनता परिवार को करीब से जानने वाले जानते हैं कि जया का समता पार्टी में अलग ही वजूद था। मुजफ्फरपुर के चुनाव में भी वे जार्ज के साथ थीं। लेकिन वे इस बार गायब हैं। समझने वाले समझ सकते हैं कि जार्ज के साथी उनके बदलते आभामंडल को भी लेकर परेशान हैं।
सियासी अंत:पुर के तमाम खेल के बावजूद जार्ज की संसद में उपस्थिति के अपने खास मायने हैं। लेकिन अफसोस की बात ये है कि समाजवाद का ये बूढ़ा शेर संसद में फिलहाल निर्णायक उपस्थिति जताता नहीं दिख रहा।

सुबह सवेरे में