उमेश चतुर्वेदी
किसी सभा संगत में बोलने का मौका मिले तो अच्छे-भले लोगों की बांछें खिल उठती हैं, ऐसे में किसी नए-नवेले को अवसर मिले तो उसकी खुशियों का पारावार नहीं होगा। दिल्ली की एक संगत से बुलावा मिला तो मेरी भी हालत कुछ वैसी ही थी। लेकिन वहां पहुंचकर जो अनुभव हुआ, उसने मेरी आंखें ही खोल दीं। देश की हालत पर चर्चा करते हुए मैंने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की उस रिपोर्ट का जिक्र कर बैठा – जिसके मुताबिक देश के आज भी करीब चौरासी करोड़ लोग रोजाना सिर्फ बीस रूपए या उससे नीचे पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। योजना आयोग की बनाई इस कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र मैंने इसलिए किया, ताकि वहां बैठे नौजवान श्रोताओं को पता चला कि मॉल और महंगी गाड़ियों से अटी दिल्ली-मुंबई के बाहर की देसी दुनिया और उसके लोग कैसे हैं। इस उदाहरण के बाद पता नहीं कितने नौजवानों की आंखें खुलीं, लेकिन एक नौजवान ने जैसे सवाल मेरी ओर उछाले, उससे चौंकने की बारी मेरी थी।
दरअसल वह नौजवान मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत की इतनी बदतर हालत है। जिस कॉलेज से वह आया था, वह दिल्ली के संभ्रांत कॉलेजों में गिना जाता है। माना जाता है कि वहां संभ्रांत तबके के लोगों के ही बच्चे पढ़ते हैं। जाहिर है वह बच्चा भी वैसे ही समाज से था। महंगे और आधुनिक फ्लैट से निकल कर महंगी गाड़ियों के बाद चमकते मॉल और रेस्तरां और बेहतरीन स्कूलों के बीच उसकी जिंदगी गुजरी थी या गुजर रही है। वह मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत में सचमुच इतनी गरीबी और बदहाली है। उसे लगता था कि मैं उसे बेवकूफ बना रहा हूं। अव्वल तो वह यह मानने को तैयार ही नहीं था कि योजना आयोग ने ऐसी कमेटी भी बनाई थी, जिसने कोई ऐसी रिपोर्ट भी दी थी। भारत में ऐसी गरीबी और बदहाली को तो खैर वह मान ही नहीं रहा था। वह तो शुक्र है कि जिस संगत में गया था, वहां इंटरनेट की सुविधा थी। लिहाजा मैंने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की वह रिपोर्ट डाउनलोड की और उसे पढ़ने के लिए दे दिया।
कई लोगों को लग सकता है कि दिल्ली में संभ्रांत घरों के ऐसे भी बच्चे हैं, जिन्हें अखबारी और टीवी की दुनिया से इतना भी वास्ता नहीं है कि वे ऐसी जानकारियों से लैस रह सकें। लेकिन यही सच है। खाए-अघाए वर्ग के बच्चों का एक बड़ा तबका ना सिर्फ ऐसी जानकारियों से दूर है, बल्कि उसे सामान्य ज्ञान की भी जानकारी नहीं है। रही बात भारत की गरीबी की, तो इस बारे में भी उनकी जानकारी अधूरी या अधकचरी है।
इस अनुभव के बाद मुझे लगा कि मैकाले की स्वर्ग में बैठी आत्मा बेहद खुश होगी। मैकाले ने 1835 में जिस शिक्षा व्यस्था की नींव रखी थी, उसका मकसद था भारत नहीं इंडिया का निर्माण। मैकाले सफल कितना सफल हो पाया, यह तो अलग शोध का विषय है, लेकिन उदारीकरण के दौरान या उसके बाद पैदा हुई महानगरीय पीढ़ी ने उसकी मंशा जरूर पूरी कर दी है। मैकाले तो सफल नहीं हुआ, लेकिन उदारीकरण ने वह सीमा रेखा जरूर खींच दी है, जिससे भारत और इंडिया साफ बंटे नजर आ रहे हैं।
इस घटना के बाद मुझे प्रिंस क्रोपाटकिन की किताब – नवयुवकों से दो बातें – काफी शिद्दत से याद आने लगी। जिसे मैंने किशोरावस्था की ओर कदम रखते वक्त पढ़ा था। इस किताब में वह डॉक्टर, अध्यापक और वकील जैसे प्रोफेशनल से पूछते हैं कि अगर उनके सामने गरीब और बेसहारा आम आदमी और उसके बच्चे अपनी समस्या लेकर आते हैं तो उनका क्या जवाब होगा या फिर वे कैसे उससे निबटेंगे। जाहिर है, जवाब पारंपरिक ही होंगे कि मसलन डॉक्टर रोगी के लिए फल और दूध के साथ दवाइयां ही सुझाएगा। तब क्रोपाटकिन दूसरा सवाल उछालते हैं कि जब उनके पास इसकी सामर्थ्य ही नहीं होगी, तब ... और क्रोपाटकिन का यह सवाल ही आंख खोल देता है। काश कि ऐसी किताबें आज की महानगरीय पीढ़ी को पढ़ने को दी जातीं और वह इससे कुछ संदेश लेती। तब शायद उन्हें पता चलता कि देश की असल हालत क्या है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या आज की यह महानगरीय पीढ़ी इसके लिए तैयार भी है या नहीं...
apka kahna sahi hai, lekin problem kaise door ho, is par bhi baat honi chahie..
ReplyDeletesikke ke do pahlu hota hai,aaj ke dur mein hum kharab pahlu ko dekhna hi nahi chahte.thanks a lot for touching this issue......
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