Friday, April 7, 2017

वैचारिक वर्चस्व की जंग और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद



उमेश चतुर्वेदी
भारतीय विश्वविद्यालयों को इन दिनों वैचारिकता की धार पर जलाने और उन्हें तप्त बनाए रखने की कोशिश जोरदार ढंग से चल रही है। ज्ञान की वैश्विक अवधारणा के विस्तार के प्रतिबिंब मानी जाती रही आधुनिक विश्वविद्यलाय व्यवस्था में अगर संघर्ष बढ़े हैं तो इसकी बड़ी वजह यह है कि पारंपरिक तौर पर विश्वविद्यालयों में जिस खास वैचारिक धारा का प्रभुत्व रहा है, उसे चुनौती मिल रही है। आजाद भारत से पहले भले ही भारतीय विश्वविद्यालयों की संख्या कम थी, लेकिन उनका वैचारिक आधार भारतीयता, राष्ट्रवाद और अपनी संस्कृति के नाभिनाल से गहरे तक जुड़ा हुआ था।  आजादी के बाद देश में विश्वविद्यालय भले ही बढ़ते गए, लेकिन उनका वैचारिक और सांस्कृतिक सरोकार भारतीयता की देसी अवधारणा और परंपरा से पूरी तरह कटता गया। इसके पीछे कौन लोग थे, इस पर अब सवाल उठने लगा है।
भारतीय विश्वविद्यालयों का वैचारिक चिंतन किस तरह आजादी के बाद यूरोपीय अवधारणा का गुलाम होता गया, उसकी सही व्याख्या किसी राष्ट्रवादी विचारक ने नहीं, बल्कि समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने की है। अपने आलेख अयोध्या और उससे आगे में किशन पटनायक ने लिखा है- “यूरोप के बुद्धिजीवी, खासकर विश्वविद्यालयों से संबंधित बुद्धिजीवी, का हमेशा यह रूख रहा है कि गैर यूरोपीय जनसमूहों के लोग अपना कोई स्वतंत्र ज्ञान विकसित न करें । विभिन्न क्षेत्रों में चल रही अपनी पारंपरिक प्रणालियों को संजीवित न करें, संवर्धित न करें। आश्चर्य की बात है कि कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों का भी यही रूख रहा, बल्कि अधिक रहा। किशन पटनायक की जो व्याख्या है, दरअसल उसे ही राष्ट्रवादी विचारधारा भी मानती है। विश्वविद्यालयों की परिधि में काम कर रही राष्ट्रवादी विचारधारा की प्रबल प्रतिनिधि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की भी सोच ऐसी ही है। इसीलिए जब दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालेज में राष्ट्र विरोधी ताकतों को सगर्व बोलने को बुलावा मिलता है, या फिर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में राष्ट्र के टुकड़े-टुकड़े होने के नारे खुलेआम लगते हैं तो उसके प्रतिकार में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को आना पड़ता है। दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालेज में देशद्रोही नारे लगाने के आरोपी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र उमर खालिद और शेहला राशिद के बोलने का अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा विरोध दरअसल विश्वविद्यालयों को लेकर कम्युनिस्ट विचारकों और बुद्धिजीवियों की संकुचित सोच का विरोध है। लेकिन दुर्भाग्यवश  विश्वविद्यालयों में अब तक जमी रही वामपंथी विचारधारा इसे अभिव्यक्ति पर हमले के तौर पर प्रचारित करने लगी और उसने इसे संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति के हमले के तौर पर प्रचारित करके अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की।  

Tuesday, July 26, 2016

सूचना सेवा में सुधार पर बासवान समिति ने खड़े किये हाथ

संघ लोकसेवा आयोग परीक्षा से संबंधित सुधारों पर कार्य करने के लिए बी एस बासवान समिति ने भारतीय सूचना सेवा में सुधार के सवाल पर हाथ खड़े कर दिये हैं, इससे इस सेवा में सुधार के लिए किये जा रहे प्रयासों को झटका लगा है।
                 हालांकि समिति ने अभी अंतिम रिपोर्ट सरकार को सौंपी नहीं है लेकिन भारतीय सूचना सेवा में सुधार के लिए छात्रों की ओर से किये जा रहे प्रयासों के जवाब में समिति के अध्यक्ष बी एस बासवान की ओर से जयपुर के छात्र श्याम शर्मा को ईमेल कर कहा गया है भारतीय सूचना सेवा को सिविल सेवाओं में रखना या न रखनासूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का काम हैसमिति का नहीं। मुझे लगता है कि वे यथास्थिति बनाये रखना चाहते हैं।
       हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालयजयपुर के छात्र श्याम शर्मा ने प्रधानमंत्री कार्यालय व बासवान समिति को पत्र लिखकर मांग की थी कि भारतीय सूचना सेवा की पेशागत आवश्यकताओं को देखते हुए इसे ग्रुप ’ पेशेवर सेवा के तौर पर चिन्ह्ति किया जाए तथा इसमें प्रवेश के लिए मीडिया व जनसंचार विषयों की विशेषज्ञता अनिवार्य की जाए।
उल्लेखनीय है कि भारतीय सूचना सेवा में शीर्षस्थ पदों पर नियुक्तियों के लिए अब तक विशेषज्ञता अनिवार्य नहीं है और सिविल सेवाओं में निचले रैंकों पर रहने वाले प्रतिभागी अनिच्छा के साथ इस सेवा में पहुंचते हैं जिससे सरकार की कार्यदक्षता तो प्रभावित होती ही हैसाथ हीसंचार कौशल संयुक्त पेशेवर प्रतिभा के साथ भी अन्याय होता है। इस संबंध में मीडिया स्कैनदिल्ली पत्रकार संघ,आईआईएमसी छात्र संघ तथा अन्य तमाम मीडिया संगठनों व छात्र संगठनों ने बासवान समिति को पत्र लिखा है।  
इन संगठनों का मानना है कि यह स्थिति पत्रकारिता के छात्रों के साथ अन्याय जैसी है। देशभर में बड़ी संख्या में पत्रकारिता संस्थानों से सैकड़ों की संख्या में स्नातक होकर पत्रकारिता और जनसंचार के छात्र निकलते हैं और उनके कौशलों की आवश्यकता वाली एक लोकसेवा भी अस्तित्व में है फिर भी उनको अवसर देने के स्थान पर इस सेवा में ऐसे लोगों को मौका दिया जा रहा है जिनके पास पत्रकारिता और जनसंचार की बेसिक जानकारी तक नहीं है। इसलिए सूचना और प्रसारण मंत्रालयकेंद्रीय कार्मिक और प्रशिक्षण विभागसंघ लोकसेवा आयोग और प्रधानमंत्री कार्यालय से मांग की गयी है कि देशभर में पत्रकारिता के छात्रों के हित में भारतीय सूचना सेवा को पूरी तरह विशेषज्ञ सेवा के रूप में ग्रुप ए पेशेवर सेवा के रूप में चिन्हित किया जाए। 

Wednesday, May 25, 2016

आपकी मदद चाहिए..

मेरी कार चोरी हुए दस दिन हो गए..दिल्ली पुलिस ने इसे कैजुअली लिया..हम चाहते हैं कि आगे से ऐसे मामलों को दिल्ली पुलिस कैजुअली ना ले..इसलिए एक याचिका डाली है..जो नीचे दिए गए लिंक पर है..कृपया इस पर क्लिक करें और अपना हस्ताक्षर करके सहयोग करें..ताकि आगे किसी की कार चोरी हो तो पुलिस उसे कैजुअली ना ले..
https://www.change.org/p/home-ministry-of-india-my-car-is-stolen/c/456065495यहां करें क्लिक

Monday, May 9, 2016

उत्तराखंड में किस करवट बैठेगा राजनीतिक ऊंट



उमेश चतुर्वेदी
दुनियाभर के लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था वाले समाजों में आखिरी उम्मीद की किरण न्यायपालिका कितनी बन पाई है, यह शोध का विषय है। लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें तो भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका ही आखिरी उम्मीद की किरण बनकर उभरी है। हाल के दिनों आए जजों की नियुक्ति वाली कोलेजियम को बहाल करने वाले फैसले को छोड़ दें तो अभी-भी सर्वोच्च न्यायपालिका इंसाफ की आखिरी उम्मीद बनी हुई है। उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार के बहुमत परीक्षण कराने का आदेश भी कम से कम कांग्रेस पार्टी के लिए आखिरी उम्मीद की ही तरह आया है। इसलिए वह इसे लोकतंत्र की जीत बताते नहीं अघा रही है। अपने समाज में चूंकि न्यायिक फैसलों की आलोचना की परंपरा नहीं है, लिहाजा अगर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला नहीं भी आता तो यही कांग्रेस दुखी होने के बावजूद भी उस फैसले को लोकतंत्र की हार नहीं बताती। लेकिन यह तय है कि लोकतंत्र की असल जीत या हार इस फैसले से नहीं, बल्कि 10 मई को देहरादून में विधानसभा के पटल पर होगी। अगर हरीश रावत जीत गए तो निश्चित तौर पर कांग्रेस के लिए झूमने का मौका होगा। सत्ता तंत्र में लगातार छीजती जा रही कांग्रेस की उत्तर भारत में एक और सरकार लौट आएगी। लेकिन अगर हार हो गई तो इसमें कोई दो राय नहीं कि देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए वे क्षण बेहद दुखद होंगे।

Sunday, April 10, 2016

अमित शाह की आक्रामक राजनीति और बीजेपी

उमेश चतुर्वेदी
हताशा और निराशा के दौर से जिस पार्टी को दशकों गुजरना पड़ा हो, अगर लंबे संघर्ष के बाद वह जनता की आंखों का दुलारा बन जाए तो उसका उत्साहित होना स्वाभाविक है। भारतीय जनता पार्टी के 37 वें स्थापना दिवस पर अमित शाह की हुंकार को भी इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए। पार्टी अध्यक्ष के नाते अमित शाह ने बीजेपी के कार्यकर्ताओं से कहा कि पार्टी को पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक 25 साल तक राज करना है। अमित शाह का यह बयान उनके विरोधियों को बड़बोलापन लग सकता है। विपक्षी दल इस पर सवाल भी उठा सकते हैं। उनका सवाल उठाना जायज भी है। लेकिन अमित शाह कोई अजूबी बात नहीं कर रहे हैं। जिस पार्टी के कार्यकर्ताओं को छोड़ दें, बड़े नेताओं तक को संघर्ष और राजनीतिक उत्पीड़न के लंबे दौर से जूझना पड़ा हो, उस पार्टी के अध्यक्ष की हुंकार ऐसी ही होनी चाहिए। कम से कम भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता तो ऐसा ही मानते हैं। कारपोरेट और उदारीकरण के वर्चस्व के दौर में आज टीम अगुआ से अपने लोगों को प्रेरित करने के लिए ऐसे ही बयानों की उम्मीद की जाती है। मोर्चे को फतह करने की तैयारियों में जुटी सेनाओं के जनरल भी अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाने और जीत के लिए प्रेरित करने के लिए ऐसे ही बयान देते रहे हैं। 

Saturday, February 20, 2016

कितना जहरीला है माहौल...

माहौल में कितना जहर भर गया है.. जरा देखिए फेसबुक पर यह पोस्ट..मेरे छात्र रहे हैं नाम है मन्शेष कुमार.. आईआईएमसी जैसी जगह में पढ़ते हैं..तो जाहिर है कि ऊंची छलांग लगाने की भी सोच रहे होंगे..लेकिन उनकी भाषा कैसी है..जरा पढ़िए..मेरे पोस्ट को शेयर करते वक्त,.दुख है कि इन्हें अपनी क्लास में मैं पढ़ा नहीं पाया..वैसे 23 साल पहले मैं उसी क्लास में छात्र था..आखिर भविष्य में ये क्या करेंगे...अंदाज लगाइए...इनका परिचय और इनकी पोस्ट दोनों लगा रहा हूं..देखिए और विचार कीजिए...

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सुबह सवेरे में