Saturday, January 23, 2016

झारखंड में रघुबर सरकार की नायाब कोशिश

बजट की तैयारियों में जनता से मांगे सुझाव
उमेश चतुर्वेदी
उफान मारती जनाकांक्षाओं के रथ पर सवार होकर सत्ता में आने वाली सरकारों की चुनौतियां कम नहीं होतीं। उन्हें अपने उस आधारवोट बैंक की उम्मीदों पर खरा उतरना होता है, जिनके समर्थन की बदौलत उन्हें सत्ता की ताकत हासिल हुई रहती है। जिस पश्चिमी मॉडल के लोकतंत्र को आज पूरी दुनिया में आदर्श माना जा रहा है, जिसे 66 साल पहले हमने भी स्वीकार किया, उसकी सबसे बड़ी खामी है कि सत्ता में आते ही राजनीतिक दल उसी जनता को भूल जाते हैं, जिनके समर्थन का आधार ही उन्हें सत्ता की सर्वोच्च सीढ़ी तक पहुंचाता रहा है। सत्ता में आने के बाद वायदों को भूल जाना ज्यादातर राजनेताओं और राजनीति की रवायत रही है। ऐसे में अगर झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास सूबे के दूसरे बजट की तैयारी के लिए जनता के बीच घूम रहे हैं और लोगों से राय-सलाह ले रहे हैं और उनके वायदे के मुताबिक राज्य का अगला बजट बनाने की तैयारी कर रहे हैं तो उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए। हालांकि अभी तक सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के अलावा दूसरे किसी राजनीतिक खेमे से उनके इस कदम की सराहना की खबर सामने नहीं आई है। लेकिन उनके कामकाज पर अभी तक कोई सवाल नहीं उठा है। झारखंड की विपक्षी राजनीति के सबसे अहम किरदार और झारखंड में गुरूजी के नाम से विख्यात झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रमुख शिबू सोरेन ने जमशेदपुर में रघुबर दास सरकार का पहला साल पूरा होने के संदर्भ में पूछे एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि एक साल में कोई भी सरकार बहुत कुछ नहीं कर सकती। किसी राज्य या देश के विकास के लिए एक साल का वक्त कुछ खास नहीं होता। लेकिन रघुबर दास सरकार ने इस दौरान झारखंड के विकास के लिए जो कदम उठाए हैं, वे ठीक हैं और उन्हें मौका दिया जाना चाहिए।
सवाल यह उठता है कि आखिर राज्य के दूसरे बजट के लिए ही रघुबर दास सरकार ने रायशुमारी के लिए जनता के बीच जाने का कदम क्यों उठाया। पहले बजट के लिए उन्होंने ऐसी कवायद क्यों नहीं की। इसका जवाब राज्य सरकार के पास है। झारखंड के मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार शिल्पकुमार का कहना है कि चूंकि जब झारखंड में भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनाने का मौका मिला, तब बजट सत्र की तैयारियां शुरू हो चुकी थीं। कुछ ही महीनों बाद बजट पेश किया जाना था। तब सरकार के पास पहली जिम्मेदारी यह थी कि सबसे पहले सूबे की संवैधानिक व्यवस्था को बनाए रखते हुए बजट पेश किया जाय। उस वक्त राज्य सरकार के पास जनता की राय जानने और फिर बजट तैयार करने का वक्त नहीं था।
जिस ट्रिकल डाउन सिद्धांत के मुताबिक उदारीकरण की अर्थव्यवस्था को हमने स्वीकार किया है, उसमें वोट मांगते वक्त जनाकांक्षा की बात तो खूब की जाती है। लेकिन जब सचमुच जनता के लिए कुछ करने का वक्त आता है, तब जनता के लिए चर्चाओं की बजाय उद्योगपतियों और आर्थिक संगठनों के प्रतिनिधियों से बात करके नीतियां तैयार कर ली जाती हैं और उसके मुताबिक बजट बनाकर योजनाएं शुरू कर दी जाती हैं। और इस तरह जनाकांक्षाएं कहीं पीछे रह जाती हैं। इन संदर्भों में देखें तो संभवत: ये पहला मौका है, जब किसी मुख्यमंत्री ने राज्य के लोगों से राज्य का बजट तैयार करने के लिए ना सिर्फ राय मांगी है, बल्कि राज्य में घूम-घूमकर लोगों की आकांक्षाओं का जानने का प्रयास कर रहा है। मुख्यमंत्री रघुबर दास ने बजट निर्माण के विकेन्द्रीकरण की दिशा में राज्य के सभी पांचों प्रमंडलों (कमिश्नरियों) में खुद जा कर छात्रों, महिलाओं, किसानों, शिक्षाविदों, स्वयंसेवी संस्थाओं, व्यापारियों के प्रतिनिधियों से मिलकर बजट पर चर्चा की शुरूआत की है। रघुबरदास का मानना है कि इससे बजट को जनोन्मुखी बनाने में मदद मिलेगी।
बजट को लेकर एक शिकायत यह रही है कि अफसरों को राज्य और आम लोगों की परेशानियों की जानकारी नहीं होती। वे यह भी नहीं जानते कि जमीनी हकीकत क्या है। लिहाजा बंद कमरों और दफ्तरों के भीतर वे जो बजट तैयार कर देते हैं, उनका जमीनी जरूरतों से कई बार दूर-दूर का वास्ता नहीं होता। रघुबर दास ने शायद इसी वजह से जनोन्मुखी विकास के लिए जनता द्वारा जनता के लिए जनता का बजट का अपने अधिकारियों को संदेश दिया है। वैसे इस बजट निर्माण प्रक्रिया की शुरूआत सितम्बर से ही कर दी गई है। इस सिलसिले में मुख्यमंत्री ने 11 दिसंबर तक राज्य के 5 प्रमंडलों से 2 प्रमंडलों का ना सिर्फ दौरा पूरा कर लिया था, बल्कि इस दौरान समाज के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से मिलकर बजट की जरूरतों पर चर्चा भी पूरी कर ली थी। इस दौरान सरकार की कोशिश यह रही है कि लोग क्या चाहते हैं और उनकी विकास की अवधारणा में स्थानीय जरूरतें क्या हैं, यह जाना और समझा जाय । रघुबर दास ने बजट चर्चा की शुरूआत उत्तरी छोटा नागपुर के धनबाद में 6 दिसम्बर को की और उन्होंने लोगों के साथ दूसरी रायशुमारी दक्षिणी छोटा नागुपर के गुमला में 11 दिसम्बर को की । इसी तरह मुख्यमंत्री ने संताल परगना के दुमका में 19 दिसम्बर को,  पलामू के डालटनगंज में 23 दिसम्बर और कोलहान प्रमंडल के चाईबासा में 24 दिसम्बर को लोगों से मुलाकात की और उनकी राय जानने की कोशिश की। इस दौरान कोशिश रही कि महिला-प्रतिनिधियों, किसानों, प्रख्यात शिक्षविदों, छात्रों के प्रतिनिधि और एनजीओ के प्रतिनिधि को बुलाया जाय। यह भी कोशिश रही कि जो लोग बुलाए जाएं, दरअसल उनकी अपने समुदाय पर गहरी पकड़ तो हो ही, अपने समुदाय की जरूरतों और कमजोरियों के साथ उसकी भावी चुनौतियों को भी समझते हों। सबसे बड़ी बात यह है कि इस दौरान राज्य के प्रमुख विभागों के सचिवों की मौजूदगी अनिवार्य रही। ताकि वे लोगों की समस्याओं को सीधे-सीधे जान सकें। इस बैठक के दौरान इलाके के सांसदों और विधायकों समेत दूसरे जन-प्रतिनिधियों को नहीं बुलाया गया। हालांकि उनसे अलग से राय जरूर मांगी गई है और वह भी लिखित रूप से। ताकि उनकी मांगों और सुझावों को भी बजट में समाहित किया जा सके। इसके साथ ही सांसदों और विधायकों से सरकार ने अपील की है कि वे अपने-अपने इलाकों के महत्वपूर्ण कार्यों की सूची मुहैया करा दें, ताकि बजट में उसे शामिल किया जा सके।

Friday, December 11, 2015

उम्मीद करें, बिहार में जारी रहेगा विकासवाद

उमेश चतुर्वेदी
राजनीति में एक कहावत धड़ल्ले से इस्तेमाल की जाती है और इस बहाने राजनीतिक दल अपनी दोस्तियों और दुश्मनी को जायज ठहराते रहते हैं। वह कहावत है – राजनीति में न तो दोस्ती स्थायी होती है और ना ही दुश्मनी। चूंकि लोकतांत्रिक समाज में राजनीति का महत्वपूर्ण लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ लोककल्याण ही हो सकता है, लिहाजा इन स्थायी दोस्तियों और दुश्मनियों का सिर्फ और सिर्फ एक ही मकसद हो सकता है – राष्ट्रीय हित के परिप्रेक्ष्य में जन कल्याण। लेकिन क्या बिहार की राजनीति में 1993 के पहले तक रंगा और बिल्ला के नाम से मशहूर लालू और नीतीश की जोड़ी को मौजूदा परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर तौला-परखा जा सकता है?

Friday, November 27, 2015

वेतन आयोग लाएगा महंगाई


 

कर्मचारियों की सुख समृद्धि बढ़े, उनका जीवन स्तर ऊंचा उठे, इससे इनकार कोई विघ्नसंतोषी ही करेगा। लेकिन सवाल यह है कि जिस देश में 125 करोड़ लोग रह रहे हों और चालीस करोड़ से ज्यादा लोग रोजगार के योग्य हों, वहां सिर्फ 33 लाख एक हजार 536 लोगों की वेतन बढ़ोत्तरी उचित है? सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद केंद्र सरकार की तरफ से अपने कर्मचारियों को लेकर यही आंकड़ा सामने आया है। बेशक सबसे पहले केंद्र सरकार ही अपने कर्मचारियों को वेतन वृद्धि का यह तोहफा देने जा रही है। लेकिन देर-सवेर राज्यों को भी शौक और मजबूरी में अपने कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक वेतन देना ही पड़ेगा। जब यह वेतन वृद्धि लागू की जाएगी, तब अकेले केंद्र सरकार पर ही सिर्फ वेतन के ही मद में एक लाख दो हजार करोड़ सालाना का बोझ बढ़ेगा। इसमें अकेले 28 हजार 450 करोड़ का बोझ सिर्फ रेलवे पर ही पड़ेगा। इस वेतन वृद्धि का दबाव राज्यों और सार्जजनिक निगमों पर कितना पड़ेगा, इसका अंदाजा राज्यों के कर्मचारियों की संख्या के चलते लगाया जा सकता है। साल 2009 के आंकड़ों के मुताबिक, सरकारी क्षेत्र के 8 करोड़ 70 लाख कर्मचारियों में से सिर्फ 33 लाख कर्मचारी केंद्र सरकार के हैं। जाहिर है कि बाकी कर्मचारी राज्यों के हैं या फिर सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों के। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्यों पर कितना बड़ा आर्थिक बोझ आने वाला है।याद कीजिए 2006 को। इसी वर्ष छठवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू की गईं, जिससे केंद्र पर 22 हजार करोड़ रुपए का एक मुश्त बोझ बढ़ा था। केंद्रीय कर्मचारियों की तनख्वाहें अचानक  एक सीमा के पार चली गईं। केंद्र के कुल खर्च का 30 फीसदी अकेले वेतन मद में ही खर्च होने लगा।

Sunday, November 8, 2015

बिहार में इस बार जो कुछ हुआ !



उमेश चतुर्वेदी
(बिहार के 5वें दौर के मतदान के ठीक बाद यह लेख लिखा था..लेकिन अखबारों में जगह नहीं बना पाया..लेकिन अभी-भी यह प्रासंगिक है..आप पढ़ें और इस पर अपने विचार दें)
यूं तो मीठी जुबान ही आदर्श मानी जाती है...लिहाजा वह लुभाती भी सबको है..लेकिन राजनीति में तेजाबी और तीखी जुबान भी खूब पसंद की जाती है..तेजाबी जुबान का नतीजा मीठा नहीं होता तो शायद ही कोई राजनेता उसका इस्तेमाल करता। चुनावी माहौल में अपने समर्थकों को गोलबंद करने में तीखी,तेजाबी और धारदार जुबान शायद बड़ा हथियार साबित होती है..बिहार के मौजूदा चुनाव में खासतौर पर जिस तरह लालू प्रसाद यादव ने तेजाबी जितना इस्तेमाल किया, उतना शायद ही किसी और नेता ने किया हो...कभी लालू की खासियत उनकी हंसोड़ और एक हद तक सड़कछाप जोकर जैसी भाषा होती थी..उनके मुखारविंद से जैसे ही वह जुबान झरने लगती थी, माहौल में हंसी के फव्वारे छूट पड़ते थे.. संभवत: अपनी जिंदगी की सबसे अहम राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे लालू यादव के लिए मौजूदा विधानसभा चुनाव शायद सबसे अहम रहा, इसलिए उन्होंने कुछ ज्यादा ही तीखे जुबानी तीरों की बरसात की...इससे उनका मतदाता कितना गोलबंद हुआ, उनके समर्थकों की संख्या में उनकी लालटेन को जलाने में कितना ज्यादा इजाफा हुआ, यह तो चुनाव नतीजे ही बताएंगे। लेकिन उनकी जुबानी जंग और उसके खिलाफ गिरिराज सिंह जैसे नेताओं जो जवाबी बयान दिए..उसने भारतीय राजनीति में गिरावट का जो नया इतिहास रचा, उसकी तासीर निश्चित तौर पर नकारात्मक ही होगी..और वह देर तक महसूस की जाएगी।

Sunday, November 1, 2015

ऐसे भरेगा दाल का कटोरा



उमेश चतुर्वेदी
एक साल पहले हर-हर मोदी के नारे के विरोध में उठी आवाजों को दालों की महंगाई ने अरहर मोदी का नारा लगाने का मौका दे दिया है...80-85 रूपए प्रतिकिलो के हिसाब से तीन महीने तक बिकने वाली अरहर की दाल अब 200 का आंकड़ा पार कर चुकी है..दाल की महंगाई का आलम यह है कि अब सदियों से चली आ रही कहावत – घर की मुर्गी दाल बराबर- भी अपना अर्थ खोती नजर आ रही है। इन्हीं दिनों बिहार जैसे राजनीतिक रूप से उर्वर और सक्रिय सूबे में विधानसभा का चुनाव भी चल रहा है। ऐसे में केंद्र में सरकार चला रहे नरेंद्र मोदी पर सवालों के तीर नहीं दागे जाते तो ही हैरत होती। लेकिन क्या यह मसला सिर्फ सरकारी उदासीनता तक ही सीमित है...भारत जैसे देश में जहां ज्यादातर लोग शाकाहारी हैं, वहां प्रोटीन और पौष्टिकता की स्रोत दालों की अपनी अहमियत है। वहां दालों की महंगाई सिर्फ मौजूदा सरकारी उदासीनता के ही चलते है...इस सवाल का जवाब निश्चित तौर पर परेशान जनता नहीं ढूंढ़ेगी..उसके भोजन की कटोरी में से दाल की मात्रा लगातार घट रही है..लेकिन जिम्मेदार लोगों को इसकी तरफ भी ध्यान देना होगा कि आखिर यह समस्या आई इतनी विकराल कैसे बन गई कि अरहर की दाल की महंगाई का स्तर ढाई गुना बढ़ गया।
वैसे तो अरहर का उत्पादन अब तक ज्यादातर मौसम की मर्जी पर ही संभव रहा है। ऊंची जगहों पर ही इसका उत्पादन तब संभव है, जब बारिश कम हो। करीब दो दशक पहले तक पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार, जहां दाल का मतलब ही अरहर होता है, वहां हर खेतिहर परिवार कम से कम हर साल अपनी खेती में से दलहन और तिलहन के लिए इतना रकबा सुरक्षित रखता था, ताकि उससे हुई पैदावार से उसके परिवार के पूरे सालभर तक के लिए दाल और तेल मिल सके। लेकिन उदारीकरण में कैश क्रॉप यानी नगदी खेती को जैसे – जैसे बढ़ावा दिया जाने लगा, दलहन और मोटे अनाजों के उत्पादन को लेकर किसान निरुत्साहित होने लगे। धान और गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की सरकारी प्रोत्साहन पद्धति ने दलहन और तिलहन के उत्पादन से किसानों का ध्यान मोड़ दिया। मोटे अनाजों के साथ ही दलहन और तिलहन की सरकारी खरीद के अभी तक कोई नीति ही नहीं है। इसलिए देश में लगातार तिलहन और दलहन का उत्पादन घटता जा रहा है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि दालों और तेल के खाने के प्रचलन में कमी आई है। अपने देश में सालाना 220 से लेकर 230 लाख टन दाल की खपत का अनुमान है। इस साल सरकार ही मान चुकी थी कि दाल का उत्पादन महज 184.3 लाख टन ही होगा है। इसके ठीक पहले साल यह उत्पादन करीब 197.8 लाख टन था। इसलिए सरकार की भी जिम्मेदारी बनती थी कि वह पहले से ही करीब 45 लाख टन होने वाली दाल की कमी से निबटने के लिए कमर कस लेती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सरकार और उसके विभाग तब जागे, जब जमाखोरों और दाल की कमी के चलते कीमतों का ग्राफ लगातार ऊंचा उठने लगा। 

Sunday, October 25, 2015

साहित्य अकादमी में रचा गया नया इतिहास

उमेश चतुर्वेदी 
1994 की बात है..साहित्य अकादमी का साहित्योत्सव चल रहा था...उस वक्त साहित्य अकादमी के सचिव थे इंद्रनाथ चौधरी...अध्यक्ष शायद असमिया लेखक वीरेंद्र भट्टाचार्य..गलत भी हो सकता हूं..उस साल साहित्य अकादमी ने संवत्सर व्याख्यान का आयोजन किया था-साहित्योत्सव के मौके पर... इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के संभ्रांत माहौल और हॉल में व्याख्यान और खान-पान का भव्य आयोजन था..उसी दौरान इस भुच्चड़ देहाती को दिल्ली के शहराती साहित्यकर्म का परिचय मिला..भारतीय जनसंचार संस्थान में तकरीबन मुफलिसी की तरह पढाई करते वक्त साहित्य चर्चा के साथ सुस्वादु भोजन का जो स्वाद लगा तो तीन दिनों तक लगातार जाता रहा..दूसरे सहपाठी मित्र भी साथ होते थे..वहीं पहली बार नवनीता देवसेन को सुना...मलयालम की विख्यात लेखिका कमला दास, जो बाद में सुरैया हो गई थीं..उन्हें भी सुना अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में..हिंदी के तमाम कवियों-लेखकों को लाइन में लगकर खाना लेते और खाते देखकर अच्छा लगा...हैरत भी हुई....क्योंकि इन्हीं में से कुछ को अपने जिले बलिया के एक-दो आयोजनों में नखरे में डूबते और रसरंजन की नैया में उतराते देखा था...तब अपनी नजर में उन लेखकों-कवियों की हैसियत देवताओं से कुछ ही कम होती थी..यह बात और है कि इनमें से कई के साथ जब ऑफ द रिकॉर्ड बातचीत की, उनके धत्कर्म देखॅ तो लगा कि असल में वे भी सामान्य इंसान ही हैं...
सवाल यह कि इन बातों की याद क्यों..क्योंकि 23 अक्टूबर 2015 को साहित्य अकादमी के सामने नया इतिहास रचा गया है..भारतीय-खासकर हिंदी का साहित्यकर्म राष्ट्रीयता और भारतीयता की अवधारणा को धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा के खिलाफ मानता है...उसे यह सांप्रदायिक लगता है.. अतीत में इसी बहाने हिंदी साहित्यकर्म की मुख्यधारा की शख्सियतें भारतीयता-राष्ट्रीयता की बात करने वाले कलमचियों से चिलमची की तरह व्यवहार करती रही हैं...1994 में साहित्योत्सव के संवत्सर व्याख्यान में भारतीयता की बातें अकेले रख रहे थे –देवेंद्र स्वरूप..तब उनका उपहास उड़ाया गया था... उनसे हिंदी साहित्यकर्म के आंगन में आए विदेशी-आक्रांता घुसपैठिया जैसा व्यवहार वहां मौजूद साहित्यिक समाज ने किया था..तब उनके साथ एक ही नौजवान खड़ा होता था...उसका प्रतिवाद उन दिनों काफी चर्चित भी हुआ था..साहित्यिक समाज के वाम विचारधारा पर वह हमले करते वक्त कहता था- पनीर खाकर पूंजीवाद को गाली देते हैं—बाद में पता चला कि वह नौजवान नलिन चौहान है..नलिन अगले साल भारतीय जनसंचार संस्थान का विद्यार्थी बना...
23 अक्टूबर 2015 को अभिव्यक्ति पर कथित रोक, कलबुर्गी नामक कन्नड़ लेखक की हत्या और सांप्रदायिकता फैलाने वालों के खिलाफ साहित्य अकादमी की चुप्पी के खिलाफ हिंदी की कथित मुख्य़धारा की साहित्यिक बिरादरी ने विरोध जुलूस निकाला..साहित्य अकादमी के आंगन में कभी वाम विचारधारा के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत दूसरी विचारधारा नहीं करती थी..उसी साहित्य अकादमी के प्रांगण में कथित विरोध और सम्मान वापसी अभियान के खिलाफ लेखकों का हुजूम उमड़ पड़ा..कुछ लोग उन लेखकों का मजाक उड़ा रहे हैं कि वे प्रेमचंद से बड़े लेखक हैं..प्रेमचंद ने क्या लिखा है..इस पर अलग से लेख लिखने की इच्छा है..बहरहाल साहित्य अकादमी के इतिहास में यह पहला मौका था...जब वहां वंदे मातरम का नारा लगा, भारत माता की जय बोली गई..मालिनी अवस्थी ने विरोध में आवाज बुलंद की..नरेंद्र कोहली, बलदेव वंशी विरोधियों की नजर में लेखक ना हों तो ना सही...पाठकों के दिलों में जरूर बसते हैं..उनकी किताबों की रायल्टी कथित मुख्यधारा की आंख खोलने के लिए काफी है...
साहित्य कर्म में बदलते इतिहास को सलाम तो कीजिए

Wednesday, October 21, 2015

सवाल भी कम नहीं हैं सम्मान वापसी अभियान पर



उमेश चतुर्वेदी
(आमतौर पर मेरे लेख अखबारों में स्थान बना लेते हैं..लेकिन यह लेख नहीं बना पाया..देर से छपने से शायद इसका महत्व कम हो जाए)
वैचारिक असहमति और विरोध लोकतंत्र का आभूषण है। वैचारिक विविधता की बुनियाद पर ही लोकतंत्र अपना भविष्य गढ़ता है। कोई भी लोकतांत्रिक समाज बहुरंगी वैचारिक दर्शन और सोच के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकता। लेकिन विरोध का भी एक तार्किक आधार होना चाहिए। तार्किकता का यह आधार भी व्यापक होना चाहिए। कथित सांप्रदायिकता और बहुलवादी संस्कृति के गला घोंटने के विरोध में साहित्यिक समाज में उठ रही मुखालफत की मौजूदा आवाजों में क्या लोकतंत्र का व्यापक तार्किक आधार नजर आ रहा है? यह सवाल इसलिए ज्यादा गंभीर बन गया है, क्योंकि कथित दादरीकांड और उसके बाद फैली सामाजिक असहिष्णुता के खिलाफ जिस तरह साहित्यिक समाज का एक धड़ा उठ खड़ा हुआ है, उसे वैचारिक असहमति को तार्किक परिणति तक पहुंचाने का जरिया माना जा रहा है। 2015 का दादरीकांड हो या पिछले साल का मुजफ्फरनगरकांड उनका विरोध होना चाहिए। बहुलतावादी भारतीय समाज में ऐसी अतियों के लिए जगह होनी भी नहीं चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि क्या क्या सचमुच बढ़ती असहिष्णुता के ही विरोध में साहित्य अकादमी से लेकर पद्मश्री तक के सम्मान वापस किए जा रहे हैं।
भारतीय संविधान ने भारतीय राज व्यवस्था के लिए जिस संघीय ढांचे को अंगीकार किया है, उसमें कानून और व्यवस्था का जिम्मा राज्यों का विषय है। चाहकर भी केंद्र सरकार एक हद से ज्यादा कानून और व्यवस्था के मामले में राज्यों के प्रशासनिक कामों में दखल नहीं दे सकती। लालकृष्ण आडवाणी जब देश के उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री थे, तब उन्होंने जर्मनी की तर्ज पर यहां भी फेडरल यानी संघीय पुलिस बनाने की पहल की दिशा में वैचारिक बहस शुरू की थी। जर्मनी में भी कानून और व्यवस्था राज्यों की जिम्मेदारी है। बड़े दंगे और अराजकता जैसे माहौल में वहां की केंद्र सरकार को फेडरल यानी संघीय पुलिस के जरिए संबंधित राज्य या इलाके में व्यवस्था और अमन-चैन बहाली के लिए दखल देने का अधिकार है। संयुक्त राज्य अमेरिका में संघीय पुलिस यानी फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन के जरिए केंद्र सरकार को कार्रवाई करने का अधिकार है। लेकिन आज कथित हिंसा के विरोध में अकादमी पुरस्कार वापस कर रहे लेखकों और बौद्धिकों की जमात में तब आडवाणी की पहल को देश के संघीय ढांचे पर हमले के तौर पर देखा गया था।

सुबह सवेरे में