उमेश चतुर्वेदी
जब भी बलिया जाता हूं तो मन में एक आस होती है कि महानगरीय भागदौड़ के बाद सुकून मिलेगा और अपनी माटी की गंध मन-मस्तिष्क में नई ऊर्जा का संचार करेगी। लेकिन हर बार इस आस पर तुषारापात ही होता है। जून के पहले हफ्ते की बलिया की यात्रा के दौरान मिली एक जानकारी ने मुझे चौंका दिया। बलिया में साल-दो साल पहले प्राथमिक स्कूलों के अध्यापकों की मेरिट के आधार पर भारी भर्तियां हुईं थीं। इनका काम है-बलिया के अबोध बच्चों को अक्षर ज्ञान कराना। लेकिन जिला बेसिक शिक्षाधिकारी की सहायता से ये लोग अपना मूल काम ही नहीं कर रहे हैं। इनमें से करीब पच्चीस अध्यापक - अध्यापिकाएं ऐसे हैं, जो बलिया के बाहर रहते हैं और छह-सात महीने बाद अपने स्कूल का दर्शन करते हैं। उनके इस अहसान के बदले उनकी तनख्वाह लगातार मिल रही है। इनमें से कई अध्यापिकाओं के पति दूसरे राज्यों में तैनात हैं और वे अपने पतियों के साथ हैं। लेकिन उनका नाम स्कूल की लिस्ट में ना सिर्फ चल रहा है-बल्कि उन्हें बाकायदा वेतन भी मिल रहा है। कई अध्यापक दिल्ली या जेएनयू में पढ़ रहे हैं। बदले में उनकी जगह पर उनके भाई या कोई और पढ़ाने जा रहे हैं। मजे की बात ये है कि इसकी जानकारी इलाके के एसडीआई और जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी को भी है। लेकिन कार्रवाई करना तो दूर वे खुद भी इसमें सहायता मुहैय्या करा रहे हैं। इसके लिए उन्हें बाकायदा हर ऐसे अध्यापक से दो हजार रूपए महीने का वेतन मिल रहा है। ऐसे ही एक अध्यापक का कहना है कि इसमें से एक हजार रूपए बेसिक शिक्षा अधिकारी को मिलता है। जबकि बाकी एक हजार का निचले स्तर के अधिकारियों में बंटवारा हो जाता है। सबसे दिलचस्प बात ये है कि इन अध्यापक-अध्यापिकाओं में सबसे ज्यादा समाज के नैतिक अलंबरदार माने जाने वाले लोगों के घरों के हैं। स्थानीय अखबारों में उनके गाहे-बगाहे सुवचन - प्रवचन छपते रहते हैं। लेकिन घर की इस अनैतिकता को रोकने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है।
Sunday, June 8, 2008
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