Wednesday, November 5, 2008
हिंदीभाषी इलाके की बपौती नहीं है राष्ट्रवाद
उमेश चतुर्वेदी
राज ठाकरे के विषवमन ने इन दिनों राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद को लेकर नई तरह की बहस छेड़ दी है। राष्ट्रवाद वैसे ही इन दिनों संकुचित अर्थ ग्रहण कर चुका है। राष्ट्रवाद का जिक्र आते ही लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की याद आने लगती है। ( ऐसा अर्थ ग्रहण करने वाले लोग कम से कम यहां माफ करेंगे। ) राज ठाकरे की मौजूदा राजनीति के बाद मराठी राष्ट्रवाद का एक नए सिरे से उभार हुआ है। मधु लिमये ने अपनी मौत के ठीक पहले लिखे एक लेख में कांग्रेस को राष्ट्रीय एकता के लिए जरूरी बताया था। मधु लिमये भी मराठी ही थे। उनका राष्ट्रीयताबोध आज के मराठी वीर पुरूष राज ठाकरे से अलग था। ये विचार इसलिए भी अहम हैं कि इसे प्रतिपादित करने वाले मधु लिमये – वह शख्स थे, जिन्होंने ताजिंदगी कांग्रेस और उसकी राजनीति का विरोध किया था। साठ से लेकर सत्तर के दशक की संसद की कार्यवाही गवाह है कि मधु लिमये, पीलू मोदी, लाडली मोहन निगम और मनीराम बागड़ी की छोटी टीम ने इंदिरा गांधी जैसी करिश्माई ताकत को भी हिचकोले खाने के लिए मजबूर कर दिया था। ऐसे मधु लिमये जब कांग्रेस को राष्ट्रीय एकता के महत्वपूर्ण स्तंभ के तौर पर जरूरी मानने लगे तो जाहिर है कि कांग्रेस उनकी नजर में कितनी अहम थी। लिमये जी ने जब ये कहा था – तब वह कम से कम आज सोनिया गांधी वाली कांग्रेस नहीं थी। तब वह नरसिंहराव की कांग्रेस थी। लेकिन लगता ये है कि बारह-तेरह साल के अंतराल में ये कांग्रेस भी अब बदल गई है। इसका साफ प्रमाण ये है कि उसी मधु लिमये की जन्मभूमि पर बेकसूर उत्तर भारतीयों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा जा रहा है। लेकिन राज्य और देश में सरकार चला रही कांग्रेस के सिपाही मौन हैं। उन्हें मराठी राष्ट्रीयता के उभार में अपना फायदा दिख रहा है। लिहाजा मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख इन घटनाओं को सामान्य तौर पर लेते हुए मुस्कानभरे चेहरे से मीडिया को बयान देते रहते हैं। पता नहीं – मधु लिमये आज रहते तो कांग्रेस को लेकर वे अपने विचार पर अब भी कायम रहते या नहीं – ये सवाल आज ज्यादा प्रासंगिक हो गया है।
राज ठाकरे और विलासराव देशमुख को शायद मधु लिमये के उन विचारों से अब लेना-देना ना हो। लेकिन राज जिस तरह से मराठी अस्मिता के नाम पर हिदी विरोध को हवा दे रहे हैं – उनकी नजर में तिलक की अहमियत जरूर होगी। कम से कम एक मराठी के नाम पर वे इससे इनकार नहीं कर सकते। ये सच है कि उन्नीसवीं सदी तक लोकमान्य की राष्ट्रीयता का अहम बिंदु मराठी राष्ट्रवाद ही था। गणेश चतुर्थी के पूजन को सार्वजनिक तौर पर स्थापित करने के पीछे उनका यही भाव काम कर रहा था। लेकिन जैसे – जैसे गणेश पूजन को मराठी समाज में सार्वजनिक पूजन के तौर पर मान्यता बढ़ती गई- तिलक को लगने लगा कि सिर्फ मराठी राष्ट्रवाद के ही जरिए देश की आजादी के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता। अगर उनकी नजर राज ठाकरे की तरह संकुचित रही होती तो कम से कम वे हिंदी के बारे में ये नहीं कहते - ''मैं समझता हूँ कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को पूरे देश के लिए एक आम भाषा की जरूरत है। एक आम भाषा का होना राष्ट्रीयता का महत्वपूर्ण तत्व है। वह आम भाषा ही होती है, जिसके द्वारा आप अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचाते हैं। इसलिए यदि हम देश को एक साथ लाना चाहते हैं, तो सबके लिए एक आम भाषा से बढ़कर दूसरी कोई ताकत नहीं हो सकती और यही सभा (नागरीप्रचारिणी सभा) का उद्देश्य भी है।''
तिलक ने ये महत्वपूर्ण भाषण काशी नागरी प्रचारिणी सभा के 1905 के सम्मेलन में दिया था। इससे साफ होता है कि हिंदी और राष्ट्रीयता को लेकर उनकी क्या धारणा थी।
क्रांतिकारी खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी के बम हमलों के समर्थन के चलते 1908 में उन्हें गिरफ्तार करके बर्मा के मांडले जेल में अंग्रेज सरकार ने नजरबंद कर दिया। यहां तिलक 1914 तक रहे। इस दौरान गीता और राष्ट्रीयता को लेकर उनके विचार नए तरह से पुष्ट हुए। वे विचार कम से कम आज महाराष्ट्र के नेताओं और राज ठाकरे की राष्ट्रीयता से अलग ही थे। हिंदी में बोलने के लिए जया बच्चन को राज ठाकरे ने जिस अपमानजनक तरीके से ये कहने से गुरेज नहीं किया कि गुड़्डी अब बुड्ढी हो गई है। कम से कम राज ठाकरे की मराठी अस्मिता के अहम पुरूष लोकमान्य तिलक की आत्मा अगर स्वर्ग में होगी तो आप उम्मीद कर सकते हैं कि वह क्या सोच रही होगी।
अदालती आदेश से इन दिनों राज ठाकरे की जबान बंद है। लेकिन जिस तरह महाराष्ट्र के नेता उनके उठाए मुद्दों के समर्थन में साथ आते दिख रहे हैं – उससे साफ है कि अदालती आदेश की मियाद खत्म होने के बाद राज फिर से अपनी बयानबाजी जरूर शुरू करेंगे। बयानबाजी के दौर में केंद्रीय सरकार में शामिल लोग ये भूल गए हैं कि उन्होंने संविधान के साथ ही देश की एकता और अखंडता की रक्षा की शपथ भी ली है। प्रफुल्ल पटेल का बयान इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। उन्होंने कहा है कि महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों को नौकरियां देने से असंतुलन बढ़ेगा और मराठा लोग खुद ये असंतुलन दूर कर लेंगे। कैसे...इसका खुलासा उन्होंने भले ही नहीं किया है – लेकिन उनका इशारा साफ समझा जा सकता है। क्या देश की एकता और अखंडता की शपथ लेने वाले मंत्री से ऐसे बयान की उम्मीद की जा सकती है।
इस देश में जब-जब छोटे-छोटे इलाकों के नेताओं का प्रभाव अपने लोगों से कम होने लगता है – तब – तब वे क्षेत्रीयतावाद की बयार बहाने की कोशिश जरूर करते हैं। तमिलनाडु में जब – जब लगता है कि डीएमके और एआई़डीएमके की पकड़ कम होती दिखती है, तब-तब दोनों ही दल तमिल राष्ट्रवाद को हवा देने लगते हैं। उस समय उनके निशाने पर हिंदी और उत्तर भारतीय ही होते हैं। हालांकि तमिलनाडु में कभी उत्तर भारतीयों को निशाना नहीं बनाया गया। लेकिन जिस तरह राज ठाकरे ने शुरू किया है और उससे राज्य सरकार ने लापरवाही से निबटाया है – ऐसे में आने वाले दिनों में वहां भी हिंदी विरोध शुरू हो जाय तो हैरत नहीं होनी चाहिए। ये बात और है कि इन दिनों ये तमिल राष्ट्रवाद श्रीलंका के मामले में हस्तक्षेप की मांग पर ही फोकस है। यही हालत इन दिनों असम में भी है। असमिया राष्ट्रवाद के नाम पर वहां हिंदीभाषियों को ही निशाना बनाया जा रहा है। रोजाना दो-चार बेकसूरो को मौत के घाट उतारा जा रहा है। इन घटनाओं को रोक पाने में लाचार वहां की सरकार इसे उग्रवाद के माथे मढ़कर अपने कर्तव्य से इतिश्री समझ रही है। पूर्वांचल के दूसरे राज्यों में भी किसी न किसी नाम पर उप राष्ट्रीयता और अलगाववाद जारी है।
अस्सी के दशक में यही हालत पंजाब की भी थी। पंजाबी राष्ट्रवाद के नाम पर बिहार और उत्तर प्रदेश से गए मजदूरों को निशाना बनाया गया। इसका खामियाजा जब पंजाब की खेती और उद्योगों को भुगतना पड़ा तो इस राष्ट्रवाद के खिलाफ खुद पंजाब के लोगों को ही आगे आना पड़ा। बिहार के गांवों में जाकर उन्होंने खुद मजदूरों को उनकी सुरक्षा के लिए आश्वस्त किया – तब जाकर कहीं पंजाब की अर्थव्यवस्था और खेती-किसानी पटरी पर आ पाई। अब वहां पंजाबी राष्ट्रवाद के नाम पर किसी बिहारी और उत्तर प्रदेश के मजदूर को निशाना नहीं बनाता।
दुर्भाग्य देखिए कि गाय पट्टी के नाम पर विख्यात हिंदीभाषी इलाकों की जो राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद है, सही मायने में वही भारतीय राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करती है। उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड, मध्य प्रदेश, छ्त्तीसगढ़ और राजस्थान से उप राष्ट्रीयता की कोई आवाज नहीं उठती। न ही यहां का कोई व्यक्ति किसी गैर हिंदीभाषी इलाके के व्यक्ति के खिलाफ आवाज उठाता है ना ही किसी बेकसूर को सिर्फ इसलिए पीटता है कि वह मराठी, गुजराती या तमिल है। सबसे बड़ी बात ये कि यहां तुलसी और कबीर के बाद कोई बड़ा समाजसुधारक भी नहीं हुआ। राहुल सांकृत्यायन, स्वामी श्रद्धानंद को छोड़ दें तो सामाजिक तौर पर किसी ने बड़ा जनजागरण अभियान यहां नहीं चला, इसके बावजूद इन इलाकों में भारतीय राष्ट्रीयता कूट-कूट कर भरी है। इनके लिए पहले भारत है, उसके बाद उत्तर प्रदेश, बिहार या मध्यप्रदेश आता है। लेकिन उप राष्ट्रीयता वाले इलाकों में ये हालत नहीं है। वहां के लोगों के लिए सबसे पहले मराठी, बंगाली, असमिया या तमिल आता है, फिर भारत और भारतीय राष्ट्रीयता आती है। लेकिन हालत देखिए कि आज इसी राष्ट्रीयता की चर्चा करने वाले लोगों को ही इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। कभी वे असम की बराक घाटी में गोलियों से छलनी किए जाते हैं तो कभी मुंबई की सड़कों पर उन्हें दौड़ा-दौड़ाकर पीटा जाता है।
मधु लिमये ने अपने आखिरी लेख में देश की एकता के लिए कांग्रेस को इसलिए जरूरी बताया था – क्योंकि वही अकेली पार्टी है, जिसका अखिल भारतीय आधार है। उसकी ही दृष्टि अखिल भारतीय है। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि महाराष्ट्र के मामले में उसकी इस दृष्टि का लोप हो गया है। असम में भी उसकी ही सरकार है – लेकिन वहां भी उसका ये भारतीय नजरिया नजर नहीं आ रहा है।
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