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उमेश चतुर्वेदी
अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में चौधरी देवीलाल जब अपने राजनीतिक कैरियर के उफान पर थे, तब उन्होंने एक नारा दिया था। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के अलावा तीसरे मोर्चे के तकरीबन सभी दलों का यह बरसों तक सबसे प्यारा और प्रभावशाली नारा था – लोकराज लोकलाज से चलता है। झारखंड में जारी प्रहसन को देखकर आजकल यह नारा एक बार फिर शिद्दत से याद आ रहा है। इसलिए नहीं कि झारखंड में लोकलाज का खयाल सिर्फ शिबू सोरेन ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि पार्टी विद डिफरेंस का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी भी इस प्रहसन में बराबर की भागीदार होकर अपनी भद्द पिटवाने में जुट गई है। यही वजह है कि अब भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी तक को कहना पड़ रहा है कि झारखंड में बेतुका नाटक चल रहा है।
झारखंड में सत्ता का यह खेल पहली बार नहीं दिखा है। खुद शिबू सोरेन पिछली बार भी कुछ ऐसा ही कारनामा दिखा चुके हैं। जब उन्हें जामताड़ा की अदालत ने दोषी करार दिया था। यह लोकलाज का ही तकाजा था कि उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए था। लेकिन उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। तब भारतीय जनता पार्टी भी उनके इस कदम के विरोध में खड़ी हो गई थी। अब उसी भारतीय जनता पार्टी को शिबू सोरेन बार-बार ठेंगा दिखा रहे हैं, लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रही है। इस प्रहसन को देखकर कहा जा सकता है कि राजनीति सत्ता की संभावनाओं का खेल बन कर रह गई है और संभावना के इस खेल में मूल्यों को बार-बार तिलांजलि दी जा रही है। पश्चिमी लोकतांत्रिक अवधारणा में जिस तरह की राजनीति विकसित हुई है, उसमें आमतौर पर राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षा सत्ता प्राप्ति तक सीमित हो गया है। यहां पर जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय का एक भाषण याद आता है। अपने इस भाषण में उन्होंने जनसंघ के बारे में कहा था – “ भारतीय जनसंघ अलग तरह का दल है। किसी भी प्रकार सत्ता में आने की लालसा वाले लोगों का झुंड नहीं है। ” लेकिन शिबू सोरेन के साथ खड़ी जनसंघ की उत्तराधिकारी भारतीय जनता पार्टी अपने पितृ पुरूष की ही अपेक्षाओं पर खरी उतरती नजर नहीं आ रही है। सत्ता की संभावनाओं की राजनीति में लगातार इस तथ्य की उपेक्षा हो रही है। इसका फायदा न तो पार्टी को मिलता नजर आ रहा है और झारखंड की जनता तो परेशान होने के लिए मजबूर है ही।
झारखंड की राजनीति में पिछली बार भी हुए खेल के बावजूद अगर पार्टियों ने शिबू सोरेन पर भरोसा किया, तो यह उनकी गलती ही मानी जाएगी। पिछली बार की घटनाओं से पार्टियों ने कोई सबक नहीं लिया। इसका ही असर है कि आज झारखंड की राजनीति चौराहे पर खड़ी नजर आ रही है और कोई स्पष्ट –मुकम्मल रास्ता नजर नहीं आ रहा है। जाहिर है कि इस पूरे खेल को कांग्रेस समेत विपक्षी राजनीतिक पार्टियां दिलचस्पी से देख रही हैं। लेकिन वे सत्ता में सीधी भागीदारी से हिचक रही हैं। क्योंकि उन्हें इस बात का डर सता रहा है कि शिबू सोरेन पर भरोसा करने का कारण नजर नहीं आ रहा है। झारखंड की राजनीति में कांग्रेस की ओर से महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके एक केंद्रीय कांग्रेस नेता ने इन पंक्तियों के लेखक से साफ कहा है कि जो शिबू अपने साथियों के लिए भरोसेमंद नहीं हो पा रहे हैं, क्या गारंटी है कि वे उनकी पार्टी के लिए भी भरोसेमंद रहेंगे।
इस पूरे घटनाक्रम में एक तथ्य पर राजनीतिक पंडितों का ध्यान नहीं जा रहा है। भारतीय संविधान इस मसले पर चुप है कि कोई लोकसभा सदस्य राज्य की सरकार में शामिल हो सकता है या नहीं। भारतीय राजनीति में लोकसभा की सदस्यता वाले मुख्यमंत्री का सवाल 1999 में भी उछल चुका है। जब उड़ीसा के मुख्यमंत्री गिरिधर गोमांग ने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था। तब गोमांग लोकसभा के सदस्य थे और उड़ीसा के मुख्यमंत्री भी थे। इस मतदान में वाजपेयी सरकार की एक मत से हार हो गई थी। इस हार के बाद गोमांग के मतदान पर तब के भारतीय जनता पार्टी ने सवाल उठाया था। इसके बाद तो यह सवाल राजनीतिक और संवैधानिक गलियारे में चर्चा का विषय ही बन गया था। सवाल यह था कि जब कोई व्यक्ति राज्य का मुख्यमंत्री बन जाता है तो उसकी पहली जवाबदेही राज्य विधानसभा के प्रति हो जाती है। लिहाजा उसे संसद में मतदान करने का नैतिक आधार नहीं रह जाता। 27 अप्रैल 2009 को दूसरा मौका था, जब किसी राज्य के मुख्यमंत्री ने संसद की वोटिंग में हिस्सा लिया। लेकिन इस पर सवाल नहीं उठ रहा है। जबकि हकीकत तो यही है कि झारखंड की समस्या की जड़ में यह मतदान ही है। यह सच है कि भारतीय संविधान सदस्यता और सरकार बनाने को लेकर चुप है। इसकी वजह यह है कि पहले वही लोग राज्यों में सरकार बनाते रहे हैं, जो विधानसभा का चुनाव लड़ते रहे है। पहले केंद्र से मुख्यमंत्री राज्यों में नहीं भेजे जाते थे। 1970 के दशक में पहली बार हुआ कि प्रकाश चंद्र सेठी को केंद्र से मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर भेजा गया। इसके बाद तो कम से कम कांग्रेस में यह परिपाटी ही बन गई। सही मायने में देखा जाय तो यह भी लोकलाज का उल्लंघन ही था। लेकिन सेठी ने एक काम जरूर किया था कि संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। 1999 में उड़ीसा में नवीन पटनायक जब मुख्यमंत्री बने, तब वह लोकसभा के सदस्य थे। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था। पहले लोग दो-दो, तीन-तीन जगहों से चुनाव लड़ते थे। विधायक रहते लोकसभा या सांसद रहते विधानसभा का चुनाव लड़ते थे और दोनों जगह से जीतने के बाद छह महीने तक दोनों सदस्यता पर काबिज रहते थे। लेकिन चुनाव आयोग की पहल के बाद अब 14 दिनों के भीतर कहीं एक जगह की सदस्यता छोड़नी पड़ती है। अन्यथा पिछली सदस्यता खुद-ब-खुद रद्द हो जाती है।
यह सच है कि राजनीति में संविधान और कानून से इतर मर्यादाओं और राजनीतिक नैतिकता का भी अपना महत्व होता है। लेकिन जब नेताओं का ही ध्यान मर्यादा की ओर नहीं है तो कानूनी और संवैधानिक बाध्यताएं जरूरी हो जाती है। अभी इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। लेकिन कल को कोई विधायक प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ले और विधानसभा की सदस्यता न छोड़े और वक्त पड़ने पर अपनी विधानसभा में वोट डालने पहुंच जाए तो लोकतंत्र के लिए कितना बड़ा प्रहसन होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। झारखंड की राजनीति के बेतुके नाटक ने एक बार फिर इस सवाल पर विचार करने का मौका दिया है। अगर वक्त रहते इस मसले पर ध्यान नहीं दिया गया तो झारखंड जैसे प्रहसन बार-बार होते रहेंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राजनीतिक बिरादरी इस तरफ ध्यान देने की कोशिश करती भी है या नहीं।