
उमेश चतुर्वेदी
राजनीति जैसे-जैसे ऊंची मुकाम हासिल करती जाती है, वह संकेतों में बात करने लगती है। सीधी-सपाट बयानबाजी राजनीति में उपयोगी और सहज नहीं मानी जाती। वही राजनेता ज्यादा कामयाब माना जाता है, जो संकेतों में ही अपनी बात कहने में महारत हासिल कर चुका होता है। इन अर्थों में देखा जाय तो केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल भी सफल राजनेता हैं। इसी साल 19 जनवरी को जब वह देश के 44 डीम्ड विश्वविद्यालयों के दर्जे को खत्म किए जाने के फैसले का ऐलान कर रहे थे, तब उनका मकसद साफ था। यह बात और है कि शिक्षा व्यवस्था में निजीकरण के बाद आ रही गिरावट से चिंतित एक तबके को यह फैसला हालात को सकारात्मक बनाता नजर आ रहा था। यही वजह है कि उस वक्त कपिल सिब्बल के फैसले पर सवालों के घेरे में आए डीम्ड विश्वविद्यालयों के कर्ता-धर्ताओं के अलावा किसी ने हो हल्ला नहीं मचाया।
लेकिन उन्होंने उसी दिन एक संकेत जरूर दे दिया था। 15 मार्च को विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश के दरवाजे खोलने के कैबिनेट के फैसले के बाद साबित हो गया कि दरअसल डीम्ड यूनिवर्सिटी पर सवाल क्यों उठाए गए। उदारीकरण के दौर में आह अमेरिका और वाह अमेरिका करने वाली पीढ़ी के लिए कैबिनेट का यह फैसला एक तरह से घर बैठे स्वर्ग में पहुंचने जैसा लग रहा है। इसी वजह से इस फैसले का भी स्वागत हो रहा है।
भारतीय राजनीति को संकेतों में बात करने के साथ-साथ एक और काम में भी महारत हासिल है। पहले वह समस्याएं खड़ी करती है और फिर उसका समाधान करने लगती है। इस प्रक्रिया में एक दौर ऐसा भी आता है कि उसे तार्किक समाधान नहीं सूझता तो उसके लिए विदेशों की ओर देखने लगती है। यह सब कुछ जनता के नाम पर होता है। विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए राह खोलने का भी मसला कुछ ऐसा ही है। पहले आनन-फानन में डीम्ड विश्वविद्यालयों को मंजूरी दी गई। उसके बाद उनकी मान्यता रद्द करने की कोशिश तेज कर दी गई। सवाल ये है कि जब तक अपने विश्वविद्यालयों पर सवाल नहीं उठाया जाएगा तो क्वालिटी के नाम पर विदेशी विश्वविद्यालयों को लाने की वजह कैसे तैयार की जाती। कहना ना होगा कि जिस तरह पहले डीम्ड विश्वविद्यालयों पर सवाल उठाया गया और फिर विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में कैंपस खोलने की अनुमति देने वाले विधेयक को मंजूरी दी गई, उस पर संदेह होना स्वाभाविक है। दोनों फैसलों से साफ है कि सरकार को भी भारतीय युवाओं को क्वालिटी वाली उच्च शिक्षा विदेशी विश्वविद्यालयों में ही नजर आ रही है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि वे सभी डीम्ड विश्वविद्यालय दूध के धुले ही हैं, जिन पर सवाल उठाया गया है। टंडन समिति ने कहा है कि ये पारिवारिक बिजनेस के तौर पर चलाए जा रहे हैं। लेकिन हकीकत तो यह है कि कुछ विश्वविद्यालय दुकानों की तरह व्यवहार कर रहे हैं। अपनी चमकीली बिल्डिंग और आकर्षक ब्रोशर और चिकनी-चुपड़ी मार्केटिंग के जरिए छात्रों को आकर्षित करते हैं। एक बार जब छात्र उनके यहां प्रवेश ले लेता है तो पता चलता है कि पढ़ाई के नाम पर हकीकत में उससे ठगी हुई है। इसके बाद वह छटपटाने और इस छटपटाहट के लिए भारी फीस चुकाने के लिए मजबूर हो जाता है। यही वजह है कि जब डीम्ड यूनिवर्सिटी पर कपिल सिब्बल ने सवाल उठाए थे तो उसका स्वागत हुआ था। तब ये उम्मीद भी जताई जा रही थी कि उनके यहां पढ़ रहे छात्रों की समस्याओं का ध्यान रखा जाएगा।
विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में लाने का स्वागत हो रहा है तो उसके पीछे भी कुछ यही तर्क है। अपने देश में तकरीबन 12 फीसदी युवा ही उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं। देश के पास इतने विश्वविद्यालय नहीं हैं कि बाकी छात्रों को पढ़ा सकें। विदेशी विश्वविद्यालयों की राह खोलने के पीछे सरकार का तर्क है कि इससे भारतीय छात्रों को आसानी से उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा देश की ही धरती पर मिल सकेगी। लेकिन सवाल यह है कि भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों को रेगुलेट करने वाले उसी यूजीसी के ही वही अधिकारी ही होंगे, जिन्होंने गुणवत्तारहित संस्थानों को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देने में देर नहीं लगाई। ऐसे में क्या गारंटी होगी कि विदेशी विद्यालयों के भारतीय कैंपस के साथ ऐसा नहीं होगा।
आह अमेरिका और वाह अमेरिका की रट लगाने वाली आज की पीढ़ी के बड़े हिस्से का सबसे महत्वपूर्ण सपना विदेश में पढ़ाई और नौकरी हो गई है। इसलिए उसे विदेशी विश्वविद्यालय भी खूब लुभाते हैं। हम अपने बेहतर संस्थानों को तो भूल जाते हैं, लेकिन विदेशी धरती का अदना सा संस्थान भी हमें बेहतर नजर आता है। लेकिन हकीकत यही नहीं है। विदेशी विश्वविद्यालय का मतलब येल यूनिवर्सिटी, कैंब्रिज. ऑक्सफोर्ड और हार्वर्ड ही नहीं होता। वहां भी बी और सी ग्रेड के विश्वविद्यालय हैं। वे अपनी धरती पर ही भारतीय छात्रों को भारतीय डीम्ड विश्वविद्यालयों की तरह ठग रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया में हाल के दिनों में हुए भारतीय छात्रों की हत्या और उन पर हमलों के बाद सामने आया कि वहां भी बी और सी ग्रे़ड के ढेरों विश्वविद्यालय हैं और वे छात्रों को ठग रहे हैं। जाहिर है कि विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक पास होने के बाद ज्यादातर बी और सीग्रेड के ही विश्वविद्यालय भारत में अपना कैंपस खोलेंगे। इस खबर के आने के तुरंत बाद येल यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट सेक्रेटरी फॉर इंटरनेशनल अफेयर्स जॉर्ज जोसेफ ने साफ कर दिया कि उनका विश्वविद्यालय भारत में फिलहाल कोई कैम्पस तैयार करने की किसी योजना पर काम नहीं कर रहा है। उन्होंने साफ कर दिया कि उनका विश्वविद्यालय दूसरे संस्थानों के साथ साझेदारी और गठबंधन पर ध्यान देगा। पिछले साल भारत दौरे पर आए इसी यूनिवसिर्टी के प्रेसिडेंट रिचर्ड सी लेविन ने संकेत दिया था कि उनका विश्वविद्यालय निकट भविष्य में भारत में कैम्पस बनाने पर गौर नहीं कर रहा है। हार्वर्ड और कॉर्नेल यूनिवर्सिटी की ओर से भी इसी तरह की राय देखने में आई थी।
इसी तरह के विचार कुछ और विश्वविद्यालयों ने भी जाहिर किए हैं। कैंब्रिज, ऑक्सफोर्ड और इंपीरियल कॉलेज लंदन ने साफ कहा है कि उनके यहां अभी तक भारत में अपने संस्थान खोलने का विचार भी नहीं किया है। हालांकि कनाडा के कुछ विश्वविद्यालयों ने भारत में अपने कैंपस खोलने की योजना में दिलचस्पी जरूर दिखाई है। विदेशी विश्वविद्यालयों की इस घोषणा के बाद जाहिर है कि दुनिया में अपनी गुणवत्ता वाली शिक्षा का डंका बजा चुके विश्वविद्यालयों का भारत आने का फिलहाल इरादा नहीं है। साफ है कि इस विधेयक के पारित होने के बाद भले ही भारतीय छात्रों को उच्च शिक्षा के सामने विदेशी विश्वविद्यालयों का विकल्प भले ही खुल जाए, वैश्विक शैक्षिक स्तर हासिल कर पाना आसान नहीं होगा। लेकिन एक चीज जरूर होगी। अभी मौजूद डीम्ड विश्वविद्यालय और दूसरे तरह के संस्थान विदेशी संस्थानों से गठबंधन जरूर करेंगे। येल यूनिवर्सिटी के
जोसफ का बयान ही इसी परिपाटी के स्थापित होने का संकेत देता है। उनके मुताबिक कई निजी विश्वविद्यालयों को भारतीय बाजार आमदनी का बड़ा स्त्रोत नजर आ रहा है। वे छात्र-छात्राओं को आकर्षित करना चाहते हैं, लिहाजा वे यहां यूनिट स्थापित करने में दिलचस्पी जरूर दिखाएंगे। विदेशी टैग लगना भारत में कमाई और गुणवत्ता की महत्वपूर्ण निशानी माना जाता है। जाहिर है कि ऐसा होने के बाद भारतीय विश्वविद्यालयों के पास पैसा बहुत हो जाएगा। उनकी फीस और महंगी हो जाएगी। और यह सब गुणवत्ता की किसी ठोस गारंटी के बिना होगा। जाहिर है, इसके बाद औसत आमदनी वाले छात्रों की पहुंच से शिक्षा दूर हो जाएगी। इनसे साथ ही पैसा आधारित शिक्षा की एक नई संस्कृति जन्म लेगी। शैक्षिक स्तर पर आज भी कम असमानता नहीं है। विदेशी विश्वविद्यालयों के आने के बाद यह और बढ़ेगा।
यही वजह है कि 2007 में वामपंथी दलों ने इस विधेयक का जोरदार विरोध किया था। तब के मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने भी इस विधेयक का मसौदा तैयार कराया था। लेकिन वामपंथी समर्थन की सीढ़ी के सहार खड़ी यूपीए सरकार अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाई। इन्हीं कारणों से खुद सरकार को भी आशंका है कि अगर संसद में ये विधेयक पेश किया गया तो बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, जनता दल-यू भी विरोध करेंगे। उदारीकरण की समर्थक भारतीय जनता पार्टी ने अभी तक विधेयक के समर्थन का वादा नहीं किया है। साफ है कि सरकार के लिए इस विधेयक को पारित कराना आसान नहीं होगा।
मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को लगता है कि अगर ये विधेयक पारित हो गया तो टेलीकॉम सेक्टर में हो रहे बदलावों से भी बड़ी क्रांति हमारा इंतजार कर रही है। उनकी बात सही हो सकती है। क्रांति तो होगी ही, महंगाई की मार रो रहे निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों की पहुंच से उच्च शिक्षा दूर होती जाएगी। तब युवा पीढ़ी के बीच सोच और शिक्षा के स्तर पर भारी असमानता होगी। जो निश्चित तौर पर देश के मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होगा। बेहतर हो कि कपिल सिब्बल और उनका मंत्रालय इस दिशा में भी सोच कर कुछ एहतिहाती कदम उठाने की तैयारी करे। तभी समानता की धरती पर सचमुच कोई शैक्षिक क्रांति हो सकेगी।