Friday, January 16, 2009
क्यों हारे गुरूजी
उमेश चतुर्वेदी
शिबू सोरेन की हार से देश भले ही हैरत में हो ..लेकिन झारखंड के लोग हैरत में नहीं हैं। हैरत में तो उनके स्टॉफ में शामिल वे लोग भी नहीं हैं ..जो हाल ही में सत्ता के खेल में उनसे जुड़े। हैरत उस कांग्रेस को भी नहीं हुई है ...जिसके सहयोग और दम के सहारे शिबू सोरेन 26 अगस्त 2007 को झारखंड की गद्दी पर बैठे थे। देश हैरत में इसलिए है कि इस नए-नवेले राज्य ने ना सिर्फ अपने मुख्यमंत्री...बल्कि सूबे की सियासत के गुरूजी को पटखनी दी है।
हालांकि ये कोई पहला मौका नहीं है – जब किसी उपचुनाव में कोई मुख्यमंत्री खेत रहा। इसके पहले उत्तर प्रदेश के नौंवें मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह भी सातवें दशक में गोरखपुर के मनीराम सीट से उपचुनाव में हारे थे। शिबू सोरेन और त्रिभुवन नारायण सिंह की हार में एक समानता है। त्रिभुवन नारायण सिंह को एक अदने से कांग्रेसी कार्यकर्ता रामकृष्ण द्विवेदी ने हराया था तो शिबू सोरेन को हार उनके ही मंत्री रहे एनोस एक्का के एक नामालूम से कार्यकर्ता राजा पीटर ने हराया है। त्रिभुवन नारायण सिंह को हराने वाले रामकृष्ण द्विवेदी चुनाव लड़ने से पहले अमर उजाला के संवाददाता थे। बाद में वे युवा कांग्रेस में शामिल हुए और उन्होंने इंदिरा कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर उस त्रिभुवन नारायण सिंह को चुनावी मैदान में पटखनी दी – जिन्हें उत्तर प्रदेश की सियासत के ताकतवर नेता चंद्रभानु गुप्त का समर्थन था। चंद्रभानु गुप्ता उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के ताकतवर गुट सिंडिकेट के मजबूत स्तंभ थे। लिहाजा त्रिभुवन नारायण सिंह की हार को हैरत की नजर से देखा गया था। उन्हें हराने का इनाम रामकृष्ण द्विवेदी को मिला भी। उन्हें कमलापति त्रिपाठी ने अपने मंत्रिमंडल में बतौर पुलिस राज्य मंत्री शामिल किया था।
इन अर्थों में शिबू सोरेन की हार हैरतनाक इसलिए नहीं है ...क्योंकि उन्हें खुद ही भरोसा नहीं था कि वे उस तमाड़ विधानसभा सीट से चुनाव जीत जाएंगे – जो कभी जनता परिवार का गढ़ रहा है। आज के दौर में शायद ही कोई मुख्यमंत्री होगा- जो इस तरह चुनाव का सामना करने से भागता रहेगा। शिबू सोरेन 26 अगस्त 2007 को मुख्यमंत्री बने और चुनाव मैदान में तब जाकर उतरे..जब संवैधानिक कायदे के मुताबिक उनके चुने जाने में महज एक महीने का ही वक्त बाकी रह गया था। उन्हें खुद की जीत पर भरोसा किस कदर था, वह इससे ही साबित है कि उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद भी अब तक लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया है।
दो हजार चार के चुनाव के बाद झारखंड जैसी विधानसभा बनी है, उसमें ही सत्ता के कई नायाब खेलों की चाबी छुपी हुई है। ऐसे –ऐसे नायाब खेल हुए भी ..जिनकी कम से देश के सियासी इतिहास में कहीं और मिसाल नहीं मिलती। बीजेपी को अपने समर्थक विधायक को एंबुलेंस में लादकर राष्ट्रपति के समक्ष परेड करानी पड़ी। इसका फायदा पहले बीजेपी को मिला। लेकिन सत्ता समीकरण में सौदेबाजी की हालत में पहुंचे निर्दलीय विधायकों ने पांसा पलट दिया और कभी बीजेपी के ही सिपाही रहे मधु कोड़ा के हाथ में आ गई। जिसमें खुद शिबू सोरेन ने भी अहम भूमिका निभाई। बीजेपी के हाथ से सत्ता फिसल रही थी – लिहाजा लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस ने भी बीजेपी को पटखनी देने के लिए हिसाब-किताब करने में देर नहीं लगाई। लेकिन साल बीतते – बीतते शिबू सोरेन का मधु कोड़ा से मोहभंग होने लगा। फिर जिस गुरूजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया था, वही गुरूजी उन्हें हटाने की मुहिम में जुट गए। चिरूडीह केस में जेल जाने के बाद वैसे ही उन्हें केंद्र के कोयला मंत्रालय की गद्दी से दूर होना पड़ा था। लेकिन चिरूडीह और शशिनाथ झा हत्याकांड में अदालत से छूटने के बाद गुरूजी को सत्ता से दूरी खलने लगी। पहले तो केंद्र में मंत्री पद पाने के लिए दबाव बनाया और असफल रहे। इसके बाद उन्होंने अपना ध्यान उस राज्य की कमान थामने पर लगाया, जिसके गठन की लड़ाई उन्होंने खुद शुरू की थी।
शिबू सोरेन की हार में इन घटनाओं ने जहां परोक्ष भूमिका निभाई है, वहां हाल ही में घटी एक घटना का सीधा हाथ भी माना जा रहा है। माना जाता है कि गुरूजी को सत्ता के करीब लाने में उनके बेटे दुर्गा सोरेन और हेमंत सोरेन की बड़ी भूमिका रही। दोनों बेटों की चाहत झारखंड की कमान अपने हाथ में बनाए रखने पर रही है। लेकिन सत्ता की कमान हाथ में आते ही गुरूजी में जो बदलाव आया- उनकी हार की वजह जानने के लिए इस बदलाव को समझना ज्यादा जरूरी है।
आदिवासी हितों की रक्षा के लिए शुरू किए आंदोलनों ने ही शिबू सोरेन को झारखंड का गुरूजी बना दिया। लेकिन सत्ता आने के बात गुरूजी अपने साथी आदिवासियों को ही भूलने लगे। उनके ही इलाके दुमका में आरपीजी समूह एक हजार मेगावाट का थर्मल पावर प्लांट लगाने जा रहा है। इसके लिए पंद्रह गांवों की जमीन चिन्हित की गई। जिसके अधिग्रहण का पिछले साल अप्रैल से ही विरोध जारी है। गांव वालों ने इसकी मुखालफत की तो उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज होने शुरू हो गए। अब तक करीब एक हजार लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो चुके हैं। जब गांव वालों ने इसी छह दिसंबर को इसके विरोध में प्रदर्शन किया तो पुलिस ने उन्हें सशस्त्र प्रदर्शनकारी बताया और उन पर गोली चला दी। प्रदर्शनकारियों के हाथ में उनके पारंपरिक हथियार तीर-धनुष और कुल्हाणी ही थे। ये भी सच है कि उन्होंने एक पुलिस वाले को घायल भी किया। इस पूरे मामले में हैरतनाक बात ये है कि इस प्रदर्शन से ठीक एक दिन पहले यानी पांच दिसंबर को शिबू सोरेन दुमका आए थे और उन्होंने जिला प्रशासन के अधिकारियों को साफ निर्देश दिया था कि इन प्रदर्शनकारियों को सबक सिखाने से पीछे मत हटिए।
ये उस शिबू सोरेन का आदेश था – जिन्होंने आदिवासियों के हितों की रक्षा को लेकर 1980 में चाईबासा में आंदोलन की अगुआई की थी। ये आंदोलन महज इस बात को लेकर था कि तब की बिहार सरकार के अधिकारी वहां सागौन के पेड़ जबर्दस्ती लगाना चाहते थे, जबकि आदिवासी इसका विरोध कर रहे थे। आदिवासियों का कहना था कि सागौन का पेड़ लगाने से उनका वातावरण प्रभावित होगा – लिहाजा वहां साल का ही पेड़ लगना चाहिए। इस आंदोलन में झारखंड मुक्ति मोर्चा के देवेंद्र मांझी मारे गए थे। तब शिबू सोरेन ने इस आंदोलन का साथ दिया था। जाहिर है आदिवासियों के लिए मरमिटने वाले शिबू जब किसी औद्योगिक ग्रुप के लिए आदिवासियों को ही मारने का आदेश देने लगे तो आदिवासियों का भरोसा उनसे टूटने लगा। और ये लहर झारखंड में फैलते देर नहीं लगी।
यहां ये ध्यान देना जरूरी है कि जिस तमाड़ इलाके ने नया इतिहास रचा है..उसका भी अपना इतिहास है। तमाड़ बंडू आदिवासी इलाके में आता है और इसी इलाके के निवासी थे बिरसा मुंडा। जिन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ जबर्दस्त मोर्चा लेकर नया इतिहास ही रच दिया। शायद उनका ये इतिहास ही है कि झारखंड के लोग उन्हें भगवान के तौर पर मानते हैं। बिरसा मुंडा की जमीन से झारखंड के लोगों ने एक संदेश ये भी दे दिया है कि चाहे जितना भी बड़ा नेता क्यों ना हो ..उसकी कसौटी पर खरा नहीं उतरता, उनके हितों की अनदेखी करता है..वे उसकी अनदेखी करने से नहीं हिचकेगी।
शिबू सोरेन हार चुके हैं। लेकिन उन्होंने मुख्यमंत्री पद से अभी तक इस्तीफा नहीं दिया है। सत्ता लोलुपता का उन पर जो आरोप लगते रहे हैं ..इस्तीफा ना देने से इस आरोप को ही बल मिल रहा है। मैदान में लगी ठोकर कई बार लोगों को संभलने का मौका देती है। लेकिन शिबू सोरेन को इसकी कोई फिक्र नहीं है। वे अपने पुराने रवैये पर कायम हैं और नई परंपरा बनाने में जुटे है। अब देखना ये है कि क्या सत्ता मोह की इस परंपरा को तोड़ने में कांग्रेस कोई दिलचस्पी दिखाती है - या नहीं।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
-
उमेश चतुर्वेदी भारतीय विश्वविद्यालयों को इन दिनों वैचारिकता की धार पर जलाने और उन्हें तप्त बनाए रखने की कोशिश जोरदार ढंग से चल रह...
-
उमेश चतुर्वेदी 1984 के जुलाई महीने की उमस भरी गर्मी में राहत की उम्मीद लेकर मैं अपने एक सहपाठी मित्र की दुकान पर पहुंचा। बलिया स्टेशन पर ...
भाई,
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है। थोड़ा लंबा है, लेकिन इनफॉरमेटिव है... एक और बात, जो मैं जोड़ना चाहूंगा वो ये कि इतने साल गुज़र गए झारखंड को बने हुए लेकिन विकास के नाम पर यहां कुछ नहीं हुआ। और अब हकीकत ये है कि पूरे झारखंड के लोग धीरे-धीरे पुराने और घाघ राजनेताओं से ऊबने लगे हैं।
हरे भरे समृद्ध प्रान्त को उसके ही लालों ने लूटकर सचमुछ झाड़ झंखाड़ बना दिया...... इनको क्या कहें.....सिर्फ़ छिः !!
ReplyDeleteअच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है आपने।
ReplyDelete