Friday, July 2, 2010
ढक्कन वाली पीढ़ी और साहित्य का संस्कार
उमेश चतुर्वेदी
बहुत खुशनसीब वे होते हैं, जिनकी जिंदगी की तय खांचे और योजना के मुताबिक चलती है। लेकिन आज की पढ़ी-लिखी पीढ़ी ने अपने बच्चों तक की जिंदगी के लिए खांचे तय कर रखे हैं और इसी खांचे के तहत जिंदगी की गाड़ी आगे बढ़ रही है। मनोवैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री भले ही इस चलन को गलत बताते रहें, थ्री इडियट जैसी फिल्में भी इसकी आलोचना करती रहें, लेकिन उदारीकरण के बाद आई भौतिकवाद की आंधी और उसमें कठिन और कठोर हुई जिंदगी की पथरीली राह पर चलते वक्त आज की जवान होती पीढ़ी के लोग सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि काश उनके भी माता-पिता ने उनकी जिंदगी का खांचा तय कर दिया होता ...
बहरहाल अपनी जिंदगी भी ऐसी खुशनसीबी के पड़ावों से नहीं गुजरी। जिस वक्त जिंदगी तय करने का वक्त था, पढ़ाई के उस दौर में रोजाना ट्रेन की घंटों की यात्रा करना मजबूरी थी। घर से कॉलेज की दूरी जो ज्यादा थी। लेकिन इस अनखांचे की जिंदगी ने खुदबखुद एक खांचा दे दिया। तब ट्रेन की लंबी यात्रा काटने के लिए किताबों और पत्रिकाओं का सहारा लेना शुरू किया और देखते ही देखते किताबें और पत्रिकाएं जिंदगी की पथरीली राह पर सहारा तो बन ही गईं, जिंदगी को देखने का नया नजरिया भी देने लगीं। किताबों की दुनिया से लोगों को परिचित कराने में ट्रेनों की बड़ी भूमिका रही है। मशहूर पत्रकार प्रभाष जोशी ने एक बार कहा था कि रेल यात्राओं का एक बड़ा फायदा उनकी जिंदगी में यह रहा है कि इसी दौरान उन्होंने कई अहम किताबें पढ़ लीं। रेल यात्रियों के मनोरंजन में किताबों की जो भूमिका रही है, उसमें एक बड़ा हाथ एएच ह्वीलर बुक कंपनी और सर्वोदय पुस्तक भंडार जैसे स्टॉल का भी रहा है। यह भी सच है कि इन स्टॉल्स से गंभीर साहित्य की तुलना में इब्ने सफी और कुशवाहा कांत के साथ गुलशन नंदा, रानू, सुरेंद्र मोहन पाठक और वेदप्रकाश शर्मा जैसे लुगदी साहित्यकार ज्यादा बिकते रहे हैं। यहां पाठकों की जानकारी के लिए बता देना जरूरी है कि इन साहित्यकारों को लुगदी साहित्यकार क्यों कहा जाता है। दरअसल इनकी रचनाएं जिस कागज पर छपा करती थीं, वह कागज अखबारी कचरे और किताबों के कबाड़ की लुगदी बनाकर दोबारा तैयार किया जाता था। बहरहाल इसी लुगदी साहित्य के बीच ही गोदान, गबन से लेकर चित्रलेखा तक पढ़ने वाले पाठक भी मिल जाते थे। इसके साथ ही पाठकीयता का एक नया संसार लगातार रचा-बनाया जाता था। ट्रेन में बैठने की जगह मिली नहीं कि किताब या पत्रिका झोले से निकाली और अपनी दुनिया में डूब गए।
लेकिन आज हालात बदल गए हैं। तकनीकी क्रांति ने आज की पीढ़ी के हाथ में मोबाइल के तौर पर नन्हा-मुन्ना कंप्यूटर ही दे दिया है। मोबाइल फोन सचमुच में जादू का पिटारा है। बीएसएनएल की मोबाइल फोन सेवा का 2003 में उद्घाटन करते वक्त तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे पंडोरा बॉक्स ही कहा था। तो इस जादुई बॉक्स ने संगीत और एफएम का जबर्दस्त सौगात दे दिया है। आज की पीढ़ी इसका हेडफोन साथ लेकर चलती है और गाड़ी या बस में जैसे ही मौका मिला, हेड फोन कान में लगाती है और दीन-दुनिया से बेखबर संगीत की अपनी दुनिया में डूब जाती है। मेरे के मित्र हैं, वे इस पीढ़ी को ढक्कन वाली पीढ़ी कहते हैं। आपने होमियोपैथिक दवाओं की पुरानी शीशियां देखी होंगी। कार्क लगाकर उन्हें बंद किया जाता था। आज के हेडफोन कुछ वैसे ही कान में कार्क की तरह फिट हो जाते हैं, जैसे पहले ढक्कन लगाए जाते थे। जाहिर है कि ढक्कन वाली इस पीढ़ी से रेल और बस यात्राओं के दौरान पढ़े जाने का जो रिवाज रहा है, वह लगातार छीजता जा रहा है। आज की पीढ़ी के हाथ में पत्रिकाएं और किताबें कम ही दिखती हैं। लेकिन नई-नई सुविधाओं वाले गजट उनके हाथ में जरूर हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव मोहन प्रकाश जैसे नेता कहा करते हैं कि जब वे पढ़ाई करते थे, उस वक्त अगर दिनमान में उनकी चिट्ठी भी छप जाती थी तो वे पूरी यूनिवर्सिटी में गर्व से उसे लेकर अपने बगल में दबाए घूमा करते थे। वैसे भी दिनमान और धर्मयुग पढ़ना उस समय शान की बात मानी जाती थी। लेकिन आज की पीढ़ी के लिए नए गजट ही शान के प्रतीक हैं। जाहिर है कि सोच में आए इस बदलाव का असर भी दिख रहा है। चूंकि पाठकीयता नहीं है, उसका संस्कार नहीं है तो आप देखेंगे कि आज की पीढ़ी के ज्यादातर लोगों को सामान्य ज्ञान की सामान्य सी जानकारी भी नहीं है। इसका दर्शन यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में पढ़ाने वाले अध्यापकों-प्रोफेसरों को रोजाना हो रहा है। कई बार तो वे माथा तक पीटने के लिए मजबूर हो जाते हैं। लेकिन क्या मजाल कि ढक्कन वाली पीढ़ी के माथे पर शिकन तक आ जाए। हो सकता है बदले में आपको यह भी सुनने को मिले- इट्स ओके...सब चलता है यार...
तो क्या किताबें मर जाएंगी ...क्या नए गजट की दुनिया उन्हें खा जाएगी...यहां पर याद आता है मशहूर अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन का कथन। उन्होंने कहा था – दुनिया जैसी भी है, चलती रहेगी। फिर हम भी उम्मीद क्यों न बनाए रखें।
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आज दिनांक 13 जुलाई 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में किताब की जगह शीर्षक से आपकी यह ब्लॉग पोस्ट प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक करके पेज 4 पर देख सकते हैं।
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