Tuesday, September 15, 2009
लालकालीन पर बूढ़ा शेर
उमेश चतुर्वेदी
लाल कालीन पर सांसद के तौर पर चहलकदमी जार्ज फर्नांडीस को हमेशा उसूलों के खिलाफ लगती रही है। लेकिन हालात का तकाजा देखिए कि अभी दो-तीन महीने पहले तक इसी उसूल के चलते राज्यसभा में जाने का विरोध करते रहे जार्ज को लाल कालीन पर खड़े होकर शपथ लेनी पड़ी। यहां जानकारी के लिए ये बता देना जरूरी है कि लोकसभा में ना सिर्फ हरे रंग की कालीन बिछी हुई है, बल्कि उसकी सीटें भी हरे रंग की ही हैं। जबकि राज्यसभा में लाल रंग का बोलबाला है। बहरहाल समाजवाद के इस बूढ़े शेर को जनता की ही राजनीति सुहाती रही है। राज्यसभा उनके लिए राजनीति का पिछला दरवाजा ही रहा है। उनके इस समझौते को लेकर उनके पुराने साथी चाहे जितने सवाल उठाएं, लेकिन एक चीज साफ है कि उनके राज्यसभा में जाने के साथ ही बिहार की राजनीति में एक नया अध्याय बनते-बनते रह गया है।
नीतीश कुमार की ओर से अपने गुरू को मिली इस गुरू दक्षिणा ने जार्ज के कई पुराने साथियों को भौंचक कर दिया है। आखिर जार्ज ने ये कदम क्यों उठाया, इसका जवाब उन्हें नहीं सूझ रहा है। आपसी बातचीत में जार्ज के ये पुराने दोस्त उनके इस कदम के लिए आसपास के लोगों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उनके इस तर्क के लिए सबूत मुहैया करा रही है जार्ज की खराब सेहत। जिस जार्ज के संसद में घुसते ही खबर बन जाती थी, समाजवाद का वही बूढ़ा शेर कायदे से शपथ भी नहीं ले पाया। यही वजह है कि जार्ज के पुराने दोस्तों को ये कहने का मौका मिल गया है कि जार्ज साहब की सोचने-समझने की शक्ति भी चूक गई है और उनके आसपास के लोगों ने उन्हें ये कदम उठाने के लिए मजबूर किया है।
ये सच है कि साठ के दशक में जार्ज फर्नांडिस युवाओं के हीरो थे। मजदूर आंदोलन से लेकर बड़ौदा डायनामाइट कांड तक जार्ज के संघर्ष को देखकर समाजवादी युवाओं की एक पूरी पीढ़ी राजनीति में उतरी थी। व्यवस्था विरोधी जार्ज की यह छवि ही थी, उन्होंने 1967 में कांग्रेस के दिग्गज एस के पाटिल को मुंबई में भारी मतों से हराकर सनसनी फैला दी। कांग्रेसियों ने सोचा भी नहीं था कि जिस मुंबई की जनता एस के पाटिल को अपने सर आंखों पर बैठाती रही है, उसकी आंखों का नूर जार्ज बन जाएंगे। संसद की हरी कालीन पर कदम रखने के बाद जार्ज ने जो इतिहास रचा, इंदिरा गांधी की सर्वशक्तिमान सत्ता से संसद और संसद के बाहर जो लोहा लिया, वह इतिहास बन चुका है। अगर जयप्रकाश नारायण 1942 की जनक्रांति के हीरो थे तो जार्ज इमर्जेंसी के हीरो बने। जार्ज की वही छवि एक पूरी की पूरी पीढ़ी के दिलों में बसी हुई है, यही वजह है कि उसे उसूलों से समझौता करता जार्ज पसंद नहीं आता। जब पिछले लोकसभा चुनाव में जार्ज को नीतीश कुमार ने टिकट देने से मना कर दिया तो उनके चाहने वालों की एक पूरी की पूरी जमात ही नीतीश के खिलाफ जार्ज को मैदान में उतारने के लिए कूद पड़ी। मुजफ्फरपुर के चुनाव में जार्ज भले ही हार गए, लेकिन अपने चहेतों के हीरो बने रहे। नीतीश तब भी उन्हें खराब सेहत का हवाला देते हुए राज्यसभा में भेजने की बात कर रहे थे। लेकिन उसूल वाले बूढ़े समाजवादी शेर को यह गवारा नहीं हुआ। ऐसे में वही शेर जब सिर्फ तीन महीने पुरानी बात से ही पलट जाए तो चाहने वालों को निराशा तो होगी ही।
जार्ज को राज्यसभा में भेजकर नीतीश कुमार की छवि एक ऐसे शिष्य के तौर पर उभरी है, जिसके लिए मौजूदा उठापटक की राजनीति में भी भलमनसाहत के लिए जगह बची हुई है। निश्चित तौर पर नीतीश कुमार इसमें सफल रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में जार्ज साहब का पत्ता काटने के बाद उनकी आलोचना भी हुई थी। क्योंकि ये जार्ज ही थे, जिनकी अगुआई में पहली बार 1993 में लालू यादव से विद्रोह के बाद बिहार में अलग से समता पार्टी का गठन किया। तब लालू अपने पूरे शवाब पर थे। मीडिया का एक वर्ग जार्ज के कदम की आलोचना भी कर रहा था। तब जार्ज के साथ नीतीश कुमार ही थे। समता पार्टी को लालू विद्रोह का चुनावी मैदान में कोई फायदा भी नहीं हुआ। इसके बाद जार्ज ने रणनीति बदली और बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद भारतीय राजनीति में अलग-थलग पड़ी भारतीय जनता पार्टी का हाथ थामकर नई शुरूआत की। जार्ज के इस कदम की तब भी आलोचना हुई थी। लेकिन बीजेपी को मिले उनके साथ ने नया इतिहास रचा। समता पार्टी के साथ के बाद ही भाजपा से दूसरे दलों के मिलने का रास्ता खुला, जिसकी परिणति एनडीए के सरकार के रूप में आई। नीतीश तब से जार्ज के साथ हैं। यही वजह है कि पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जार्ज को टिकट ना देने के लिए नीतीश एक वर्ग के कोपभाजन बने।
जार्ज भले ही पिछला लोकसभा चुनाव हार गए, भले ही खराब सेहत के चलते वे खड़े होने और बोलने में असमर्थ हो गए हों, लेकिन उनके जरिए व्यवस्था की मुखालफत की राजनीति करने वाले एक वर्ग की आस जिंदा रही। जार्ज को टिकट से इनकार उन्हें नीतीश विरोध का हथियार मुहैया कराता रहा है। पिछले महीने रामजीवन सिंह की अगुआई में जार्ज के पुराने साथियों ने दिल्ली में एक बैठक करके नीतीश विरोध की नई रणनीति बनाई थी। इसमें जार्ज की चुनावी राजनीति की कमान संभालते रहे कई पुराने समाजवादियों की शिरकत के बाद नीतीश विरोधियों को लग रहा था कि उनका विरोध जार्ज के बहाने परवान चढ़ जाएगा। यहां ध्यान देने की बात ये है कि टिकट से इनकार के बाद दिग्विजय सिंह भी नीतीश के विरोध में खड़े हैं। विद्रोह के बावजूद दिग्विजय सिंह की जीत के बाद से ही नीतीश विरोधी खेमे के नेता उनसे उम्मीद लगाए हुए हैं। वैसे भी जार्ज से दिग्विजय सिंह की नजदीकी कोई छुपी हुई बात नहीं है। इसके बावजूद दिग्विजय सिंह जार्ज के पुराने साथियों की इस बैठक में शामिल नहीं थे। नीतीश को पता है कि उनके सुशासन की चाहे जितनी अच्छी-अच्छी चर्चा हो, ये सच है कि उनके भी विरोधी कम नहीं हैं। और उनके विरोधी मौके की ताक में हैं। लेकिन नीतीश कुमार ने जार्ज को राज्यसभा में भेजकर अपने इन विरोधियों के दांव को पूरी तरह से पलट दिया है। यही वजह है कि जार्ज का राज्यसभा में जाना उनके साथियों को भले ही नहीं पच रहा है, लेकिन नीतीश के इस दांव के आगे वे चुप बैठने के लिए मजबूर हो गए हैं। शपथग्रहण के दिन के अखबारों में छपे फोटो जिन्होंने देखे हैं, उन्हें पता है कि जार्ज के साथ एक अरसे बाद उनकी पत्नी लैला कबीर दिखी हैं। उनके साथ छाया की तरह रहने वाली जया जेटली इस परिदृश्य से गायब हैं। जनता परिवार को करीब से जानने वाले जानते हैं कि जया का समता पार्टी में अलग ही वजूद था। मुजफ्फरपुर के चुनाव में भी वे जार्ज के साथ थीं। लेकिन वे इस बार गायब हैं। समझने वाले समझ सकते हैं कि जार्ज के साथी उनके बदलते आभामंडल को भी लेकर परेशान हैं।
सियासी अंत:पुर के तमाम खेल के बावजूद जार्ज की संसद में उपस्थिति के अपने खास मायने हैं। लेकिन अफसोस की बात ये है कि समाजवाद का ये बूढ़ा शेर संसद में फिलहाल निर्णायक उपस्थिति जताता नहीं दिख रहा।
Monday, September 7, 2009
नीतीश विरोध में कितना कामयाब हो पाएगा लोकमोर्चा
उमेश चतुर्वेदी
अंग्रेजों की वादाखिलाफी से परेशान होकर गांधीजी ने मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान से भारत छोड़ो का नारा दिया था। इस ऐतिहासिक ऐलान के ठीक 67 साल बाद समाजवादी नेताओं ने एक बार फिर नई लड़ाई के ऐलान के लिए मुंबई की को ही चुना। निश्चित तौर पर समाजवादी नेताओं के इस निशाने पर इस बार उनके अपने ही साथी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। कहावत है कि समाजवादी छह महीने साथ नहीं बैठ सकते तो दो साल दूर भी नहीं रह सकते। समाजवादी आंदोलन का यह पसोपेश मुंबई की इस पूरी बैठक के दौरान दिखता रहा। जहां दूसरी पंक्ति के नेता बाकायदा नाम लेकर नीतीश कुमार पर निशाना साधते रहे, लेकिन जिन दिग्विजय सिंह को इसकी निर्णायक लड़ाई की कमान सौंपी गई, उनके समेत किसी भी बड़े नेता ने ना तो नीतीश का नाम लिया, ना ही उन पर सीधा हमला किया।
मुंबई की धरती पर एक बार फिर समाजवादियों के पसंदीदा शब्द लोक को लेकर लोकमोर्चा बना, जिसकी अगुआई दिग्विजय सिंह को सौंपी गई है। चूंकि इसे अभी विधिवत राजनीतिक पार्टी नहीं बनाया गया है, यही वजह है कि इस मोर्चे के राष्ट्रीय संयोजक की जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह को सौंपी गई है। इस लोकमोर्चा को उन सभी समाजवादी नेताओं का साथ मिला है, जो ना तो नीतीश कुमार के साथ हैं, ना ही लालू और मुलायम सिंह के साथ। मुंबई में इस मोर्चे के ऐलान के बाद जिस तरह बिहार से आए गैर नीतीश और गैर लालू समाजवादी नेताओं ने हुंकार भरी, उससे साफ है कि आने वाले दिनों में ये मोर्चा एक राजनीतिक दल का गठन जरूर किया जाएगा और इसके संघर्षों के निशाने पर रहेंगे नीतीश कुमार। यानी साफ है कि बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार को अब विधिवत अपने एक और पुराने साथी दिग्विजय सिंह की अगुआई वाले मोर्चे का विरोध झेलना होगा। इस विरोधी खेमे में उनके कभी के साथी रहे रामजीवन सिंह और गजेंद्र हिमांशु के साथ ही इंद्रकुमार के साथ ही पूर्व विधायक शिवनंदन सिंह और मौजूदा निर्दलीय विधायक किशोर कुमार मुन्ना भी शामिल हैं।
बहरहाल नीतीश कुमार के विरोध की पूर्वपीठिका उसी दिन बन गई थी, जिस दिन उन्होंने बांका से चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटे अपने पुराने साथी और पूर्व केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह का टिकट काट दिया। दिग्विजय ने बिना देर लगाए राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और चुनावी मैदान में कूद पड़े। निश्चित तौर पर इसके लिए उन्हें अस्वस्थ ही सही उनके नेता जार्ज फर्नांडिस का समर्थन रहा ही, नीतीश की मौजूदा सोशल इंजीनियरिंग में किनारे किए जा चुके बिहार के तमाम नेताओं का भी साथ मिला। हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष प्रभाष जोशी, अनुराग चतुर्वेदी और क्रांति प्रकाश समेत तमाम शुभचिंतकों की सलाह के बाद चुनावी मैदान में उतरे दिग्विजय ने जीत हासिल की तो उनका वैसे ही स्वागत हुआ, जैसा उस अभिमन्यु का होता – जो चक्रव्यूह तोड़ कर बाहर आता। दिग्विजय इस तथ्य को जानते हैं, शायद यही वजह है कि हर मौके पर वे अभिमन्यु को याद करना नहीं भूलते। मुंबई में भी उन्होंने कहा कि अभिमन्यु तो चक्रव्यूह नहीं तोड़ पाया था, लेकिन उन्होंने जनता के सहयोग से ऐसा कर दिखाया। इस जीत के बाद से ही दिग्विजय सिंह पर बिहार में अलग से नई पार्टी बनाने का दबाव बढ़ने लगा था। उम्मीद तो ये भी थी कि समाजवाद का बूढ़ा शेर यानी जार्ज भी उनका साथ देंगे। लेकिन नीतीश ने दांव लगाकर जार्ज साहब को राज्य सभा में भेज कर उन्हें दिग्विजय से दूर कर दिया है।
लालू यादव और राम विलास पासवान जैसे नीतीश विरोधियों की चुनावी मैदान में दुर्गति ने दिग्विजय समर्थकों ने उन पर नई पार्टी बनाने का दबाव बढ़ा दिया। उनकी इस मुहिम में पुराने समाजवादी रघु ठाकुर और विजय प्रताप भी शामिल हो गए और बीते 12 और 13 अगस्त को मुंबई में समाजवादियों को जुटाने का माध्यम बना एक संवाद, जिसका विषय था - वर्तमान राजनीतिक संकट और लोकतांत्रिक समाजवाद का भविष्य। मुंबई की इस संवाद चर्चा पर बिहार की राजनीति की पैनी निगाह लगी हुई थी। लोगों में उत्सुकता इस बात को लेकर थी कि इस बैठक में जार्ज फर्नांडिस शामिल होते हैं या नहीं। लेकिन ऐसे लोगों की उम्मीदों पर पानी फिर गया। क्योंकि जार्ज शामिल नहीं हुए। वैसे इस संवाद चर्चा के प्रमुख आयोजक अनुराग चतुर्वेदी के मुताबिक जार्ज को बुलाया भी नहीं गया था।
इस संवाद में बड़े वक्ताओं ने जहां देश की मौजूदा हालत पर जहां तीखे सवाल उठाए, वहीं राजनीतिक सत्ता की चारदीवारी और चिंताओं से लगातार दूर होते जा रहे आम लोगों की हालत पर चिंता जाहिर की। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने जब ये कहा कि देश की राजनीति के लिए विद्यावती और कलावती पोस्टर ब्वाय बन गई हैं। लेकिन हकीकत में आज देश की करीब 120 करोड जनता उनकी ही तरह जिंदगी गुजारने के लिए मजबूर है। तो मौजूद लोग सोचने के लिए बाध्य हो गए। प्रभाष जी इतने पर ही नहीं रूके। उन्होंने घराना राजनीति के वर्चस्व को तोड़ने की आवश्यकता जताते हुए कहा कि आज हर पार्टी का सुप्रीमो तानाशाह हो गया है। उन्होंने इस प्रवृत्ति को राजनीतिक संस्कृति के लिए खतरनाक बताते हुए कहा कि इससे देश को निजात दिलाने के लिए मोर्चे को नई भूमिका निभानी होगी।
संवाद चर्चा में समाजवादियों ने अपने साथियों की भी कम लानत-मलामत नहीं की। संवाद में लालू यादव और नीतीश कुमार के तानाशाही रवैये को लेकर जमकर सवाल उठे। लेकिन रघु ठाकुर ने इसके लिए अपने पुराने साथियों को ही जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि जब समाजवाद का दावा करने वाली पार्टियों में तानाशाहों का जन्म हो रहा था तो हममें से तमाम लोग चुप थे। लेकिन रघु ठाकुर को मौजूदा दौर से उम्मीद कम नहीं हैं। उन्होंने कहा कि मीडिया जिस तरह नकारात्मक चीजों को उछाल रहा है, उसके असर से राजनीतिक दल भी नकारात्मक चीजों की ही ओर ध्यान दे रहे हैं। उनकी बातों से विजय प्रताप भी मुतमईन नजर आए। दलितों की सत्ता में बढ़ती भागीदारी और उनमें बढ़ रहे आत्मसम्मान के भाव का जिक्र करते हुए उन्होंने उम्मीद जताई कि मोर्चा जरूर सकारात्मक भूमिका निभाएगा।
संवाद चर्चा के ही बहाने जिस तरह अपने ही पुराने साथी और जनता दल यू की झारखंड इकाई के पूर्व अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी को दिग्विजय अपने साथ लाने में कामयाब हुए हैं, उससे लोकमोर्चा को लेकर उनके समाजवादी साथियों की उम्मीदें परवान चढ़ रही हैं। नामधारी और दिग्विजय दोनों ही सांसद हैं, लेकिन दोनों में एक अंतर है। दिग्विजय को जनता दल यूनाइटेड ने टिकट नहीं दिया तो पार्टी से विद्रोह करके बांका के चुनावी मैदान में उतरे और जीत हासिल की, वही नामधारी ने पार्टी टिकट को इनकार करके चतरा से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे हैं। लोकमोर्चा में उनकी मौजूदगी से निश्चित तौर से दिग्विजय और उनके समर्थकों को राहत मिली है। दिग्विजय के लोक मोर्चा का ये कारवां यहीं नहीं रूका। महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य कपिल पाटिल ना सिर्फ इस मोर्चे में शामिल हुए, बल्कि मोर्चे के नेताओं का स्वागत भी किया। उन्हें मोर्चा में लाने का श्रेय निश्चित तौर पर अनुराग चतुर्वेदी को जाता है। इस संवाद चर्चा में शामिल तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के महासचिव डी पी त्रिपाठी भी हुए। लेकिन उन्होंने मोर्चे से दूरी बना रखी है। लेकिन उनकी मौजूदगी से साफ है कि बिहार की राजनीति में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी दिग्विजय सिंह के लोकमोर्चा के साथ कंधा मिला सकती है।
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार की इन दिनों जो लोकप्रियता है, उससे साफ है कि लोकमोर्चा को शुरूआती कामयाबी मिलना आसान नहीं होगा। इसे मोर्चा में शामिल बिहार के पूर्व कद्दावर नेता भी स्वीकार करते हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने संवाद चर्चा में शामिल एक नेता से नीतीश की लोकप्रियता के दौर में मोर्चे की सफलता को लेकर जानना चाहा तो उनका जवाब बड़ा मौजूं था। नाम ना छापने के बिना पर उन्होंने कहा कि बिहार में कुर्ता पाजामा वालों यानी नेताओं का काम नहीं हो रहा है, जबकि आम लोगों का काम हो रहा है। ऐसे में नीतीश से निबटना आसान नहीं होगा। इसे रामजीवन सिंह ने यूं नकारा। उनका कहना था कि जब चिलचिलाती गर्मी के बाद हल्की भी बारिश होती है तो वह लोगों को राहत भरी लगती है। रामजीवन सिंह के मुताबिक लालू के पंद्रह साल के कुशासन के बाद आया नीतीश का राज उस हल्की बारिश के ही समान है। लेकिन इससे अच्छी खेती की उम्मीद नहीं की जा सकती। उन्होंने कहा कि इसी तथ्य को आम लोगों को समझाना होगा।
नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक आधार को बढ़ाने के लिए महादलित का जो फार्मूला दिया है, उसे लेकर रामविलास पासवान परेशान हैं। लेकिन उनके पुराने साथी और अब लोकमोर्चा में शामिल हुए नेताओं को परेशानी इस बात की है कि जिस सवर्ण वोटरों के सहारे नीतीश सत्ता में आए हैं, उन्हें लगातार किनारे पर रखा जा रहा है। मोर्चे के नेताओं का तर्क है कि पिछले लोकसभा चुनाव में एक भी ब्राह्मण को टिकट नहीं दिया गया। ठाकुरों और भूमिहार नेताओं को भी नीतीश कोई तवज्जो नहीं दे रहे हैं। लिहाजा अगर जोरदार कोशिश हो तो इन जातियों को गोलबंद करके नीतीश के खिलाफ ताकतवर मोर्चा बनाया जा सकता है।
नीतीश विरोधी ये मोर्चा कितना कामयाब होगा, इसकी परख होनी अभी बाकी है। लेकिन इस मोर्चे को जिस तरह लालू यादव की पार्टी से लेकर जनता दल यू के पुराने नेताओं तक का बिहार में समर्थन मिल रहा है, उससे साफ है कि नीतीश के सामने एक और मोर्चा खुल गया है। इसकी कामयाबी को लेकर मोर्चे में शामिल एक पूर्व मंत्री के बेटे की बातों पर गौर फरमाना ज्यादा मौजूं होगा। उनका कहना था कि 1995 में लालू के खिलाफ जब जार्ज और नीतीश ने मोर्चा संभाला था, तब भी उनका मजाक उड़ाया गया था। किसी ने सोचा भी नहीं था कि लालू की सत्ता को भी चुनौती मिल सकती है। लेकिन लालू हवा हो गए। नीतीश हवा होंगे या नहीं...इसका जवाब तो भविष्य ही बताएगा।
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