उमेश चतुर्वेदी
दागियों
को माननीय बनने और बनाने से रोकने वाले विधेयक और अध्यादेश की वापसी ने
सरकार और विपक्ष दोनों के बीच श्रेय लेने की होड़ का मौका दे दिया है।
सरकार की अगुआई कर रही कांग्रेस पार्टी जहां इसके लिए पूरा श्रेय राहुल
गांधी को देने की पुरजोर कोशिश कर ही रही है। विपक्ष भी इसका पूरा श्रेय
खुद लेना चाहता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इसका पूरा श्रेय राहुल गांधी
को ही मिलना चाहिए। सवाल यह भी है कि क्या विपक्ष की इसमें कोई भूमिका नहीं
रही। सवाल यह भी है कि क्या वामपंथी दलों ने राजनीतिक गंगा को साफ करने
वाले इस यज्ञ में कोई योगदान नहीं दिया और क्या इस एक फैसले से नरेंद्र
मोदी की तरफ से राहुल गांधी को जो चुनौती मिलती नजर आ रही है, उस पर लगाम
लग जाएगा।
मनमोहन
सिंह की अगुआई वाली सरकार के बारे में जनमानस में एक धारणा तो यह जरूर बनी
हुई है कि वह मजबूत नहीं, बल्कि गांधी परिवार के इशारे पर काम करती है।
इसलिए यह मानने को देश शायद ही तैयार होगा कि हड़बड़ी में अध्यादेश की
कैबिनेट से मंजूरी मिलने और उसे राष्ट्रपति के पास भेजे जाने की जानकारी
कांग्रेस के असल सत्ता केंद्र दस जनपथ या राहुल गांधी को नहीं रही होगी।
अगर राहुल गांधी या कांग्रेस का सत्ता केंद्र इस अध्यादेश के खिलाफ इतना ही
था तो उसने इसने शुरू में ही क्यों नहीं रोक दिया और इसे पारित कराने की
नौबत ही क्यों आने दी। अध्यादेश वापसी के फैसले के बाद भले ही सूचना और
प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी यह कह रहे हों कि अध्यादेश और बिल को वापस लेने
का निर्णय यह जाहिर करता है कि सरकार जनता की इच्छाओं के प्रति संवेदनशील
है, लेकिन आम जनता उनके इस तर्क को मानने को तैयार होगी। माना तो यह जा रहा
है कि हड़बड़ी में जब यह अध्यादेश पास करके राष्ट्रपति के पास भेजा गया तो
उन्होंने तीन मंत्रियों गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे, कानून मंत्री कपिल
सिब्बल और संसदीय कार्य मंत्री कमलनाथ को तलब कर लिया और इस हड़बड़ी की वजह
पूछ ली। राष्ट्रपति के इस तेवर के बाद ना सिर्फ सरकार की प्रतिष्ठा दांव
पर लग गई, बल्कि कांग्रेस पर भी दबाव बढ़ गया। इस बीच सुषमा स्वराज ने
ट्विटर पर इस अध्यादेश के औचित्य पर ही सवाल उठा दिया। भारतीय जनता पार्टी
की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी हर एक मंच पर इन
दिनों कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार को निशाना बना रहे हैं, लिहाजा
अध्यादेश ने भी उन्हें एक मौका दे दिया। इसे लेकर सरकार पर बरसने और
कांग्रेस के कर्ताधर्ताओं को निशाना बनाने के लिए उनके पास एक और हथियार
मिल गया। इससे कांग्रेस की किरकिरी बढ़ती गई और फिर राहुल गांधी ने अचानक
इस अध्यादेश को बकवास बताकर ना सिर्फ प्रधानमंत्री, बल्कि कैबिनेट की साख
पर ही सवाल खड़े कर दिए। कहना ना होगा कि भारतीय जनता पार्टी इसीलिए इस
अध्यादेश वापसी को अपनी जीत के तौर पर पेश कर रही है और बार-बार कह रही है
कि यह वापसी सिर्फ एक परिवार यानी गांधी परिवार के कहने से हुई है और इससे
प्रधानमंत्री पद की साख गिरी है। रविशंकर प्रसाद ने तत्काल अपनी
प्रतिक्रिया में इन्हीं विंदुओं पर निशाना बनाते हुए कहा कि इस फैसले का
नैतिकता, वैधानिकता, वैधता,संवैधानिकता से कुछ भी लेना-देना नहीं है और यह
परिवार की शक्ति है, जिसके सामने प्रधानमंत्री और कैबिनेट झुक जाती है।
हालांकि कांग्रेस अपने नुकसान की भरपाई को लेकर सर्वदलीय बैठक का हवाला दे
रही है और कह रही है कि इसमें बीजेपी ने भी इसका समर्थन किया था। लेकिन
सुषमा स्वराज इसका भी विरोध कर रही हैं। इस पूरे खेल में सबसे साफ वामपंथी
दल नजर आ रहे हैं। क्योंकि वे शुरू से ही इस अध्यादेश और फैसले के खिलाफ
थे। उनका आरोप है कि शुरू से ही सरकार और कांग्रेस ने उनकी राय को नजरंदाज
किया। ऐसा नहीं कि सरकार के सभी धड़े इस अध्यादेश वापसी के समर्थन में थे।
शरद पवार ने तो कैबिनेट में विरोध भी जताया। यह बात और है कि बढ़ते जन दबाव
के आगे उन्हें भी झुकना पड़ा। कैबिनेट में शामिल नेशनल कांफ्रेंस भी वापसी
के इस फैसले के खिलाफ रही। यह बात और है कि कैबिनेट में फारुख अब्दुल्ला
ने कोई विरोध नहीं किया। सरकार का बाहर से समर्थन देती रही समाजवादी पार्टी
इस वापसी के खिलाफ अब भी है।
यह
सच है कि इस अध्यादेश को लाने का दबाव लालू और रशीद मसूद के खिलाफ आशंकित
फैसले को लेकर बढ़ा। लेकिन कुछ जानकार बताते हैं कि राहुल गांधी के कुछ
सलाहकार नहीं चाहते कि लालू बाहर आएं और उन्होंने इस अध्यादेश को निबटाने
की सलाह दे डाली। हालांकि इससे खुद उसके भी एक सांसद रशीद मसूद भी चपेटे
में आ गए हैं। विधेयक और अध्यादेश की वापसी के बाद एक बात तय हो गई है कि
अब न्यायालय से सजा प्राप्त किसी लालू यादव, किसी राशिद मसूद को छोड़ने की
कोशिश कोई भी राजनीतिक दल नहीं कर पाएगा। लेकिन क्या गारंटी है कि किसी
अपराधी को एनकाउंटर के लिए पुलिस सरगर्मी से तलाश रही होगी, और उसे सजा
नहीं मिली होगी तो कोई राजनीतिक दल उस अपराधी को टिकट नहीं देगा और उसे
मंत्री नहीं बनाएगा। नब्बे के दशक के शुरूआती दिनों में उत्तर प्रदेश और
बिहार में ऐसा खूब हुआ। जिन्हें जेलों के भीतर होना चाहिए था, उन्हें
राजनीतिक दलों ने ना सिर्फ टिकट दिए, बल्कि केंद्र और राज्य में मौका मिलते
ही मंत्री बनाया। महात्मा बुद्ध ने अंगुलिमाल को उससे अपराध छुड़ाकर उसे
बौद्ध बनाया था। लेकिन ये राजनीतिक दल उनसे भी आगे निकल गए और अंगुलिमाल को
अंगुलियों की माला भी पहने रहने की छूट दी, उन्होंने अंगुलियां भी काटना
नहीं छोड़ा और उन्हें राजनीतिक दलों ने अपने टिकट रुपी शुचिता के
संन्यासदंड से उन्हें बौद्ध भी बना दिया। इसलिए जरूरी है कि राजनीतिक तंत्र
को अपराध से मुक्त करने की लड़ाई अध्यादेश वापसी के बाद तार्किक अंत तक
पहुंचती दिखाई पड़ रही है, उसे सही मायने में तार्किक परिणति तब मिलेगी, जब
राजनीति के उत्स तंत्र से ही यह सफाई अभियान चलेगा। लेकिन ऐसा होने में शक
इसलिए है, क्योंकि अब भी ऐसी राजनीति करने वाले दलों के रूप में बदनाम रहे
कुछ दलों की तरफ से इस अध्यादेश वापसी को लेकर विरोध बना हुआ है। समाजवादी
पार्टी उनमें से एक है। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म की आंकड़ों तो
जनमानस में राजनीतिक दलों को लेकर बनी छवि को सिर्फ दस्तावेजी पुष्टि ही
करते हैं। लेकिन जनता मानती और जानती है कि राजनीति में अपराध के तंत्र को
मिलाने वाले दल कौन हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश जाति और धर्म की जकड़न से
ग्रस्त आम वोटर भी इसी तंत्र पर अपना भरोसा करता रहा है। अध्यादेश वापसी के
बाद सबसे बड़ा बदलाव अगर कुछ होगा तो यही कि अब जनता के बीच भी संदेश
जाएगा कि आपराधिक तंत्र को अपने वोटों के समर्थन से अलग ही रखा जाना चाहिए।
बहरहाल
यह तय है कि इस अध्यादेश वापसी का श्रेय लेने और उसके दम पर जनता की ताकत
अपने पक्ष में करने की कवायद तेज होगी। निश्चित तौर पर प्रधानमंत्री पद के
दोनों दावेदार राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी एक-दूसरे पर इस हथियार से भी
हमला करेंगे। राहुल इस वापसी का श्रेय ले सकते हैं। लेकिन उन्हें इस सवाल
का जवाब देना भारी पड़ सकता है कि आखिर पहले ही उन्होंने क्यों नहीं इस
अध्यादेश को रोका या इससे संबंधित विधेयक संसद में आने ही क्यों दिया।
उन्हें इसकी सफाई भी देनी होगी कि ऐसा करके उन्होंने सिर्फ लोकतंत्र को
बचाने का काम किया है, प्रधानमंत्री और कैबिनेट की गरिमा को कम नहीं की है।
जनता इसे कितना स्वीकार करती है और किसके तर्कों को भरोसा करती है, इसका
जल्दी नतीजा अगले पांच विधानसभा चुनावों में ही नजर आ जाएगा।
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