यह आपबीती है..जैसा कि अपनी आदत है..पहले अखबारों को भेजा..नहीं छपा..कुछ एक पत्रिकाओं को भी दिया..उन्होंने भी नकार दिया..इसलिए अब सार्वजनिक मंच यानी फेसबुक पर डाल रहा हूं..पढ़ें और प्रतिक्रियाएं दें तो बेहतर...उमेश चतुर्वेदी
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राजनीति से लोग एक ही उम्मीद रखते हैं...अगर राजनेता को वोट दिया हो तो यह उम्मीद कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है..अगर वोट देने के बाद खुदा न खास्ता वह नेता लोकसभा या विधानसभा पहुंच गया तो उसे वोट देने वाले उससे कुछ ज्यादा ही अनुराग हो जाता है.इस अनुराग में छिपी होती अहमियत पाने की चाह, वक्त-बेवक्त आने वाली मुसीबतों के वक्त सियासी साथ और वक्त-जरूरत पर समाज में उस राजनेता के साथ के जरिए हासिल रसूख..लेकिन नब्बे के दशक में विकसित भारतीय राजनीति में जिस तरह के राजनेता आगे बढ़े हैं, उनमें से अगर कोई सत्ता ही नहीं, बल्कि लोकसभा और विधानसभा में ही पहुंच गया तो ज्यादा चांस ये ही होता है कि वह अपने वोटरों, रोज के संग-साथ वाले उन लोगों को पहचानना बंद कर दे, जिनके कंधे के सहारे उसने चुनाव लड़ा, चुनाव से पहले टिकट हासिल किया और उससे भी कहीं ज्यादा उस वोटर के दरवाजे पर रात-बिरात खाना खाया, चाय पी या फिर पानी ही पिया...चिकित्सा की भाषा में भूलने की बीमारी को डिमेंशिया कहते हैं..चुनाव जीते हुए राजनेता अक्सर कम से कम उम्मीदें लगाए बैंठीं साथ धूल फांक चुकी जमात के लिए डिमेंशिया का मरीज बन जाता है..
हाल के चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह प्रचार किया, उससे जनता को उम्मीद थी कि इस बार कम से उसका पल्ला सियासी डिमेंशिया के शिकार शख्सियतों से पल्ला नहीं पड़ेगा। अगर फितरत ही बदल जाए तो फिर क्या राजनीति और क्या राजनेता ? इसी बीच आती है पत्रकारिता..दिलचस्प बात यह है कि आमतौर पर पत्रकारों से बेहतर रिश्ते रखने वाली राजनीति का डिमेंशिया पत्रकारिता को लेकर भी अब बढ़ने लगा है। अव्वल तो पत्रकारिता का काम है मौजूदा इतिहास को नंगी आंख से देखना और उसे ज्यों का त्यों जनता के सामने रख देना। लेकिन कारपोरेट के दबाव और उदारवाद के चलन में पत्रकारिता ये जिम्मेदारी भूलती जा रही है..उसे सत्ता तंत्र का गुणगान करना या फिर भावी सत्ताधारी के साथ जोड़-जुगत भिड़ाना और गाहे-बगाहे पत्रकारिता की ताकत के जरिए मदद कर देना अब ज्यादा अच्छा लगता है...वह भी इसलिए कि अगर भविष्य में राजनेता लोकसभा या विधानसभा पहुंचा तो अपने सहस्रबाहुओं के जरिए कहीं न कहीं, किसी न किसी मोर्चे पर कोई मदद जरूर कर देगा। यह बात और है कि अब यह पत्रकारिता भी सियासी डिमेंशिया के मरीजों की मार झेलने को मजबूर है।
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राजनीति से लोग एक ही उम्मीद रखते हैं...अगर राजनेता को वोट दिया हो तो यह उम्मीद कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है..अगर वोट देने के बाद खुदा न खास्ता वह नेता लोकसभा या विधानसभा पहुंच गया तो उसे वोट देने वाले उससे कुछ ज्यादा ही अनुराग हो जाता है.इस अनुराग में छिपी होती अहमियत पाने की चाह, वक्त-बेवक्त आने वाली मुसीबतों के वक्त सियासी साथ और वक्त-जरूरत पर समाज में उस राजनेता के साथ के जरिए हासिल रसूख..लेकिन नब्बे के दशक में विकसित भारतीय राजनीति में जिस तरह के राजनेता आगे बढ़े हैं, उनमें से अगर कोई सत्ता ही नहीं, बल्कि लोकसभा और विधानसभा में ही पहुंच गया तो ज्यादा चांस ये ही होता है कि वह अपने वोटरों, रोज के संग-साथ वाले उन लोगों को पहचानना बंद कर दे, जिनके कंधे के सहारे उसने चुनाव लड़ा, चुनाव से पहले टिकट हासिल किया और उससे भी कहीं ज्यादा उस वोटर के दरवाजे पर रात-बिरात खाना खाया, चाय पी या फिर पानी ही पिया...चिकित्सा की भाषा में भूलने की बीमारी को डिमेंशिया कहते हैं..चुनाव जीते हुए राजनेता अक्सर कम से कम उम्मीदें लगाए बैंठीं साथ धूल फांक चुकी जमात के लिए डिमेंशिया का मरीज बन जाता है..
हाल के चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह प्रचार किया, उससे जनता को उम्मीद थी कि इस बार कम से उसका पल्ला सियासी डिमेंशिया के शिकार शख्सियतों से पल्ला नहीं पड़ेगा। अगर फितरत ही बदल जाए तो फिर क्या राजनीति और क्या राजनेता ? इसी बीच आती है पत्रकारिता..दिलचस्प बात यह है कि आमतौर पर पत्रकारों से बेहतर रिश्ते रखने वाली राजनीति का डिमेंशिया पत्रकारिता को लेकर भी अब बढ़ने लगा है। अव्वल तो पत्रकारिता का काम है मौजूदा इतिहास को नंगी आंख से देखना और उसे ज्यों का त्यों जनता के सामने रख देना। लेकिन कारपोरेट के दबाव और उदारवाद के चलन में पत्रकारिता ये जिम्मेदारी भूलती जा रही है..उसे सत्ता तंत्र का गुणगान करना या फिर भावी सत्ताधारी के साथ जोड़-जुगत भिड़ाना और गाहे-बगाहे पत्रकारिता की ताकत के जरिए मदद कर देना अब ज्यादा अच्छा लगता है...वह भी इसलिए कि अगर भविष्य में राजनेता लोकसभा या विधानसभा पहुंचा तो अपने सहस्रबाहुओं के जरिए कहीं न कहीं, किसी न किसी मोर्चे पर कोई मदद जरूर कर देगा। यह बात और है कि अब यह पत्रकारिता भी सियासी डिमेंशिया के मरीजों की मार झेलने को मजबूर है।