जरूरी है बराबरी के आधार वाली बुनियादी शिक्षा
उमेश चतुर्वेदी
जब से शिक्षा का
अधिकार कानून लागू किया गया है, तभी से नामी –गिरामी पब्लिक और निजी स्कूलों ने इसकी काट खोजने की
कवायद जारी रखी है। शिक्षा के अधिकार कानून में निजी और पब्लिक स्कूलों में गरीब
बच्चों के लिए सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है। निजी और पब्लिक स्कूलों को सबसे
ज्यादा परेशानी इसी प्रावधान से रही है। क्योंकि उनकी मोटी कमाई का एक बड़ा हिस्सा
इसके जरिए कम होता नजर आ रहा है भले ही उनके पाठ्यक्रमों में कृष्ण और सुदामा की
पौराणिक कथा दोस्ती की मिसाल के तौर पर शामिल हो, लेकिन हकीकत में वे कृष्ण और
सुदामा को साथ बैठाने और पढ़ाने की अवधारणा से ही पीछा छुड़ाने की कोशिश करते रहे
हैं।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उनकी इस कोशिश पर पलीता लगा दिया है। ऐसे
में उम्मीद तो जताई जा रही है कि कृष्ण और सुदामा की कहानी एक बार फिर कम से कम
स्कूली स्तर पर दोहराई जाएगी। लेकिन जिस तरह कार्यपालिका और उसके तंत्र अपनी
जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाते रहे हैं, उसकी वजह से यह आशंका बनी हुई है कि
पब्लिक और निजी स्कूल देर-सवेर इसकी काट जरूर खोज निकालेंगे। क्योंकि अब तक मोटी कमाई
करते रहे इन स्कूलों का प्रबंधन आसानी से बराबरी के अधिकार को स्वीकार कर लेगा,
संभव नहीं लगता।
अपने देश में कृष्ण
और सुदामा की कहानी बुनियादी शिक्षा में बराबरी का महत्व जताने के लिए काफी है।
विकासशील और विकसिद दुनिया का बड़ा हिस्सा कम से कम बुनियादी शिक्षा में बराबरी की
ना सिर्फ वकालत करता है, बल्कि उस व्यवस्था को अपनाए हुए भी है। लेकिन भारत में
ऐसा नहीं हो पाया है। एक तरफ भारत के 10 लाख 35 हजार सरकारी स्कूल हैं, जिनमें
सुविधाओं का टोटा है। राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार के बोलबाला के दौर में इन
स्कूलों के लिए भर्ती किए गए शिक्षकों में ऐसे भी लोग आ गए हैं, जिनके लिए शिक्षक
का पेशा भी महज नौकरी है, कई ऐसे भी हैं जिनकी योग्यता और कार्यकुशलता पर सवाल है।
लिहाजा सरकारी स्कूलों का शैक्षिक स्तर लगातार लचर होता गया है। पिछले दिनों आई
प्रथम की रिपोर्ट ने इसे जाहिर भी किया है। प्रथम पिछले सात साल से केंद्रीय मानव
संसाधन विकास मंत्रालय की तरफ से ग्रामीण स्कूली शिक्षा पर असर रिपोर्ट तैयार कर
रही है। इस साल 17 जनवरी को जो रिपोर्ट जारी की गई है, उसे 65000 बच्चों की
जांच के आधार पर तैयार किया गया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में छह से
चौदह साल की उम्र के 96 फीसदी से
भी ज्यादा बच्चों का स्कूलों में दाखिला तो होने लगा है। लेकिन हकीकत ये है कि वे
सिर्फ दाखिला ही ले रहे हैं। उनके ज्ञान और सूचना के स्तर में कोई उल्लेखनीय
वृद्धि नहीं हुई है। उलटे गिरावट ही देखी जा रही है। प्रथम के एनुअल स्टेटस ऑफ
एजुकेशन रिपोर्ट यानी असर के मुताबिक स्कूलों में बच्चों की संख्या में बढ़ोत्तरी
तो हुई है, लेकिन शिक्षा के स्तर में गिरावट देखी गई है। यह गिरावट खासकर उत्तरी
भारत के हिंदी भाषी राज्यों में ज्यादा देखी गई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक 2010
में जहां पांचवी कक्षा के 54 फीसदी छात्र दूसरी कक्षा की किताब पढ़कर समझने
में समर्थ थे, वहीं 2011 में यह औसत गिरकर 48.2 फीसदी रह गया। इसी तरह तीसरी कक्षा के सिर्फ 29.9
प्रतिशत बच्चे हासिल का घटाना कर पाए। दूसरी
ओर गुजरात, पंजाब तथा दक्षिण के राज्यों में स्थिति में सुधार हुआ है। इसी तरह
गणित की समझ के मामले में भी बच्चों का प्रदर्शन गिरा है। दो अंकों के जोड़ घटाव
जैसे सवालों को तीसरी कक्षा के मात्र 30 फीसदी छात्र ही हल कर सके,
जबकि 2010 में यह औसत 36 फीसदी से भी अधिक था। यह
गिरावट दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़कर ज्यादातर बच्चों में पाई गई। लेकिन दूसरी तरफ दो लाख 59 हजार निजी और
पब्लिक स्कूल भी हैं। जिनके पास शैक्षिक सुविधाएं हैं, सहूलियतें हैं और अध्यापकों
पर पढ़ाई कराने का दबाव भी है। अपनी इन सहूलियतों के लिए ही ये स्कूल और उनका
प्रबंधन शिक्षा के अधिकार का कानून के प्रावधानों के मुताबिक गरीब बच्चों को
दाखिला देने का विरोध करते रहे हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट ने उनकी दलील को नकारा है
तो इसकी बड़ी वजह यह है कि पब्लिक और निजी स्कूल ज्यादातर ऐसी जमीनों पर बनाए गए
हैं, जिन्हें सरकार, सरकारी संस्थान या स्थानीय निकाय ने सामाजिक सेवा के लिए
सस्ती दरों पर आवंटित किया है। स्कूलों को औद्योगिक और बाजार की दर पर जमीनें नहीं
दी जातीं। पानी-बिजली का कनेक्शन भी रियायती दरों पर मुहैया कराया जाता है। जाहिर
है कि सरकार और समाज से इतनी सारी सहूलियतें हासिल करने के बाद वे सरकारी
प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर सकते।
बुनियादी शिक्षा में
बराबरी की वकालत करने वालों का तर्क है कि इससे समूचा समाज इंसाफ और बराबरी की सोच
के साथ विकसित होता है। भावी नागरिकों के बीच ऊंच-नीच और बड़े-छोटे की भावना नहीं
रहती। बराबरी की बुनियादी शिक्षा का आधार ऐसे नागरिकों की फौज तैयार करता है, जहां
विकास प्राथमिकता होती है, गैरबराबरी का भाव नहीं। गांधी ने इसी लिए बुनियादी
शिक्षा की वकालत की थी। अपने मानस में स्थित आदर्श को अपने आश्रमों में वे उन्हें
जमीनी हकीकत में बदलने की कोशिश करते रहे। डॉक्टर जाकिर हुसैन के जरिए उन्होंने
बुनियादी तालीम पर रिपोर्ट भी तैयार कराई थी। आजाद भारत में शिक्षा का जो ढांचा
विकसित किया गया, उसका वैचारिक आधार बुनियादी तालीम को लेकर गांधी की सोच ही थी।
लेकिन जैसे-जैसे औद्योगीकरण और विकास की नई अवधारणा विकसित होती गई, गांधीवाद से
हकीकत में विचलन बढ़ा और ऐसी शिक्षा व्यवस्था विकसित होने लगी, जिसमें बराबरी की
गुंजाइश कम होती गई। जिंदगी के संघर्ष में भी पब्लिक स्कूलों से निकले लोगों को
अहमियत मिलने लगी। तब इस पर ध्यान नहीं दिया गया। नतीजतन देश में सरकारी स्तर पर
बुनियादी शिक्षा का व्यापक ढांचा होने के बावजूद महंगे पब्लिक स्कूलों की तरफ
लोगों का आकर्षण बढ़ा। यह आकर्षण ही है कि पब्लिक स्कूल खुद को समाज के उपरी तबके
का प्रतिनिधित्व करने लगे।
सुप्रीम कोर्ट के
फैसले के बाद बेशक मौजूदा भारत के कृष्ण और सुदामा साथ बैठने लगें. लेकिन इससे
बुनियादी शिक्षा के एक ही पक्ष का निदान होगा। अव्वल तो होना यह चाहिए कि देशभर
में फैले बुनियादी शिक्षा के सरकारी ढांचे को ही अपग्रेड किया जाता। उनमें काम कर
रहे शिक्षकों में यह बात भरने की कोशिश की जाती कि वे महज क ख ग या एबीसीडी रटाने
वाली मशीन नहीं हैं, बल्कि भावी समाज के निर्माता हैं। सरकारी शैक्षिक तंत्र को
निजी तंत्र के मुकाबले में सहूलियतों और सुविधाओं के औजार के साथ उतारा जाता।
लेकिन ऐसा नहीं होता। जापान ने 1872 में फंडामेंटल कोड ऑफ एजूकेशन लागू किया और
1910 तक आते-आते जापान पूरी तरह साक्षर हो गया। इस कोड ने जापान में ऐसी भावना भरी
है कि वह तमाम झंझावातों को सहजता से झेल जाता है और जल्द ही उठ खड़ा भी होता है।
1945 में नागासाकी और हिरोशिमा पर हुए परमाणु हमले के बाद बर्बाद जापान हो या 2011
में आए भूकंप और सुनामी की तबाही, जापान हर बार उठ खड़ा हुआ। गांधी भी एक हद तक
ऐसी ही शिक्षा व्यवस्था चाहते थे, जो नागरिकों को हर मुकाबले में तन कर खड़ा होने
और चुनौतियों का मुकाबला करने के योग्य बना सके। लोकतांत्रिक समाज में जनता के लिए
सीधे जिम्मेदार कार्यपालिका पर ऐसे कदम उठाने का ज्यादा नैतिक आधार बनता है। लेकिन
दुर्भाग्यवश ऐसा कम ही हो पाता है। अपेक्षाकृत जनता से सीधे संबंध ना होने के
बावजूद न्यायपालिका ऐसे कदम उठाने में कार्यपालिका पर भारी पड़ रही है। तो क्या
उम्मीद करें कि बराबरी के आधार वाली बुनियादी शिक्षा के लिए भी न्यायपालिका ही आगे
आएगी।
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