Friday, March 29, 2013

मुलायम की सियासी पैंतरेबाजी

उमेश चतुर्वेदी
कभी संघ परिवार की तरफ से मौलाना की उपाधि हासिल कर चुके मुलायम सिंह यादव क्या बदल गए हैं ? उत्तर भारत में कहा जाता है कि जीवन के चौथे पड़ाव में व्यक्ति की वैचारिकता में उदारता आने लगती है तो क्या मुलायम सिंह यादव के वैचारिक प्रभामंडल में भी वही बदलाव नजर आने लगा है...ये सवाल इसलिए इन दिनों पूछे जा रहे हैं...क्योंकि मुलायम सिंह यादव भारतीय जनता पार्टी के उस नेता की शान में सार्वजनिक कशीदे पढ़ने लगे हैं, जिसको 1990 में गिरफ्तार करने के उतावलेपन के हद तक वे जा पहुंचे थे। गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या के लिए चली राम रथ यात्रा के सारथी लालकृष्ण आडवाणी के रथ को रोकने के लिए उन दिनों जनता दल के दो नेताओं में होड़ लग गई थी।

Saturday, March 16, 2013

दया याचिका, राजनीति और राष्ट्रपति

उमेश चतुर्वेदी
(प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित)
मुंबई हमले के दोषी अजमल कसाब और फिर संसद हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी के बाद दया याचिकाओं के निबटारे को लेकर राजनीति तेज हो गई है। वैसे तो कुछ एक मानवाधिकारवादियों को छोड़ दें तो अजमल कसाब को माफी ना देने को लेकर पूरा देश एक था। शायद इसकी एक बड़ी वजह कसाब का पाकिस्तानी आतंकवादी होना था। लेकिन अफजल गुरू की फांसी को लेकर देश का एक बड़ा तबका और राजनीति विरोध में खड़ी  थी।

Thursday, February 14, 2013

राहुल की चुनौतियां


उमेश चतुर्वेदी
(प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित )
जयपुर चिंतन बैठक में पार्टी के औपचारिक तौर पर नंबर दो बनने के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह बैठकों का दौर शुरू कर दिया है, उससे साफ है कि पार्टी में भले ही औपचारिक तौर पर वे नंबर दो हैं, लेकिन असलियत में वे नंबर एक बनने की प्रक्रिया का एक सोपान पार कर चुके हैं। यह प्रक्रिया कांग्रेस मुख्यालय में 24 जनवरी को नजर आयी, जब उपाध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी पहली बार वहां पहुंचे। नीली जींस और सफेद कुर्ते में पहुंचे राहुल के इस पहनावे में भी कांग्रेस की भावी संस्कृति और कदमों के संकेत देखे गए। माना गया कि राहुल की कांग्रेस आग और अनुभव का मेल होगी। अपनी नई टीम बनाने के लिए उन्होंने जिस तरह बैठकों का दौर जारी रखा है, उससे अभी तक कोई साफ संकेत तो नहीं निकले हैं। ना ही राहुल गांधी ने अपनी जुबान खोली है। लेकिन यह तय है कि उनकी टीम अनुभव की उतनी ही आंच होगी, जितना नई आग को सुलगाने में उसकी भूमिका होगी।

Friday, February 8, 2013

बयानों के तीर


उमेश चतुर्वेदी
(दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित)
भारत के सदियों के इतिहास में भारत विभाजन सबसे बड़ा त्रासद अनुभव है...विभाजन की विभीषिका झेल चुकी पीढ़ी अब खत्म होने के कगार पर है। लेकिन उसकी पीड़ा बाद की पीढ़ी के खून तक में समा चुकी है। कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद के लालकृष्ण आडवाणी के बयान को सिर्फ राजनीति के चश्मे से ही नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि उसे भारत विभाजन की उस त्रासदी से जोड़कर देखा जाना चाहिए, जिसकी कीमत आज तक सीमा पार की एक ही तरह की सभ्यताएं भुगत रही हैं। लालकृष्ण आडवाणी रहे हों या इंद्रकुमार गुजराल या फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, इन लोगों ने भारत की तरफ रूख इसलिए नहीं किया था कि उन्हें यहां सत्ता मिलेगी। भारत विभाजन के बाद हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जो गहरा अविश्वासबोध फैला था, लाखों लोगों को अपनी बसी बसाई गृहस्थी, पीढ़ियों की खून पसीने की कमाई समेत अपना सबकुछ खो दिया था। इस त्रासदी को लेकर इतिहास के हजारों पन्ने रंगे जा चुके हैं। मशहूर पत्रकार कुलदीप नैय्यर की हाल ही में आई पुस्तक बियांड द लाइन्स में उन्होंने लिखा है कि जब दोनों तरफ की हताश आबादी दूसरी तरफ जा रही थी तो उनकी पीड़ा का वर्णन तक नहीं किया जा सकता था। हो सकता है कि लालकृष्ण आडवाणी को आम लोगों की तरह वैसी पीड़ा झेलते हुए भारत नहीं आना पड़ा हो। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि अपनी जड़ों से कटने का दर्द उन्हें नहीं हुआ होगा। इसलिए राजनीतिक तौर पर ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक तौर पर भी ऐसे बयानों को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

Thursday, January 24, 2013

मानसिकता पर वार जरूरी



उमेश चतुर्वेदी
(प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित)
2002 की फरवरी की बात है..महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में अरब सागर के किनारे स्थित  मशहूर गुप्त गणेश मंदिर और कोंकण रेलवे की कारबुज सुरंग के उपरी हिस्से को देखकर जिला मुख्यालय लौटते वक्त रात के करीब दस बज रहे थे। वहां सड़कों के किनारे लड़कियां बसों और टेंपों के इंतजार में बेफिक्र खड़ी थीं। दिल्ली में रहते वक्त ऐसे दृश्य कम ही नजर आते हैं...लिहाजा इन पंक्तियों के लेखक के लिए धुर देहात के बीच लड़कियों को इस तरह बेखौफ गाड़ी के इंतजार में रात को खड़ा देखना हैरत की बात थी।

Saturday, January 12, 2013

मुगलिया शहर में गाड़ी बिना रात

उमेश चतुर्वेदी
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
कामधाम के चलते देर रात तक जागना अब महानगरीय जिंदगी में आधुनिकता का पैमाना बन गया है। पहले सिर्फ मुंबई की ही रातें अपनी जवानी के लिए मशहूर थीं, लेकिन अब दिल्ली-बेंगलुरू जैसे शहर भी इस मायने में मुंबई से आगे निकलने की होड़ में लग गए हैं। खासकर मेट्रो के आने के बाद तो दिल्ली भी इतराने लगी है कि कम से कम आधी रात तक वह शहर की लाइफ लाइन बनी रहती है। लेकिन उसका यह दावा कितना खोखला है, इसका पता मुझे पिछले दिनों चला। अपनी गाड़ी दो-तीन दिनों के लिए मैकेनिक घर में सुस्ताने पहुंची थी, लेकिन मन आश्वस्त था कि मेट्रो है और उसका दावा है कि ग्यारह बजे रात को आखिरी गाड़ी मिलती है तो परेशानी काहे की।

Sunday, December 30, 2012

दिखने लगे आर्थिक उदारीकरण के साइड इफेक्ट



उमेश चतुर्वेदी
उदारीकरण के दौर में जब भी कोई नया फैसला लिया जाता है, सरकार का एक ही दावा होता है इससे नए रोजगार पैदा होंगे और इससे बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा। लेकिन उदारीकरण की योजनाओं को लागू करने के लिए बढ़-चढ़कर किए जाने वाले दावों की पोल भी खुलने लगी है। इन दावों को खारिज करने और उन पर सवाल कुछ सामाजिक संगठन और अर्थशास्त्री उठाते रहे हैं। लेकिन नई आर्थिकी के सरकारी पैरोकार इन सवालों को अनसुना करते रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि नई आर्थिकी के बड़े पैरोकार मोंटेक सिंह अहलूवालिया की अगुआई वाले योजना आयोग ने भी मान लिया है कि यूपीए के शुरूआती छह साल के शासन काल में अकेले विनिर्माण क्षेत्र में ही करीब पचास लाख नौकरियां खत्म हो गईं। योजना आयोग के आंकड़े के मुताबिक यूपीए शासन के पहले विनिर्माण क्षेत्र में करीब पांच करोड़ 57 लाख नौकरियां थीं, वे 2004 से 2010 के बीच घटकर महज पांच करोड़ सात लाख ही रह गईं। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि यूपीए दो की वापसी में जिस यूपीए एक की कामयाबियों का ढिंढोरा पीटा गया, दरअसल ये नौकरियां उसी दौर में खत्म हुईं। ध्यान देने वाली एक बात और है कि इसी दौर में आठ से लेकर साढ़े आठ फीसदी तक की विकास दर का दावा रहा है।

सुबह सवेरे में