उमेश चतुर्वेदी
बिहार के चुनावी रण में जब से राष्ट्रीय जनता दल
प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने अगड़ों के खिलाफ पिछड़े वर्ग के लोगों को गोलबंद करने
की मुहिम छेड़ी है, उसके बाद राजनीतिक समीकरण तेजी से बदले हैं। उपर से भले ही
राज्य के चुनावी मैदान में एक तरफ जहां जनता दल यू, राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस
का महागठबंधन है तो दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में लोकजनशक्ति पार्टी
और राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन मुकाबले में है।
लेकिन लालू यादव ठीक उसी तरह पिछड़ों की गोलबंदी करने की कोशिश में जुटे हुए हैं,
जिस तरह राष्ट्रीय मोर्चा ने 1990 के चुनावों में किया था। तब इतिहास बदल गया था।
कांग्रेस का 13 साल का शासन उखड़ गया था। उसके बाद पहले जनता दल और बाद में
राष्ट्रीय जनता दल के तौर पर लालू और उनकी पत्नी राबड़ी देवी का पंद्रह सालों तक
लगातार शासन चला। सन 2000 के कुछ कालखंड को छोड़ दिया जाय तो लालू का पंद्रह साल
तक बिहार में निर्बाध शासन चला। इस बार अंतर सिर्फ इतना आया है कि तब मुकाबले में
कांग्रेस थी और जनता दल के साथ भारतीय जनता पार्टी थी। आज मुकाबले में भारतीय जनता
पार्टी है और कांग्रेस छोटे भाई की भूमिका में महागठबंधन की छोटी साथी बनी हुई
राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यू के सहारे पाटलिपुत्र में अपनी राजनीतिक मौजूदगी
दर्ज कराने की कोशिश कर रही है।
लेकिन सवाल यह है कि क्या लालू के अगड़ा बनाम
पिछड़ा के दांव से महागठबंधन को फायदा होने जा रहा है। सौ में साठ यानी पिछड़ा और
दलितों को गोलबंद करके गैरकांग्रेसवाद का सैद्धांतिक आधार तैयार करने वाले डॉक्टर
राममनोहर के नाम पर राजनीति तो महागठबंधन करने की कोशिश कर तो रहा है, लेकिन
कांग्रेस का साथ लेकर वह लोहिया के सिद्धांत को एक तरह से झुठला ही रहा है। इस
झुठलाने के पीछे तार्किक आधार सांप्रदायिकता का डर बन गया है। लेकिन क्या
सांप्रदायिकता विरोध की काठ की हांड़ी बिहार के चूल्हे पर सियासी खिचड़ी बनाने में
मददगार साबित होगी। यह सवाल इसलिए मौजूं बन गया है, क्योंकि लालू यादव ने पिछड़ा
राग छेड़ दिया है। चारा घोटाले में सजायाफ्ता होने के बाद लालू यादव वैसे ही ही दस
साल तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित हो चुके हैं। उन्हें पता है कि अगले आठ
साल तक चुनावी राजनीति से उन्हें दूर ही रहना है। उनके दोनों बेटे सियासी मैदान
में अभी तक अपनी काबलियत नहीं दिखा पाए हैं। इसलिए लालू यादव की कोशिश यही है कि
वे येन-केन प्रकारेण अपना सियासी वजूद जितना हो सके, उतना दमदार बना सकें। राजनीति
के चतुर खिलाड़ी लालू यादव को पता है कि मजबूत सियासी जमीन के बिना उनकी राजनीतिक
विरासत खत्म हो सकती है। इसलिए उन्होंने आजमाया हुआ वही हथियार अपने सियासी तरकश
से निकाला है, जिसके दम पर वे 1990 से लेकर 2005 तक बिहार की राजनीति पर कायम रहे
हैं। सेक्युलर राजनीतिक धारा के अलंबरदार के तौर पर लालू यादव में नई उम्मीद देखने
वाली राजनीतिक विश्लेषकों की धारा को भले ही लालू के इस कदम में एक तीर कई निशाने
के अक्स नजर नहीं आ सकते। लेकिन राजनीतिक हकीकत का एक सिरा इस धारणा तक भी पहुंचता
है। पिछले लोकसभा चुनावों में 20.46 फीसदी वोट हासिल करने के बाद लालू यादव का
राष्ट्रीय जनता दल ही बिहार में भारतीय जनता पार्टी के 29.86 फीसदी वोटों के बाद
दूसरी बड़ी राजनीतिक ताकत था। नीतीश कुमार की अगुआई वाला सत्ताधारी जनता दल यू
सिर्फ 16.04 फीसदी वोट ही हासिल कर पाया था। इस नाते लालू यादव को उम्मीद थी कि
कांग्रेस उनका ही साथ देगी। लेकिन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को लालू की चारा
घोटाले वाली छवि दूर रहने के लिए मजबूर कर रही थी। हालांकि लालू यादव अकेले
गैरभाजपा और गैर कांग्रेसी राजनीतिक हस्ती हैं, जिन्होंने हर मोर्चे पर कांग्रेस
अध्यक्ष सोनिया गांधी का साथ दिया है। इस लिहाज से भी उन्हें कांग्रेस के साथ की
उम्मीद थी। लेकिन सजायाफ्ता का उनका दाग कांग्रेस की दोस्ती की राह में रोड़ा बन
गया। राहुल गांधी ने नीतीश कुमार से मुलाकात की और फिर लालू यादव भारतीय जनता
पार्टी के बाद ज्यादा वोट पाने के बावजूद महागठबंधन में दूसरे नंबर की हैसियत वाले
बन कर रह गए। ऐसा नहीं कि इसका लालू यादव को मलाल नहीं रहा। उन्होंने गठबंधन के
बाद कहा भी था कि अगर सांप्रदायिकता को हराने के लिए जहर भी पीना होगा तो पिएंगे।
उन्होंने जहर पिया और उस जहर ने उन्हें ऐसा राजनीतिक दांव दे दिया कि उसकी काट अब
न तो उनके सत्रह साल तक विरोधी रहे नीतीश कुमार को भी नहीं सूझ रही है। कांग्रेस
तो खैर लालू के पिछड़ावाद के सामने चारों खाने चित्त नजर आ रही है। तो क्या यह मान
लिया जाय कि कांग्रेस और नीतीश कुमार से लालू यादव ने बदला चुका दिया है। लालू
यादव को जानने वाले जानते हैं कि वे शायद ही नीतीश कुमार की अठारह साल पुरानी
दगाबाजी को भूल पाए होंगे। जब उन्होंने जनता दल से अलग होकर जार्ज फर्नांडिस की
अगुआई में समता पार्टी बनाई और 2005 आते-आते लालू यादव की सत्ता को उखाड़ फेंका।
सन 2000 में जब वाजपेयी सरकार ने राबड़ी सरकार को बहाल करके नीतीश कुमार की अगुआई
में कुछ दिनों के लिए सरकार बनाने की राह खोली थी, तब सोनिया गांधी की ही बदौलत
राबड़ी की बर्खास्तगी को राज्यसभा में मंजूरी नहीं मिल पाई और लालू यादव क सरकार
बहाल हुई थी। तब से कांग्रेस और लालू यादव के रिश्ते बेहतर चल रहे थे। ऐसे में
लालू अगर कांग्रेस से उम्मीद पाले रहे हों तो इसमें नया कुछ भी नहीं है। लेकिन
कांग्रेस ने उनकी बजाय नीतीश पर ज्यादा भरोसा किया, इससे लालू दुखी नहीं होते तो
हैरत ही होती।
बहरहाल लालू के पिछड़ावाद को लेकर आक्रामक
प्रचार ने बिहार की राजनीति को एक बार फिर पिछड़ी जातियों के इर्द-गिर्द गोलबंद कर
दिया है। निश्चित तौर पर अगड़े वर्ग का एक मुश्त राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को
ही जाना है। लेकिन इसके ठीक उलट पिछड़ा वोट अब लालू यादव को जाएगा। लेकिन विकास के
चलते नीतीश कुमार के पक्ष में जो अब तक थोड़ा-बहुत अगड़ा वोट जाने की उम्मीद थी,
उसे लालू के आक्रामक पिछड़ावाद ने धाराशायी कर दिया है। कांग्रेस भी लालू के बयान
के पक्ष में खुलकर बोलने से बच रही है। क्योंकि उसे लगता है कि इसका खामियाजा उसे
अगड़े वर्ग के वोटरों की नाराजगी के तौर पर चुकानी पड़ सकती है। वैसे लालू के
पिछड़ावाद को लेकर एक जमीनी हकीकत को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। अब पिछड़ावाद
को लेकर 1990 वाली हालत नहीं रही। खुद नीतीश कुमार अति पिछड़ा और अति दलित के तौर
पर दो नई श्रेणियां बनाकर पिछड़े और अनुसूचित वर्ग के वोटरों के बीच अंदरूनी दरार
ला चुके हैं। फिर पिछड़ी जातियों में सबसे दबंग वह यादव जाति ही होती है, जिसकी
नुमाइंदगी लालू यादव करते हैं। लिहाजा पूरी पिछड़ी जातियों के थोक वोट का फायदा
शायद ही महागठबंधन को मिल पाए। जिन 101 विधानसभा सीटों पर लालू यादव के अपने
उम्मीदवार हैं, वहां यादव वोटबैंक लालू के साथ भले ही खड़ा रहे, दूसरी पिछड़ी
जातियां शायद ही गोलबंद होकर राष्ट्रीय जनता दल के पीछे खड़ी हों। बिहार में
पिछड़े वोटरों की हिस्सेदारी करीब 47 फीसदी है। इनमें करीब 14 पीसदी हिस्सेदारी
यादवों की है। और लालू यादव के उभार के दौर में यह यादव बिरादरी ही आगे रहती है।
कई बार सामाजिक समीकरणों में वह दबंगई भी दिखाती है। लेकिन अब हालात बदल गए हैं।
लिहाजा दूसरी पिछड़ी जातियां शायद ही महागठबंधन के साथ खड़ी हों। फिर जहां नीतीश
कुमार के उम्मीदवार होंगे, वहां भले ही स्थानीय जातीय समीकरण उम्मीदवार की जाति के
चलते हावी हों, अलबत्ता साधारणतया नीतीश कुमार का कुर्मी वोटबैंक के अलावा शायद ही
कोई वर्ग साथ देगा। यही वजह है कि बिहार में चुनाव भारतीय जनता पार्टी बनाम लालू
यादव हो गया है।
यानी लालू पूरी तरह चुनावी पिच पर खुद को सामने लाने में कामयाब हो
गए हैं। मौजूदा चुनावी परिदृश्य से साफ लग रहा है कि अब एनडीए से सिर्फ और सिर्फ
लालू यादव ही लड़ रहे हैं। यानी अगर ऐसा हुआ तो तय मानिए कि महागठबंधन को अगर जीत
मिली तो उसमें सबसे ज्यादा सीटें लालू यादव की ही होंगी। इसके बाद लालू यादव अगर
नीतीश कुमार को नेता मानने की बात से मुकर भी जाएं तो हैरत नही होगी। तो क्या यह
मान लिया जाय कि साथ रहते हुए भी लालू यादव ने नीतीश कुमार से सत्रह साल का बदला
पूरा कर लिया और कांग्रेस को भी उनकी नाराजगी की कीमत चुकानी पड़ेगी। इन सवालों का
जवाब चुनाव नतीजों के बाद ही मुकम्मल तौर पर मिल पाएगा।
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