उमेश चतुर्वेदी
हाल में संपन्न हुए आम चुनावों में कम मतदान को लेकर उठते सवालों का दौर अभी तक थमा नहीं है। गरमी के चलते मतदान कम हुआ या फिर वोटरों की उदासीनता इसकी बड़ी वजह बनी, इसे लेकर बहस-मुबाहिसे और चर्चाओं का दौर जारी है। लेकिन इन्हीं चुनावों का जिस बड़े पैमाने पर बहिष्कार हुआ..उस पर अभी लोगों का ध्यान कम गया है। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में ये पहला मौका है, जब लोगों ने खुलकर इतने बड़े पैमाने पर वोटिंग का बहिष्कार किया। अब तक लोग या तो वोट डालते रहे हैं या फिर मतदान केंद्र पर जाते नहीं रहे है। लेकिन इस बार जिस तरह तमाम लोकसभा सीटों के खासकर ग्रामीण इलाकों से मतदान के बहिष्कार की खबरें आईं...उससे लोकतांत्रिक भारत की नई तस्वीर उभरती है।
1973 में जयप्रकाश नारायण ने पीपुल्स फॉर डेमोक्रेसी का जो अभियान शुरू किया था, उसका मकसद था निचले पायदान तक लोकतंत्र को पहुंचाना। आज से करीब साढ़े तीन दशक पहले जब जेपी ने ये आंदोलन शुरू किया था..तो उसका मतलब साफ है कि उस वक्त भी देश की रहनुमाई करने वाले सफेदपोश लोगों का ध्यान मजलूम और कमजोर लोगों तक उस शिद्दत से नहीं पहुंच पाया था..जितनी की उम्मीद की जा रही थी। अगर 1952 के पहले आमचुनाव को छोड़ दें, तो बाद के तकरीबन सारे चुनावों में मतदाताओं को वायदों का लंबा पिटारा थमाया जाता रहा है और चुनाव बीतने के बाद उन्हें तबियत से भुलाया जाता रहा है। जयप्रकाश नारायण इसके लिए मौजूदा लोकतांत्रिक ढांचे को ही जिम्मेदार मानते थे। यही वजह है कि जब उन्होंने पीपुल्स फॉर डेमोक्रेसी का आंदोलन छेड़ा तो उसमें उनकी एक मांग जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने की भी थी। उनका मानना था कि देश के लोकतांत्रिक ढांचे में जनप्रतिनिधि, चाहे वह सांसद हो या विधानसभा का सदस्य..उसे तभी जिम्मेदार बनाया जा सकेगा, जब लोगों को उसे वापस बुलाने का अधिकार हो। स्विटजरलैंड जैसे कुछ देशों में ये नियम है भी। जेपी के आंदोलन में राइट टू रिकाल को भी अहम स्थान दिया गया था।
1973 के बाद से लेकर अब तक देशभर की नदियों में ना जाने कितना पानी बह गया है। राजनीति की दुनिया में भी ना जाने कितने बदलाव हो चुके हैं। लेकिन जयप्रकाश नारायण का ये सपना पूरा नहीं हो पाया। लेकिन लोग अब जागरूक होने लगे हैं। अब लोगों को लगने लगा है कि संसद और विधानसभा में हरे-लाल कालीनों पर पहुंचने वाले नेताओं की वकत उनके वोटों की ही बदौलत है। लोगों को ये भी पता चल गया है कि जब तक वे दबाव नहीं बनाएंगे, उनके ये नेता उनकी मांगों पर ध्यान नहीं देंगे। और एक बार जीत गए तो फिर जनता के दरबार में उनकी वापसी संभव नहीं होगी। रही बात उनकी जरूरी सुविधाएं भी पूरा करने की ...तो नेता शायद ही याद रखें। लिहाजा लोग पहले भी वोट के बहिष्कार का रास्ता अख्तियार करते रहे हैं। लेकिन बीते चुनावों में इस बार ये चलन कुछ ज्यादा ही दिखा। हरियाणा के जींद जिले के झांझकला के लोग पानी की गुहार लगाते- लगाते थक गए। लेकिन उनकी आवाज से उनके प्रतिनिधियों के कानों पर जूं नहीं रेंगीं। लिहाजा इस बार उन्होंने वोट के बहिष्कार का ऐलान कर दिया। उनके ऐलान ने हर पार्टी के नेताओं को मुश्किल में डाल दिया। शायद ही किसी बड़े दल का नेता था, जो वोटरों के दरबार में हाजिरी लगाने नहीं पहुंचा। उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के सिमरिया के लोग जहां विकास को लेकर वोटिंग के बहिष्कार पर आमादा हो गए तो टिकरा तिवारी, भारौनी, मजरा कंचनपुरा के लोगों ने कंचनौधा बांध में अधिग्रहीत की गई अपनी जमीनों के मुआवजे को पूरा करने की मांग को लेकर वोटिंग का बायकाट किया। औरैया जिले के गोपालपुर, चिरैयापुर और नवलपुर के लोगों का नारा ही था, विकास नहीं तो वोट नहीं। वोटिंग बहिष्कार की ये लिस्ट सिर्फ उत्तर प्रदेश से ही इतनी लंबी रही कि पूरा पेज ही भर जाय।
ऐसा नहीं कि उनके बहिष्कार को तुड़वाने और मतदान केंद्रों पर लाने के लिए उन्हें दबाव-धमकियां नहीं दी गईं। लेकिन गांधी की राह पर चलते हुए लोगों ने हर दबाव का मुकाबला किया और वोट डालने नहीं पहुंचे। फतेहपुर जिले के जुनैदपुर, सीतापुर के बिजनापुर, उन्नाव के बैरी रसूलपुर, बांगड़मउ, बिशनपुर, लढ़पुर के लोगों ने भी कुछ ऐसी ही हुंकार भरी कि नेताओं को दिन में ही तारे नजर आने लगे। मिश्रिख के गोंदरामऊ और गपोली इलाकों में भी लोगों ने कह रखा था कि वे इस बार नेताओं के झांसे में नहीं आने वाले हैं। फिरोजाबाद जिले के दलियापुर, नगला दुहिली और नसरीपुर के कुछ लोगों को पुलिस और अफसरों का कोपभाजन भी बनना पड़ा। लेकिन वे वोटिंग बहिष्कार के अपने फैसले से टस से मस नहीं हुए।
ऐसी खबरें तकरीबन देश के हर उस हिस्से से आईं, जो आजादी के बासठ साल बाद भी बुनियादी सहूलियतों से महरूम हैं। लोगों को लग गया है कि उनके वोट में कितनी ताकत है। अगर ऐसा नहीं होता तो नेताओं के मान-मनौव्वल का दौर बुनियादी सुविधाओं से दूर इन गांवों की धूल भरी गलियों के बीच नहीं चल पाता। कई जगह नेताओं को मुंह छुपाने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता। लोगों में आई इस तबदीली को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी और उनकी बढ़ती जागरूकता के तौर पर देखा जाना चाहिए। अगर ऐसे लोगों को जेपी द्वारा शुरू किए गए राइट टू रिकॉल का अधिकार मिल जाए तो सोचना पड़ेगा कि देश की लोकतांत्रिक दशा और दिशा क्या होगी।
सर उस खामोश और अघोषित बहिष्कार को क्या कहेंगे, जो देश की 50 प्रतिशत आबादी करती है। सब कुछ जानते हुए भी जानबूझ कर, उदासीन होकर वोट देने नहीं जाती...
ReplyDeleteऔर सर आजकल क्या चल रहा है...