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उमेश चतुर्वेदी
गरमी के मौसम ने जैसे ही दस्तक देनी शुरू की है, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नजदीकी बिहार के गांवों से आग के तांडव की खबरें आने लगीं हैं। इन इलाकों में प्रकाशित होने वाले अखबारों के जिलों के पृष्ठ रोजाना इस तांडव के चलते बेघर हुए लोगों और मासूमों की मौत की खबरों से भरे पड़े हैं। कोलकाता के स्टीफन कोर्ट में लगी आग और उसमें मारे गए 27 लोगों की खबर ने देशभर के मीडिया की सुर्खियां बटोरी हैं। पश्चिम बंगाल सरकार से लेकर कोलकाता नगर निगम की लानत-मलामत का दौर अब भी देशभर के मीडिया में प्रमुख जगह बनाए हुए है, लेकिन इन इलाकों में रहने वाले लाखों लोगों की जिंदगी की दुश्वारियां सिर्फ जिले के पन्नों में सिमट गई हैं। अकेले बलिया से ही पिछले एक हफ्ते में आग के हादसे की पांच खबरें आईं हैं, जिनमें से कई मासूमों को भी अपनी जिंदगी की कीमत चुकानी पड़ी है।
आगलगी के इन हादसों की असल वजह समझने के लिए हमें इस इलाके के लोगों के जीवन स्तर और उनकी जिंदगी की दुश्वारियों को समझना जरूरी है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ -गाजीपुर-बलिया से पूरब, बिहार के मोतीहारी, आरा और छपरा की और जैसे – जैसे हम आगे बढ़ते हैं, छपरा नाम राशि वाले गांवों की पूरी की पूरी सीरीज ही शुरू हो जाती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने - मेरी जन्मभूमि - शीर्षक निबंध में छपरा नाम राशि वाले इन गांवों के नामकरण की चर्चा की है। उनके मुताबिक इन गांवों में ज्यादातर घर फूस और सरकंडे के छप्पर से बने होते हैं। छप्पर ही इनकी पहचान रहा है, इसीलिए इन गांवों के नाम के साथ छपरा यानी दलनछपरा, दूबे छपरा आदि पड़ गया है। नाम चाहे जितना भी सुंदर हो, गर्मियां आते ही इन गांवों की मुश्किलें बढ़ जाती हैं। बरसात आने तक छप्पर वाले इन गांवों की सुबह और शाम अंदेशे में ही गुजरती है। लेकिन बरसात ही इन्हें कहां मुक्त रहने देती है। बारिश आते ही गंगा और घाघरा का पानी अपने तटबंधों को पार कर उफान मारने लगता है और जैसे ही बस्तियों की ओर रूख करता है, उसका पहला शिकार कमजोर नींव वाले ये घर ही होते हैं।
लेकिन गर्मियां इन इलाकों के छप्पर वाले लोगों के लिए कहर बन कर आती हैं। बासंती नवरात्र के खत्म होते ही गेहूं और चने की फसल पकने लगती है। इसके साथ ही पछुआ हवा के तेज झोंके दिनभर चलने शुरू हो जाते हैं। चूंकि फसलें पकी होती हैं, लिहाजा इन्हीं दिनों कटाई का मौसम जोर पकड़ चुका होता है, लिहाजा छप्पर वाले घरों में सिर्फ बच्चे और बूढ़े ही रह जाते हैं। पुरूष और महिलाएं दिन भर खेतों में काम करने के लिए निकल जाते हैं। इसी दौरान कभी चूल्हे में शांत पड़ी चिन्गारी कभी छिटक कर छप्पर पर चली जाती है तो कई बार बच्चों की असावधानी और बचपने के चलते चिन्गारी छप्पर वाले घरों की छत या दीवार छू लेती है। ऐसी घटनाएं गंगा और घाघरा के किनारे छप्परों के समूहों वाले गांवों में रोजाना होती है। इन्हीं में से कई बार ये चिन्गारियां शोलों का रूप धारण कर लेती हैं। इसे तेजी से फैलाने में दिन में चलने वाली पछुआ हवा के तेज झोंके मदद करते हैं। और देखते ही देखते पूरी बस्ती की गृहस्थियां स्वाहा हो जाती हैं। अच्छे – खासे हंसते-खेलते परिवार सड़क पर आ जाते हैं।
कहना ना होगा कि सालों से चली आ रहा बदकिस्मती का कहर इस साल भी जारी है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मेरी जन्मभूमि निबंध जब लिखा था, तब भारत को आजाद हुए सिर्फ बीस-बाइस साल ही हुए थे। तब तक इन छप्परों में सांस्कृतिक रसगंध महसूस होती थी। तब आगलगी की घटनाओं को बदकिस्मती मान कर किस्मत पर आंसू बहाया जा सकता था। लेकिन आज जमाना बाजार का है। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक का दावा है कि पूरे देश में विकास हुआ है। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गंगा, घाघरा, राप्ती और गंडक के किनारे वाले गांवों में विकास की ज्योति जिस तेजी से पहुंचनी चाहिए थी, अब तक नहीं पहुंच पाई है। पचास के दशक में संसद में गाजीपुर के सांसद विश्वनाथ गहमरी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की गरीबी का जो चित्र पेश किया था, उससे कहा जाता है कि नेहरू की आंखों में भी पानी भर आया था। लेकिन आजादी के बासठ साल बाद भी इस इलाके में विकास की वह धारा नहीं पहुंच पाई है, जिसका वह हकदार रहा है। लिहाजा आज भी यहां लोग छप्परों के घर में रहने को मजबूर हैं। बाढ़ में डूबने और गरमी में आग में जलने के लिए अभिशप्त हैं। साल-दर-साल यह विभीषिका दोहराई जाती है। लेकिन सरकारों के कानों पर जूं नहीं रेंग रही। चाहे उत्तर प्रदेश की सरकार हो या फिर बिहार की, फायरब्रिगेड की गाड़ियों का माकूल इंतजाम आज तक नहीं कर पाई है। इसके चलते लोग वे जानें भी सस्ते में चली जाती हैं, जिन्हें महज फायर ब्रिगेड की एक गाड़ी की सहायता से बचाया जा सकता था। बलिया में पिछले हफ्ते दो मासूमों को सिर्फ इसलिए नहीं बचाया जा सका, क्योंकि जिला मुख्यालय में महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर होने वाले गांव में भी फायर ब्रिगेड का दस्ता घंटों बाद पहुंच पाया।
अव्वल तो होना यह चाहिए कि लोगों को फूस और सरकंडे के छप्पर वाले मकानों से इन इलाकों के लोगों को मुक्ति दिलाई जाती। अगर ऐसा नहीं हो सकता तो कम से कम गरमियों फायर ब्रिगेड का ऐसा इंतजाम तो किया जाता, ताकि लोगों की गाढ़ी मेहनत के साथ मासूम जिंदगियों के बेवक्त ही मौत के मुंह में जाने से रोका जा सके। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि गांधी, लोहिया और जयप्रकाश के साथ ही कांशीराम के नाम पर आम लोगों की भलाई का दावा करने वाले लोगों के कानों तक इन मासूमों की आह पहुंच पाती है या नहीं।