उमेश चतुर्वेदी
उमा भारती की भारतीय जनता पार्टी में वापसी के वक्त जिस उत्साह की उम्मीद की जा रही थी, दिल्ली के पार्टी मुख्यालय में वैसा तो कुछ नजर नहीं आया। लेकिन जिस उत्तर प्रदेश की कमान उन्हें सौंपी गई है, वहां से उनके खिलाफ पहला बयान जरूर आ गया। पार्टी उपाध्यक्ष और कभी भारतीय जनता पार्टी के बजरंगी चेहरा रहे विनय कटियार ने उनका वैसा स्वागत नहीं किया, जैसी सदाशयता और उत्साही प्रतिक्रिया शिवराज सिंह चौहान ने दी। बारहवीं और तेरहवीं लोकसभा के सदस्य रहे विनय कटियार की तरफ से ठंडी प्रतिक्रिया के अपने खास अर्थ हैं। जिन्होंने तेरहवीं और बारहवीं लोकसभा का नजारा देखा है, उन्हें पता है कि भारतीय जनता पार्टी की तब की हल्ला ब्रिगेड को संसदीय कार्य मंत्री मदन लाल खुराना या बाद में प्रमोद महाजन तक चुप कराने का अपना संवैधानिक और पार्टीगत दायित्व नहीं निभा पाते थे, उस हल्ला ब्रिगेड को उमा भारती अपने एक इशारे से चुप करा देती थीं। मध्य प्रदेश से सांसद प्रह्लाद पटेल, राजस्थान से सांसद श्रीचंद कृपलानी और उत्तर प्रदेश से विनय कटियार भारतीय जनता पार्टी की हल्ला ब्रिगेड के प्रमुख सदस्य थे और कांग्रेसी आरोपों का तुर्शी-बतुर्शी जवाब देने में माहिर थे। उसी ब्रिगेड के सदस्य विनय कटियार को अगर उमा भारती की पार्टी में वापसी सहजता से स्वीकार्य नहीं है तो सवाल उठेंगे ही। हालांकि विनय कटियार ने अगले ही दिन अपना बयान बदलने में देर नहीं लगाई। उत्तर प्रदेश की राजनीति में तीसरे स्थान पर खिसक चुकी भारतीय जनता पार्टी को पहले स्थान पर लाने की नितिन गडकरी की कोशिशों के बीच विनय कटियार की ठंडी और व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया से साफ है उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की राह आसान नहीं है।
उमा भारती की वापसी के दौरान यूं तो गडकरी के अलावा दूसरे कोई बड़े नेता मौजूद नहीं थे, सिवा शाहनवाज हुसैन के। 10 नवंबर 2004 को भारतीय जनता पार्टी की उच्चाधिकार प्राप्त समिति की बैठक में आडवाणी को खरीखोटी सुनाने के बाद जब उमा भारती बाहर निकलीं थीं तो उस वक्त मौजूद भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता हक्के-बक्के रह गए थे। लेकिन किसी ने उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं दिखाई थी। उस वक्त उन्हें शांत करते हुए उन्हें रोकने की कोशिश सिर्फ और सिर्फ राजनाथ सिंह ने की थी। उमा की वापसी के दौरान पार्टी मुख्यालय में राजनाथ सिंह की गैरमौजूदगी इसीलिए खलती रही। शाहनवाज हुसैन की मौजूदगी की वजह यह है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते उमा भारती ने शाहनवाज को अपनी कार्यसमिति में शामिल किया था। हालांकि शाहनवाज इससे बहुत आगे निकल चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी में उनकी हैसियत बदल चुकी है। लेकिन उमा की वापसी के वक्त पार्टी मुख्यालय में मौजूद रहकर उन्होंने सदाशयता का ही परिचय दिया है।
2008 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के पहले भारतीय जनता पार्टी और उमा भारती के कुछ शुभचिंतकों ने उमा भारती को पार्टी में लौट जाने का सुझाव दिया था। उन शुभचिंतकों की सलाह थी कि उमा जैसी नेता भारतीय जनता पार्टी के पास नहीं है और उमा के पास भारतीय जनता पार्टी जैसा संगठन नहीं है। उमा के लिए मजबूत संगठन बनाना आसान नहीं था तो पार्टी के लिए उमा जैसा नेता मिलना कठिन था। ऐसे में दोनों एक-दूसरे के पूरक बन सकते थे। लेकिन उमा को लगता था कि 2003 के जिस प्रचंड जनादेश के सहारे उन्होंने मध्यप्रदेश में दस साल के दिग्विजयी शासन को उखाड़ फेंका था, उसमें सिर्फ और सिर्फ उनका ही योगदान था। उमा जैसी नेता यह भूल गईं कि कैडर आधारित पार्टियों में कार्यकर्ता अपने नेता के साथ सहानुभूति तो रख सकते हैं, उसका आदर भी कर सकते हैं। लेकिन वोट डालने का मौका आते ही वे पार्टी की डोर छोड़ने में हिचकते हैं। जाहिर है कि उमा का अपने संगठन और अपनी जनप्रियता से मोहभंग हुआ। कैडर आधारित पार्टियों के साथ एक और मजबूरी होती है कि वहां के नेता के लिए अपनी पार्टी से अलग ताकत हासिल कर पाना आसान नहीं होता। यह सिद्धांत सिर्फ भारतीय जनता पार्टी पर ही लागू नहीं होता, उसकी धुर विरोधी वामपंथी पार्टियों के लिए भी यही सच है। एक दौर में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में सैफुद्दीन चौधरी की तूती बोलती थी, लेकिन सीपीएम से अलग होने के बाद उनकी कोई पहचान नहीं है। जबकि उन्होंने भी अपनी अलग पार्टी बनाई और पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों का विकल्प बनने की कोशिश भी की। और तो और उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सियासत भी इसका उदाहरण है। अगर इस सियासत का थोड़ा-बहुत कोई अपवाद है तो वे हैं झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी। भारतीय जनता पार्टी से अलग होने के बाद भी वे कम से कम अपना राजनीतिक वजूद बचाए रखने में कामयाब हैं।
रही बात उत्तर प्रदेश में उमा भारती के आने के बाद बदलते चुनावी समीकरणों की तो उसे लेकर अंकगणितीय फार्मूला देना आसान नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में सरकार चला चुकी भारतीय जनता पार्टी की हालत यह है कि वह तीसरे नंबर पर खिसक गई है। पिछले दो-तीन चुनावों से माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के मतदाता मजबूत नेतृत्व के अभाव में उससे दूर भागते जा रहे हैं। 1991 में जब पहली बार कल्याण सिंह की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत मिला था तो उसमें पिछड़े वर्ग के वोटरों का बड़ा योगदान था। ब्राह्मण और बनिया की पार्टी मानी जाती रही भारतीय जनता पार्टी को पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहां चौहान यानी नोनिया, कोइरी, कुर्मी और राजभर जातियों का भरपूर सहयोग मिला था। वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसे लोध राजपूतों का एकमुश्त समर्थन मिला था। पूर्वी उत्तर प्रदेश से पार्टी के पास ओमप्रकाश सिंह जैसा पिछड़ा नेतृत्व था। लेकिन पार्टी की गुटबाजी में ओमप्रकाश सिंह किनारे लगा दिए गए। 1999 के लोकसभा चुनावों में कल्याण सिंह की बेरूखी ने लोध राजपूतों को भारतीय जनता पार्टी से अलग कर दिया, जिसकी वजह से पार्टी 23 लोकसभा सीटें हार गईं। उमा भारती भी उसी लोध राजपूत समुदाय से आती हैं और माना जा रहा है कि कल्याण सिंह की नाराजगी की वजह से जो लोध वोट बैंक भारतीय जनता पार्टी से दूर चला गया था, उसे वापस खींचने में मदद मिलेगी। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में जिस तरह भारतीय समाज पार्टी ने अपना दबदबा बनाया है, उसमें नोनिया और राजभर जातियों के वोट वापस भारतीय जनता पार्टी की तरफ मोड़ना आसान नहीं होगा। इसके लिए उमा भारती को कोशिश करनी होगी। हालांकि उनकी कोशिशों का तब तक कोई मतलब नहीं है, जब तक उत्साही और मजबूत की नेतृत्व की कमी से जूझ रही उत्तर प्रदेश इकाई के भारतीय जनता पार्टी के सभी प्रमुख नेता उमा भारती का सहयोग करें। वैसे दो-तीन चुनावों से उत्तर प्रदेश से भारतीय जनता पार्टी के मतदाताओं के मोहभंग की वजह राज्य में दमदार नेतृत्व की कमी भी रही। भारतीय जनता पार्टी का आलाकमान कलराज मिश्र और लालजी टंडन पर चाहे जितना भरोसा करे, लेकिन उनकी राजनीतिक हनक वैसी नहीं है, जैसी जनता नेतृत्व से उम्मीद करती है। चूंकि उमा राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र और लालजी टंडन की तुलना में जवान हैं, घोटाले और भ्रष्टाचार के खुलासों के दौर में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप नहीं हैं, फिर उनका अतीत फायर ब्रांड नेता का रहा है। ऐसे में पार्टी के लिए उनसे उम्मीदें बांधना गैरमौजूं भी नहीं है।
उमा के उत्तर प्रदेश की चुनावी कमान संभालने के बाद अगर किसी पार्टी की परेशानी बढ़ सकती है तो वह कांग्रेस हो सकती है। क्योंकि ऐसा माना जा रहा था कि ब्राह्मण मतदाता कांग्रेस की तरफ झुक रहा है। लेकिन हकीकत तो यही है कि भ्रष्टाचार, महंगाई और बाबा रामदेव से निबटने के तरीकों को लेकर ब्राह्णण मतदाता कांग्रेस से नाराज नजर आ रहा है। पिछले दो चुनावों से अगर वह कभी कांग्रेस और कभी बहुजन समाज पार्टी की तरफ तैरता रहा है तो इसकी बड़ी वजह भारतीय जनता पार्टी के पास राज्य में मजबूत नेतृत्व का अभाव रहा है। चूंकि उमा दमदार रहीं हैं, लिहाजा भारतीय जनता पार्टी का पारंपरिक मतदाता उन पर भरोसा कर सकता है।
उमा भारती की भारतीय जनता पार्टी में वापसी के वक्त जिस उत्साह की उम्मीद की जा रही थी, दिल्ली के पार्टी मुख्यालय में वैसा तो कुछ नजर नहीं आया। लेकिन जिस उत्तर प्रदेश की कमान उन्हें सौंपी गई है, वहां से उनके खिलाफ पहला बयान जरूर आ गया। पार्टी उपाध्यक्ष और कभी भारतीय जनता पार्टी के बजरंगी चेहरा रहे विनय कटियार ने उनका वैसा स्वागत नहीं किया, जैसी सदाशयता और उत्साही प्रतिक्रिया शिवराज सिंह चौहान ने दी। बारहवीं और तेरहवीं लोकसभा के सदस्य रहे विनय कटियार की तरफ से ठंडी प्रतिक्रिया के अपने खास अर्थ हैं। जिन्होंने तेरहवीं और बारहवीं लोकसभा का नजारा देखा है, उन्हें पता है कि भारतीय जनता पार्टी की तब की हल्ला ब्रिगेड को संसदीय कार्य मंत्री मदन लाल खुराना या बाद में प्रमोद महाजन तक चुप कराने का अपना संवैधानिक और पार्टीगत दायित्व नहीं निभा पाते थे, उस हल्ला ब्रिगेड को उमा भारती अपने एक इशारे से चुप करा देती थीं। मध्य प्रदेश से सांसद प्रह्लाद पटेल, राजस्थान से सांसद श्रीचंद कृपलानी और उत्तर प्रदेश से विनय कटियार भारतीय जनता पार्टी की हल्ला ब्रिगेड के प्रमुख सदस्य थे और कांग्रेसी आरोपों का तुर्शी-बतुर्शी जवाब देने में माहिर थे। उसी ब्रिगेड के सदस्य विनय कटियार को अगर उमा भारती की पार्टी में वापसी सहजता से स्वीकार्य नहीं है तो सवाल उठेंगे ही। हालांकि विनय कटियार ने अगले ही दिन अपना बयान बदलने में देर नहीं लगाई। उत्तर प्रदेश की राजनीति में तीसरे स्थान पर खिसक चुकी भारतीय जनता पार्टी को पहले स्थान पर लाने की नितिन गडकरी की कोशिशों के बीच विनय कटियार की ठंडी और व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया से साफ है उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की राह आसान नहीं है।
उमा भारती की वापसी के दौरान यूं तो गडकरी के अलावा दूसरे कोई बड़े नेता मौजूद नहीं थे, सिवा शाहनवाज हुसैन के। 10 नवंबर 2004 को भारतीय जनता पार्टी की उच्चाधिकार प्राप्त समिति की बैठक में आडवाणी को खरीखोटी सुनाने के बाद जब उमा भारती बाहर निकलीं थीं तो उस वक्त मौजूद भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता हक्के-बक्के रह गए थे। लेकिन किसी ने उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं दिखाई थी। उस वक्त उन्हें शांत करते हुए उन्हें रोकने की कोशिश सिर्फ और सिर्फ राजनाथ सिंह ने की थी। उमा की वापसी के दौरान पार्टी मुख्यालय में राजनाथ सिंह की गैरमौजूदगी इसीलिए खलती रही। शाहनवाज हुसैन की मौजूदगी की वजह यह है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते उमा भारती ने शाहनवाज को अपनी कार्यसमिति में शामिल किया था। हालांकि शाहनवाज इससे बहुत आगे निकल चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी में उनकी हैसियत बदल चुकी है। लेकिन उमा की वापसी के वक्त पार्टी मुख्यालय में मौजूद रहकर उन्होंने सदाशयता का ही परिचय दिया है।
2008 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के पहले भारतीय जनता पार्टी और उमा भारती के कुछ शुभचिंतकों ने उमा भारती को पार्टी में लौट जाने का सुझाव दिया था। उन शुभचिंतकों की सलाह थी कि उमा जैसी नेता भारतीय जनता पार्टी के पास नहीं है और उमा के पास भारतीय जनता पार्टी जैसा संगठन नहीं है। उमा के लिए मजबूत संगठन बनाना आसान नहीं था तो पार्टी के लिए उमा जैसा नेता मिलना कठिन था। ऐसे में दोनों एक-दूसरे के पूरक बन सकते थे। लेकिन उमा को लगता था कि 2003 के जिस प्रचंड जनादेश के सहारे उन्होंने मध्यप्रदेश में दस साल के दिग्विजयी शासन को उखाड़ फेंका था, उसमें सिर्फ और सिर्फ उनका ही योगदान था। उमा जैसी नेता यह भूल गईं कि कैडर आधारित पार्टियों में कार्यकर्ता अपने नेता के साथ सहानुभूति तो रख सकते हैं, उसका आदर भी कर सकते हैं। लेकिन वोट डालने का मौका आते ही वे पार्टी की डोर छोड़ने में हिचकते हैं। जाहिर है कि उमा का अपने संगठन और अपनी जनप्रियता से मोहभंग हुआ। कैडर आधारित पार्टियों के साथ एक और मजबूरी होती है कि वहां के नेता के लिए अपनी पार्टी से अलग ताकत हासिल कर पाना आसान नहीं होता। यह सिद्धांत सिर्फ भारतीय जनता पार्टी पर ही लागू नहीं होता, उसकी धुर विरोधी वामपंथी पार्टियों के लिए भी यही सच है। एक दौर में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में सैफुद्दीन चौधरी की तूती बोलती थी, लेकिन सीपीएम से अलग होने के बाद उनकी कोई पहचान नहीं है। जबकि उन्होंने भी अपनी अलग पार्टी बनाई और पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों का विकल्प बनने की कोशिश भी की। और तो और उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सियासत भी इसका उदाहरण है। अगर इस सियासत का थोड़ा-बहुत कोई अपवाद है तो वे हैं झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी। भारतीय जनता पार्टी से अलग होने के बाद भी वे कम से कम अपना राजनीतिक वजूद बचाए रखने में कामयाब हैं।
रही बात उत्तर प्रदेश में उमा भारती के आने के बाद बदलते चुनावी समीकरणों की तो उसे लेकर अंकगणितीय फार्मूला देना आसान नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में सरकार चला चुकी भारतीय जनता पार्टी की हालत यह है कि वह तीसरे नंबर पर खिसक गई है। पिछले दो-तीन चुनावों से माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के मतदाता मजबूत नेतृत्व के अभाव में उससे दूर भागते जा रहे हैं। 1991 में जब पहली बार कल्याण सिंह की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत मिला था तो उसमें पिछड़े वर्ग के वोटरों का बड़ा योगदान था। ब्राह्मण और बनिया की पार्टी मानी जाती रही भारतीय जनता पार्टी को पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहां चौहान यानी नोनिया, कोइरी, कुर्मी और राजभर जातियों का भरपूर सहयोग मिला था। वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसे लोध राजपूतों का एकमुश्त समर्थन मिला था। पूर्वी उत्तर प्रदेश से पार्टी के पास ओमप्रकाश सिंह जैसा पिछड़ा नेतृत्व था। लेकिन पार्टी की गुटबाजी में ओमप्रकाश सिंह किनारे लगा दिए गए। 1999 के लोकसभा चुनावों में कल्याण सिंह की बेरूखी ने लोध राजपूतों को भारतीय जनता पार्टी से अलग कर दिया, जिसकी वजह से पार्टी 23 लोकसभा सीटें हार गईं। उमा भारती भी उसी लोध राजपूत समुदाय से आती हैं और माना जा रहा है कि कल्याण सिंह की नाराजगी की वजह से जो लोध वोट बैंक भारतीय जनता पार्टी से दूर चला गया था, उसे वापस खींचने में मदद मिलेगी। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में जिस तरह भारतीय समाज पार्टी ने अपना दबदबा बनाया है, उसमें नोनिया और राजभर जातियों के वोट वापस भारतीय जनता पार्टी की तरफ मोड़ना आसान नहीं होगा। इसके लिए उमा भारती को कोशिश करनी होगी। हालांकि उनकी कोशिशों का तब तक कोई मतलब नहीं है, जब तक उत्साही और मजबूत की नेतृत्व की कमी से जूझ रही उत्तर प्रदेश इकाई के भारतीय जनता पार्टी के सभी प्रमुख नेता उमा भारती का सहयोग करें। वैसे दो-तीन चुनावों से उत्तर प्रदेश से भारतीय जनता पार्टी के मतदाताओं के मोहभंग की वजह राज्य में दमदार नेतृत्व की कमी भी रही। भारतीय जनता पार्टी का आलाकमान कलराज मिश्र और लालजी टंडन पर चाहे जितना भरोसा करे, लेकिन उनकी राजनीतिक हनक वैसी नहीं है, जैसी जनता नेतृत्व से उम्मीद करती है। चूंकि उमा राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र और लालजी टंडन की तुलना में जवान हैं, घोटाले और भ्रष्टाचार के खुलासों के दौर में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप नहीं हैं, फिर उनका अतीत फायर ब्रांड नेता का रहा है। ऐसे में पार्टी के लिए उनसे उम्मीदें बांधना गैरमौजूं भी नहीं है।
उमा के उत्तर प्रदेश की चुनावी कमान संभालने के बाद अगर किसी पार्टी की परेशानी बढ़ सकती है तो वह कांग्रेस हो सकती है। क्योंकि ऐसा माना जा रहा था कि ब्राह्मण मतदाता कांग्रेस की तरफ झुक रहा है। लेकिन हकीकत तो यही है कि भ्रष्टाचार, महंगाई और बाबा रामदेव से निबटने के तरीकों को लेकर ब्राह्णण मतदाता कांग्रेस से नाराज नजर आ रहा है। पिछले दो चुनावों से अगर वह कभी कांग्रेस और कभी बहुजन समाज पार्टी की तरफ तैरता रहा है तो इसकी बड़ी वजह भारतीय जनता पार्टी के पास राज्य में मजबूत नेतृत्व का अभाव रहा है। चूंकि उमा दमदार रहीं हैं, लिहाजा भारतीय जनता पार्टी का पारंपरिक मतदाता उन पर भरोसा कर सकता है।
"थूक कर चाटना" इसे ही कहते हैं न?
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