उमेश चतुर्वेदी
गंगा एक्सप्रेस वे ने उत्तर प्रदेश के सियासी हलके में ही हलचल नहीं मचा रखी है। इस एक्सप्रेस वे ने पर्यावरण और खेती के जानकारों के पेशानी पर भी बल ला दिए हैं। लगातार बढ़ रही राज्य की जनसंख्या के लिए वैसे ही खाद्यान्न की कमी होती जा रही है। पूरे देश में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में लगातार हो रही गिरावट के चलते खेती की उपेक्षा को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। वित्त मंत्री पी चिदंबरम के इस साल के बजट पेश करने के बाद ये सवाल तेजी से उभरा है। माना जा रहा है कि खेती की विकास दर चार फीसदी तक लाए बगैर देश में खाद्यान्न की कमी को पूरा करना आसान नहीं होगा। इस साल के आर्थिक सर्वे के मुताबिक खेती-किसानी की मौजूदा विकास दर महज दो दशमलव चार फीसदी है। ऐसे में आप सोच सकते हैं कि देश के सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश की क्या हालत होगी।
गंगा एक्सप्रेस वे पर काम शुरू हुआ तो पहले ही चरण में राज्य की करीब चालीस हजार एकड़ रकबा खेती से अलग हो जाएगा। आजादी के बाद ये पहला मौका होगा- जब सूबे की एक साथ इतनी ज्यादा जमीन खेती से अलग हो जाएगी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग की गंगा प्रयोगशाला का आकलन है कि अगर एक्सप्रेस वे बन गया तो अगले एक दशक में सूबे की एक लाख हेक्टेयर और जमीन खेती से अलग हो जाएगी। जिसके चलते राज्य में करीब पचास लाख टन अनाज की पैदावार कम होगी। यानी सूबे को खाद्यान्न की कमी के लिए तैयार रहना होगा। वैसे भी पिछले कई सालों से राज्य में अनाज की पैदावार महज चार लाख टन पर स्थिर है। लेकिन जिस गति से सूबे की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है - उसके चलते आने वाले दिनों में ये अनाज नाकाफी होगा। खुद राज्य सरकार का ही मानना है कि दो हजार चौबीस-पच्चीस तक राज्य की जनसंख्या पच्चीस करोड़ का आंकड़ा पार कर जाएगी। और अगर एक्सप्रेस वे बन गया तो एक लाख चालीस हजार एकड़ जमीन खेती से वंचित हो जाएगी। जिसके चलते करीब सिर्फ एक सौ अठारह लाख टन अनाज ही पैदा होगा। यानी जनसंख्या तो बढ़ जाएगी - लेकिन उसके भोजन के लिए अनाज की पैदावार कम हो जाएगी। लेकिन राज्य सरकार के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि इतनी बड़ी जनसंख्या को वह क्या खिलाएगी। क्योंकि राज्य में बंजर जमीनों की तादाद भी वैसी नहीं है कि उनका खेती के लिए विकास करके पैदावार की कमी को पूरा किया जा सके।
इतिहास गवाह है - अपने उपजाऊपन के चलते ही गंगा के बेसिन में सभ्यताएं पलीं और बढ़ीं। चाहे मौर्य वंश का शासन रहा हो या फिर गुप्त वंश का स्वर्णकाल ...अपनी जलोढ़ मिट्टी और उपजाऊपन के चलते सभ्ययताओं का विकास यहां हुआ। लेकिन इस एक्सप्रेस वे ने अब इतिहास की इस धारा पर भी सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। मुजफ्फरनगर से लेकर इलाहाबाद तक गंगा में बाढ़ भले ही नहीं आती हो - लेकिन इस इलाके में होने वाली पैदावार गवाह है कि इलाके की मिट्टी कितनी उपजाऊ है। लेकिन वहीं वाराणसी से जब गंगा में बाढ़ आने लगती है तो लोग भले ही परेशान होते हैं - लेकिन वे राहतबोध से भी भरे रहते हैं। क्योंकि बाढ़ के साथ गंगा नई मिट्टी लाती है। जिसमें गेहूं-चना-मसूर जैसे खाद्यान्न के साथ ही परवल, करेला, तरबूज और खरबूजा भरपूर पैदा होते हैं - वह भी बिना खाद-माटी के।
सुजलाम-सुफलाम की भारतीय संस्कृति का आधार वैसे भी खेती ही रही है। आज के दौर में भले ही औद्योगीकरण का बोलबाला बढ़ रहा है। लेकिन गंगा किनारे का व्यक्ति अब भी अपनी खेती के सांस्कृतिक पहचान से दूर नहीं हो पाया है। शायद यही वजह है कि गंगा प्रयोगशाला के संस्थापक प्रोफेसर यू के चौधरी और उनकी टीम गंगा को लेकर भावुक हो उठे हैं। आमतौर पर वैज्ञानिक अपनी रिपोर्ट के बाद सत्ता और सरकार को सौंप कर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ लेते हैं। लेकिन प्रोफेसर चौधरी सोनिया गांधी , अटल बिहारी वाजपेयी और मायावती समेत तमाम नेताओं से इस एक्सप्रेस वे को रोकने की मांग कर रहे हैं।
गंगा एक्सप्रेस वे से पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचने की आशंका जताई जा रही है। गर्मियों में जब पूरा देश पानी के लिए हाहाकार कर रहा होता है। भूमिगत जल का स्तर नीचे चला जाता है। इस पूरे इलाके में साफ भूमिगत जल मौजूद रहता है। लेकिन गंगा एक्सप्रेस वे के बाद इस पर भी खतरा बढ़ सकता है। एक्सप्रेस वे के दक्षिणी किनारे में कटाव बढ़ेगा - जाहिर है इसके चलते जमीन में दलदल बढ़ने की भी आशंका है। इसके चलते भी खेती की जमीन में कमी आएगी। वैसे जाड़ों के दिनों में यहां देश-विदेश से सारस, टीका औल लालसर जैसे सुंदर पक्षी आते रहे हैं। भीड़भाड़ से वे भी परहेज करेंगे। यानी एक्सप्रेस वे के बाद जीवनदायिनी गंगा अपनी पुरानी भूमिका में नहीं रह जाएगी। यही वजह है कि इलाके के बुजुर्गों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि इन बुजुर्गों की चिंताएं सियासी दांवपेोंचों में उलझ कर रह गई हैं।
लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं।
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