उमेश चतुर्वेदी
(प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित )
जयपुर चिंतन बैठक
में पार्टी के औपचारिक तौर पर नंबर दो बनने के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी
ने जिस तरह बैठकों का दौर शुरू कर दिया है, उससे साफ है कि पार्टी में भले ही
औपचारिक तौर पर वे नंबर दो हैं, लेकिन असलियत में वे नंबर एक बनने की प्रक्रिया का
एक सोपान पार कर चुके हैं। यह प्रक्रिया कांग्रेस मुख्यालय में 24 जनवरी को नजर
आयी, जब उपाध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी पहली बार वहां पहुंचे। नीली जींस और
सफेद कुर्ते में पहुंचे राहुल के इस पहनावे में भी कांग्रेस की भावी संस्कृति और
कदमों के संकेत देखे गए। माना गया कि राहुल की कांग्रेस आग और अनुभव का मेल होगी।
अपनी नई टीम बनाने के लिए उन्होंने जिस तरह बैठकों का दौर जारी रखा है, उससे अभी
तक कोई साफ संकेत तो नहीं निकले हैं। ना ही राहुल गांधी ने अपनी जुबान खोली है।
लेकिन यह तय है कि उनकी टीम अनुभव की उतनी ही आंच होगी, जितना नई आग को सुलगाने
में उसकी भूमिका होगी।
कांग्रेस के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि जिस तरह अन्ना और
केजरीवाल के आंदोलन में नौजवानों की भीड़ उमड़ी या फिर दामिनी रेप कांड में युवाओं
का गुस्सा दिखा, उसने राहुल गांधी को सोचने को मजबूर कर दिया है। राहुल और उनके
सिपहसालार मानते हैं कि नौजवानों को पार्टी से जोड़े बिना कांग्रेस का अपने दम पर
सरकार बनाने का सपना या 2014 में वापसी की कवायद पूरी नहीं हो सकती है। इसलिए वे
बार-बार युवाओं को आगे लाने की बात कर रहे हैं। जयपुर चिंतन शिविर का उनका भाषण हो
या फिर उपाध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस पदाधिकारियों की पहली औपचारिक बैठक, दोनों
ही मर्तबा उन्होंने यह जरूर कहा कि कांग्रेस में नियम बनाए जाते हैं और उसे जल्द
ही तोड़ दिया जाता है। इसका मकसद साफ है कि कांग्रेस में वरिष्ठों की सहूलियत के
लिहाज नियम तोड़ दिए जाते हैं और नौजवानों को मौका ही नहीं दिया जाता। राहुल की इस
बेबाकी से भी जाहिर है कि वे पुराने नेताओं के सहूलियतवादी कर्मकांडी व्यवहार से
खुश नहीं हैं।
राहुल की इस बेबाकी
पर ना सिर्फ कांग्रेस की कामयाबी टिकी हुई है, बल्कि वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं की
निगाह भी लगी हुई है। वैसे तो देश की ज्यादातर पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र या
तो है या ना के बराबर है। कांग्रेस का हाल भी इससे इतर नहीं है। लेकिन यह भी सच है
कि कांग्रेस जैसी पार्टियों में वरिष्ठों की अपनी सहूलियतें ही पार्टी की कम से कम
उनके इलाके की राजनीति की दिशा तय करती रही है। इससे निश्चित तौर पर उस खास नेता
की राजनीति और अर्थनीति मजबूत बनी रहती है, लेकिन कांग्रेस की ताकत पर इसका
नकारात्मक असर पड़ता रहा है। देश की एकछत्र पार्टी रही कांग्रेस अगर आज गठबंधन की
राजनीति के सहारे मनमोहन सरकार को चला रही है तो इसकी बड़ी वजह वरिष्ठ कांग्रेसी
जनों की सहूलियतों का कहीं ज्यादा ध्यान रखा जाना रहा है। जिस पार्टी में कभी
महावीर त्यागी जैसे बेबाक नेता रहे हों, जिन्हें नेहरू के फैसलों पर सवाल उठाने से
परहेज नहीं रहा हो, उस पार्टी में हां-हूं करने वाले नेताओं की बाढ़ आज की पीढ़ी
को भले ही हैरत में नहीं डालती हो। लेकिन इससे आंतरिक लोकतंत्र की हिमायती
शक्तियों को निराशा जरूर होती है। हालांकि खुद राहुल गांधी का कांग्रेस में उभार
भी अंदरूनी राजनीति की उपज नहीं हैं। लेकिन यह जरूर है कि वे आंतरिक राजनीति और
काम करने वाले लोगों को तरजीह देने की बात जरूर कर रहे हैं।
राहुल गांधी की यह
चाहत कांग्रेस के लिए ना सिर्फ ताकत हो सकती है, बल्कि उनका यह दांव उलटा भी पड़
सकता है। सबसे पहले बात करते हैं कांग्रेस के ताकत की। अगर राहुल नए लोगों को आगे
लाने में कामयाब होते हैं तो निश्चित तौर पर इससे उन कार्यकर्ताओं में उत्साह
बढ़ेगा, जो अब तक पार्टी के कार्यक्रमों में बड़े और स्थापित नेताओं के निर्देश पर
दरी और जाजिम बिछाते रहे हैं। ऐसा करते वक्त वे सिर्फ छिटपुट फायदे की उम्मीद तो
कर सकते हैं, लेकिन उन्हें कोई बड़ा राजनीतिक फायदा और ओहदा मिलने की उम्मीद कम ही
रहती है। इससे जातियों और धर्मों के ध्रुवों में बंटी भारतीय राजनीति को नई उम्मीद
मिल सकती है। इससे जातियों और धर्मों के आधार पर राजनीति करने वाली क्षेत्रीय
ताकतें भी कमजोर पड़ सकती हैं। लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि क्या अब तक इन्हीं के
सहारे अपनी राजनीतिक रोटी सेंकती रही वे पार्टियां, जो अभी कांग्रेस के ही साथ
हैं, राहुल के इस काम में सहयोगी बन पाएंगी। तब उनके ही अस्तित्व पर सवाल उठ खड़ा
होगा। जिसका असर यह होगा कि ये पार्टियां राहुल की इस नई राजनीति की काट खोजने में
जुट पड़ेंगी। हो सकता है, वे जुटी भी हों। लेकिन राहुल की इस कवायद को सबसे बड़ा
झटका कांग्रेस के ही बड़े नेताओं से मिलने वाला है। खासकर उन नेताओं की तरफ से
राहुल के इस राजनीतिक कदम में फांस दिख सकती है, जो या तो सोनिया गांधी से जुड़े
हैं या फिर इंदिरा-राजीव के जमाने से कांग्रेस की वे ताकत बने हुए हैं। दरअसल जब
भी नया नेतृत्व उभरता है तो पुराने नेतृत्व की सलाहकार ताकतें किनारे कर दी जाती
हैं। इसकी वजह यह है कि पुराने नेतृत्व की सलाहकार ताकतें नए नेतृत्व के साथ
वरिष्ठता के लिहाज से व्यवहार करती हैं। इसलिए हर बार नया नेतृत्व पुरानी पीढ़ी के
साथ रही ताकतवर मंडली को पूरी इज्जत के साथ किनारे बैठा देता है। इस पीढ़ी को
इज्जत तो मिलती है, लेकिन हकीकत में उसके पास ताकत नहीं रह जाती। इस लिहाज से
देखें तो यह तय है कि राहुल की नई टीम में पुराने लोग किनारे किए जाएंगे और नए
लोगों को मौका मिलेगा। इसीलिए पुराने लोग थोड़े असहज हैं। 24 जनवरी को कांग्रेस
मुख्यालय में राहुल गांधी का स्वागत जिन लोगों ने देखा है, उन्हें याद होगा कि
पुरानी पीढ़ी के ताकतवर चेहरों में उत्साह नहीं था। बेशक वे उत्साह से लबरेज दिखने
की कोशिश जरूर कर रहे थे। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की बुरी गत
के लिए इसी पुरानी पीढ़ी की तरफ खुद कांग्रेसियों ने इशारा किया था। कांग्रेसियों
का तर्क था कि यदि उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की कोशिशों से कांग्रेस को जीत
हासिल हो जाती तो उनकी राजनीतिक ताकत अचानक बढ़ जाती। तब पुरानी पीढ़ी के नेताओं
की पार्टी के अंदर वकत घट जाती। आरोप तो यहां तक लगे कि कांग्रेस के एक ताकतवर
नेता ने मुलायम सिंह यादव को पार्टी की अंदरूनी रणनीति और जानकारियां तक मुहैया
कराई। इतना ही नहीं, उन्हें पैसे भी दिए। ऐसा नहीं कि राहुल गांधी को इस भीतरघात
की जानकारी नहीं है। उनके एक नजदीकी नेता का दावा है कि राहुल गांधी अब सबकुछ समझ
रहे हैं और उनकी नई टीम में इन सारे तथ्यों का ध्यान रखा जाएगा। लेकिन राहुल गांधी
की मजबूरी यह है कि जानते हुए भी वे ऐसी ताकतों के खिलाफ कदम नहीं उठा सकते।
क्योंकि उन्हें भी पता है कि ये ताकतें 2014 के चुनावों में जीत भले ही ना दिला
सकें, फच्चर जरूर फंसा सकती हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि राहुल गांधी के
उपाध्यक्ष का ताज कांटों का ताज है। जिसे पहनना तो आसान है, लेकिन उसे राजनीतिक
तौर पर बचाए रखना आसान नहीं है। अब देखना यह है कि राहुल के सिपहसालार और खुद
राहुल एक ऐसी टीम बनाने में कामयाब हो पाते हैं, जो उनकी अपेक्षाओं के मुताबिक ना
सिर्फ कांग्रेस को बना पाएगी, बल्कि पार्टी के पुराने गौरवमयी दिनों को वापस लौटा
पाएगी।
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