लोकपाल विधेयक का जानबूझकर ये हश्र हुआ
उमेश चतुर्वेदी
लोकपाल बिल को लेकर
जो अंदेशा जताई जा रही थी...आखिर वही हुआ। विवादास्पद विधेयकों को फाड़ने और इस
बहाने लोकतंत्र को लटकाने का जरिया बनते रहे राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी
के सांसदों पर इस बार भी महिला आरक्षण दोहराने की उम्मीद जताई जा रही थी। लेकिन ऐसा
कम से कम लोकसभा में नहीं हुआ। हालांकि दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में ये उम्मीद
जताई जा रही थी कि लोकपाल को लटकाने के लिए राजनीतिक पार्टियां ऐसे कदम उठा सकती
हैं। लेकिन इस बार मुलायम सिंह ने अपने सिर महिला आरक्षण की तरह की बदनामी नहीं
ली।
लोकसभा में आरजेडी के सांसद भी बैठे रहे। लेकिन राज्यसभा में आरजेडी के
राजनीति प्रसाद ने बिल को जितनी आसानी से फाड़ा और उन्हें रोकने की आसान कोशिश
सिर्फ कांग्रेस के नेता और मंत्री अश्विनी कुमार ने की, उससे इस आशंका को बल मिल
रहा है कि कहीं राजनीति प्रसाद किसी उकसावे में तो नहीं आ गए। इस सोच की वजह भी
है। दो महीने बाद राज्यसभा का उनका कार्यकाल खत्म हो रहा है। बिहार विधानसभा में
राष्ट्रीय जनता दल के विधायकों की जो संख्या है...उसमें उनका दोबारा चुनकर आना
संभव भी नहीं है। लिहाजा शक की गुंजाइश तो बनती ही है।
वैसे राज्यसभा से
लोकपाल बिल को लटकाने का प्रमुख बहाना ये घटना नहीं बनी है। सरकार की तरफ से तर्क
दिया जा रहा है कि चूंकि 187 संशोधन सुझाए गए थे और राष्ट्रपति के आदेश के मुताबिक
गुरूवार को रात बारह बजे तक ही राज्य सभा चल सकती थी। और इतने कम वक्त में 187
संशोधनों पर चर्चा नहीं कराई जा सकती थी। लिहाजा राज्यसभा की बैठक बढ़ाई नहीं जा
सकती थी। लेकिन हकीकत तो यह है कि सरकार की सहयोगी तृणमूल कांग्रेस ही विधेयक में
लोकायुक्त की नियुक्ति को शामिल करने पर एतराज जता रही थी। समाजवादी पार्टी और
बहुजनसमाज पार्टी को सीबीआई को लोकपाल के दायरे में नहीं लाने पर एतराज है। फिर
लोकसभा में अपने संशोधनों को नकार दिए जाने से बीजेपी भी नाराज थी। जाहिर है कि
उसने भी सरकार की मजबूत घेरेबंदी की थी। जिसके चलते सरकार को अपनी भद्द पिटती नजर
आ रही थी। उसका असर ये हुआ कि सरकार ने विधेयक को टाल दिया। लेकिन सरकार की मंशा
इसी तथ्य से जाहिर हो जाती है कि कानून मंत्री सलमान खुर्शीद को यह कहने से अब
गुरेज नहीं रहा कि दोनों तरफ से खेल हुआ। विपक्ष का खेल तो समझा में आता है। लेकिन
सवाल यह है कि जिस सरकार पर इस खेल को खराब करने की जिम्मेदारी थी, वह खुद इस खेल
में शामिल हो गई। यानी साफ है कि रालेगण के बुजुर्ग और उसके साथ खड़े जनमानस के
दबाव में विधेयक तो ला दो, लेकिन इससे भविष्य में अपना ही गिरबेना फंसना है,
लिहाजा इसे अनंत काल तक के लिए टाल दो। और राजनीति ने यही किया है।
उत्तर प्रदेश के
चुनावी महाभारत में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी पर लगातार हमला कर रही
कांग्रेस को उम्मीद थी कि दोनों पार्टियां लोकसभा में लोकपाल बिल पर सहयोग
करेंगीं। लेकिन कांग्रेस की यह उम्मीद धाराशायी हो गई। कांग्रेस को उस राष्ट्रीय
जनता दल से भी सहयोग की उम्मीद थी, जिसके भले ही फकत चार लोकसभा सांसद हैं, लेकिन बिन मांगे सरकार का वह समर्थन भी कर रही है। उसके
नेता लालू प्रसाद यादव गाहे-बगाहे सरकार और सोनिया
गांधी का गुणगान करते रहे हैं। सरकार के रणनीतिकार मान कर चल रहे थे कि तीनों
पार्टियों को झक मारकर सरकार के बनाए बिल का साथ देना ही होगा। लेकिन इन तीनों पार्टियों ने कांग्रेस का साथ नहीं
दिया। दिलचस्प बात यह है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी के सांसद भी वोटिंग से पहले लोकसभा से बाहर निकल गए। और सरकार देखती रह गई।
सरकार को उम्मीद भारतीय जनता पार्टी से भी रही थी। क्योंकि मजबूत लोकपाल बिल बनाने
की मांग वह लगातार करती रही है। संसद की स्थायी समिति में बिल पर विचार करते वक्त
भी अपने असहमति नोट में बीजेपी के सांसदों ने भी जिस तरह से मजबूत लोकपाल बिल के
साथ ही राज्यों के लिए लोकायुक्त बनाने की सिफारिश की थी। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस लोकपाल विधेयक के इस हश्र के
लिए भारतीय जनता पार्टी समेत पूरे विपक्ष पर निशाना साध रही है। जाहिर है कि
राष्ट्रीय राजनीति में अपनी धुर विरोधी पार्टी को ही कटघरे में खड़ा करके कांग्रेस
जहां अपनी असलियत छिपाने की कोशिश कर रही है, वहीं बीजेपी की कथित पोल खोलने की
कोशिश कर रही है। लेकिन क्या बात सिर्फ इतनी सी ही है और क्या भारतीय जनता पार्टी
को दोष देकर सरकार आम लोगों को यह समझाने में कामयाब हो जाएगी कि उसकी कमजोरी की
वजह से लोकपाल को संवैधानिक दर्जा हासिल नहीं हो पाया। लोकतंत्र में यह सरकार
चलाने वाले दल की जिम्मेदारी होती है कि वह अपने विधेयक को उस तरह पारित करवाए, जैसा वह चाहती है। अगर आज
सरकार और उसकी रणनीति पर सवाल उठ रहे हैं तो सिर्फ इसलिए ...क्योंकि सरकार चलाना उनकी जिम्मेदारी है और अगर संसद ने अन्ना को मजबूत लोकपाल
के लिए आश्वस्त करती है तो उस आश्वासन को उसी संसद से पूरा कराने की जिम्मेदारी सरकार की ही होती है। अगर भारतीय
जनता पार्टी सरकार में होती तो वह बिना शक उसकी ही जिम्मेदारी होती।
चूंकि लोकपाल बिल
पास हो गया है, लिहाजा सरकार इसे अपनी जीत भी बता रही है हितो और अहं के टकराव में बेशक सरकार इसे अपनी जीत माने,
लेकिन ये जनभावना और जनता की जरुरतों की हार है । क्योंकि इस बिल से
जो लोकपाल बनेगा, वह सरकार के लिए जवाबदेह होगा,
उसे सरकार के इशारों
पर नाचना होगा। अगर उसे संवैधानिक दर्जा हासिल नहीं होगा तो सत्ता तंत्र के मजबूत
स्तंभों पर लगे आरोपों और उनके खिलाफ हुई शिकायतों की जांत भी नहीं कर पाएगा। मुलायम सिंह यादव और लालू
प्रसाद यादव ने जिस तरह लोकपाल बिल के मौजूदा स्वरूप का विरोध किया था, उससे साफ था कि वे मतदान
में इस बिल का साथ नहीं देने जा रहे। लालू तो इसे डेथ वारंट तक बता चुके थे। ऐसे
में अगर सरकार और उसके रणनीतिकार
उनसे उम्मीद लगा रखे थे, तो उनकी राजनीतिक नासमझी ही कही जाएगी। शायद राजनीति की यह फितरत ही है कि
वहां उम्मीदें ऐसी जगहों से परवान चढ़ती हैं,
जिन पर भरोसा नहीं
होता और पूरी भी हो जाती हैं या फिर जिन पर भरोसा होता है, वहां से उम्मीदें धाराशायी हो जाती हैं। कांग्रेस के साथ यही हुआ है।
हालांकि इस बार
कांग्रेस का जितना दांव लगा था, उससे कहीं ज्यादा दांव भारतीय जनता पार्टी का भी लगा था।
भ्रष्टाचार के खिलाफ बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी 2009 के लोकसभा चुनावों से ही अभियान चला रहे हैं। लेकिन जब बिल पर समर्थन की बात आई तो भारतीय जनता पार्टी ने
कांग्रेस को टका सा जवाब दे दिया। इसका नतीजा सामने है...लोकपाल को संवैधानिक दर्जा हासिल नहीं हो पाया
है। शायद यही वजह है कि कांग्रेस को लोकपाल को संवैधानिक दर्जा ना दिला पाने का
ठीकरा बीजेपी के सिर फोड़ने का बहाना मिल गया है। यही वजह है कि बीजेपी
उसे करारा जवाब देने में खुद को असहज महसूस कर रही है। यही वजह है कि बीजेपी बार-बार यह कहकर सफाई दे रही है
कि लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने का विचार कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का था
और बीजेपी ने इस विचार को मूर्त रूप देने का कांट्रैक्ट नहीं लिया था। लेकिन क्या बात सिर्फ इतनी सी ही है। अगर
लोकपाल को संवैधानिक दर्जा हासिल होता तो क्या उसका श्रेय भले ही राहुल गांधी को
मिलता, लेकिन क्या उसका फायदा सिर्फ कांग्रेस समर्थकों को ही मिलता, बीजेपी समर्थकों और दूसरी पार्टियों के समर्थकों और देश की आम जनता को नहीं मिलता। यही वजह
है कि जब बीजेपी से लोकपाल बिल पर सवाल पूछे जाएंगे तो उसे असहज स्थितियों का
सामना करना पड़ेगा। निश्चित तौर पर इसका असर आने वाले विधानसभा चुनावों में ही नजर
आ सकता है। चुनावी मैदान में इसके लिए कांग्रेस जहां बीजेपी को जिम्मेदार ठहराने
की कोशिश करेगी, वहीं बीजेपी कांग्रेस को इसके लिए जिम्मेदार ठहराएगी। लेकिन इस पूरी बहस में
कांग्रेस की परेशानी की तरफ किसी का ध्यान नहीं है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि
उसके अपने और साथी दलों के करीब पंद्रह सांसद भी वोटिंग के दौरान गायब रहे। अगर इस पर सवाल उठने शुरू हुए तो
कांग्रेस को जवाब देना मुश्किल हो सकता है। लेकिन इस पूरे खेल में कौन जीता और कौन
हारा...तेजी से बदलते घटनाक्रम में इसका जवाब बाद में ही मिल पाएगा।
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