उमेश चतुर्वेदी
गैर कांग्रेसवाद की सियासी घुट्टी के साथ राजनीति की दुनिया में पले-बढ़े मुलायम सिंह यादव के कांग्रेसीराग ने हलचल मचा दी है। इसे न तो उनके दोस्त समाजवादी पचा पा रहे हैं और न ही उनके दुश्मन। सबसे ज्यादा हैरत में उनके साथ समाजवाद को ओढ़ना-बिछौना बनाए रखे उनके दोस्तों को हो रही है। वे एक ही सवाल का जवाब ढूंढ़ रहे हैं कि आखिर वह कौन सी वजह रही कि चार साल से संसद और सड़क – दोनों जगहों पर अमेरिका को पानी पी-पीकर गाली देते रहे मुलायम सिंह को अमेरिका के साथ परमाणु करार में राष्ट्रीय हित नजर आने लगा है। यह राष्ट्रीय हित इतना बड़ा हो गया है कि उनके चेले और दोस्त तक उनका साथ छोड़-छोड़कर निकलते जा रहे हैं। लेकिन मुलायम सिंह की पेशानी पर बल भी नहीं दिख रहा है। अमर सिंह की मुस्कान और चौड़ी होती जा रही है। शाहिद सिद्दीकी और एसपी बघेल समेत मुलायम सिंह के छह सांसदों को अमर सिंह के ब्रांड वाले समाजवाद का चोला उतार गए हैं।
समाजवादी पार्टी को कवर करने वाले पत्रकारों को पता है कि अमर सिंह ऑफ द रिकॉर्ड संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की नेता और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बारे में कैसे विचार रखते रहे हैं। पानी पी-पीकर कांग्रेस को गाली देने वाले अमर सिंह ना सिर्फ बदल जाएं, बल्कि एक जमाने के धरती पुत्र मुलायम सिंह जैसे कद्दावर नेता को भी बदलने के लिए मजबूर कर दें तो सवाल उठेंगे ही। इसकी वजह पूरा देश जानना चाहेगा। सवाल तो ये भी है कि अमर सिंह की हालिया अमेरिका यात्रा के दौरान आखिर ऐसा क्या हुआ कि समाजवादी पार्टी का रूख एकदम से बदल गया। या फिर अमेरिकी हवा की तासीर ही ऐसी है कि वहां जाने वाला करार-करार चिल्लाने लगता है। इसका जवाब तो अमर सिंह ही दे सकते हैं या फिर मुलायम सिंह।
सवालों की वजह भी है। जब से मनमोहन सिंह की अगुआई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार चल रही है, मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी अमेरिका का विरोध करते रहे हैं। संसद में कभी ईरान के मसले पर तो कभी इराक तो कभी अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप का समाजवादी पार्टी वामपंथियों के साथ पुरजोर विरोध करती रही है। दरअसल समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश में जो वोट बैंक रहा है, उसमें पिछड़े और मुस्लिम तबके की भागीदारी रही है। बाबरी मस्जिद पर 1990 में पुलिस कार्रवाई के बाद से तो सूबे का मुसलमान मुलायम सिंह को ही अपना नेता मानता रहा है। कहा तो ये जा रहा है कि समाजवादी पार्टी पिछले विधानसभा चुनाव की हार को अब तक पचा नहीं पाई है। इस चुनाव में करीब चालीस प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं ने समाजवादी पार्टी का साथ छोड़ बहुजन समाज पार्टी का दामन थाम लिया। जिसका खामियाजा समाजवादी पार्टी की सत्ता से बाहर होकर चुकाना पड़ा। यही वजह रही कि संसद से लेकर सड़क तक – हर मौके पर पार्टी ने अपने मुस्लिम मतदाताओं का ध्यान रखा। ईरान को लेकर अमेरिकी नजरिए को लेकर आज भी भारत का आम मुसलमान पचा नहीं पाता। उसे अमेरिकी रवैये को लेकर क्षोभ और नाराजगी भी रहती है। इराक में अमेरिकी कार्रवाई को देश के वामपंथियों और मुसलमानों – दोनों ने कभी स्वीकार नहीं किया। जाहिर है मुलायम सिंह को अपने वोटरों की परवाह रही और उनकी पार्टी संसद में अमेरिका को इराक का हत्यारा तक बताती रही है। अमेरिका विरोध का एक भी मौका समाजवादी पार्टी ने नहीं खोया है। सरकार चलाते हुए भी उसने लखनऊ में अमेरिका विरोधी रैली भी आयोजित की थी।
यही वजह रही कि समाजवादी पार्टी संसद के पिछले बजट सत्र तक अमेरिका से करार का विरोध करती रही। लेकिन अब उसका सुर बदल गया है। वह कांग्रेस के नजदीक आ गई है और अपने अपमान तक भुला बैठी है। पिछले साल 22 फरवरी को लखनऊ में मुलायम सिंह समेत पूरी पार्टी दम साधे कांग्रेस सरकार के हाथों अपनी राज्य सरकार की बर्खास्तगी का आशंकित इंतजार कर रही थी। तब समाजवादी पार्टी के लोगों को कांग्रेस के लिए गालियां ही सूझ रही थीं। राज्यपाल टीवी राजेश्वर के खिलाफ वाराणसी में समाजवादी पार्टी की यूथ विंग ने प्रदर्शन भी किया और कांग्रेस के एजेंट के तौर पर काम करने का आरोप भी लगाया। ऐसे आरोप मुलायम सिंह भी लगाते रहे हैं। लेकिन अब पूरी तस्वीर बदल गई है।
मुलायम सिंह यादव की पूरी सियासी यात्रा संघर्षों के साथ आगे बढ़ी है। सड़क से लेकर विधानसभा से होते हुए संसद तक संघर्ष का उनका अपना इतिहास रहा है। उन्हें धरतीपुत्र कहने की यही अहम वजह भी रही है। लेकिन जब से उनके साथ सोशलाइट अमर सिंह का साथ मिला है, मुलायम सिंह की भी संघर्ष क्षमता पर आंच आने लगी है। राजबब्बर ने पिछले साल जब समाजवादी पार्टी से विद्रोह किया था तो उन्होंने बड़ा मौजूं सवाल उठाया था। उनका कहना था कि आखिर क्या वजह रही कि रघु ठाकुर और मोहन प्रकाश जैसे तपे-तपाए जुझारू नेताओं को मुलायम सिंह का साथ छोड़ना पड़ा और अमर सिंह उनके करीब होते गए। रघु ठाकुर राजनीतिक बियाबान में अपनी अलग पार्टी चला रहे हैं, जिसका नाम अब भी कम ही लोगों को पता होगा और मोहन प्रकाश अब कांग्रेस के प्रवक्ता की जिम्मेदारी निभा रहे हैं।
दरअसल अमर सिंह के साथ ही पार्टी के संघर्षशील चरित्र में कमी आती गई। ऐसा नहीं कि पार्टी में आए इन बदलावों से मुलायम सिंह अनजान रहे। शायद बदले दौर में उन्हें भी यह बदलाव मुफीद नज़र आ रहा था और उन्होंने इसे मौन बढ़ावा देने में ही भलाई समझा। 1993 में बहुजन समाजपार्टी के साथ सरकार बनाने के बाद मुलायम ने जातिवाद का खुला खेल तो शुरू किया, लेकिन पार्टी की संघर्षशीलता में कमी नहीं आई। इस दौरान एक खास बिरादरी के पार्टी कार्यकर्ताओं ने जमकर गुंडई और लूटखसोट की और मुलायम सिंह इससे आंखें मूंदे रहे। इसके बावजूद उनका नजरिया जमीनी ही था। लेकिन कांग्रेसी राजनीति से समाजवादी पार्टी के साथ अमर सिंह के जुड़ते ही पार्टी के चरित्र और मुलायम के नजरिए में भी बदलाव दिखने लगा। पार्टी के लिए अब संघर्ष से ज्यादा सत्ता साध्य होती गई। इस राह में बाधक बने तब के महासचिव रघु ठाकुर और मोहन प्रकाश को पार्टी छोड़ना पड़ा। साथ तो बाद में उन बेनीप्रसाद वर्मा को भी छोड़ना पड़ा- जिनका दावा है कि वे कभी एक ही थाली में मुलायम के साथ खाते थे और कई बार एक ही चारपाई पर सोए भी हैं।
कहा जा रहा है मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में लगातार कम होती अपनी कमजोर जमीन को हासिल करने के लिए कांग्रेस का हाथ थामा है। कांग्रेस को भी एक ऐसे साथी की जरूरत थी,जो वामपंथियों से अलगाव के बाद संसद में उसका साथ तो दे ही, संसद के बाहर उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में भी उसे सियासी जमीन मुहैया कराए। उत्तर प्रदेश के पिछले विधान सभा चुनाव में करीब 132 सीटों पर मुलायम सिंह के उम्मीदवार पांच सौ से लेकर पांच हजार वोटों से हारे। उन्हें उम्मीद है कि कांग्रेस का साथ उनकी साइकिल की चाल को तेज कर देगा।
लेकिन हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि मुलायम सिंह की पहचान उनके संघर्षों से रही है, जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर 1991 में अपनी सरकार की भी परवाह नहीं की, उनके चरित्र में यह बदलाव लोगों को हैरतनाक नजर आए तो इस पर कोई अचरज नहीं होना चाहिए। दरअसल अमर सिंह का कभी संघर्षों का इतिहास नहीं रहा है। वे भले ही समाजवादी पार्टी के महासचिव हैं, लेकिन उन्हें यह कहने में हिचक नहीं होती कि वे राज खानदान से हैं। जिन्हें इसकी जानकारी लेनी हो, वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पूर्व सांसद डॉ.चंद्रकला पांडे से ले सकते हैं। ऐसे में पार्टी का मूल चरित्र बदलना ही था। समाजवादी पार्टी अब सड़क से लेकर संघर्ष करने वाली पार्टी नहीं रही। दरअसल वह अब सत्ता से अलग रह ही नहीं सकती। यानी नए दौर में वह सत्ताधारी समाजवाद के नजदीक पहुंचती जा रही है। पिछले कुछ साल में समाजवादी पार्टी का जो चरित्र विकसित हुआ है, उसमें सत्ता के बिना न तो कार्यकर्ताओं को बांधना संभव है और ना ही सांसदों को। सत्ता की चाबी के बिना अमर सिंह तो कत्तई नहीं रह सकते। जिस तरह कांग्रेस को समर्थन के ऐलान के बाद उन्होंने फौरन पेट्रोलियम सचिव को तलब कराया, उससे उनका मकसद साफ हो गया।
इस पूरे प्रकरण में न तो मीडिया का एक तथ्य की ओर ध्यान गया है और ना ही समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं का। कांग्रेस का हाथ थामने जैसे अहम प्रकरण को लेकर मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश की चुप्पी की ओर किसी की निगाह नहीं है। क्या इस चुप्पी की भी कोई वजह है या समाजवादी पार्टी में किसी नई हलचल के पहले की शांति है। फिलहाल सबकी निगाह इस पर ज्यादा है कि कांग्रेस का साथ यूपी की सियासी जमींन पर मुलायम की सियासत और अमर सिंह की सत्ता की हनक का कितना फायदा समाजवादी पार्टी को मिल पाता है।