पता नहीं क्यों..यह लेख अखबारों में जगह नहीं बना पाया..हरिभूमि में इसका संपादित अंश प्रकाशित हुआ है.....पूरा लेख अविकल यहां प्रकाशित किया जा रहा है....
उमेश चतुर्वेदी
लोकसभा से अपने 25 सांसदों के निलंबन के बाद
कांग्रेस का आक्रामक होना स्वाभाविक ही था। लोकतांत्रिक समाज में विपक्ष अक्सर ऐसे
अवसरों की ताक में रहता है, ताकि वह खुद को शहीद साबित करके जनता की नजरों में चढ़
सके। ठीक सवा साल पहले मिली ऐतिहासिक और करारी हार से पस्त पड़ी 130 साल पुरानी
पार्टी कांग्रेस के लिए यह निलंबन अपने कैडर और अपने निचले स्तर तक के
कार्यकर्ताओं को जगाने और उनमें नई जान फूंकने का मौका बन कर आया। अपने सांसदों के
निलंबन को लेकर उसे शहीदाना अंदाज में रहना ही चाहिए था। संसद में जारी हंगामे के
पीछे ललित मोदी की मदद को लेकर सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे के इस्तीफे की मांग
को ही कांग्रेस असल वजह बता रही है। राजनीति का तकाजा भी है कि वह इसी तथ्य को
जाहिर करे। लेकिन क्या हंगामे और उसके बाद निलंबन का सच सिर्फ इतना ही है ? सवाल यह भी उठता है कि क्या
संसद में हंगामे और उसे न चलने देने की परिपाटी की शुरूआत भारतीय जनता पार्टी ने
ही की, जैसा कि कांग्रेस लगातार कह रही है। इस हंगामे की असल वजह क्या सिर्फ सुषमा
और वसुंधरा के इस्तीफे की मांग का सत्ता पक्ष द्वारा ठुकराया जाना ही है? इन सवालों का सही जवाब देर-सवेर ढूंढ़ा भी जाएगा और सामने आएगा भी। तब
निश्चित तौर पर सत्ता और विपक्ष- दोनों पक्षों को कम से कम जनता की अदालत में जवाब
देना भारी पड़ेगा। लेकिन तब तक आम लोगों के अधिकारों के साथ जितना खिलवाड़ होना
होगा, वह हो चुकेगा...
हालिया इतिहास में मौजूदा संसदीय हंगामे की
शुरूआत का श्रेय भारतीय जनता पार्टी के ही नाम चस्पा हो चुका है। नरसिंह राव की
सरकार के वक्त जब हिमाचल फ्यूचरिस्टिक घोटाला सामने आया था, तब 1995 में इस घोटाले
के लिए जिम्मेदार तत्कालीन संचार राज्य मंत्री सुखराम के इस्तीफे की मांग को लेकर
भारतीय जनता पार्टी ने 17 दिनों तक संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी थी। तब भारतीय
जनता पार्टी के इस रूप को जनता ने आसभरी नजरों से देखा था। जनता की उम्मीदों की
वजह सुखराम के घर पड़े सीबीआई के छापे और उस दौरान मिले नोटों का वह अंबार रहा,
जिन्हें गिनने के लिए सीबीआई की टीम को दिल्ली के सफदरजंग लेन के सुखराम के बंगले
में बैंकों से नोट गिनने वाली मशीन मंगानी पड़ी थी। हालांकि यह बात और है कि बाद
में वही सुखराम हिमाचल प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी बन गए थे। तब जनता
की उम्मीदों को जरूर झटका लगा था। चूंकि इस समय कांग्रेस विपक्ष में है। इसलिए वह
इस इतिहास की याद बार-बार दिला रही है। वह यह भी बताते नहीं थक रही है कि यूपीए दो
के शासन काल में भी चार साल में संसद सिर्फ नौ सौ घंटे ही चल पाई यानी औसतन सवा दो
सौ घंटे प्रति साल के हिसाब से। तब भारतीय जनता पार्टी के ही दबाव में पवन बंसल की
रेल मंत्री और शशि थरूर की विदेश मंत्रालय से विदाई हुई थी। कांग्रेस अब उसी तर्ज
पर सुषमा और वसुंधरा का इस्तीफा मांग रही है।
मौजूदा भारतीय जनता पार्टी की सरकार का तर्क है
कि सुषमा और वसुंधरा ने कोई गुनाह किया ही नहीं। अव्वल तो ललित मोदी को वीजा
दिलाने में ब्रिटिश अधिकारियों से कोई एतराज ना जताने की वजह पार्टी की नजर में
कोई इतना बड़ा गुनाह भी नहीं है कि उसके लिए सुषमा को इस्तीफा देना पड़े। इसमें
कोई आर्थिक घोटाला सीधे-सीधे जुड़ा भी नहीं है। रही बात ललित मोदी से रिश्तों की
तो कांग्रेस में भी कई ऐसे बड़े और छोटे नेता हैं, जिनका ललित मोदी से रिश्ता है।
ललित मोदी तो खुद राहुल और प्रियंका से मुलाकात का जिक्र कर चुके हैं..कांग्रेस
में कई सांसद ऐसे हैं, जिनका क्रिकेट की दुनिया और राजनीति से रिश्ता है और इस
नाते क्रिकेट की दुनिया का अदना-सा भी शख्स जानता है कि उनका ललित मोदी से कैसा
रिश्ता हो सकता है। इस लिहाज से भारतीय जनता पार्टी प्रतिक्रिया में ज्यादा
आक्रामक नहीं है। अगर वह पलटवार करने लगे तो कांग्रेस के भी कई नेताओं के ललित
मोदी से रिश्तों की पोल खुलने लगेगी और कांग्रेस को बचाव के लिए मजबूर होना पड़
सकता है।
दरअसल आज संसद में जो हंगामा बरप रहा है, दरअसल
उसके पीछे नाक की लड़ाई कहीं ज्यादा है। निश्चित तौर पर नए भूमि अधिग्रहण बिल को
लेकर कांग्रेस बीजेपी सरकार से नाराज है। क्योंकि उसे यह लगता रहा है कि उसके 2013
के बिल को जान-बूझकर खारिज किया गया। यह बात और है कि सरकार अब झुक गई है और बिल
में छह और संशोधन करने को तैयार हो गई है। जिसमें किसानों की सहमति और मुआवजे को
लेकर पुराने प्रावधान ही रखे जाने हैं। अव्वल तो अब विपक्ष को मान जाना चाहिए था,
लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। यहां याद रखा जाना चाहिए कि समाजवादी विचारधारा वाले
विपक्ष ने सुषमा के इस्तीफे की मांग से खुद को अलग कर लिया है।
असल में बात तब बिगड़ी, जब अंदरूनी समझ के चलते
कांग्रेस ने नारेबाजी के बीच लोकसभा के विधायी कार्य चलाने के बीच प्ले कार्ड
दिखाना जारी रखा। लोकसभा की नियमावली के मुताबिक ऐसा किया जाना गलत है। लोकसभा की
अध्यक्ष सुमित्रा महाजन कांग्रेस सांसदों को लगातार चेतावनी देती रहीं। एक दिन तो
पश्चिम बंगाल से कांग्रेस के सांसद अधीर रंजन चौधरी तो स्पीकर के सामने सीट पर ही
खड़े हो गए। इसके लिए उन्हें एक दिन के लिए सांसद ने निलंबित भी किया। वैसे संसद
में 14 फरवरी 2014 को तेलंगाना राज्य के लिए आए बिल के वक्त इससे भी ज्यादा बड़ा
हंगामा हुआ था, जब एकीकृत आंध्र के समर्थक सांसदों ने माइक तोड़ डाले, मिर्च
स्प्रे छिड़का और इसके चलते 17 सांसदों को निलंबित किया गया। लेकिन संसदीय इतिहास
मे इसके पहले ऐसा हुड़दंग नहीं हुआ। दूसरी बात यह है कि प्लेकार्ड दिखाने को लेकर
भी स्पीकर उतनी नाराज नहीं होतीं। लेकिन राजनीति आज इतने दबाव में है कि वह अपने
कदम की मीडिया कवरेज के लिए मरी जाती है। लेकिन अब संसदीय प्रसारण में यह तय कर
दिया गया है कि हंगामे के वक्त कैमरे सिर्फ स्पीकर या पीठासीन अधिकारी पर ही फोकस
होंगे। इसका फायदा उठाते हुए कांग्रेस सांसदों ने प्लेकार्ड स्पीकर के सामने
लहराने शुरू कर दिए, ताकि उन पर लिखे संदेश कैमरा दर्ज कर सके। ऐसे में स्पीकर को
नाराज होना ही था। क्योंकि यह सीधे-सीधे स्पीकर की कुर्सी का अपमान था। ऐसा नहीं
कि लोकसभा में इस तरह की ये पहली घटना है..इससे भी पहले दो बार अशोभनीय दृश्य और
पैदा हुए थे। पहली बार राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार के वक्त, जब महिला आरक्षण बिल
पेश किया गया था। तब जनता दल के सांसद सुरेंद्र यादव ने बिल को टुकड़े-टुकड़े कर
दिया था। दूसरी बार जब वाजपेयी सरकार के कानून मंत्री राम जेठमलानी महिला आरक्षण
बिल पेश कर रहे थे, तब समाजवादी पार्टी के सांसदों ने उनके हाथ से बिल छीनकर उसकी
चिंदी बनाकर उड़ा दिया था।
यह कहना भी अर्धसत्य
ही होगा कि संसद के सदनों में गरमी और तल्खी बीजेपी की देन है। सही मायने में 1963
के उपचुनावों में जब राम मनोहर लोहिया, मीनू मसानी, आचार्य जेबी कृपलानी जीत कर आए
तो उन्होंने संसद में बहसों को तेवर दिया । उसे और गति 1964 में मुंगेर से उपचुनाव
जीत कर आए मधु लिमये की मौजूदगी से मिली। कांग्रेस को यह भी याद दिलाने की जरूरत
है कि आज वह अपने 25 सांसदों के जिस निलंबन को लोकतंत्र की हत्या बता रही है,
दरअसल पहली बार विपक्ष के 63 सांसदों को उसी के राजकाज के दौरान निलंबित किया गया
था। दिलचस्प बात यह है कि जिस मांग के लिए विपक्षी सांसद हंगामा कर रहे थे, वह
मांग भी कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी की हत्या की जांच के लिए बने ठक्कर कमीशन
की जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग को लेकर था। बार-बार इसके लिए मांग कर
रहा था, लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी। क्योंकि तब हत्या के लिए जांच
रिपोर्ट में इंदिरा के करीबी पर ही शक जताया गया था। लेकिन विपक्ष मान नहीं रहा था
तो 1989 में तत्कालीन संसदीय कार्यमंत्री हरकिशन लाल भगत ने विपक्ष के 58 सांसदों
को एक हफ्ते के लिए निलंबित करने का प्रस्ताव रखा। तब कांग्रेस के पास 409 की
संख्या का प्रचंड बहुमत था। यह प्रस्ताव तत्काल पास हो गया। इसके बाद तीन और
सांसदों को पांच दिन के लिए सस्पेंड किया गया। इसके विरोध में तब सैय्यद
शहाबुद्दीन, जीएम बनातवाला समेत चार सांसदों ने संसद की कार्यवाही का बहिष्कार
किया था।
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