उमेश चतुर्वेदी
हताशा और निराशा के दौर से जिस पार्टी को दशकों गुजरना पड़ा
हो, अगर लंबे संघर्ष के बाद वह जनता की आंखों का दुलारा बन जाए तो उसका उत्साहित
होना स्वाभाविक है। भारतीय जनता पार्टी के 37 वें स्थापना दिवस पर अमित शाह की
हुंकार को भी इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए। पार्टी अध्यक्ष के नाते अमित शाह ने
बीजेपी के कार्यकर्ताओं से कहा कि पार्टी को पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक 25
साल तक राज करना है। अमित शाह का यह बयान उनके विरोधियों को बड़बोलापन लग सकता है।
विपक्षी दल इस पर सवाल भी उठा सकते हैं। उनका सवाल उठाना जायज भी है। लेकिन अमित
शाह कोई अजूबी बात नहीं कर रहे हैं। जिस पार्टी के कार्यकर्ताओं को छोड़ दें, बड़े
नेताओं तक को संघर्ष और राजनीतिक उत्पीड़न के लंबे दौर से जूझना पड़ा हो, उस
पार्टी के अध्यक्ष की हुंकार ऐसी ही होनी चाहिए। कम से कम भारतीय जनता पार्टी के
कार्यकर्ता तो ऐसा ही मानते हैं। कारपोरेट और उदारीकरण के वर्चस्व के दौर में आज
टीम अगुआ से अपने लोगों को प्रेरित करने के लिए ऐसे ही बयानों की उम्मीद की जाती
है। मोर्चे को फतह करने की तैयारियों में जुटी सेनाओं के जनरल भी अपने सैनिकों का
उत्साह बढ़ाने और जीत के लिए प्रेरित करने के लिए ऐसे ही बयान देते रहे हैं।
करीब दो साल पहले पूरा देश यह मान कर चल रहा था कि आम
चुनावों में भारतीय जनता पार्टी भले ही सबसे बड़ा दल बनकर उभरे आए, उसे बहुमत नहीं
मिल पाएगा। लेकिन नतीजों ने देश की इस उम्मीद को तोड़ दिया। बेशक भारतीय जनता
पार्टी आज केंद्र समेत कई राज्यों की सत्ता पर काबिज हो, लेकिन यह भी सच है कि देश
के राजनीतिक तंत्र का एक बड़ा तबका अब तक उसे भारतीय राजनीति के जरूरी अंग के तौर
पर स्वीकार नहीं कर पाया है। भारतीय जनता पार्टी पर राजनीतिक हमलों में जिस तरह
ओछापन दिख रहा है, उसके पीछे कहीं न कहीं इसी अस्वीकार्यता बोध काम कर रहा है।
हालांकि राजनीतिक तंत्र के इस अस्वीकार्यता बोध का ही नतीजा है कि भारतीय अवाम का
एक बड़ा हिस्सा आज भारतीय जनता पार्टी के समर्थन में खड़ा है। दुर्भाग्यवश भारतीय
राजनीतिक व्यवस्था के दूसरे बड़े और अहम हिस्से मसलन कांग्रेस और वामपंथ कम से कम
सार्वजनिक रूप से इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाए हैं। यही वजह के अपने आंतरिक
अंतर्विरोधों को वे अपनी सुविधा मान रहे हैं। दिलचस्प यह है कि भारतीय राजनीतिक
तंत्र में खुद को पाकसाफ और ज्यादा जनपक्षधर दिखाने के लिए इस कसौटी का खुद के लिए
इस्तेमाल तो कर रहे हैं, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के लिए उनकी कसौटियां बदली हुई
हैं। यानी राजनीतिक ईमानदारी परखने का भी एक सुविधाजनक तंत्र भारतीय जनता पार्टी
विरोधी तंत्र ने विकसित कर लिया है। इसका स्पष्ट उदारहरण इन दिनों पांच राज्यों
में हो रहे चुनाव हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के खिलाफ अघोषित तौर पर
कांग्रेस और वाम मोर्चे ने हाथ मिला लिए हैं। लेकिन उलटबांसी देखिए कि केरल में
कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे की सरकार के खिलाफ वाम मोर्चा ताल
ठोक रहा है। चूंकि अब साक्षरता की दर बढ़ गई है, तकनीकी क्रांति की वजह से समाचार
माध्यमों की पहुंच बढ़ गई है, लिहाजा अब आम लोगों को यह समझने में मुश्किल होने
लगी है कि आखिर कि केरल में वामपंथ और कांग्रेस का सच क्यों पश्चिम बंगाल के उनके अपने
सच से अलहदा है। दिलचस्प यह है कि जैसे ही भारतीय जनता पार्टी कश्मीर में महबूबा
मुफ्ती के साथ सरकार बनाने का ऐलान करती है, यही दल भारतीय जनता पार्टी पर सवाल
उठाने लगते हैं। भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा को पानी पी-पीकर कोसने वाले
वाममोर्चे को लालू यादव धर्मनिरपेक्षता के मसीहा नजर आते हैं। तब भी वह लालू यादव
पर भरोसा करता है, जब वे उसके ही अपने कार्यकर्ता कामरेड चंद्रशेखर के हत्यारे
शहाबुद्दीन को अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल करते हैं। सीवान में तेजाब से
नहलाकर हत्या करने के आरोपी शहाबुद्दीन लालू यादव की पार्टी के वरिष्ठ नेता बन
जाते हैं, लेकिन कांग्रेस को कोई बुराई नजर नहीं आती। भारतीय जनता पार्टी विरोधी
राजनीति का यह दोमुंहापन ही बीजेपी की ताकत बनता जा रहा है। देशव्यापी बढ़ते
समर्थन के पीछे दोहरे मानदंडों वाली इसी राजनीति का बड़ा हाथ है।
भारतीय जनता पार्टी के पूर्ववर्ती संगठन भारतीय जनसंघ का
गठन कहीं ज्यादा तीखे विचारधारा के आधार पर हुआ था। कश्मीर के लिए दो निशान और दो
प्रधान वाली व्यवस्था अब तक देश की जनता समझ नहीं पाई है। चूंकि उन दिनों हाल ही
में बंटवारा हुआ था और जनसंघ के संस्थापकों ने
बंटवारे के दर्द को महसूस किया था, माना जा सकता है कि जनसंघ की आक्रामक
विचारधारा के पीछे बंटवारे के दर्द का भी हाथ था। चूंकि आजादी का पूरा आंदोलन
कांग्रेस की अगुआई में लड़ा गया था और कांग्रेस कम से कम पांच दशकों से देश की
जनता की धड़कन बनी हुई थी, इसलिए आजादी के बाद उसको लेकर आम लोगों में एक रोमांटिक
मोह रहा। हालांकि यह भी कहना कि कांग्रेस पूरे देश की जनता की अकेली धड़कन थी, एक
हद तक गलत ही होगा। कांग्रेस अगर इकलौती प्रतिनिधि होती तो वह उस वक्त की बड़ी
मुस्लिम आबादी को बंटवारे के खिलाफ मनाने में कामयाब होती। बहरहाल ऐसे हालात में
जनसंघ का वैसा विस्तार नहीं हुआ, जैसी कि उसे उम्मीद थी। जनसंघ के विकास में 1963
के बाद तब ज्यादा तेजी आई, जब डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का
सिद्धांत दिया। उसके बाद ही समाजवादी खेमा और जनसंघ नजदीक आए। जिसका असर 1967 के
विधानसभा चुनावों में दिखा। तब तक अजेय समझी जाने वाली कांग्रेस का नौ राज्यों से
सफाया हो गया। जिसका असर 1977 के आम चुनावों में भी दिखा, जब इंदिरा गांधी कि
सर्वशक्तिमान सत्ता दिल्ली के लुटियन जोन से उखड़ गई। लेकिन समाजवादी खेमे के आपसी
अंतर्विरोधों ने बाद के दौर में अपना तो नुकसान किया ही, जनसंघ को भी चोट पहुंचाई।
जनता पार्टी से अलग होने के बाद जब 1980 में भारतीय जनता
पार्टी बनी तो उसने अपने लक्ष्यों में गांधीवादी समाजवाद को भी शामिल किया। चूंकि
भारतीय राजनीति का एक बड़ा खेमा जनसंघ से ही पूर्वाग्रह रखता था, लिहाजा भारतीय
जनता पार्टी के गांधीवादी समाजवाद को उसने भुलाने और तवज्जो ना देने की नीति
अपनाई। कमी भारतीय जनता पार्टी में भी रही कि उसने इस तथ्य का प्रचार नहीं किया।
चूंकि भारतीय राजनीति के विरोधाभासों को उजागर करना उसका अहम मकसद रहा, लिहाजा
आक्रामक राजनीति ही उसकी पहचान बन गई। इसी दौर में उसके ज्यादातर कार्यकर्ता बने
और उनकी पूरी सोच ही आक्रामक रही। आडवाणी की रथयात्रा से विरोधी राजनीतिक दलों ने
इस आक्रामकता के भाव को ही बढ़ावा दिया। हालांकि इसकी चुनावी कामयाबी ज्यादा नहीं
मिली, लिहाजा वाजपेयी की उदारवादी राजनीति की राह पार्टी ने अख्तियार की और पहली
बार केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई। तब राजनीतिक दबावों के चलते सरकार और संगठन को
अपनी विचारधारा से इतर भी फैसले लेने पड़े, जिन्हें पार्टी कार्यकर्ता कभी पचा
नहीं पाए। 2004 के आम चुनावों में बीजेपी की हार की वजहों में से एक यह भी रही।
ऐसी पृष्ठभूमि में अमित शाह का उभरना और संगठन के सर्वोच्च पद पर पहुंचना ही अचंभा
माना गया। उनकी कामयाबी को लेकर शक भी जताए गए। बिहार और दिल्ली के चुनावों में
हार के बाद इस शक को बढ़ावा भी मिला। लेकिन यह भी सच है कि अमित शाह की भाषा और
उऩका तेवर पार्टी कार्यकर्ताओं को पसंद आ रहा है। शायद यही वजह है कि शाह भी अपने
कार्यकर्ताओं को अगली सियासी जंग के लिए तैयार कर रहे हैं। बेशक तमिलनाडु, केरल और
पश्चिम बंगाल के मौजूदा विधानसभा चुनावों में खास असर नहीं रहे, लेकिन अगर उसने
असम की सत्ता से कांग्रेस को बेदखल कर दिया तो तय मानिए, अमित शाह की तेवर की
राजनीति और परवान चढ़ेगी।
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