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उमेश चतुर्वेदी
त्रेता युग में भगवान राम भले ही लंका में रावण पर विजय पाने में कामयाब रहे – लेकिन हनुमान जैसे महावीर वाली उनकी उसी सेना को उन्हीं के बेटे लव और कुश ने पछाड़ दिया था। इसे संयोग कहा जाय या फिर कुछ और ...भगवान राम के सहारे बीजेपी को 1998 और 1999 के आम चुनावों में जीत दिला चुके लालकृष्ण आडवाणी को अब कुश के ही वंशज कछवाह राजपूत शेखावत से भारी चुनौती मिल रही है।
महामहिम की श्रेणी में दूसरे पायदान पर रह चुके भैरोसिंह शेखावत ने चुनाव लड़ने का ऐलान क्या किया ...बीजेपी में घमासान ही शुरू हो गया। बीजेपी को किसी भी कीमत पर आगे नहीं बढ़ने देने की कवायद में जुटी कांग्रेस ऐसे में कैसे चुप रह सकती है। लिहाजा भावी सत्ता के लिए अभी से दांवपेंच शुरू हो गया है। राजनीतिक हलकों में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की भैरोसिंह शेखावत से मुलाकात को इन्हीं अर्थों में देखा – परखा जा रहा है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि शेखावत सचमुच प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में शामिल हैं या उनकी सारी रणनीति कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाना की शैली में रची और आगे बढ़ाई जा रही है।
ये सच है कि भारतीय संविधान में संवैधानिक पदों पर बैठे रहे लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक नहीं है। वैसे भी अभी तक राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति रहे किसी व्यक्ति ने लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा है। शायद यही वजह है कि बीजेपी के एक तबके में शेखावत के चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद तीखी प्रतिक्रिया हुई। ऐसा नहीं कि शेखावत ये नहीं जानते – शायद यही वजह रही कि शेखावत के चुनाव लड़ने के ऐलान के साथ ही उनके रणनीतिकार संविधान का हवाला देना नहीं भूले। ये सच है कि संविधान में ऐसी कोई बाध्यता या रोक नहीं है। लेकिन सियासत और संविधान को जो जानते हैं – उन्हें ये पता है कि संविधान सिर्फ लिखित बंधों-उपबंधों के साथ ही नहीं चलता, बल्कि उसका एक बड़ा स्रोत परंपराएं भी होती हैं। शेखावत चूंकि देश के उपराष्ट्रपति जैसे अहम पद पर रहे हैं- शायद यही वजह है कि उनके चुनाव लड़ने का ऐलान ना सिर्फ बीजेपी के एक धड़े – बल्कि जनता के भी एक हिस्से को पसंद नहीं आया। संविधान में तो शून्यकाल का कोई जिक्र ही नहीं है। लेकिन क्या आज कोई लोकसभा अध्यक्ष या फिर राज्य सभा का सभापति इसे जारी रखने से इनकार कर सकता है। शून्यकाल की ये अवधारणा पिछली सदी के साठ के दशक में संसद में आए डॉक्टर राम मनोहर लोहिया, पीलू मोदी, मधु लिमये, लाडली मोहन निगम जैसे प्रखर समाजवादियों की मांग पर शुरू हुई थी। तब से लेकर ये परंपरा ना सिर्फ जारी है – बल्कि आज मीडिया की सुर्खिय़ां भी बनता है। शिखर की सियासत सिर्फ लिखित संविधान से नहीं चलती, बल्कि वह उदात्त और बड़ी परंपराओं से भी आगे बढ़ती है। नैतिकता की राजनीति करते रहे शेखावत और उनके मौजूदा रणनीतिकार इससे शायद ही इनकार करें।
एक अखबार ने दावा किया है कि शेखावत की मौजूदा रणनीति में अहम भूमिका जनता दल यूनाइटेड के सांसद दिग्विजय सिंह, चंद्रशेखर सरकार में राज्यमंत्री रहे राजस्थान के उद्योगपति कमल मोरारका और चंद्रशेखर के सहयोगी रहे एच एन शर्मा की है। चूंकि अभी तक किसी ने इससे इनकार नहीं किया है – लिहाजा अखबार के इस दावे को मानने में किसी को कोई गुरेज नहीं होगा। अगले आम चुनाव में किसी भी गठबंधन या दल को स्पष्ट बहुमत मिलने के आसार दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। शेखावत के रणनीतिकारों को लगता है कि अगर बीजेपी की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बहुमत नहीं मिला तो ढेरों ऐसे दल हैं – जिन्हें उदारवादी छवि वाले शेखावत को समर्थन देने से गुरेज नहीं होगा – जबकि बीजेपी और एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी का साथ देना बेहद कठिन होगा। 2002 के उपराष्ट्रपति चुनावों में शेखावत अपने संपर्कों का कमाल दिखा चुके हैं। जब उन्हें दलीय समर्थन से भी ज्यादा वोट मिला। लेकिन शेखावत के रणनीतिकार ये भूल जाते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव में इन्हीं शेखावत जी को तमाम दावों के बावजूद समाजवादी पार्टी. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और जयललिता के अन्नाद्रमुक ने उन्हें वोट नहीं डाला। आज जबकि शेखावत के चुनाव लड़ने के ऐलान को लेकर विवादों का दौर तेज है – राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने भी उन्हें भविष्य में समर्थन देने का ऐलान करने में देर नहीं लगाई। इससे शेखावत के रणनीतिकार खुश हो सकते हैं। लेकिन उन्हें जनता के इस सवाल का जवाब देना मुश्किल होगा कि यदि शेखावत को लेकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी इतनी ही मुतमईन थी तो उसने राष्ट्रपति चुनाव में उनका साथ क्यों नहीं दिया। शेखावत के अमर सिंह और मुलायम सिंह से भी बेहतर संबंध बताए जाते हैं। कहा तो यहां तक जाता है कि जिस लालू यादव पर उनकी बीजेपी के नेता सरयू राय और सुशील कुमार मोदी चारा घोटाले में हमले किए जा रहे थे, उन्हीं लालू यादव के अजमेर में पढ़ रही दो बच्चियों के स्थानीय अभिभावक शेखावत ही थे। तब वे राजस्थान के मुख्यमंत्री के तौर पर बीजेपी की सरकार चला रहे थे। इन्हीं संबंधों की चाशनी में शेखावत के रणनीतिकारों को भविष्य की सत्ता की चाबी शेखावत के हाथों में आती दिख रही है। लेकिन सिर्फ एक साल पहले का इतिहास इस उम्मीद को सिरे से खारिज कर देता है। राष्ट्रपति चुनावों में समाजवादी पार्टी कांग्रेस की उम्मीदवार प्रतिभा ताई पाटिल को खुलेआम समर्थन देने की हालत में नहीं थी। लिहाजा जयललिता की अगुआई में उसने वोटिंग से बाहर रहने का ही फैसला किया। ये बात और है कि उसके और जयललिता के सांसदों ने प्रतिभा पाटिल को वोट देने में कोई हिचक नहीं दिखाई। दिलचस्प बात ये है कि इन सांसदों पर पार्टी ह्विप के उल्लंघन को लेकर कोई कार्रवाई भी नहीं हुई। रही बात राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की तो उसे भी मराठी महिला के नाम पर पहले प्रतिभा पाटिल ही नजर आईं – शेखावत उसकी लिस्ट में कहीं नहीं थे।
शेखावत के रणनीतिकारों का दावा है कि वे बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक, तेलुगू देशम पार्टी के एन चंद्रबाबू नायडू , पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा और जयललिता के संपर्क में हैं और वक्त पड़ने पर वे शेखावत का साथ देने में पीछे नहीं हिचकेंगे। लेकिन अपने इस दावे का आधार समझाने में अभी तक कामयाब नहीं हो पाए हैं।
शेखावत को बीजेपी में भ्रष्टाचार की इन दिनों सिरे से याद आ रही है। पिछले डेढ़ साल से वे उपराष्ट्रपति नहीं हैं। ये भी सच है कि उन्हें वसुंधरा राजे के भ्रष्टाचार की पहले से ही जानकारी होगी। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर अब जाकर उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान की शुरू करने की जरूरत क्यों महसूस हुई। वे उस बीजेपी के सदस्य भी 2002 से नहीं हैं – जिसकी स्थापना और उसे परवान चढ़ाने में उनकी बड़ी भूमिका रही है। इसके चलते पार्टी का अनुशासन उन्हें इसके विरोध में आड़े भी नहीं आ सकता था। वे वसुंधरा के भ्रष्टाचार के खिलाफ खुलकर बोल सकते थे। वे कोई सामान्य बीजेपी कार्यकर्ता नहीं रहे हैं – जिनकी आवाज बीजेपी के सत्ता गलियारे में ही गुम हो जाती और आलाकमान तक नहीं पहुंचती। अगर वे ऐसा करते तो शायद पार्टी वसुंधरा को हटाने के लिए मजबूर हो जाती। तब शायद उनकी खड़ी की हुई बीजेपी की राजस्थान में सरकार होती। उन्होंने ऐलान किया है कि पार्टी में भ्रष्टाचार के खिलाफ वे जनजागरण करेंगे – ताकि उनकी वह पार्टी साफ और मजबूत हो, जिसे खड़ा करने में उन्होंने भी खून-पसीना बहाया है। लेकिन शेखावत ने ये नहीं किया और विधानसभा चुनाव में वसुंधरा और बीजेपी का बेड़ा गर्क होते देखते रहे।
राजस्थान की राजधानी जयपुर से दिल्ली के सत्ता गलियारों तक एक खबर ये भी आ रही है कि शेखावत अपने दामाद नरपत सिंह राजवी को नेता प्रतिपक्ष बनवाना चाहते थे। लेकिन इसमें वे नाकामयाब रहे। राजस्थान की राजनीति के जानकारों का कहना है कि राजवी के दांवपेंच और सारी कवायद धरे रह गए। आलाकमान ने वसुंधरा को ही नेता प्रतिपक्ष बनवा दिया। इसके बाद सालों से दबा गुस्सा फूट पड़ा और शेखावत मैदान में कूद गए। ये भी सच है कि वसुंधरा से राजस्थान के दूसरे बड़े कद्दावर बीजेपी नेता जसवंत सिंह की भी नहीं बनी। हालांकि खुलेतौर पर उन्होंने इस विवाद पर अभी तक कुछ नहीं बोला है। लेकिन माना ये जा रहा है कि शेखावत के इस अभियान में उनका भी सहयोग है।
पर्दे के पीछे जारी सियासी खेल की पूरी हकीकत अभी तक सामने नहीं आ पाई है और उम्मीद भी नहीं है कि ऐसा हो पाएगा। लेकिन एक चीज तय है कि सर्वोच्च संवैधानिक पद पर रहे शेखावत के इस अभियान से चाहे जिसका फायदा हो – उनकी वह पार्टी फायदे में तो नहीं ही रहेगी, जिसे बनाने- संवारने में उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी लगाई है।