Friday, April 23, 2010
फिर कैसे हो गांवों में इलाज
उमेश चतुर्वेदी
मई की तपती लू और उसके थपेड़े पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में बीमारियों का सैलाब लेकर आते हैं। इस साल गरमी के रिकॉर्ड का भी पारा मौसमी आसमान पर तेजी से कुलांचे भर रहा है। ऐसे में इस इलाके में बुखार-दस्त और उल्टी की शिकायतें आनी शुरू हो गई है। लेकिन इस बार गांवों में ऐसे लोगों का इलाज होना मुश्किल है। कई जिलों के जिलाधिकारियों ने रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिसनरों की प्रैक्टिस पर रोक लगा दी है। बलिया के जिला अधिकारी सैंथिल पांडियन ने तो उस बीएएमएस और एमबीबीएस डॉक्टरों को ग्लूकोज चढ़ाने तक पर रोक लगा दी है, जिन्होंने नर्सिंग होम के तहत अपने दवाखाने का रजिस्ट्रेशन नहीं करा रखा है। इसके चलते गांवों के मरीज बेहाल है। इलाके में इतने सरकारी अस्पताल नहीं हैं कि लोगों को आसानी से उनके ही गांवों के आसपास इलाज मुहैया कराया जा सके।
उत्तर प्रदेश में आरएमपी यानी रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिसनरों के रजिस्ट्रेशन पर 1975 से ही रोक लगी हुई है। हालांकि बिहार और मध्य प्रदेश में अभी भी फार्मासिस्टों को बतौर मेडिकल प्रैक्टिसनर काम करने की छूट है और उनका बाकायदा रजिस्ट्रेशन भी हो रहा है। उत्तर प्रदेश में रोक की वजह है रजिस्ट्रेशन में धांधलियां, जिसके चलते मामूली झोलाछाप लोग भी आरएमपी बनकर डॉक्टर बन बैठे और उल्टे-सीधे इलाज और ऑपरेशनों के जरिए मरीजों की जान से खिलवाड़ करने लगे। हालांकि हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि आरएमपी की सहूलियत आजादी के बाद लोगों को अपनी रिहायश के पास ही प्रशिक्षित ऐसे चिकित्सकों की सुविधा मुहैया कराना था, जो छोटे-मोटे रोगों का इलाज कर सकें। आजादी के बाद गांवों की कौन कहे, शहरों तक में योग्य और प्रशिक्षित डॉक्टरों का टोटा था। वैसे आजादी के तिरसठ साल बीतने के बाद भी पूरे देश के गांव अब भी जरूरत के मुताबिक डॉक्टरों की पहुंच से दूर हैं। जाहिर है कि ऐसे में गांव वालों के इलाज के लिए सबसे भरोसेमंद और नजदीकी स्रोत झोलाछाप के नाम से मशहूर ये आरएमपी ही हैं। लेकिन अब उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों में इन पर रोक लगती जा रही है। लिहाजा गांव वालों का पुरसा हाल जानने वालों की कमी होती जा रही है।
वैसे प्रशासन ने झोलाछाप कहे जाने वाले इन डॉक्टरों की प्रैक्टिस को काबू करने का फैसला इलाज में जिन डॉक्टरों और नर्सिंग होम की कोताही और लापरवाही के चलते लिया है, उन्हें ज्यादातर इन इलाकों में सफेदपोश और पढ़े-लिखे डॉक्टर ही चलाते रहे है। विश्व स्वास्थ्य संगठन खुद मानता है कि बीमारू यानी उत्तर भारत के हिंदी पट्टी वाले इलाके में इन दिनों नर्सिंग होम की बाढ़ आ गई है, जिनका एक मात्र काम है सीजेरियन डिलिवरी। डब्ल्यू एच ओ के मुताबिक इसके चलते उत्तर भारत में बिला वजह ऑपरेशन के जरिए बच्चों की जन्मदर बढ़ गई है। दरअसल कोई अंदरूनी खतरा बताकर ज्यादातर ऑपरेशन के जरिए बच्चे पैदा करा रहे हैं। ऑपरेशन से बच्चा पैदा करने के चलते रोगी को तीन-चार दिनों तक अस्पताल में रखने का मौका मिल जाता है। जबकि सामान्य प्रसव में जच्चा-बच्चा अगली सुबह ही घर जाने लायक हो जाता है। इन ऑपरेशनों के दौरान मौतों का सिलसिला भी बढ़ा है। कहां तक इन पर रोक लगती, इसकी कीमत आरएमपी डॉक्टरों को अपनी रोजी-रोटी के तौर पर चुकानी पड़ रही है। इसके साथ ही सस्ते में सुलभ इलाज पर भी लाले पड़ गए हैं। इसे लेकर इलाके केमिस्ट और ड्रगिस्ट एसोसिएशन भी परेशान हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार से मांग की है कि जिन लोगों का दवा के कारोबार या किसी डॉक्टर के पास कंपाउंडर के तौर पर दस साल का अनुभव है, उन्हें कम से कम गांवों में इलाज करने की सुविधा दी जाए। हालांकि प्रशासन और सरकार ने इस पर अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया है।
जब तक गांवों तक डॉक्टरों की पहुंच सहज-सुलभ नहीं हो जाती, वहां के लोगों के सस्ते-सुलभ इलाज के इन साधनों यानी आरएमपी डॉक्टरों के महत्व को नकारना गलत होगा। साथ ही एक ऐसा मैकेनिज्म बनाया जाना चाहिए, जिससे कोई अनाड़ी हाथ डॉक्टर के भेष में मरीजों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ नहीं कर सके। इसके साथ ही इन इलाकों में तेजी से कुकुरमुत्तों की तरह उग आए नर्सिंग होम पर तीखी नजर रखी जानी चाहिए। यहां यह भी ध्यान रखने की बात ये है कि ये नर्सिंग होम उन भ्रष्ट डॉक्टरों के हैं, जो बरसों तक राजनीतिक व्यवस्था के भ्रष्टाचार के चलते एक ही जगह तैनात रहे और अपनी निजी प्रैक्टिस चमकाते रहे।
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