नीतीश और मोदी की प्रतिद्वंद्वी हो सकती हैं ममता
उमेश चतुर्वेदी
नेशनल काउंटर
टेररिज्म सेंटर यानी एनसीटीसी के विरोध में ममता बनर्जी के उतरने के बाद उसके अमल
पर रोक लग गई है...प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ममता बनर्जी की मुलाकात के बाद इसे
रोकने के अलावा केंद्र सरकार के पास दूसरा कोई चारा नहीं था। मौजूदा केंद्र सरकार
की हालत और मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में एक-एक सांसद की अहमियत बढ़ गई है।
फिर ममता बनर्जी अपने 18 सांसदों के साथ सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण घटक है, लिहाजा
उनके विरोध को दरकिनार कर पाना एक तरह से राजनीतिक हाराकिरी ही होगी।
ममता बनर्जी
केंद्र सरकार और कांग्रेस सरकार को बार-बार परेशान कर रही हैं और उनकी हर बात
मानने के लिए मजबूर है। इससे साफ है कि ममता बनर्जी गठबंधन धर्म का वैसा निर्वाह
नहीं कर रही हैं, जैसी किसी गठबंधन सहयोगी से उम्मीद की जाती है। ममता के तेवर और
उनकी आक्रामक राजनीति पर न जाने कितनी बार चर्चाएं हो चुकी हैं, लेकिन शायद किसी
का ध्यान इस तरफ गया हो कि उनके अंदर भी राष्ट्रीय राजनीति में छा जाने की अभीप्सा
कहीं गहरे पल रही है। वैसे राजनीति में आने वाले शख्स की ऐसी महत्वाकांक्षा
अस्वाभाविक भी नहीं है। लेकिन एनसीटीसी पर जिस तरह उन्होंने खासतौर पर विपक्षी
दलों के मुख्यमंत्रियों को गोलबंद किया, उनके समर्थन में नरेंद्र मोदी और रमन सिंह
से लेकर नीतीश कुमार और नवीन पटनायक जैसे समाजवादी पृष्ठभूमि के राजनेता उतर
गए..उसने मौजूदा राजनीतिक माहौल को नया संकेत दिया है। सबसे बड़ी बात यह कि इस
गोलबंदी में दक्षिण भारत की आयरन लेडी जयललिता भी शामिल हुई हैं, उसे आसानी से
खारिज नहीं किया जा सकता। इसके राजनीतिक निहितार्थों को समझना और उसके राजनीतिक
खतरों और संभावनाओं को भी टटोलना होगा।
बिहार के अपने
सुशासन के दावे और गुजरात के विकास मॉडल के चलते केंद्र विरोधी राजनीति में जिस
तरह नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी ने अपनी पूछ और पहुंच बढ़ाई है, उससे आम राजनीतिक
समझ वाला आदमी भी मानने लगा है कि अगर 2014 के आम चुनावों में अगर खुदा न खास्ता
कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन को जीत हासिल नहीं हो पाई तो तय है कि विपक्षी
अगुआई की धुरी नरेंद्र मोदी या फिर नीतीश कुमार होंगे। भारतीय राजनीति की केंद्रीय
धुरी बनने की संभावनाएं अगर इन नेताओं में देखी-सुनी और समझी जा रही है तो निश्चित
तौर पर इसके पीछे उनकी अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि के अलावा अपने – अपने राज्यों को विकास की पटरी पर लाने की
उपलब्धि का बड़ा हाथ है। नरेंद्र मोदी ने हालांकि इन दिनों अपनी ही पार्टी में
अपने खूब विरोधी पैदा किए हैं। जिस उत्तर प्रदेश के चुनाव को पार्टी अपनी राजनीति
के लिए बेहद निर्णायक मान रही है, उस उत्तर प्रदेश में तमाम चाहनाओं के बावजूद
नरेंद्र मोदी कहीं नजर नहीं आए। उनके अध्यक्ष नितिन गडकरी अपना पूरा दम उत्तर
प्रदेश में लगाए रहे। उसमें अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार और लालकृष्ण
आडवाणी तक ने योगदान दिया। लेकिन पार्टी के सबसे बड़े स्टार और प्रचारक और उससे भी
कहीं अधिक अहम प्रधानमंत्री पद के भावी दावेदार नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश के
राजनीतिक क्षितिज पर कहीं नजर नहीं आए। पार्टी की चुनावी संभावनाओं को बेहतर बनाने
में उनका कोई योगदान नजर नहीं आया। जबकि पार्टी प्रत्याशियों की तरफ से प्रचार के
लिए उनकी सबसे ज्यादा मांग रही। उनके इस कदम से पार्टी के ही अंदर उनके खिलाफ
माहौल खड़ा हुआ है। हालांकि भारतीय जनता पार्टी का आम कार्यकर्ता अभी भी दूसरे
नेताओं की तुलना में उन्हें ही अपनी तरफ से प्रधानमंत्री पद का सबसे बड़ा दावेदार
मानता है। लेकिन अब उनकी इस दावेदारी को ममता बनर्जी से भी खतरा हो सकता है। लेकिन
कैसे इसकी चर्चा बाद में...पहले ममता के बरक्स नीतीश कुमार को होने वाले खतरे की
तरफ भी हमें ध्यान देना चाहिए। अपनी समाजवादी पृष्ठभूमि और अल्पसंख्यकों में
लोकप्रियता के दम पर विपक्ष की तरफ से नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री पद के ताकतवर
उम्मीदवार माने जा रहे हैं। राजनीतिक हलकों में कहा जाता है कि अगर भारतीय जनता
पार्टी की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 2014 के आम चुनावों में
बहुमत नहीं मिल पाया तो गैर भारतीय जनता पार्टी दलों की तरफ से एनडीए को नीतीश के
नाम पर समर्थन हासिल हो सकता है। शायद यही वजह है कि नीतीश कुमार सधे हुए कदमों से
राजनीतिक कदम उठा रहे हैं। उनकी इस स्वीकार्यता के लिए बिहार के पिछले चुनाव के
नतीजे आने से ठीक पहले की राहुल गांधी की प्रेस कांफ्रेंस का भी हवाला दिया जाता
है। जिसमें उन्होंने नीतीश की प्रशंसा करते हुए उनकी तरफ कांग्रेस का हाथ भी बढ़ा
दिया था। वैसे राहुल गांधी के इन दिनों अहम सहयोगी मोहन प्रकाश नीतीश कुमार के
शुभचिंतक रहे हैं। राजनीतिक हलके में नीतीश कुमार की शुरूआती बढ़त के पीछे मोहन
प्रकाश का हाथ रहा है। लिहाजा यह भी माना जाता है कि अगर वक्त आया तो उन्हें
कांग्रेस भी साथ दे सकती है। यह बात और है कि हाल ही में प्रेस परिषद के अध्यक्ष
न्यायमूर्ति मारकंडेय काटजू ने जिस तरह नीतीश कुमार के राज में प्रेस स्वतंत्रता
की पोल खोली है, वह उनके खिलाफ जा सकती है। लेकिन उनके लिए उससे भी बड़ा खतरा ममता
बनर्जी हो सकती हैं।
भारतीय राजनीति में
माना जाता है कि सत्ता में जाने के बाद नेता के तेवर और भूमिका बदल जाती है। लेकिन
ममता बनर्जी ने साबित किया है कि वे इसका अपवाद हैं। उन्होंने एनसीटीसी का ना
सिर्फ खुलकर विरोध किया, बल्कि विपक्षी पार्टियों के मुख्यमंत्रियों को गोलबंद
करने में भी आगे रहीं। उसका नतीजा सामने है। इसके पहले भी वे उस कांग्रेस के खिलाफ
तेवर दिखा चुकी हैं, जिसके साथ उन्होंने न सिर्फ 2004, बल्कि 2009 का आम चुनाव और
2011 का विधानसभा चुनाव जीता है। लेकिन वे एक बार नहीं, बल्कि कई बार कांग्रेस को
आंख दिखा चुकी हैं। पेट्रोल की बढ़ती कीमतों पर लगाम लगाने में विपक्षी दलों से
ज्यादा ममता के तेवर का हाथ रहा। बांग्लादेश के साथ तीस्ता नदी के जल बंटवारे को
लेकर भी वे केंद्र सरकार का विरोध कर चुकी हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ
उन्हें बांग्लादेश जाना था। लेकिन इसके विरोध में उन्होंने इस यात्रा का ही
बहिष्कार किया। एनसीटीसी के खिलाफ उन्होंने उस कार्यक्रम में भी जाने से इनकार कर
दिया, जो उनके ही राज्य के 24 परगना में होना था। एनएसजी के इस कार्यक्रम में
मुख्य अतिथि केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम थे। लेकिन ममता ने उनकी परवाह नहीं की।
जब खुदरा में विदेशी निवेश के केंद्र सरकार के फैसले के खिलाफ ममता मैदान में उतर
गईं। जिसका असर यह हुआ कि केंद्र सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा। ममता बनर्जी
ने अभी तक तो खुद नहीं कहा, लेकिन उनके पार्टी के सहयोगी पश्चिम बंगाल और केंद्र
सरकार की अपनी सहयोगी कांग्रेस पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की बी टीम के तौर
पर काम करने का आरोप तक लगा चुके हैं। इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि ममता के
कांग्रेस से रिश्ते कहां तक पहुंच चुके हैं।
राजनीति में जिसके
कदमों से विरोध का मकसद कामयाब होता है, राजनीति की धुरी अक्सर उसके इर्द-गिर्द
घूमती है। 1987 में वीपी सिंह के इर्द-गिर्द ही विपक्ष की राजनीति अगर गोलबंद हुई
थी, उसकी बड़ी वजह यह थी उनकी कांग्रेसी पृष्ठभूमि होना। कांग्रेस में रहने के
चलते उनके विरोध को ज्यादा प्रमाणिक माना गया। राजनीति का यह फैक्टर भी ममता के
पक्ष में जाता है। क्योंकि उनका राजनीतिक कैरियर कांग्रेस में ही शुरू हुआ और एक
हद तक परवान चढ़ा। कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने अपना मुकाम बनाया और फिर वे उसी
कांग्रेस के साथ चली गईं। इससे एक चीज साबित होती है कि उनकी स्वीकार्यता मोदी और
नीतीश कुमार की तुलना कम से कम उन दलों में ज्यादा हो सकती है, जो भारतीय जनता
पार्टी से सहानुभूति नहीं रखते। केंद्र की राजनीतिक धुरी बनने की ममता की राह में
अगर कोई बड़ी बाधा है तो वह है मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी। लेकिन जब केंद्र की राजनीति में ऐसा मौका आए कि कांग्रेस को भी नरेंद्र
मोदी, नीतीश कुमार और ममता बनर्जी में से किसी एक को चुनना पड़े तो वह अपनी ही
परिवार की ममता पर कहीं ज्यादा भरोसा करेगी। ममता के खिलाफ उनकी अस्थिर राजनीति भी
जाती है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि उनकी ईमानदारी पर अभी तक सवाल नहीं उठा है।
उनकी सादगी भरी जिंदगी भविष्य में भी शायद ही ऐसा सवाल उठाने का मौका दे। यह सादगी
और उनकी ईमानदारी ताकत है। सांप्रदायिकता और उसके विरोध के नाम पर गोलबंद हुई
मौजूदा राजनीति के वाजिब-नावाजिब होने पर चाहे जितनी भी बहस हो, लेकिन यह कड़वी
हकीकत है। राजनीति की इस मौजूदा गोलबंदी में ममता भारी ही पड़ती हैं। नीतीश कुमार
की पूरी राजनीति सांप्रदायिकता विरोध की इसी गोलबंदी पर आगे बढ़ रही है। लेकिन
केंद्र सरकार के तमाम कदमों के मुखर विरोध ने अब ममता को उनके सामने ला खड़ा किया
है। तो क्या यह मान लिया जाय कि ममता बनर्जी केंद्र की भावी राजनीति में विपक्ष की
महत्वपूर्ण धुरी साबित होंगी। फिलहाल जो सियासी माहौल दिख रहा है, उससे तो यही
साबित होता नजर आ रहा है।
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