उमेश चतुर्वेदी
एनडीए शासन काल के ग्रामीण विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना की शुरूआत की थी तो उनका दावा था कि देश के सभी गांवों को बारहमासी सड़कों से जोड़ दिया जाएगा। अब सरकार ने घोषणा की तो उस पर अमल भी होना ही था। बलिया में इसका असल नजारा दिखा। सड़कें तो हैं – लेकिन उनसे गुजरना मुश्किल ही नहीं असंभव भी है। सड़कों पर गड्ढा है या गड्ढे में सड़कें हैं – सड़कों की हालत देख कर अंदाजा लगाना आसान नहीं होगा। लिहाजा सही जानकारी के लिए शोध की जरूरत पड़ेगी।
आज के विकासवादी दौर में माना जाता है कि सड़कें विकास का असल जरिया हैं। सड़कें साफ और चिकनी हों तो उन पर सिर्फ गाड़ियों के पहिए नहीं – बल्कि विकास का पहिया भी तेज दौड़ता है। लेकिन शायद बलिया के लिए ये सच नहीं है। बलिया की शायद ही कोई सड़क है – जिसकी हालत इन दिनों ठीक नहीं है। बलिया – बैरिया मार्ग हो या फिर बलिया – गोरखपुर सड़क मार्ग या फिर बारहमासी सड़कें – सबकी हालत खस्ता है। मजे की बात ये है कि ये सारी सड़कें महज छह महीने पहले ही बनीं थीं। कितनी मजबूती से बनाई गईं थीं – इसका अंदाजा इनकी हालत देखकर लगाया जा सकता है।
अभी अक्टूबर महीने में मैंने नागपुर से यवतमाल का दौरा किया था। यह विदर्भ का वह इलाका है – जहां सन दो हजार से अब तक करीब 15 हजार किसानों ने आत्महत्या कर ली है। माना ये जा रहा है कि वहां बदहाली और कर्ज के बोझ ने उन किसानों को मौत के मुंह में जाने के लिए मजबूर किया। जाहिर है – जहां बदहाली होगी, वहां सड़क-बिजली और पानी भी बदहाल होगा। लेकिन मेरा अनुभव कुछ और ही रहा। नागपुर से यवतमाल की करीब एक सौ पैंतीस किलोमीटर की दूरी हमने महज ढाई घंटे में कार से पूरी कर ली थी। इसके ठीक दो महीने बाद मैं बलिया पहुंचा तो वहां का हाल सुनिए। बिहार के बक्सर से बलिया की दूरी करीब पैंतालिस किलोमीटर है। वहां तक की दूरी हमने महज एक घंटे में पूरी कर ली। वजह अच्छी सड़क रही। यही वह बलिया की अकेली सड़क है – जो कुछ ठीक है। अब आगे की यात्रा का हाल सुनिए। बलिया से सहतवार की दूरी है अठारह किलोमीटर। लेकिन कार से इतनी दूरी तय करने में हमें लगे एक घंटे। मजे की बात ये है कि अधिकारी और इलाके के कथित प्रबुद्ध लोग मानते हैं कि विकास का पहिया तेज दौड़ रहा है। उससे भी ज्यादा दिलचस्प बात ये है कि सहतवार के ही रहने वाले हैं इलाके के विधायक शिवशंकर चौहान। लेकिन उन्हें शायद इस सड़क से कुछ लेना देना नहीं है।
2004 के लोकसभा चुनावों में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर यहां से उम्मीदवार थे। लिहाजा देशी-विदेशी मीडिया के दिग्गजों ने यहां का दौरा किया था और यहां की खस्ताहाल सड़कों को देखकर बेहद निराश हुए थे। इसे लेकर दिल्ली लौटकर उन्होंने मुझसे तंज मारा था। चंद्रशेखर के एक पूर्व सहयोगी और मौजूदा विधायक से जब मैंने इसकी चर्चा की तो उन्होंने चुप्पी साध ली। कुछ देर बाद वे खुले तो उन्होंने चंद्रशेखर के बारे में बताना शुरू किया - वह मेरे लिए हैरतनाक था। विधायक जी ने कहा कि चंद्रशेखर जी साफ पूछते थे कि विकास के जरिए भी राजनीति होती है भला। विधायक जी की इस बात से युवा तुर्क के जमाने के चंद्रशेखर के सहयोगी रहे मोहन धारिया भी सहमत हैं। अब चंद्रशेखर नहीं हैं। लेकिन बलिया के मौजूदा नेताओं को बलिया के विकास के लिए उनसे अलग और साफ नजरिया नहीं दिखता।
रही बात अधिकारियों की तो उन्हें विकास से क्या लेना-देना। बस नेताओं के सहयोग से उनकी भी झोली भरती रहे और लखनऊ के गोमतीनगर में उनकी चमचमाती कोठी खड़ी रहे – यही क्या कम है। हिचकोले खा-खाकर बलिया की जनता मरती है तो मरती रहे।