Friday, June 22, 2018

सन्मार्ग में


सोज का गिरगिटिया रंग


1994 में भारतीय जनसंचार संस्थान से डिप्लोमा मिलने के बावजूद हिंदी विभाग के छात्रों से नौकरियां दूर ही रहीं..इक्का-दुक्का लोगों को छोड़ दें तो मेरे जैसे प्रवासी लोग फ्रीलांसिंग कर रहे थे..उन दिनों हम जैसे फ्रीलांसरों को दैनिक हिंदुस्तान के तत्कालीन सहायक संपादक कृष्णकिशोर पांडेय बहुत सहयोग देते थे.. आज पत्रकारिता में एक खास धारा के लोगों के लिए लालू यादव मसीहा हैं..लेकिन ढाई दशक पहले बिहार में जिस तरह शासन चल रहा था, उससे मीडिया के बड़े धड़े की नजर में लालू की छवि सिर्फ हंसोड़ राजनेता की थी.. उस माहौल में कृष्णकिशोर पांडेय पहले सहायक संपादक थे, जिन्होंने अपने संपादकीय में लालू के लिए लालू जी शब्द का इस्तेमाल किया.. उन दिनों उनके दफ्तर में कई राजनेता भी आते थे, अपना लेख देने और छपवाने.. दैनिक हिंदुस्तान की पहली मंजिल पर स्थित उनके काठ के केबिन में ही चरण सिंह सरकार में विदेश मंत्री रहे श्यामनंदन मिश्र, रूसी विद्वान पी ए बारान्निकोव, नंदकिशोऱ त्रिखा, सैफुद्दीन सोज से मुझे मुलाकात का मौका मिला..वही सैफुद्दीन सोज, जो कश्मीर पर दिए अपने बयान को लेकर विवाद खड़ा कर चुके हैं.. तब वे आज की तरह कांग्रेस में नहीं, नेशनल कांफ्रेंस के तीन में से एक सांसद होते थे...उन्हें हुमायूं रोड पर घर मिला था, जिसमें वे रहा करते थे..उन दिनों उनकी हालत खास अच्छी नहीं थी..वह दौर कश्मीर में आतंकवाद के तेजी से पैर पसारने का था..लिहाजा कश्मीर पर लिखने वालों की मांग बढ़ गई थी.. सैफुद्दीन सोज चूंकि कश्मीरी हैं, लिहाजा उन्हें भी लिखने का चस्का लग गया था...लेखन के जरिए वे कुछ पैसे भी कमाना चाहते थे..इसलिए उन्होंने कृष्ण किशोर पांडेय से मुलाकात की थी..तब फ्रीलांसरों में के के पांडेय के तौर पर मशहूर पांडेय जी ने उनके पास जाने और उनसे उनके लेख लाने की जिम्मेदारी मुझे दी थी.. तब इंटरनेट नहीं था..लिहाजा वे अपने सहयोगी से अंग्रेजी में टाइप किया हुआ लेख तैयार रखते और मेेरे पीपी नंबर पर मैसेज दे देते। मैं इस उत्साह में जाकर उनके लेख ले आता, क्योंकि उसके अनुवाद की भी जिम्मेदारी मेरी होती थी...जिसके एवज में कभी साढ़े तीन सौ तो कभी चार सौ रूपए बतौर मेहनताना मिलता था...जिससे उस फाकामस्ती के दौर में कुछ दिन के गुजारे के लिए सहूलियत हो जाती... मुझे कभी याद नहीं है कि सोज ने उन दिनों कभी भारत विरोधी बात की हो...उलटे वे भारतीयता की ही बात करते थे..कभी ठीक से बैठने को भी नहीं बोलते थे..लेकिन लेख निकलने में देर होती तो मैं ही निर्लज्जता से उनकी बैठक में बैठ जाता... उनके दिन बहुरे तब, जब देवेगौड़ा सरकार में वे जलसंसाधन मंत्री बने..बाद में जब नेशनल कांफ्रेंस एनडीए में शामिल हुई तो सोज ने नेशनल कांफ्रेंस छोड़ कांग्रेस का दामन थाम लिया....इसके बाद जब उनसे संसद परिसर में मुलाकात भी हुई तो वे अनचीन्ह होने की कोशिश करते थे... कश्मीर के नेताओं की दरअसल हकीकत यही रही है, जब तक उनकी हैसियत नहीं रहती, चाहे वह राजनीतिक हो या आर्थिक...तब तक वे भारत का गुण गाते नहीं थकते..उन्हें भारत में ही भविष्य नजर आता है.. लेकिन जैसे ही उनकी हैसियत बदलने लगती है, उनके सुर बदलने लगते हैं..सोज इसके अकेले उदाहरण नहीं हैं..कश्मीर को कूट-कूट कर खाने वाले फारूक़ अब्दुल्ला के बयान भी सोज के बयान से अलहदा नहीं हैं..बस तरीका अलग है.. ऐसे में सवाल जरूर उठता है कि आखिर क्या वजह है कि कश्मीरी नेताओं के ताकत में आते ही बयान बदल जाते हैं...इतने कि वे भारत विरोधी हो जाते हैं..क्या इसके पीछे कुछ और पाने की लालसा होती है...या फिर कहीं से कुछ और मिल जाता है...जरूरी है कि अब इस नजरिए से सोज जैसे नेताओं के बयानों की चीरफाड़ हो..अगर वे दोषी हों, तो उनके भी खिलाफ वैसी ही कार्रवाई हो, जैसे ऐसे बयान देने वाले किसी दूसरे गैर कश्मीरी भारतीय नागरिक के खिलाफ होती रही है...

Thursday, June 21, 2018

योग से योगा, फिर आगे क्या ??


मेरे बिगड़ने के दिन शुरू हो चुके थे...हालांकि तब लगता था कि जिस राह पर चल रहे हैं, वही बहुत शानदार राह है..उस राह में गोष्ठियां थीं, प्रेस कांफ्रेंस थी, ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन की बैठकें थीं...साहित्यिक समारोह थे...जिनमें शामिल होने पर शुरू में बड़ा उत्साह रहता था, लेकिन कई बार मिली उपेक्षाएं आहत भी कर देती थीं.. उन्हीं दिनों कुछ लोग ऐसे भी मिले, जिन्होंने खूब उत्साहित किया...उन्हीं में से एक थे नर्मदेश्वर चतुर्वेदी..उसी कुल-गोत्र के, जो मेरा-मेरे खानदान का है... अमर्त्य सेन के नाना, गुरूदेव रवींद्र नाथ ठाकुर के शांतिनिकेतन के ऋषि अध्यापक आचार्य क्षितिमोहन सेन की प्रेरणा से संत साहित्य का अवगाहन करने वाले पंडित परशुराम चतुर्वेदी नर्मदेश्वर जी के बड़े भाई थे.. क्या संयोग है कि हिंदी के दो बड़े संत कवियों की रचनाधर्मिता, उनके योगदान और उनकी महत्ता से हिंदी साहित्य को परिचित कराने वाले इतिहासकार-समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी और परशुराम चतुर्वेदी बलिया के ही थे... दोनों का गांव गंगा के किनारे, बस अंतर इतना कि द्विवेदी जी गंगा के उत्तरी तट के वासी थे तो परशुराम जी का गांव द्विवेदी जी के गांव के ठीक सामने गंगा के दक्षिणी तट पर स्थित है...द्विवेदी जी ने कबीर के अवदान से दुनिया को परिचित कराया तो परशुराम चतुर्वेदी ने मीरां से.... यह बात और है कि परशुराम चतुर्वेदी की कीर्ति पताका उतनी ऊंचाई पर नहीं फहर पाई, जैसा मान द्विवेदी जी को हासिल हुआ... बात बिगड़ने के दिनों की हो रही थी...तो उन्हीं दिनों बलिया के टाउन हाल में हिंदी पर एक कार्यक्रम हुआ...उसमें किसी विद्वान ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव के नाम का उच्चारण नरसिंहा राव कर दिया...जैसा कि आजकल चलन ही हो गया है.. जब नर्मदेश्वर जी की बारी आई तो उन्होंने उस विद्वान पर कटाक्ष किया...अंग्रेजी के प्रभाव में नरसिंह , नरसिंहा हो गए, राम, रामा हो गए और गुप्त जी गुप्ता हो गए...जबकि गुप्ता, गुप्त शब्द का स्त्रीलिंग होता है... ऐसी ढेर सारी भाषा विज्ञान और व्याकरण विषयक उन्होंने बातें की.. नर्मदेश्वर जी से जुड़ा यह वाकया आज मुझे योग दिवस के उपलक्ष्य में आकाशवाणी समाचार मुख्यालय में हुए एक कार्यक्रम में याद आ गया। योग सिखाने वाली विदुषी ने आकाशवाणी समाचार में योग दिवस के मौके पर आयोजित कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि योग अंग्रेजी के ए अक्षर के चलते, योगा हो गया है और इसमें डे भी मिल गया है.. मैं सोचने लगा कि अंग्रेजी ने किस तरह हमारे मूल शब्दों को भी बदल कर रख दिया है... हिंदी को मान सकते हैं कि वह अंग्रेजी के साथ समानांतर विकसित हुई है...इसलिए वह अंग्रेजी के असर में आ गई..लेकिन योग शब्द तो विशुद्ध रूप से संस्कृत का है...वैदिक संस्कृत हो या लौकिक, हर जगह योग ही शब्द के रूप में विद्यमान है.. कहा जाता है कि उदारीकरण की आंधी ने मूल्यों को उड़ा दिया है...हकीकत भी यही है..लेकिन इसने अपने डंडे भी लगाए हैं..ए का डंडा, जो राम को रामा, नरसिंह को नरसिंहा, और योग को योगा कर देती है...अगर यही चलन रहा तो किसी दिन यह योग को योगर्ट भी कर देगी तो हैरत नहीं होगी..और गुलाम मानसिकता को पीढ़ियों से ढो रहा हमारा समाज इसे ही गर्वोन्नत भाव से स्वीकार कर लेगा... वैसे योग संकुचित भी हो गया है...यह आसन और प्राणायाम का ही पर्याय बनकर रह गया है..जिन महर्षि पतंजलि को योग का आविष्कारक माना जाता है, उन्होंने योग के बारे में कहा है, यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टांगानि। यानी यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, ये योग के आठ अंग हैं। भारत में जिन षड्दर्शन की परंपरा है, जिनमें प्रमुख हैं, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा और वेदांत हैं। विश्वविद्यालयों में बाकायदा दर्शन शास्त्र की पढ़ाई होती है...स्कोरिंग यानी ज्यादा नंबर देने वाला विषय माना जाता है दर्शन शास्त्र...इसलिए सिविल सेवा की परीक्षाओं में भी इसके जरिए लोग कामयाबी हासिल करते हैं.. उनमें से कई आईएएस हैं, आईपीएस हैं..दूसरे सेवाओं के भी अधिकारी हैं..लेकिन लगता है कि परीक्षाएं पास करने के बाद वे भी योग दर्शन को भूल गए हैं..अगर ऐसा नहीं होता तो योग के इस एकांगी रूप पर वे सवाल जरूर उठाते.. यानी योग सिर्फ आसन और प्राणायाम नहीं, जीवन का एक दर्शन है..लेकिन हम हैं कि योगा के जरिए सिर्फ प्राणायाम और आसन के पीछे ही दौड़ रहे हैं... भारतीयता की परंपरा, सर्वांग जीवन की परंपरा है, जिसमें इह भी है और पर लोक भी...योग दोनों से अपने आठों अंगों के जरिए आत्मा को जोड़ता है...इसमें परमात्मा से जुड़ने की राह भी है..जब यह जुड़ना परम यानी क्लाइमेक्स पर पहुंचता है तो एक तरह से खुद को तिरोहित करना होता है...जिस बिंदु पर यह उपलब्धि हासिल होती है, उसे परमानंद कहते हैं.. काश कि हम योग को इस अंदाज में समझ पाते...उदारीकरण की आंधी से दूर..भारतीयता के दर्शन के एकदम करीब...

Monday, June 18, 2018

My Perspective: Vijay Sanghvi Shots in Darkness


A visit by the former president Pranav Mukherji to the Nagpur establishment of the Sangh Parivar and his address to t volunteers rally became a launching pad for several will political guess by all those who use the social media as vehicle for their fantasies. There is no fear of inviting libel suits or a need to prove the base and cause for such wild thoughts. Among wild speculation was the belief that the Sangh leadership may opt for Pranav Mukherji as its candidate for projection as the Prime Minister at the coming election, in place of Narendra Modi. There cannot be a wilder guess as a shot in darkness. The speculation indicated that the fertile brain did not need even to comprehend the back ground of either. Pranav Mukherji was certainly in political arena for four decades but always as appendage to the power centre and not as independent political star. The Sangh tried to sell as is religious base as political agenda for 13 elections since 1952 but without success. Then any such combination was nothing more than a day dream and neither of them are known to wallow in luxury of day dreams. Mukherji moved closer to Indira Gandhi as junior minister in 1974 as he constituted no danger as being a politician who had no space to stand on his legs in his state or outside or he could earn loyalties of even a single political being. He strived hard to prove his loyalties during the emergency and equally hard to disassociate himself from excesses during 20 months of emergency. He was most conservative and traditional person in his approach to both politics and economy. Hence there was no danger of his emerging with dazzling and bright idea to upset any apple cart. He was hoping to be successor to Indira Gandhi after her assassination but he could not get the post even as interim arrangement till election of a leader of Parliamentary Congress party. The Congress leaders trio had forced the then President Zail Singh to administer oath of office to Rajiv Gandhi without waiting for his election as leader by the party. Pranav Mukherji had to pay a heavy price even for entertaining a hope of the interim post. Rajiv Gandhi shunned him away not only from his cabinet but a year later even from his party. Mukherji went out of his way though unwittingly to expose that he was a lonely person without friends or supporters. His gamble of forming the state party exposed the lack of support and his lonely figure with his pipe in his mouth spending hours in the Central hall of Parliament provided a pathetic picture of his politics. From 1972 to 2009 he never dared to contest the Lok Sabha election from his state or from any constituency outside. He could win one and only time in 2009 as Mamta Bannerji propped him up. Even Sonia Gandhi had preferred Man Mohan Singh to Pranav Mukherji as her nominee in 2004. He proved as a finance minister to be a roadblock economic reforms agenda of the Prime Minister, he sought graceful retirement by adorning the office of the President in 2012. How can such a timid politician venture to be nominee of the Sangh Parivar? However the major question is from where he can get elected from among 501 seats of the Lok Sabha outside Tamilnadu? His getting in from Tamilnadu is next to impossible and the Sangh ensuring his victory from outside in equally difficult. The Sangh cannot ignore Narendra Modi and his ability even after two years campaign to malign his rule as most atrocious event without a positive achievement. The sustained campaign was to establish that NaMo was merely a newspaper tiger and not even a paper tiger. Maligning someone is much easier with greedy media owners always ready to serve any interest for consideration but building someone as a winner is most hazardous task. The wild and baseless guess work floated on social media and its becoming viral without adverse or critical comments provides glimpses of variety of elements. The wild guess presumes that the Sangh wants or is willing to get rid of Narendra Modi as his rule has not enhanced hold of the Sangh. The Sangh is desperate and is u8nable to find an alternate within so it can go on a wild goose chase. In desperation it can choose a person only because he adhered to traditions in his four decades politics. The wild guess also indicates a belief that unfulfilled ambition of Pranav Mukherji can induce him to hold onto any support or offered hand. In other words his political career never had a shine of moral gloss. In short the circulated guesstimates hold Indian politics and Indian politicians is very low grade. The surprise is that they do not hold the Sangh as an organization with pure and moral strength. It is difficult to identify the characters and politics of persons who float such ideas. However close look at ideas, opinions and comments circulated on variety of social media net works give us glimpses of characters of always critical mind, defenders of variety of individuals or ideologies. Most of them failed to make their marks in main field but few of them were also successful but their retirement deprived them opportunities. Few of them are brilliant minds but their brilliance, despite their feet in every camp was the main cause of their failures to get opportunity to put their brilliance to better utilization. They fail to realize that heir brilliance is or rather their habit to out their brilliance on display is the cause of their failures. Few are only observers who enjoy the fun games on social media. But the shot in dark over the visit of the Nagpur establishment by the retired President seeking the retry to get back in political arena was not a fun game. It spoke of very low opinion of various institutions.

Sunday, June 17, 2018

प्रेस विज्ञप्ति


मूंग और उड़द को भावांतर योजना में शामिल करने की मांग नई दिल्ली 17 जून। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केन्द्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह से उनके कार्यालय में मुलाकात कर चना, मसूर और सरसों को प्राइस सपोर्ट स्कीम में रबी विपणन के लिए दिये गये सहयोग के लिए धन्यवाद दिया। जिसके कारण मध्यप्रदेश में अब तक का सबसे बड़ा दलहन उत्पादन संभव हो सका है। श्री चौहान ने केन्द्रीय मंत्री को प्रदेश में फसलों के जबरदस्त उत्पादन के बारे में जानकारी दी और खरीदी की सीमा को 50 हजार मीट्रिक टन और बढ़ाने का अनुरोध किया। केन्द्रीय मंत्री राधामोहन सिंह ने मुख्यमंत्री के अनुरोध पर खरीदी की सीमा को बढ़ाकर 17 लाख मीट्रिक टन करने का आश्वासन दिया। श्री चौहान ने बताया कि नेफेड से 05 हजार करोड़ की राशि अपेक्षित है। उन्होंने आग्रह किया कि इसे शीघ्र जारी करवाया जाय क्योंकि उपार्जन कार्य होने के उपरांत किसानों को समय पर राशि नहीं मिलने पर किसानों में आक्रोश की स्थिति उत्पन्न हो रही है। श्री चौहान ने कृषि मंत्री से ग्रीष्मकालीन मूंग का 100 लाख मीट्रिक टन और ग्रीष्मकालीन उड़द का 20 हजार मीट्रिक टन उपार्जन के लिए लक्ष्य तत्काल प्रदान किये जाने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा कि भावांतर भुगतान योजना के अंतर्गत ग्रीष्मकालीन मूंग और ग्रीष्मकालीन उड़द उपार्जन को भी इस योजना के अंतर्गत शामिल किया जाय और उक्त योजना के अंतर्गत भुगतान के व्यय की राशि को 50 प्रतिशत राज्यांश तथा 50 प्रतिशत केन्द्रांश की मांग की। इसके साथ ही चौहान ने केन्द्रीय मंत्री को 23 जून से 06 जुलाई तक होने वाले विकास पर्व समारोह में आमंत्रित किया।

सुबह-सवेरे अखबार में


Thursday, June 14, 2018

My Perspective


Vijay Sanghvi विजय संघवी पिछली सदी के आखिरी तीन दशकों में अपनी प्रतिष्ठित पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं। अभी वे साप्ताहिक स्तंभ लिखते हैं..गुजराती मिड डे के राजनीतिक संपादक रहे संघवी का प्रस्तुत है यह आलेख.. Dr, Shyama Prasad Mookherjee had to struggle hard to convince the Sangh chief Guru Madhav Golwalakar to allow him to set up the political wing of the Sangh to carry on the struggle in legislative wings of the political structure of India. The Jan Sangh was able to participate in the electoral politics since 1952. Even though so called Hindu constituted 80 per cent, the share to the Jan Sangh in vote could barely reach 8 per cent mark. The young and emerging star Atal Behari Vajpayee argued vociferously in 1966 that due to attitude of the party leadership it could not find its place in main stream opposition but was treated as untouchable. Deen Dayal Upadhyaya then the supreme leader desired to maintain its pure status for the fear that getting in power seat anyhow and somehow would dilute the character of party and unleash trend of compromises for power. Vajpayee won the argument and the Jan Sangh became a partner in coalition government in some states. Share in power exposed the horizontal split in the party. The central leadership was driving to enlarge its spread but state leaders were eager to immediately implement the Sangh philosophy in spheres that came under their control. The same malaise afflicted the state government in states that came as share to the Jan Sangh faction after the 1977 state elections. It provided excuse to prematurely wind up the Janata Party experiment. From the ashes of experiment emerged Bharatiya Janata Party in April 1980. It hoped to be Phoenix but could not. It discarded the Sangh umbrella to present itself a secular alternate to the Congress. It sought credibility by shunning not only the Sangh but also every symbol and sign that were associated with its earlier incarnation. As Vajpayee remarked in the first BJP convention at Hyderabad in 1983,”we are a collection of several heads with legs missing.” The Sangh had refused to lend its election machinery for the 1984 election to reduce the new party to mere two members, both from outside its citadel in the Hindi belt. After debacle in the Kashmir assembly, the BJP leadership crawled with tail between two hind legs before the Sangh Parivar. The Sangh accept its role as mentor or rather BJP as its political wing. It took almost seven years in pushing to back burners the controversial and religion related agenda, to emerge as leader o the coalition around the BJP as a lead partner in 1998. Ambition of Jaylalitha to be the Prime Minister brought down the government in 1999 April. The election of 1999 also saw end of the Gandhi family influence as Sonia Gandhi could gain only 113 seats. Vajpayee had a better rapport with the Muslim minds. He was carried on shoulders by Mumbai Muslims through the Bhendi bazaar, predominantly Muslim locality in 1978 after his return from Pakistan. The elation was caused by his proposals for normalization of relations as the foreign minister when he was in Pakistan. He displayed his dream of better relations with Pakistan by his peace yatra in bus to Lahore and then invited the military ruler of Pakistan Gen. Parvez Musharraf to peace summit at Agra. The Sangh did not approve his move and Musharraf went back with unsigned agreement papers. The chances of his return to power in 2004 were marred by the hasty move of the then party chief Venkaiya Naidu in his enthusiasm to put his accolade Lal Krishna Advani at level with Vajpayee. The hasty and premature elevation of Advani raised a scare crow for the Muslim minds to stay away from Vajpayee despite his personal appeal and offerings for better deal to the Muslims. Even many Hindu groups also rejected Advani in 2009 for they were not enamoured by prospects of the decisive leader taking over. The BJP had gained 172 seats in 1999. Number came down to 138 in 2004 and to 116 in 2009 to indicate the progressive decline. The party and the Sangh were in despair in 2013 for prospects did not hold high hopes. The chief minister of Gujarat Narendra Modi virtually offered to lead the party. NO capable head was available in the national galaxy of the party who could improve the previous tally. The rising crescendo for NaMo caused fears that the party night split if he, though a non Brahmin was not accepted. NaMo had realized, perhaps, though he never shared his thoughts with anyone that the traditional agenda had proved to win minds and votes of large sections. The electorate was constituted with major portion of educated, literate and ambitious third generation since Independence. Their religion was the economic prosperity and not a degenerated philosophy of great Indian culture. Seven centuries and 21 generations have given a new Indian culture. It was not possible to force Indian youth to walk backwards to reach and attain that had become archaic. They would not want to go back to the era that refused to recogise them as equal human beings. He enforced change in agenda with new priorities that relegated the old concepts to the bottom in the thought process. The Sangh had no alternative but to allow him to amuse as the Sangh could not believe it could work miracle of gaining a clear mandate for the BJP symbol for the first time. The past failures were too glaring. A non Brahmin had delivered unprecedented result. The Sangh hope was belied that he would return to old path. In the expectation of the Sangh and action of NaMo as the Prime minister for drive to deliver his electoral promise was written the script of conflicts. The grand success of NaMo proved beyond doubt the cultural transformation of India as in case of other cultures in the world where the economic considerations ruled over all other ambitions, needs and demands. Indian culture has always been democratic in structure and liberal in attitude with nature ingrained tolerance for all other faiths. In absence of it, several religions and thousands of different sects, panth and sampradaya could not have survived. All other aggressors were assimilated in Indian culture even though they were aliens like the Islam. India has not seen fights of faiths as in other parts. Then why divide Indian society to isolate the Muslims and crush ego of the OBCs and the Dalits by throwing crumbs at them? Divide society and rule has been the cardinal principle for alien rules. Hen why divide Indians the way it is sought to divide them? Why road block when NaMo calls for all together for all.

Wednesday, June 13, 2018

बिंदेश्वर पाठक को प्रतिष्ठित निक्की एशिया सम्मान


टोकियो, 13 जून। जाने-माने भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता और सुलभ शौचालय जैसी सस्ती तकनीक के जनक डॉ. बिंदेश्वर पाठक को यहां इस साल के प्रतिष्ठित निक्की एशिया पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उन्हें यह पुरस्कार संस्कृति और समुदाय श्रेणी के लिए दिया गया। जापान का प्रतिष्ठित निक्की-एशिया पुरस्कार एशिया की उन हस्तियों और संगठनों को दिया जाता है, जिन्होंने लोगों के सामुदायिक जिंदगी में क्रांतिकारी और सकारात्मक बदलाव लाने में बड़ी भूमिका निभाई है। 1996 में निक्की इंडस्ट्री द्वारा स्थापित यह पुरस्करार एशिया में क्षेत्रीय विकास, विज्ञान, तकनीक और नवाचार के साथ ही संस्कृति और समुदाय की श्रेणी में उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया जाता है। भारत से पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह और इन्फोसिस के चेयरमैन एन आर नारायणमूर्ति इस पुरस्कार से पहले सम्मानित हो चुके हैं। निक्की इंडस्ट्रीज ने अपने जापानी भाषा के अपने अखबार की 120वीं सालगिरह पर 1996 में इस पुरस्कार की स्थापना की थी। यह कंपनी जापान के प्रमुख आर्थिक अखबार का प्रकाशन करती है। जिसके अंग्रेजी और चीनी भाषा में भी संस्करण हैं। सुलभ इंटरनेशल के संस्थापक को आज सुबह यह सम्मान निक्की इंडस्ट्रीज के प्रेसिडेंट नाओतोशी ओकादा ने दिया। सम्मान की घोषणा करते हुए सम्मान समिति के अध्यक्ष फुजियो मितराई ने कहा कि डॉक्टर पाठक को यह सम्मान उनके देश की दो बड़ी चुनौतियों खराब साफ-सफाई व्यवस्था और भेदभाव की चुनौती का मुकाबला करने के लिए दिया जा रहा है। डॉक्टर पाठक के साथ चीन के पर्यावरण विद् मा जून को जहां इंटरनेट के जरिए सफाई व्यवस्था को सुधारने के लिए सम्मानित किया गया, वहीं वियतनाम के प्रोफेसर न्ग्यें थान लीम को विज्ञान और तकनीकी श्रेणी में बच्चों के लिए सस्ती दवाओं के विकास के लिए दिया गया। गौरतलब है कि डॉ पाठक ने दो गड्ढों वाले फ्लश और पर्यावरण अनुकूल कम्पोस्ट बनाने वाले सुलभ शौचालय का आविष्कार किया है। जिसने विकासशील दुनिया के करोड़ों लोगों की जिंदगी में बड़ा बदलाव लाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इसके साथ ही इसने ग्रामीण महिलाओं और हाथ से मैला सफाई करने वाली जिंदगी में भी सकारात्मक बदलाव लाने में भूमिका निभाई है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र के विशेषज्ञ इस पुरस्कार के लिए अपनी तरफ से नामांकन दाखिल करते हैं। हालांकि वे स्वयं अपना नामांकन नहीं दाखिल कर सकते। इस पुरस्कार के लिए जापानी नागरिक और संगठन अपना नामांकन नहीं दे सकते। डॉ पाठक ने यह पुरस्कार समाज के उस कमजोर वर्ग को समर्पित किया जिसकी बेहतरी के लिए वे पांच दशकों से अधिक समय से अभियान चला रहे हैं। उन्होंने कहा, "यह पुरस्कार विशेष रूप से एशिया में समाज की सेवा के प्रति मेरी प्रतिबद्धता में एक और मील का पत्थर साबित होगा।"

Sunday, June 10, 2018

आलोचना से पहले विचार करें


भारतीय व्यवस्था में नवाचार का हमेशा विरोध होता है..यह अंग्रेजी राज में विकसित मानसिकता की देन है..सरकार ने संयुक्त सचिव स्तर पर सीधे भर्तियां करने की जो शुरूआत की है, उसका विरोध भी नवाचार का विरोध है... अतीत ही क्यों, आपके आसपास कई ऐसे लोग मिल जाएंगे, जिनका शैक्षिक स्तर कमजोर है, लेकिन व्यवहारिकता या तकनीक की दुनिया के बादशाह हैं... पश्चिम को ही लीजिए, थॉमस अल्वा एडिशन कितने पास थे, जेम्स वाट ने कितनी पढ़ाई की थी, रिचर्ड ट्रैविथिक ने कितनी पढ़ाई की थी, अब्राहम लिंकन का शैक्षिक स्तर भी जांचिए, लेकिन उन्होंने दुनिया को बदल दिया... शिक्षा का अपना महत्व है..लेकिन उसकी भी अपनी जड़ता है। संघ लोकसेवा आयोग द्वारा देश की बेहतरीन प्रतिभाएं चुनी जाती हैं, लेकिन ये प्रतिभाएं नैतिकता और व्यवहारिकता के धरातल पर कितनी खरी हैं, आए दिन सामने आने वाली भ्रष्टाचार कथाएं इसी सोच को आइना दिखाती हैं। राजनीति के बारे में कहा जाता है कि एक बार चुनाव जीत गए तो समृद्धि की राह खुल जाती है, संघ लोकसेवा आयोग के जरिए चुनी गई प्रतिभाओं के लिए भी यही कहा जाता है। आखिर क्या वजह है कि एक-डेढ़ लाख तनख्वाह पाने वाली इन प्रतिभाओं के राज्यों की राजधानियों में आलीशान मकान जल्द ही बन जाते हैं, उनके बच्चे विदेशों में पढ़ने लगते हैं और उनके घर में शानो-शौकत की सारी सुविधाएं जल्द ही आ जाती हैं। गांवों में स्थित उनके घर भी चमक जाते हैं। क्या यह सब नैतिकताओं के चलते होता है। मैक्सवेबर ने नौकरशाही के लिए स्टील फ्रेमवर्क की जो अवधारणा दी है, उसकी एक कमी यह भी है। अव्वल तो देश में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि जो जिस काम के लिए काबिल हो, चाहे उसकी उम्र जितनी भी हो, चाहे उसका उच्च शैक्षिक स्तर वैसा ना भी हो, तो उसे वह काम करने देना चाहिए। अमेरिका में यह सोच विकसित हो गई है। इसलिए वहां उम्र के पांचवें दशक में भी लोग जिंदगी के नए अध्याय शुरू करने में नहीं हिचकते..जबकि अपने यहां लोग उस वक्त दुनिया से गुजरने की तैयारी करने लगते हैं.. संयुक्त सचिव स्तर पर सीधे भर्तियों की योजना की चीरफाड़ करते वक्त इन तर्कों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

हरिभूमि अखबार में


Thursday, June 7, 2018

पांचवां स्तंभ पत्रिका में


लोकमत समाचार में


जानिए, किस ‘गणित’ ने बीजेपी को कैराना और नूरपुर सीट हराया

Namaste Bharat 30 May 2018

संवेदना जागृत कर रही है सेवा भारती – सुहास राव हिरेमठ


प्रेस विज्ञप्ति नई दिल्ली,7 जून। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी के सदस्य सुहास राव हिरेमठ ने आज सेवा भारती की शिक्षिकाओं को प्रशस्ति पत्र प्रदान किया। नगरीय सेवा बस्तियों में सर्वेक्षण को करने वाली सेवा भारती की शिक्षिकाओं को आर्य समाज भवन डोरीवालन में सम्मान व प्रशस्ति पत्र दे कर प्रोत्साहित किया गया। इस अवसर पर श्री सुहास राव हिरेमठ ने बताया कि जब दूसरों की पीड़ा देखते हैं तब मन के अन्दर एक संवेदना जागृत होती है। गरीबी क्या होती है यह वनवासी क्षेत्रों और सेवा बस्तियों में जाकर पता चलती है, उसमें भी महिलाओं का जीवन ज्यादा कष्टकर होता है। पुरुष द्वारा सारी कमाई शराब में खर्च करने से उसे परिवार और आजीविका दोनों देखने पड़ते हैं। लेकिन कोई महिला किसी पुरुष को अपनी पीड़ा नहीं बताती। वह अपनी सहृदयी महिला को ही अपना दुःख और समस्या बताती है, इसलिए सेवा भारती की बहनें महिला अध्ययन का कार्य कर रही हैं। सेवा बस्तियों की महिलाओं को दैनिक जीवन की आवश्यकताओं से अधिक भूख प्रेम और सम्मान की भी होती है जिसकी पूर्ति सेवा भारती की कार्यकर्ता बहने कर रही हैं।
राष्ट्रीय सेवा भारती की सह सचिव रेनू पाठक ने बस्ती अध्ययन की भूमिका बताते हुए कहा कि जे.जे. क्लस्टर, स्लम बस्तियों में महिलाओं की वास्तविक स्थिति, उनके जीवनयापन का विस्तृत अध्ययन करने के लिए सेवा भारती ने इन बस्तियों में एक व्यापक सर्वेक्षण किया है। महिला अध्ययन के इस सर्वेक्षण के दौरान एक ही समय पर 60 शहरों में 30 हजार फॉर्म भरवाए गए। इस अध्ययन की रिपोर्ट प्रमाणिक है, जो शोध छात्रों के साथ-साथ महिला कल्याण की सरकारी योजनाओं में भी यह अध्ययन उपयोगी सिद्ध होगा। इस सर्वेक्षण में पाया गया कि सेवा बस्तियों में महिलाओं और बच्चों की स्थिति में बहुत अधिक सुधार की आवश्यकता है। सेवा भारती द्वारा इसमें पहल की गयी है, बस्तियों में 24 घंटे शौचालयों को खुला रखने,पानी के टैंकर, कामकाजी महिलाओं के बच्चों के लिए बाल वाटिकाएँ, पढने के लिए लाइब्रेरी, बालिकाओं को पढ़ने के लिए प्रोत्साहन, नशा मुक्ति अभियान, रोजगार, स्वच्छता, नि:शुल्क क्लीनिक जैसे सेवा कार्य इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अध्ययन के अनुसार आरम्भ हो गए हैं। इस मौके पर महिला अध्ययन करने वाली शिक्षिकाओं ने सेवा बस्तियों में अपने अनुभव साझे किया। उन्होंने बताया कि आजीविका अर्जित करने के कारण दोपहर में महिलाएं नहीं मिल पाती थीं, उनके बच्चे सड़कों पर इधर-उधर घूमते मिले। पानी, शौचालय, रोजगार आदि की समस्या के कारण उनका जीवन बहुत कष्टदाई है। इस मौके पर दिल्ली सेवा भारती के उपाध्यक्ष संजय जी तथा बढ़ी संख्या में सेवा भारती के कार्यकर्ता उपस्थित थे।

सुबह सवेरे में