उमेश चतुर्वेदी
हम जैसे – जैसे एक उम्र की सीमा को पार करने लगते हैं, अपने पुराने दिन, घर-परिवार की बातें और स्कूल की शरारतें याद आने लगती हैं। भले ही किसी की उम्र ज्यादा क्यों न हो गई हो, उसकी मौत उसके साथ बिताए दिनों की बेसाख्ता याद दिलाने लगती है। अपने मिडिल स्कूल के एक गुरूजी की मौत के बाद मुझे जितनी उनकी याद आई, उसके साथ ही उनकी छड़ी की सोहबत में गुजारे स्कूली दिन भी स्मृतियों में ताजा हो गए। यही वजह रही कि इस बार गांव जाने के बाद मैं अपने मिडिल स्कूल जा पहुंचा। स्कूल की बिल्डिंग वैसी ही खड़ी है, जैसी शायद पिछली सदी के चालीस के दशक में खड़ी थी। लेकिन चालीस के दशक से ही चलती रही एक परंपरा ने यहां भी अपना दम तोड़ दिया है।
दरअसल तब आठवीं का इम्तहान भी बोर्ड के तहत देना होता था। हमारे स्कूल की चूंकि पढ़ाई की दुनिया में बरसों पुरानी साख थी, लिहाजा इस साख को बचाए रखने के लिए हमारे गुरूजी लोग जाड़े का दिन आते ही स्कूल में ही छात्रों के बिस्तर लगवा देते। इसके लिए धान की पुआल दो कमरों में डालकर उस पर दरी बिछा दी जाती। ये इंतजाम स्कूल की तरफ से ही होता था। फिर उस पर अपने घरों से ओढ़ना-बिछौना लाकर आठवीं के छात्र डाल देते। सिरहाने उनकी पूरी किताबें और नोटबुक होती। तब स्कूल में बिजली नहीं थी, लिहाजा सबको अपने लिए लालटेन भी लानी होती थी। दीपावली बाद से लेकर मार्च – अप्रैल में इम्तहान होने तक सभी छात्र को सिर्फ दिन में एक बार घर जाने की अनुमति होती थी। यह मौका शाम की छुट्टियों के बाद ही आता। घर जाकर सभी लोग खाना खाते, कपड़े बदलते और रात के खाने के साथ ही देसी फास्टफूड की पोटली लेकर आते थे। दिन में कक्षाओं में पढ़ाई होती और रात में गुरूजी लोग के निर्देशन में लालटेन की रोशनी में पढ़ाई होती। छात्रों का रिजल्ट खराब न हो, इसके लिए गुरूजी लोग खास ध्यान देते। छात्रों को गुरूकुल की भांति हर दिन चार बजे भोर में जगाया जाता। गुरूजी लोग भी जागते और पढ़ाई कराते। इतनी मेहनत के बाद भी गुरू लोग अपने ही खर्च से स्कूल में खाना बनाते। इसके लिए अलग से कोई फीस नहीं ली जाती थी। हां, परीक्षा पास होने के बाद हर छात्र गुरू दक्षिणा के तौर पर पांच या दस रूपए देता था। अगर मानें तो तीन-चार महीने की पढ़ाई का यही गुरूओं का मेहनताना होता।
स्कूल में पहुंचते ही मुझे अपने जमाने के वे दिन याद आने लगे। मैंने पूछताछ शुरू की तो पता चला कि यह परंपरा टूटे कई साल हो गए। वैसे तो अब खाते-पीते परिवारों के बच्चे यहां पढ़ने ही नहीं आते। उनके लिए अब कस्बे में ही अंग्रेजी नाम वाले कई स्कूल खुल गए हैं। जहां वे मोटी फीस देकर पढ़ते हैं। ये बात और है कि इन स्कूलों के चलाने वाले लोग हमारे स्कूल की लालटेन की रोशनी से ही निकले हुए हैं। कहते हैं, व्यक्ति अपने शुरूआती जीवन में सीखता है, उसे बाद के दिनों में भी अख्तियार किए रखता है। लेकिन तकरीबन इस नि:स्वार्थ परंपरा को हम अपनी जिंदगी में उतार नहीं पाए हैं। बाजार के दबाव ने हमारी शिक्षा व्यवस्था को भी पूरी तरह निगल लिया है। जहां अब गुरू न तो छात्रों को अपने परिवार का अंग समझता है ना ही छात्रों के मन में उसके लिए श्रद्धा ही बची है। ऐसे में शिक्षा भी व्यवसाय बन गई है। जहां लोग अपनी हैसियत के मुताबिक कीमत देकर उसे हासिल कर रहे हैं। जो बड़ी कीमत देकर ऊंची तालीम हासिल नहीं कर पाता है, उसे बाजार में खुद के पिछड़ने का मलाल रह जाता है। लेकिन आज से करीब दो दशक पहले तक स्थिति ऐसी नहीं थी। कस्बे के जमींदार, थानेदार से लेकर चौकीदार तक का बेटा एक साथ पढ़ते थे। सबकी लालटेनें एक साथ जलती थीं और इनकी सम्मिलित रोशनी समाज में मौजूद अंधियारे को मिटाने की कोशिश करती थीं। ऐसा नहीं कि तब सारे गुरू दूध के धुले ही थे। समाज में कभी-भी सबकुछ दूध का धुला ही नहीं होता। लेकिन उसकी फिजाओं में इसकी तासीर कम या ज्यादा जरूर होती है। कहना ना होगा कि तब के दिनों में शिक्षा कम से कम दुकानदारी के तासीर से मुक्त थी, जहां अध्यापक हर छात्र को पढ़ाना और उसे काबिल आदमी बनाना अपना कर्तव्य समझता था। शायद यही वजह है कि लालटेन से जो रोशनी निकलती थी, वह शिक्षा के साथ एक रिश्ते का भी प्रसार करती थी। आज स्कूल भी वही है। अध्यापकों को पहले से कई गुना ज्यादा पगार मिलती है। वहां बिजली भी आ गई है। उसकी रोशनी की चमक भी कहीं ज्यादा है। लेकिन अफसोस रिश्तों की वह डोर बाकी नहीं बची है, जो लालटेन वाले दिनों की खास पहचान हुआ करती थी।
जनसत्ता के कॉलम दुनिया मेरे आगे में प्रकाशित