Tuesday, May 29, 2018

कैलाश मानसरोवर तीर्थयात्रियों के लिए अविलंब स्नान कराने की व्यवस्था हो - पंकज गोयल


नई दिल्ली, 28 मई। तिब्बत स्थित कैलाश मानसरोवर, जो कि चीन के अधीन है, यात्रा पर गए हुए भारत और अन्य देशों से लगभग 5000 हिंदू तीर्थ यात्रियों के साथ चीनी सरकार के आदेश पर चीनी सैनिकों के द्वारा किए गए अमानवीय व्यवहार और उनको परिक्रमा के बाद स्नान ना करने देने पर भारत तिब्बत सहयोग मंच के महामंत्री श्रीमान पंकज गोयल जी ने इस कृत्य की कड़े शब्दों में निंदा करते हुए भारत सरकार से मांग किया है कि भारत सरकार तत्काल प्रभाव से चीन सरकार से बात करें और यात्रियों को अभिलंब स्नान करने की व्यवस्था कराएं और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करें। चीनी सामान पर प्रतिबंध लगाएं। नहीं तो भारत तिब्बत सहयोग मंच देशभर में प्रदर्शन करेगा उन्होंने आगे कहा कि आज कैलाश मानसरोवर में चीन सरकार के आदेश के कारण कैलाश मानसरोवर की परिक्रमा के बाद स्नान करने की जो प्रथा है उसको सैनिकों ने मना कर दिया इससे संपूर्ण विश्व के हिंदुओं में बड़ा रोष है। यह हिंदुओं की आस्था पर बहुत बड़ा कुठाराघात है। एक तीर्थयात्री जीवन में एक बार लाखों रुपए खर्च करके बड़ी मुश्किल से कैलाश मानसरोवर की यात्रा कर पाता है और अगर वहां जाकर उसकी आस्था के अनुसार अगर वह स्नान ना कर सके इससे दुख की बात और क्या हो सकती है। सरकार मामले को संज्ञान में लें।

Monday, May 28, 2018

अपनी बानी में दवाई की पढ़ाई


डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल मैं इंदौर में हूं। यहां के अखबारों में छपी एक खबर ऐसी है कि जिस पर पूरे देश का ध्यान जाना चाहिए। केंद्र सरकार का भी और प्रांतीय सरकारों का भी। चिकित्सा के क्षेत्र में यह क्रांतिकारी कदम है। पिछले 50 साल से देश के नेताओं और डाॅक्टरों से मैं आग्रह कर रहा हूं कि मेडिकल की पढ़ाई आप हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में शुरु करें। ताकि उसके कई फायदे देश को एक साथ हों। एक तो पढ़ाई के आसान होने से डाॅक्टरों की संख्या बढ़ेगी। गांव-गांव तक रोगियों का इलाज हो सकेगा। दूसरा, इलाज के नाम पर अंग्रेजी के जादू-टोने से जो ठगी होती है, वह रुकेगी। तीसरा, दवाइयों के दामों में जो लूट-पाट मचती है, वह रुकेगी। हिंदी में नुस्खे लिखे जाएंगे तो वे मरीज के भी पल्ले पड़ेंगे। चौथा, स्वभाषा में पढ़ाई होने पर छात्रों की मौलिकता में वृद्धि होती है। यदि वे अनुसंधान अपनी भाषा में करेंगे तो भारत में पैदा होनेवाले रोगों का मौलिक इलाज़ ढूंढ सकेंगे। विदेशों पर होनेवाली उनकी पूर्ण निर्भरता घटेगी। इन सब बुनियादी कामों की शुरुआत अब मध्यप्रदेश में हो रही है। यहां की मेडिकल युनिवर्सिटी के बोर्ड आॅफ स्टडीज ने फैसला कर लिया है कि सभी चिकित्सा परीक्षाएं अब हिंदी में भी होंगी। मेरी बधाई ! ऐसी अनुमति देनेवाली दिल्ली की मेडिकल कौंसिल को भी धन्यवाद ! और सबसे ज्यादा आभार, धन्यवाद और बधाई भारत के स्वास्थ्य मंत्री जगतप्रकाश नड्ढा को, जिनसे इस मामले में बराबर मेरी बात होती रही और जिन्होंने लगभग दो माह पहले ही मुझसे कहा था कि अब मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में ही नहीं, कई भारतीय भाषाओं में शुरु होने ही वाली है। यह मप्र में सबसे पहले शुरु हुई है, इसलिए मुख्यमंत्री शिवराज चौहान भी बधाई के पात्र हैं। मप्र के डाॅक्टर बंधुओं से मेरा निवेदन है कि वे मेडिकल की हिंदी पाठ्य-पुस्तकें जल्दी से जल्दी तैयार करें ताकि मप्र चिकित्सा-क्रांति का अग्रदूत बन सके।

Saturday, May 26, 2018

सेवा कार्य में प्रसिद्धि की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए : दत्तात्रेय होसबाले


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सेवा विभाग की वेबसाइट www.sewagatha.org का लोकार्पण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने दिल्ली के मावलंकर सभागार में 26 मई को किया । इस अवसर पर सेवा गाथा एप्प का भी लोकार्पण किया गया। दत्तात्रेय होसबाले ने इस मौके पर कहा कि दैवीय, प्रकृति आपदाओं के समय सबसे पहले आरएसएस के स्वयंसेवक पहुँचते ही है। अब यह समाज में सहज रूप से माना जाने लगा है। स्वयंसेवकों द्वारा समाज के संकट काल में संघ लोगों की संवेदनाएं जगाने का कार्य करता है। स्वामी विवेकानंद का सन्दर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि भूखे व्यक्तियों को प्रवचन देने से पहले उनको रोटी दो, यही उनका उद्धार है। उत्तराखंड बाढ़ के समय सेवा भारती के राहत कार्य की प्रशंसा करते हुए श्री होसबाले ने कहा कि इसी तरह जैसे लातूर आदि अनेक स्थानों में त्वरित राहत कार्य और पुनर्वास कार्य संघ के स्वयंसेवकों करवाए। आज भी लातूर में भूकंप के 25 साल बाद भी छात्रावास और चिकित्सालय चल रहे हैं। संघ के स्वयंसेवकों को सेवा कार्य के लिए दिया गया 100 रुपये 101 रुपये बनकर जरूरतमंदों तक पहुँचता है। लगातार सेवा करने का कार्य सेवा भारती समाज के सम्पर्क और सहयोग से स्वयंसेवकों के माध्यम से कर रही है। समाज का स्वयंसेवकों पर विशवास बढ़ा है। सेवा भाव मनुष्य मात्र में स्वाभाविक रूप से है ही, बस उसे जागृत करने की आवश्यकता है जिसे संघ का सेवा बिभाग कर रहा है। संघ ने अपने व्यवहार, आचरण से समाज का विश्वास अर्जित किया है। उन्होंने बताया कि सेवा कार्य में प्रसिद्धि की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, उससे सेवा का महत्व नष्ट हो जाता है, किन्तु लोगों में सेवा की प्रेरणा जगाने लिए संवाद करना चाहिए। इसलिए सेवा के अपने कार्य में गुणात्मक वृद्धि के लिए वेबसाइट शुरू की गयी है। कार्यकर्ता आपस में अनुभवों का आदान प्रदान करें। संघ की 52 हजार शाखाएँ हैं। श्री होसबाले ने कहा कि शाखा द्वारा छोटे-छोटे सेवा कार्य करें, उससे और लोग इन सेवा कार्यों से जुड़ें। इसके लिए संस्थाओं, चंदे-रसीद की आवश्यकता नहीं है। समाज के विभिन्न वर्गों की सेवा के लिए संस्थागत कार्य की आवश्यकता होती है, इस तरह के कार्य सेवा भारती कार्य कर रही है। मेरा समय, धन, ज्ञान, अनुभव ईश्वर की संपती है इसको वंचितों को समर्पित करना ईश्वर को ही अर्पण करना है, ईश्वर की ही सेवा है। जैसे तुलसी की माला ह्रदय को शांति देती है वैसे सेवा कार्यों की माला ह्रदय को शांति प्रदान करती है। इस मौके पर केंद्रीय जल संसाधन राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने केंद्र सरकार के 4 साल सफलतापूर्वक पूर्ण होने पर सभी को बधाई देते हुए कहा कि आरएसएस सेवा विभाग की बीकानेर इकाई ने थार रेगिस्तान में बेघर लोगों को इकठ्ठा करके उनके करीब 60 बच्चों के लिए होस्टल बनाया, सेवा भारती ने वहां समाज से सहयोग लेकर, आवासीय विद्यालय के रूप में उनको शिक्षित करने का बीड़ा उठाया है। लगातार संस्कार देकर होस्टल में पढ़ाना सेवा का एक बहुत अच्छा उदाहरण है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिल्ली प्रान्त संघचालक कुलभूषण आहूजा ने कार्यक्रम में आए गणमान्य अतिथियों का स्वागत किया। इस अवसर पर उत्तर क्षेत्र के सह क्षेत्र कार्यवाह विजय जी, सेवा भारती के ऋषिपाल डडवाल, दिल्ली प्रान्त प्रचारक हरीश जी, दिल्ली प्रान्त कार्यवाह भारत जी और प्रान्त सेवा प्रमुख उपस्थित थे।

नर्मदा को सिर्फ पूजें नहीं, उसे बचाएं: वेगड़


माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता वि.वि. ने वयोवृद्ध लेखक श्री अमृतलाल वेगड़ को डी. लिट. की उपाधि से सम्मानित किया जबलपुर, 26 मई। ख्यातिलब्ध लेखक और पर्यावरणविद् अमृतलाल वेगड़ ने कहा कि नदियों को सिर्फ पूजने के बजाए उनको बचाने की जरूरत है। हम नर्मदा को मां कहते हैं किंतु हमने उसका क्या हाल बना रखा है, यह किसी से छिपा नहीं है। हमारी कथनी और करनी में अंतर ही वह एकमेव कारण है, जिसके कारण हम एक हजार साल तक गुलाम रहे। यह प्रवृत्ति आज भी कम नहीं हुई है। श्री वेगड़ ने ये विचार माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की ओर से डी. लिट. (विद्या वाचस्पति) की मानद उपाधि से सम्मानित किये जाने के अवसर पर व्यक्त किये। विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उपराष्ट्रपति एवं विश्वविद्यालय के कुलाध्यक्ष वेंकैया नायडू ने श्री वेगड़ को डी. लिट. की मानद उपाधि दिए जाने की घोषणा की थी। स्वास्थ्य कारणों से श्री वेगड़ विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में नहीं आ सके थे। विश्वविद्यालय प्रशासन ने निर्णय लिया था कि श्री वेगड़ के निवास पर जाकर कुलपति जगदीश उपासने उन्हें यह अलंकरण प्रदान करेंगे। जबलपुर में अपने आवास आयोजित समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि हमने हर विषय पर ऊंची-ऊंची बातें तो कीं पर कर्म का खाता खाली है। इसलिए हमें नर्मदा सहित अपनी सभी नदियों की पूजा करने, दीप जलाने के साथ उनकी स्वच्छता और निर्मल प्रवाह को बनाए रखने के लिए खास प्रयास करने होंगे। इस मौके पर विश्वविद्यालय के कुलपति जगदीश उपासने ने कहा कि श्री वेगड़ हमारी ऋषि परंपरा के उत्तराधिकारी हैं। उन्होंने अपना समूचा जीवन लोकसंचार के लिए समर्पित कर दिया। वे सच्चे संचारकर्ता हैं, क्योंकि कोई भी संचार समाज के लिए होता है और वही संचार सार्थक है, जिसमें लोकमंगल की भावना निहित हो। उनका पूरा जीवन ही एक सार्थक संचार है। उन्हें सम्मानित कर विश्वविद्यालय पर्यावरण और नदी संरक्षण से जुड़ी उनकी चिंताओं को अकादमिक प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास भी करेगा। जबलपुर की महापौर स्वाति गोडबाले ने इस अवसर श्री वेगड़ को शुभकामनाएं देते हुए कहा कि वे जबलपुर के गौरवपुरूष और हमारे प्रेरणाश्रोत हैं। उनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन से मां नर्मदा के प्रति सामाजिक समझ बढ़ी है। उन्होंने कहा कि श्री वेगड़ ने नदियों के संरक्षण के विषय को राष्ट्रीय फलक पर स्थापित कर दिया है। नर्मदा रेखांकन का लोकार्पणः
समारोह में श्री वेगड़ की इच्छानुसार उनके नर्मदा के रेखांकन पर केंद्रित प्रकाशन नर्मदा रेखांकन का लोकार्पण कुलपति श्री जगदीश उपासने ने किया। पुस्तक में अद्भुत नदी नर्मदा की परिक्रमा पर आधारित रेखाचित्र हैं। इन रेखांचित्रों में नर्मदा के बहुआयामी सौंदर्य को रेखांकित किया गया है।

Friday, May 25, 2018

जीवन : शब्दों के बीच और शब्दों से परे


गिरीश्वर मिश्र आज सभी संचार माध्यमों द्वारा हमारा पूरा परिवेश शब्दमय हो रहा है। चारो ओर तरह-तरह के शब्द गूँज रहे हैं। चूँकि शब्द महज़ प्रतीक होते हैं इसलिए ध्वनि से अधिक इनकी व्यंजना या अर्थ का महत्व होता है । इन शब्दों को प्रयोग में लाने के लिए सिर्फ़ एक माध्यम की ज़रूरत होती है। माध्यम पर सवार ये शब्द अपने मुक़ाम की ओर आगे चल पड़ते हैं। उन्हें थोड़ा सा सहारा चाहिए फिर वे ग़ज़ब ढाते हैं। वे दूसरों तक संदेश पहुँचाने, निर्देश देने, सहारा पहुँचाने, इंगित करने का काम आसान कर देते हैं। इसके अलावे इनकी बड़ी भूमिका हमारे मनोभावों की व्यापक दुनिया रचने, बसाने और अनुभव करने में सहायक के रूप में हैं। प्रशंसा, उत्साह, विषाद, हर्ष, माधुर्य, आह्लाद, शोक, पीड़ा, साहस, निंदा, लज्जा, आक्रोश, स्तुति, दया, वात्सल्य, भक्ति, घात, प्रतिघात, आसत्ति (उलझन), स्फाल (घबराहट), करुणा, कृतज्ञता, प्रेम, प्रणय, ममत्व, औदार्य, मृदुता, आनंद, आह्लाद, स्पृहा, ईर्ष्या, जुगुप्सा, द्वेष, घृणा, क्रूरता, हिंसा, ग्लानि, अनुनय, हास-परिहास, कुतूहल, विराग, प्रतिपत्ति, विस्मय, कौतुक, परिताप, व्यंग, कुंठा, विनय, प्रार्थना, पूजा, आराधना, पश्चाताप, वियोग, आदि जाने कितने भावों और रसों को व्यक्त करने के लिए अनेकानेक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। मनुष्य जीवन की इबारत हर क्षण इन्हीं सबके साथ से पढ़ी लिखी जाती है। यही सब तो होता रहता है प्रतिदिन। अहर्निश इन्हीं से हम परिचालित होते रहते हैं। जीवन-व्यापार में नफ़ा नुक़सान और कुछ नहीं इन्हीं की कारस्तानी होती है। भावों से ही जीवन में रंग भरे जाते हैं और इन भावों को सजीव करने वाले शब्द ही हैं । शब्द हमें अलौकिक ढंग से समृद्ध करते चलते है। कभी ये शब्द आमने-सामने बोल कर या फिर लिखित रूप में सजीव हुआ करते थे। लिपि के आविष्कार के साथ लोग वाणी को लिखित रूप मिला। वह भौतिक वस्तु के क़रीब आई। लोग अभिव्यक्ति के संचार के लिए पत्र लिखने लगे। वाणी का भी विस्तार हुआ। टेलीफ़ोन, मोबाइल, स्काइप, फ़ेस टाइम के ज़रिए वाणी और वक्ता की निकटता देश कल की सीमाओं को पार करती जा रही है। अब ई-माध्यम (इंटरनेट) इनको और द्रुत गति से लिखित सामग्री को तुरत-फुरत देश-विदेश सर्वत्र पहुँचाते रहने का कार्य करते हैं। शब्दों की सत्ता और व्याप्ति के नित्य नए आयाम खुलते जा रहे हैं। पर शब्द केवल अभिव्यक्ति या प्रस्तुति तक ही सीमित नहीं रहते। हमारे द्वारा प्रयुक्त शब्द लेंस की तरह भी काम करते हैं और उनके माध्यम से हम दुनिया का दूसरा रूप भी देख पाते हैं। तभी भर्तृहरि ने कहा शब्द से ही दुनिया हमें विदित हो पाती है ( सर्वं शब्देन भासते!) यों भी कहा जा सकता है कि जब हम अपने पार जाकर अपना अतिक्रमण करना चाहते हैं या फिर जो हैं उससे आगे जा कर कुछ और होना चाहते हैं, तो उसे भी संभव करने में ये शब्द बड़े मददगार होते हैं। शब्द हमारी कल्पना शक्ति को ऊर्जा देते हैं और रूपांतरण को संभव बनाते हैं। पूरा सर्जनात्मक साहित्य शब्दों की इस विलक्षण रचनाधर्मिता का प्रमाण है। काव्य, नाटक, कथा और उपन्यास जैसी विधाओं में रचे साहित्य से समाज का न केवल मानस बनता बिगड़ता है बल्कि कार्य करने की दिशा भी तय होती है। वस्तु न हो कर प्रतीक होने के कारण शब्दों के प्रयोग को लेकर बड़ी गुंजाइश रहती है। प्रतिभाशाली लेखक और कवि छंद, लय और अलंकारों की सहायता से अपनी प्रस्तुति में विचित्रता लाते हैं। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास, यमक जैसे अलंकार ध्वनि और शब्दार्थ की अद्भुत जोड़ी बैठाते हैं। इनके प्रयोग से वाक्चातुर्य कुछ ऐसा समाँ बाँधता है कि सुनने वाले चकित हो उठते हैं। प्रकट रूप से कहते हुए भी कुछ न कहना और न कहते हुए भी बहुत कुछ कह डालना और कहते हुए भी छुपा ले जाने की क्षमता परम्परागत कवि-कुशलता या निपुणता में परिगणित होती है। इस तरह जोड़ने और जुड़ने का अवसर पैदा करते ये शब्द हमारे निजी और सामाजिक जीवन का मानचित्र तैयार करते हुए हमारे अस्तित्व के साथ अभिन्न रूप से सम्बद्ध होते हैं। जब शब्द कार्यों से जुड़ते हैं तो हमारी दुनिया की कायापलट करते हैं। ये शब्द हमारे मानस के स्तर पर पहले और भौतिक स्तर पर पर उसके बाद बदलाव लाते हैं क्योंकि उनका ग्रहण हम मानस से ही करते हैं। ऐसे में यदि शब्दों कि दुनिया अक्षर-विश्व कही जाय (अनादिनिधनं देवं शब्दतत्वं यदक्षरं ) जो कभी समाप्त न हो तो, यह स्वाभाविक ही है। वैसे तो शब्दों का खेल और जादूगरी जीवन में हमेशा ही चलती रहती है पर चुनाव जैसे राजनैतिक-सामाजिक महत्व के मौक़े पर उसके नए रंग-ढंग और तेवर दिखाई पड़ते हैं क्योंकि तब बदलाव लाने की पुरज़ोर कोशिश बड़ी शिद्दत से की जाती है। समय का दबाव शब्दों की दौड़ को गति दे कर तीव्र बना देता है। तब भाषा विरोधी को परास्त करने का उपकरण बन जाती है। उठापटक वाली इस दौड़ में वाक्युद्ध शुरू हो जाता है। हास्य-व्यंग, तर्क-कुतर्क, तथ्य और संभावना सबका दौर चलता है। ढूँढ-ढूँढ कर तथ्य जुटाए जाते हैं और उनका नए-पुराने संदर्भों में चूल गाँठ फ़िट की जाती है। कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोड़ घटा कर दिन-प्रतिदिन चुनावी माहौल की गर्माहट बनाए रखने की कोशिश रहती है। इन सबके बीच शब्द का व्यापार पनपता है जिसमें नेता, अभिनेता, विशेषज्ञ हर कोई शामिल रहता है और उनकी मदद से ‘जेनुइन’ और प्रामाणिक लगने वाला बड़ा चित्र उकेरा जाता है। जन समर्थन हासिल करने के लिए एक दूसरे पर लांछन लगा कर छवि धूमिल करना या संशयग्रस्त सिद्ध करना आम बात हो गई है। शब्दों से सपने बुनने और बेंचने के लिए लोक लुभावन मेनिफ़ेस्टो या घोषणापत्र तैयार किया जाता है। आम जनता इन सबको अपने ढंग से आत्मसात करती है । सच पूछें तो हमारे शब्दों की दुनिया बड़ी ही विचित्र होती है। वे एक ओर मूर्त और प्रत्यक्ष दुनिया से पहचान (नाम) के रूप में जुड़ते हैं तो दूसरी ओर एक समानांतर दुनिया भी रचते जाते हैं और आगे रचने की संभावना भी बनाए रखते हैं । मूलतः वे प्रतीक हैं और इसलिए उनसे हम तरह-तरह के काम लेना संभव हो पता है। संवाद और संचार का सारा दारोमदार इन्हीं पर होता है। चूँकि आत्माभिव्यक्ति जीने की शर्त है हम शब्दों से विलग नहीं हो सकते। यह हमारी अपनी रचना है और ऐसी रचना जो हमें रचती जाती है। शब्द एक नई दुनिया का द्वार खोलते हैं। अपरिचित शब्द जब परिचित होता है तो यकायक प्रच्छ्न प्रकट हो जाता है और निरर्थक सर गर्भित। शब्द हमारे अनुभव की सीमा गढ़ते हैं और उसका विस्तार भी करते हैं। कहते हैं संसार में लगभग सात हज़ार भाषाएँ बोली जाती हैं। हर भाषा का अपना सांस्कृतिक संदर्भ है जिसकी परिधि में हम संवेदनाओं को शब्द दे कर उससे जुड़ते हैं। प्रत्येक भाषा हमें अपने यथार्थ को ग्रहण करने, उकेरने और रचने का अवसर देती है।अतः भाषाओं का संस्कार बचाए रखना ज़रूरी है।

फड़नवीस का अनुकरणीय काम

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डॉ. वेदप्रताप वैदिक आजकल मैं मुंबई में हूं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने आज मुझे ऐसी भेंट दी है, जो आज तक किसी ने नहीं दी है। वे देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने सरकार के सारे अंदरुनी काम-काज से अंग्रेजी के बहिष्कार का आदेश जारी कर दिया है। ऐसा करके उन्होंने महात्मा गांधी, गुरु गोलवलकर और डाॅ. राममनोहर लोहिया का सपना साकार किया है। महाराष्ट्र सरकार के सारे सरकारी अधिकारी अब अपना सारा काम-काज मराठी में करेंगे। यह नियम मंत्रियों पर भी लागू होगा। जाहिर है कि इस नियम का अर्थ यह नहीं है कि मराठी के अलावा किसी भी अन्य भारतीय भाषा में भी काम नहीं होगा। केंद्र से व्यवहार करने में हिंदी का प्रयोग तो संवैधानिक आवश्यकता है। इसी तरह मुंबई-जैसे बहुभाषी, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शहर में किसी एक भाषा से काम नहीं चल सकता। इस शहर में तो कुछ विदेशी भाषाएं भी चलें तो उन्हें हमें बर्दाश्त करना पड़ेगा लेकिन कितने दुख की बात है कि आजादी के 70 साल बाद भी हमारे दूर-दराज के जिलों में भी राज्य सरकारें अपना काम-काज अंग्रेजी में करती हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने भाषा के मामले में देश के सभी मुख्यमंत्रियों को सही और अनुकरणीय रास्ता दिखाया है। मैं देवेंद्रजी से कहूंगा कि आप हिम्मत करें और विधानसभा में भी सारे कानून मूल हिंदी और मराठी में बनवाएं और यही नियम महाराष्ट्र की अदालतों पर लागू करवाएं। महाराष्ट्र की सभी पाठशालाओं, विद्यालयों और महाविद्यालयों में चलनेवाली अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई पर प्रतिबंध लगाएं। जो भी स्वेच्छा से विदेशी भाषाएं पढ़ना चाहें, जरुर पढ़ें। यदि वे ऐसा करवा सकें तो वे भारत को दुनिया की महाशक्ति बनानेवाले महान पुरोधा माने जाएंगे, जो कि मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनने से भी बड़ी बात है।

हिन्दी गजल और दुष्यंत कुमार


डॉ.सौरभ मालवीय
हिन्दी गजल हिन्दी साहित्य की एक नई विधा है. नई विधा इसलिए है, क्योंकि गजल मूलत फारसी की काव्य विधा है. फारसी से यह उर्दू में आई. गजल उर्दू भाषा की आत्मा है. गजल का अर्थ है प्रेमी-प्रेमिका का वार्तालाप. आरंभ में गजल प्रेम की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम थी, किन्तु समय बीतने के साथ-साथ इसमें बदलाव आया और प्रेम के अतिरिक्त अन्य विषय भी इसमें सम्मिलित हो गए. आज हिन्दी गजल ने अपनी पहचान बना ली है. हिन्दी गजल को शिखर तक पहुंचाने में समकालीन कवि दुष्यंत कुमार की भूमिका सराहनीय रही है. वे दुष्यंत कुमार ही हैं, जिन्होंने हिन्दी गजल की रचना कर इसे विशेष पहचान दिलाई. दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितम्बर, 1933 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के गांव राजपुर नवादा में हुआ था. उनका पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था. उन्होंने इलाहबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी. उन्होंने आकाशवाणी भोपाल में सहायक निर्माता के रूप में कार्य शुरू किया था. प्रारंभ में वे परदेशी के नाम से लिखा करते थे, किन्तु बाद में वे अपने ही नाम से लिखने लगे. वे साहित्य की कई विधाओं में लेखन करते थे. उन्होंने कई उपन्यास लिखे, जिनमें सूर्य का स्वागत, आवाजों के घेरे, जलते हुए वन का बसंत, छोटे-छोटे सवाल, आंगन में एक वृक्ष, दुहरी जिंदगी सम्मिलित हैं. उन्होंने एक मसीहा मर गया नामक नाटक भी लिखा. उन्होंने काव्य नाटक एक कंठ विषपायी की भी रचना की. उन्होंने लघुकथाएं भी लिखीं. उनके इस संग्रह का नाम मन के कोण है. उनका गजल संग्रह साये में धूप बहुत लोकप्रिय हुआ. दुष्यंत कुमार की गजलों में उनके समय की परिस्थितियों का वर्णन मिलता है. वे केवल प्रेम की बात नहीं करते, अपितु अपने आसपास के परिवेश को अपनी गजल का विषय बनाते है. वे कहते हैं- ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं ख़ुदा जाने वहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भ्रष्टाचार का उल्लेख किया. वे कहते हैं- इस सड़क पर इस कद्र कीचड़ बिछी है हर किसी का पांव घुटने तक सना है शासन-प्रशासन की व्यवस्था पर भी वे कटाक्ष करते हैं. वे कहते हैं- भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दा वे सामाजिक परिस्थितियों पर भी अपनी लेखनी चलाते हैं. समाज में पनप रही संवेदनहीनता और मानवीय संवेदनाओं के ह्रास पर वे कहते हैं- इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां वे पलायनवादी कवि नहीं हैं. उन्होंने परिस्थितियों के दबाव में पलायन को नहीं चुना. वे हर विपरीत परिस्थिति में धैर्य के साथ आगे बढ़ने की बात करते हैं. उनका मानना था कि अगर साहस के साथ मुकाबला किया जाए, तो कोई शक्ति आगे बढ़ने से नहीं रोक सकती. वे कहते हैं- एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों इस दीये में तेल से भीगी हुई बाती तो है कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबीयत से उछालों यारों वास्तव में दुष्यंत कुमार आम आदमी के कवि हैं. उन्होंने आम लोगों की पीड़ा को अपनी गजलों में स्थान दिया. उनके दुखों को गहराई से अनुभव किया. वे कहते हैं- हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते थे, जिसमें कोई अभाव में न रहे. किन्तु देश में गरीबी है. लोग अभाव में जीवन व्यतीत कर रहे हैं. उन्हें भरपेट खाने को भी नहीं मिलता. इन परिस्थतियों से दुष्यंत कुमार कराह उठते हैं. वे कहते हैं- कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए दुष्यंत कुमार ने बहुत कम समय में वह लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी, जो हर किसी को नहीं मिलती. किन्तु नियति के क्रूर हाथों ने उन्हें छीन लिया. उनका निधन 30 दिसम्बर, 1975 में हुआ. केवल 42 वर्ष की अवस्था में हिन्दी गजल का एक नक्षत्र हमेशा के लिए अस्त हो गया. हिन्दी साहित्य जगत में उनकी कमी को कोई पूरा नहीं कर सकता.

सुबह सवेरे में