1994 में भारतीय जनसंचार संस्थान से डिप्लोमा मिलने के बावजूद हिंदी विभाग के छात्रों से नौकरियां दूर ही रहीं..इक्का-दुक्का लोगों को छोड़ दें तो मेरे जैसे प्रवासी लोग फ्रीलांसिंग कर रहे थे..उन दिनों हम जैसे फ्रीलांसरों को दैनिक हिंदुस्तान के तत्कालीन सहायक संपादक कृष्णकिशोर पांडेय बहुत सहयोग देते थे..
आज पत्रकारिता में एक खास धारा के लोगों के लिए लालू यादव मसीहा हैं..लेकिन ढाई दशक पहले बिहार में जिस तरह शासन चल रहा था, उससे मीडिया के बड़े धड़े की नजर में लालू की छवि सिर्फ हंसोड़ राजनेता की थी..
उस माहौल में कृष्णकिशोर पांडेय पहले सहायक संपादक थे, जिन्होंने अपने संपादकीय में लालू के लिए लालू जी शब्द का इस्तेमाल किया..
उन दिनों उनके दफ्तर में कई राजनेता भी आते थे, अपना लेख देने और छपवाने..
दैनिक हिंदुस्तान की पहली मंजिल पर स्थित उनके काठ के केबिन में ही चरण सिंह सरकार में विदेश मंत्री रहे श्यामनंदन मिश्र, रूसी विद्वान पी ए बारान्निकोव, नंदकिशोऱ त्रिखा, सैफुद्दीन सोज से मुझे मुलाकात का मौका मिला..वही सैफुद्दीन सोज, जो कश्मीर पर दिए अपने बयान को लेकर विवाद खड़ा कर चुके हैं..
तब वे आज की तरह कांग्रेस में नहीं, नेशनल कांफ्रेंस के तीन में से एक सांसद होते थे...उन्हें हुमायूं रोड पर घर मिला था, जिसमें वे रहा करते थे..उन दिनों उनकी हालत खास अच्छी नहीं थी..वह दौर कश्मीर में आतंकवाद के तेजी से पैर पसारने का था..लिहाजा कश्मीर पर लिखने वालों की मांग बढ़ गई थी..
सैफुद्दीन सोज चूंकि कश्मीरी हैं, लिहाजा उन्हें भी लिखने का चस्का लग गया था...लेखन के जरिए वे कुछ पैसे भी कमाना चाहते थे..इसलिए उन्होंने कृष्ण किशोर पांडेय से मुलाकात की थी..तब फ्रीलांसरों में के के पांडेय के तौर पर मशहूर पांडेय जी ने उनके पास जाने और उनसे उनके लेख लाने की जिम्मेदारी मुझे दी थी..
तब इंटरनेट नहीं था..लिहाजा वे अपने सहयोगी से अंग्रेजी में टाइप किया हुआ लेख तैयार रखते और मेेरे पीपी नंबर पर मैसेज दे देते।
मैं इस उत्साह में जाकर उनके लेख ले आता, क्योंकि उसके अनुवाद की भी जिम्मेदारी मेरी होती थी...जिसके एवज में कभी साढ़े तीन सौ तो कभी चार सौ रूपए बतौर मेहनताना मिलता था...जिससे उस फाकामस्ती के दौर में कुछ दिन के गुजारे के लिए सहूलियत हो जाती...
मुझे कभी याद नहीं है कि सोज ने उन दिनों कभी भारत विरोधी बात की हो...उलटे वे भारतीयता की ही बात करते थे..कभी ठीक से बैठने को भी नहीं बोलते थे..लेकिन लेख निकलने में देर होती तो मैं ही निर्लज्जता से उनकी बैठक में बैठ जाता...
उनके दिन बहुरे तब, जब देवेगौड़ा सरकार में वे जलसंसाधन मंत्री बने..बाद में जब नेशनल कांफ्रेंस एनडीए में शामिल हुई तो सोज ने नेशनल कांफ्रेंस छोड़ कांग्रेस का दामन थाम लिया....इसके बाद जब उनसे संसद परिसर में मुलाकात भी हुई तो वे अनचीन्ह होने की कोशिश करते थे...
कश्मीर के नेताओं की दरअसल हकीकत यही रही है, जब तक उनकी हैसियत नहीं रहती, चाहे वह राजनीतिक हो या आर्थिक...तब तक वे भारत का गुण गाते नहीं थकते..उन्हें भारत में ही भविष्य नजर आता है..
लेकिन जैसे ही उनकी हैसियत बदलने लगती है, उनके सुर बदलने लगते हैं..सोज इसके अकेले उदाहरण नहीं हैं..कश्मीर को कूट-कूट कर खाने वाले फारूक़ अब्दुल्ला के बयान भी सोज के बयान से अलहदा नहीं हैं..बस तरीका अलग है..
ऐसे में सवाल जरूर उठता है कि आखिर क्या वजह है कि कश्मीरी नेताओं के ताकत में आते ही बयान बदल जाते हैं...इतने कि वे भारत विरोधी हो जाते हैं..क्या इसके पीछे कुछ और पाने की लालसा होती है...या फिर कहीं से कुछ और मिल जाता है...जरूरी है कि अब इस नजरिए से सोज जैसे नेताओं के बयानों की चीरफाड़ हो..अगर वे दोषी हों, तो उनके भी खिलाफ वैसी ही कार्रवाई हो, जैसे ऐसे बयान देने वाले किसी दूसरे गैर कश्मीरी भारतीय नागरिक के खिलाफ होती रही है...