Wednesday, March 24, 2010
इसी दम पर आगे बढ़ेगा उत्तर प्रदेश
उमेश चतुर्वेदी
उत्तर प्रदेश में एक बार फिर बोर्ड परीक्षाओं का पुराना इतिहास दोहराया जा रहा है। राज्य के खासकर पूर्वी जिलों में प्रशासन के तमाम दावों के बावजूद नकलची छात्रों पर पूरी तरह नकेल नहीं लगाई जा सकी है। नकल माफिया के लिए मशहूर रहे बलिया, गाजीपुर और आजमगढ़ जिलों के अधिकारियों ने नकल रोकने के लिए कोर-कसर नहीं रखी है। इसके बावजूद नकल माफिया की पौ बारह है। राज्य के पश्चिमी जिलों के विद्यार्थियों का इस बार भी बड़ा रेला इन जिलों में महज एक अदद सर्टिफिकेट के लिए इम्तहान की औपचारिकताओं में जुट गया है। जाहिर है इससे नकल माफियाओं के चेहरी मुस्कान चौड़ी हुई है तो वहीं अपने सुनहरे भविष्य का ख्वाब बुनने में जुटे छात्रों की आंखों में सपने पूरी शिद्दत से तैर रहे हैं। ये दोहराना ना होगा कि इसकी वजह नकल ही बना है। सपनों और मुस्कान के कोलायडीस्कोप में स्थानीय लोगों की भी खुशियां शामिल हैं। लेकिन जो शिक्षा की अहमियत जानते हैं, उनके लिए शिक्षा का ये नाटक दर्द का सबब बन गया है।
चाहे लाख दावे किए जाएं, लेकिन ये सच है कि जब से परीक्षाओं की शुरूआत हुई है, कमोबेश नकल का चलन तब से ही है। लेकिन उत्तर प्रदेश की बोर्ड परीक्षाओं में नकल का जोर सत्तर के दशक बढ़ा और देखते ही देखते पूर्वी उत्तर प्रदेश में सामाजिक रसूख की वजह तक बन गया। जो जितने लोगों को नकल करा सके या कमजोर छात्रों की कापियां अपने दम पर नकल के सहारे लिखवा सके, उसका सामाजिक रूतबा उतना ही बढ़ने लगा। देखते ही देखते ये रोग राज्य के विश्वविद्यालयों तक में फैल गया। कभी पूरब का ऑक्सफोर्ड कहा जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय भी इस रोग की गिरफ्त में आ गया। हालात इतने बिगड़े कि यहां पीएसी के संगीनों के साये के बीच परीक्षाएं होने लगीं। राज्य में कभी पॉलिटेक्निक शिक्षा के लिए मशहूर रहे इलाहाबाद के ही हंडिया पॉलिटेक्निक और चंदौली पॉलिटेक्निक में संगीनों के साये के बिना परीक्षाएं कराने का साहस प्रिंसिपल नहीं कर पाते थे। राज्यों के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के छात्रसंघों में वही छात्रनेता जीत हासिल करने के काबिल माने जाने लगे। किसी – किसी साल तो नकल के लिए पूर्वी जिलों में अराजकता का माहौल तक बन जाता था। और फिर तो यह परंपरा ही बन गई। इस परंपरा पर ब्रेक पहली बार 1991 में तब लगा, जब कल्याण सिंह की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी। उस सरकार में बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह थे। तब राजनाथ सिंह जब भी किसी कार्यक्रम में जाते और वहां अपने स्वागत में जुटे छात्रों को हिदायत देने से नहीं चूकते थे कि पढ़ाई करो, हम लोग नकल नहीं करने देंगे। पहली बार कायदे से राज्य की सत्ता में आई बीजेपी के सामने शायद तब आदर्श स्थिति लागू करने का मिशन था, लिहाजा उत्तर प्रदेश में बरसों बाद नकल विहीन परीक्षा हुई। इस दौरान पुलिस को भी परीक्षार्थियों पर कार्रवाई करने के अधिकार दे दिए गए थे। नकलची छात्रों को जेल भेजा गया। यहीं सरकार से चूक हो गई। और एक अच्छा प्रयास प्रशासनिक चूकों की बलि चढ़ गया। बाद में 1993 के विधानसभा चुनावों में मुलायम सिंह ने अपने घोषणा पत्र में ही छात्रों को परीक्षाओं के दौरान छूट देने का ऐलान किया। जिसका फायदा उन्हें मिला और सत्ता में आते ही उन्होंने राज्य बोर्ड की परीक्षाओं में खुली छूट दे दी। इससे युवा वर्ग खुश तो हुआ, नकल के आधार पर परीक्षाएं कराने को एक तरह से सामाजिक वैधानिकता भी मिली। इससे एक बार फिर अभिभावकों और छात्रों के चेहरे पर मुस्कान लौट आई। लेकिन इस मुस्कान के साथ ही उत्तर प्रदेश में एक बार फिर ज्ञान आधारित सामाजिक ढांचा बनाने के विचार को तिलांजलि दे दी गई। उसी का असर है कि अब नकल विहीन परीक्षाएं आयोजित कराने के लिए हर साल दावे तो किए जाते हैं, लेकिन वे महज कागजी बन कर रह जाते हैं। इसी का असर हुआ है कि पूर्वी जिलों में नकल माफिया ने पैर फैला लिए हैं। इसके चलते नकल माफियाओं की बन आयी है। ये माफिया पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य उत्तर प्रदेश के छात्रों को सर्टिफिकेट दिलाने का सौदा करते हैं। उनके गलत पतों के आधार पर फॉर्म भरे जाते हैं। इसके सहारे पूर्वी जिलों में परीक्षाओं के दिनों में बाकायदा अर्थव्यवस्था तक चलने लगती है। इसी बार इन पंक्तियों के लेखक को सीतापुर के ऐसे छात्र मिले, जिन्होंने बलिया से फॉर्म भरा था। उन्हें प्रवेश पत्र हासिल करने के एवज में नकल माफियाओं को पचास हजार रूपए तक देने पड़े हैं।
कहा जा रहा है कि इक्कीसवीं सदी ज्ञान और सूचना की सदी है। यानी आज के दौर में जिसके पास ज्ञान और सूचनाएं हैं, वही ताकतवर है। मानव विकास सूचकांक में उत्तर प्रदेश से उड़ीसा नीचे है। सूचना के दम पर वहां के युवाओं ने सिलिकॉन वैली से लेकर साइबराबाद और बेंगलुरू में परचम फहरा रखा है। लेकिन उत्तर प्रदेश ऐसी उपस्थिति दर्ज कराने में अब तक नाकाम रहा है। इसके अहम कारणों में एक वजह राज्य में नकल का संस्थागत होना भी है। दरअसल इन इलाकों में नकल सिर्फ प्रशासनिक समस्या नहीं है, बल्कि सामाजिक समस्या भी है। यहां के समाज में नकल करना और कराना नाक नीची होने की वजह नहीं है। अब तक नकल रोकने के जितनी भी कोशिशें हुईं हैं, वह सिर्फ प्रशासनिक ही रही हैं। सामाजिक स्तर पर इस बुराई को मिटाने की कभी कोशिश नहीं की गई। यही वजह है कि प्रशासनिक धमकी और डर के आगे कुछ वक्त तक नकल भले ही रूक जाती है, लेकिन यह चलन नहीं बन पाती। इसके ही चलते नकल माफियाओं की भी बन आती है।
एक बार मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के हिंदी भाषी समाज पर व्यंग्य करते हुए लिखा था कि इन इलाकों से सबसे ज्यादा लोगों को कोलकाता, मुंबई और दिल्ली में चौकीदार, चपरासी और रसोइए का ही काम मिल पाता है, क्योंकि शिक्षा से उनका कोई गहरा रिश्ता नहीं होता। दरअसल खुशवंत सिंह इस लेख के जरिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के समाज में शिक्षा को लेकर जो दृष्टि है, उस पर व्यंग्य कर रहे थे। कमोबेश यही स्थिति इन इलाकों से पढ़कर निकले ज्यादातर छात्रों की आज भी है। नकल के सहारे परीक्षाएं पास करके जब वे नौकरियों के बाजार में दूसरे इलाकों के छात्रों से प्रतियोगिता करने निकलते हैं तो पिछड़ना उनकी मजबूरी होती है। ऐसा नहीं कि उनमें प्रतिभाएं नहीं हैं। जब भी मौका मिलता है, वे अपनी प्रतिभा को साबित भी कर देते हैं। लेकिन शिक्षा का कमजोर आधार उन्हें पीछे कर देता है।
ऐसे में जरूरी ये है कि इन इलाकों में नकल का निदान सामाजिक बुराई के तौर पर किया जाय। नकल के खिलाफ इस इलाके के समाज को ही जगाना होगा। इसके जरिए सामाजिक नजरिए को भी बदला जाना होगा। अगर ऐसा हुआ तो यकीन मानिए, पूर्वी उत्तर प्रदेश के छात्र और नौजवान भी अपनी प्रतिभा के दम पर जिंदगी के तमाम क्षेत्रों में अपना परचम लहरा सकेंगे। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि सामाजिक बुराई के खिलाफ खड़ा होने की शुरूआत करने के लिए कोई तैयार है भी या नहीं.....।
Sunday, March 21, 2010
शैक्षिक गुणवत्ता सुधार पाएंगे विदेशी विश्वविद्यालय !
उमेश चतुर्वेदी
राजनीति जैसे-जैसे ऊंची मुकाम हासिल करती जाती है, वह संकेतों में बात करने लगती है। सीधी-सपाट बयानबाजी राजनीति में उपयोगी और सहज नहीं मानी जाती। वही राजनेता ज्यादा कामयाब माना जाता है, जो संकेतों में ही अपनी बात कहने में महारत हासिल कर चुका होता है। इन अर्थों में देखा जाय तो केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल भी सफल राजनेता हैं। इसी साल 19 जनवरी को जब वह देश के 44 डीम्ड विश्वविद्यालयों के दर्जे को खत्म किए जाने के फैसले का ऐलान कर रहे थे, तब उनका मकसद साफ था। यह बात और है कि शिक्षा व्यवस्था में निजीकरण के बाद आ रही गिरावट से चिंतित एक तबके को यह फैसला हालात को सकारात्मक बनाता नजर आ रहा था। यही वजह है कि उस वक्त कपिल सिब्बल के फैसले पर सवालों के घेरे में आए डीम्ड विश्वविद्यालयों के कर्ता-धर्ताओं के अलावा किसी ने हो हल्ला नहीं मचाया।
लेकिन उन्होंने उसी दिन एक संकेत जरूर दे दिया था। 15 मार्च को विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश के दरवाजे खोलने के कैबिनेट के फैसले के बाद साबित हो गया कि दरअसल डीम्ड यूनिवर्सिटी पर सवाल क्यों उठाए गए। उदारीकरण के दौर में आह अमेरिका और वाह अमेरिका करने वाली पीढ़ी के लिए कैबिनेट का यह फैसला एक तरह से घर बैठे स्वर्ग में पहुंचने जैसा लग रहा है। इसी वजह से इस फैसले का भी स्वागत हो रहा है।
भारतीय राजनीति को संकेतों में बात करने के साथ-साथ एक और काम में भी महारत हासिल है। पहले वह समस्याएं खड़ी करती है और फिर उसका समाधान करने लगती है। इस प्रक्रिया में एक दौर ऐसा भी आता है कि उसे तार्किक समाधान नहीं सूझता तो उसके लिए विदेशों की ओर देखने लगती है। यह सब कुछ जनता के नाम पर होता है। विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए राह खोलने का भी मसला कुछ ऐसा ही है। पहले आनन-फानन में डीम्ड विश्वविद्यालयों को मंजूरी दी गई। उसके बाद उनकी मान्यता रद्द करने की कोशिश तेज कर दी गई। सवाल ये है कि जब तक अपने विश्वविद्यालयों पर सवाल नहीं उठाया जाएगा तो क्वालिटी के नाम पर विदेशी विश्वविद्यालयों को लाने की वजह कैसे तैयार की जाती। कहना ना होगा कि जिस तरह पहले डीम्ड विश्वविद्यालयों पर सवाल उठाया गया और फिर विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में कैंपस खोलने की अनुमति देने वाले विधेयक को मंजूरी दी गई, उस पर संदेह होना स्वाभाविक है। दोनों फैसलों से साफ है कि सरकार को भी भारतीय युवाओं को क्वालिटी वाली उच्च शिक्षा विदेशी विश्वविद्यालयों में ही नजर आ रही है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि वे सभी डीम्ड विश्वविद्यालय दूध के धुले ही हैं, जिन पर सवाल उठाया गया है। टंडन समिति ने कहा है कि ये पारिवारिक बिजनेस के तौर पर चलाए जा रहे हैं। लेकिन हकीकत तो यह है कि कुछ विश्वविद्यालय दुकानों की तरह व्यवहार कर रहे हैं। अपनी चमकीली बिल्डिंग और आकर्षक ब्रोशर और चिकनी-चुपड़ी मार्केटिंग के जरिए छात्रों को आकर्षित करते हैं। एक बार जब छात्र उनके यहां प्रवेश ले लेता है तो पता चलता है कि पढ़ाई के नाम पर हकीकत में उससे ठगी हुई है। इसके बाद वह छटपटाने और इस छटपटाहट के लिए भारी फीस चुकाने के लिए मजबूर हो जाता है। यही वजह है कि जब डीम्ड यूनिवर्सिटी पर कपिल सिब्बल ने सवाल उठाए थे तो उसका स्वागत हुआ था। तब ये उम्मीद भी जताई जा रही थी कि उनके यहां पढ़ रहे छात्रों की समस्याओं का ध्यान रखा जाएगा।
विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में लाने का स्वागत हो रहा है तो उसके पीछे भी कुछ यही तर्क है। अपने देश में तकरीबन 12 फीसदी युवा ही उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं। देश के पास इतने विश्वविद्यालय नहीं हैं कि बाकी छात्रों को पढ़ा सकें। विदेशी विश्वविद्यालयों की राह खोलने के पीछे सरकार का तर्क है कि इससे भारतीय छात्रों को आसानी से उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा देश की ही धरती पर मिल सकेगी। लेकिन सवाल यह है कि भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों को रेगुलेट करने वाले उसी यूजीसी के ही वही अधिकारी ही होंगे, जिन्होंने गुणवत्तारहित संस्थानों को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देने में देर नहीं लगाई। ऐसे में क्या गारंटी होगी कि विदेशी विद्यालयों के भारतीय कैंपस के साथ ऐसा नहीं होगा।
आह अमेरिका और वाह अमेरिका की रट लगाने वाली आज की पीढ़ी के बड़े हिस्से का सबसे महत्वपूर्ण सपना विदेश में पढ़ाई और नौकरी हो गई है। इसलिए उसे विदेशी विश्वविद्यालय भी खूब लुभाते हैं। हम अपने बेहतर संस्थानों को तो भूल जाते हैं, लेकिन विदेशी धरती का अदना सा संस्थान भी हमें बेहतर नजर आता है। लेकिन हकीकत यही नहीं है। विदेशी विश्वविद्यालय का मतलब येल यूनिवर्सिटी, कैंब्रिज. ऑक्सफोर्ड और हार्वर्ड ही नहीं होता। वहां भी बी और सी ग्रेड के विश्वविद्यालय हैं। वे अपनी धरती पर ही भारतीय छात्रों को भारतीय डीम्ड विश्वविद्यालयों की तरह ठग रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया में हाल के दिनों में हुए भारतीय छात्रों की हत्या और उन पर हमलों के बाद सामने आया कि वहां भी बी और सी ग्रे़ड के ढेरों विश्वविद्यालय हैं और वे छात्रों को ठग रहे हैं। जाहिर है कि विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक पास होने के बाद ज्यादातर बी और सीग्रेड के ही विश्वविद्यालय भारत में अपना कैंपस खोलेंगे। इस खबर के आने के तुरंत बाद येल यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट सेक्रेटरी फॉर इंटरनेशनल अफेयर्स जॉर्ज जोसेफ ने साफ कर दिया कि उनका विश्वविद्यालय भारत में फिलहाल कोई कैम्पस तैयार करने की किसी योजना पर काम नहीं कर रहा है। उन्होंने साफ कर दिया कि उनका विश्वविद्यालय दूसरे संस्थानों के साथ साझेदारी और गठबंधन पर ध्यान देगा। पिछले साल भारत दौरे पर आए इसी यूनिवसिर्टी के प्रेसिडेंट रिचर्ड सी लेविन ने संकेत दिया था कि उनका विश्वविद्यालय निकट भविष्य में भारत में कैम्पस बनाने पर गौर नहीं कर रहा है। हार्वर्ड और कॉर्नेल यूनिवर्सिटी की ओर से भी इसी तरह की राय देखने में आई थी।
इसी तरह के विचार कुछ और विश्वविद्यालयों ने भी जाहिर किए हैं। कैंब्रिज, ऑक्सफोर्ड और इंपीरियल कॉलेज लंदन ने साफ कहा है कि उनके यहां अभी तक भारत में अपने संस्थान खोलने का विचार भी नहीं किया है। हालांकि कनाडा के कुछ विश्वविद्यालयों ने भारत में अपने कैंपस खोलने की योजना में दिलचस्पी जरूर दिखाई है। विदेशी विश्वविद्यालयों की इस घोषणा के बाद जाहिर है कि दुनिया में अपनी गुणवत्ता वाली शिक्षा का डंका बजा चुके विश्वविद्यालयों का भारत आने का फिलहाल इरादा नहीं है। साफ है कि इस विधेयक के पारित होने के बाद भले ही भारतीय छात्रों को उच्च शिक्षा के सामने विदेशी विश्वविद्यालयों का विकल्प भले ही खुल जाए, वैश्विक शैक्षिक स्तर हासिल कर पाना आसान नहीं होगा। लेकिन एक चीज जरूर होगी। अभी मौजूद डीम्ड विश्वविद्यालय और दूसरे तरह के संस्थान विदेशी संस्थानों से गठबंधन जरूर करेंगे। येल यूनिवर्सिटी के
जोसफ का बयान ही इसी परिपाटी के स्थापित होने का संकेत देता है। उनके मुताबिक कई निजी विश्वविद्यालयों को भारतीय बाजार आमदनी का बड़ा स्त्रोत नजर आ रहा है। वे छात्र-छात्राओं को आकर्षित करना चाहते हैं, लिहाजा वे यहां यूनिट स्थापित करने में दिलचस्पी जरूर दिखाएंगे। विदेशी टैग लगना भारत में कमाई और गुणवत्ता की महत्वपूर्ण निशानी माना जाता है। जाहिर है कि ऐसा होने के बाद भारतीय विश्वविद्यालयों के पास पैसा बहुत हो जाएगा। उनकी फीस और महंगी हो जाएगी। और यह सब गुणवत्ता की किसी ठोस गारंटी के बिना होगा। जाहिर है, इसके बाद औसत आमदनी वाले छात्रों की पहुंच से शिक्षा दूर हो जाएगी। इनसे साथ ही पैसा आधारित शिक्षा की एक नई संस्कृति जन्म लेगी। शैक्षिक स्तर पर आज भी कम असमानता नहीं है। विदेशी विश्वविद्यालयों के आने के बाद यह और बढ़ेगा।
यही वजह है कि 2007 में वामपंथी दलों ने इस विधेयक का जोरदार विरोध किया था। तब के मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने भी इस विधेयक का मसौदा तैयार कराया था। लेकिन वामपंथी समर्थन की सीढ़ी के सहार खड़ी यूपीए सरकार अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाई। इन्हीं कारणों से खुद सरकार को भी आशंका है कि अगर संसद में ये विधेयक पेश किया गया तो बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, जनता दल-यू भी विरोध करेंगे। उदारीकरण की समर्थक भारतीय जनता पार्टी ने अभी तक विधेयक के समर्थन का वादा नहीं किया है। साफ है कि सरकार के लिए इस विधेयक को पारित कराना आसान नहीं होगा।
मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को लगता है कि अगर ये विधेयक पारित हो गया तो टेलीकॉम सेक्टर में हो रहे बदलावों से भी बड़ी क्रांति हमारा इंतजार कर रही है। उनकी बात सही हो सकती है। क्रांति तो होगी ही, महंगाई की मार रो रहे निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों की पहुंच से उच्च शिक्षा दूर होती जाएगी। तब युवा पीढ़ी के बीच सोच और शिक्षा के स्तर पर भारी असमानता होगी। जो निश्चित तौर पर देश के मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होगा। बेहतर हो कि कपिल सिब्बल और उनका मंत्रालय इस दिशा में भी सोच कर कुछ एहतिहाती कदम उठाने की तैयारी करे। तभी समानता की धरती पर सचमुच कोई शैक्षिक क्रांति हो सकेगी।
Friday, March 5, 2010
पूर्वांचल वाले अमर भईया
उमेश चतुर्वेदी
पूर्वी उत्तर प्रदेश को अलग करके पूर्वांचल राज्य बनाने की मांग यूं तो काफी पुरानी है। जब पिछले दिनों तेलंगाना राज्य बनाने को लेकर चल रहा आंदोलन तेज हुआ तो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी पूर्वांचल को अलग बनाने की मांग करने वालों में शामिल हो गईं। दिलचस्प बात ये है कि सिर्फ दो महीने पहले तक उत्तर प्रदेश के बंटवारे का विरोध करने वाले अमर सिंह को भी पूर्वांचल राज्य में ही पूर्वी उत्तर प्रदेश का भविष्य नजर आने लगा है। इस मांग को जोरदार तरीके से उठाने के नाम पर उन्होंने अपने गृह जिले आजमगढ़ में 26 फरवरी को बाकायदा स्वाभिमान रैली का आयोजन भी कर डाला।
हालांकि राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अमर सिंह को पूर्वी उत्तर प्रदेश की बदहाली ने उतना प्रभावित नहीं किया है, जितना वे अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने के लिए परेशान हैं। स्वाभिमान रैली का असल मकसद यही था। अमर सिंह को लगता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल राज्य के नाम पर जनसमर्थन जुटाया जा सकता है। इसीलिए वे जोरशोर से पूर्वी उत्तर प्रदेश की हर सभाओं में इस मांग को उठा रहे हैं।
लेकिन जिन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश की मिट्टी की पहचान है, उन्हें पता है कि पूर्वांचल राज्य को लेकर नया आंदोलन यहां खड़ा करना आसान नहीं है। अलग तेलंगाना आंदोलन जब तेज हो रहा था, तब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमान ने पूर्वी उत्तर प्रदेश को बिहार से जोड़कर नया राज्य बनाने का सुझाव ही दे डाला था। ये सुझाव भले ही लोगों को नया और लीक से अलग नजर आ रहा हो, लेकिन हकीकत ये है कि ऐसी मांग पिछली सदी के आखिरी दिनों में उनके ही पूर्ववर्ती लालू प्रसाद यादव कर चुके हैं। एनटी रामाराव के भारत देशम की तर्ज पर उन्होंने भोजपुरी देशम की मांग रखी थी। लालू यादव ने जिस समय ये मांग रखी थी, उस समय वे अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे। राजनीतिक पंडित जनता के रूख को मोड़ने की किसी नेता की ताकत का अंदाजा उसकी लोकप्रियता के जरिए ही आंकते रहे हैं। इस आधार पर भोजपुरी देशम राज्य की मांग अब तक पूरे शवाब पर होती। लेकिन पूर्वांचल का भोजपुरी भाषी समाज भले ही किसी और मसले पर अपने नेता के पीछे चलने लगता हो, लेकिन राज्य और राष्ट्र के मसले पर वह दूसरे इलाके के लोगों की तरह भेड़चाल में शामिल नहीं हो सकता। शायद यही वजह है कि अब तक ना तो अलग पूर्वांचल राज्य की मांग सिरे से परवान चढ़ पाई है, ना ही भोजपुरी देशम का सपना कायदे से खड़ा होता दिख रहा है।
पूर्वांचल के लोगों की इस मानसिकता को वहां के राजनेता भी अच्छी तरह समझते रहे हैं। इसी मिट्टी से निकले चंद्रशेखर खुलेआम मानते रहे कि विकास के दम पर राजनीति नहीं की जा सकती। जिस बलिया की जनता की नुमाइंदगी करते हुए चंद्रशेखर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, वहां आज भी सड़कों के बीच गड्ढा या गड्ढे के बीच सड़क खोजी जा सकती है। लेकिन वहां की जनता को इस बात का मलाल नहीं रहा कि उसका विकास देश के दूसरे वीआईपी नेताओं के चुनाव क्षेत्रों का क्यों नहीं हुआ। बलिया के लोग इसी तथ्य से गर्व भरे संतोष का अनुभव करते रहे हैं कि वे जिस नेता को संसद की दहलीज तक पहुंचाते रहे हैं, उसकी आवाज अंतरराष्ट्रीय मंचों तक सुनी जाती रही है। बदहाली और विकास की किरणों से उत्तर प्रदेश के दूसरे इलाकों से मीलों पीछे स्थित इस इलाके के लोगों की मानसिकता अब तक बदल नहीं पाई है। शायद मायावती भी इस तथ्य को समझ रही हैं, यही वजह है कि उन्होंने पूर्वांचल को अलग करके नया राज्य बनाने के लिए केंद्र सरकार को चिट्ठी लिखने में देर नहीं लगाई।
पूरी दुनिया में अलग राष्ट्र या अलग राज्य बनाने की मांग के पीछे स्थानीय अस्मिताओं की राजनीतिक और जातीय पहचान बचाए रखना सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है। विकास और स्थानीय हाथों में राजनीतिक सत्ता को बनाए रखना दूसरा बड़ा कारण है। इन अर्थों में देखा जाय तो पूर्वी उत्तर प्रदेश को काटकर अलग राज्य बनाए जाने की मांग को जनता का व्यापक समर्थन मिलना चाहिए था। एक दौर में पूर्वी उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता और राज्य के पूर्व वित्त मंत्री मधुकर दिघे ने भी इस इलाके को अलग राज्य बनाने की मांग रखी थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के रसूखदार नेता रहे शतरूद्र प्रकाश और भदोही से भारतीय जनता पार्टी के सांसद रहे वीरेंद्र सिंह मस्त भी अलग पूर्वांचल राज्य बनाने की मांग संसद से लेकर सड़क तक उठा चुके हैं। लेकिन जनता का उन्हें साथ नहीं मिल पाया। यहां की जनता विकास की बजाय इसी बात से गर्वान्वित होती रही कि उसने पंडित जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर जैसे प्रधानमंत्रियों को जन्म दिया।
छोटे राज्यों की मांग के पीछे स्थानीय समुदाय और सियासत के हाथ सत्ता की ताकत हासिल करना भी रहा है। ताकि स्थानीय स्तर पर विकास की नदी की धार बहाई जा सके। इस आधार पर देखें तो छह प्रधानमंत्रियों वाले इस इलाके का नक्शा देश के दूसरे इलाकों से ज्यादा चमकदार होना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।
सच तो ये है कि विकास की दौड़ में यह राज्य आज भी दूसरे विकसित राज्यों की कौन कहे, पश्चिमी और मध्य प्रदेश की तुलना में ही कोसों पीछे है। राष्ट्रीय नमूना सवेँ के 61वें दौर के सर्वेक्षण के मुताबिक पूर्वांचल के ग्रामीण इलाकों में 56.5 प्रतिशत और शहर में 54.8 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर कर रही है। 1999-2000 में अकेले पूर्वी उत्तर प्रदेश की 35.6 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी, जबकि पूरे उत्तर प्रदेश में गरीबी का औसत 31 प्रतिशत था। नियोजन विभाग की अध्ययन रिपोर्ट में पाया गया कि प्रदेश के सबसे कम विकसित 14 जिलों में 11 पूर्वी उप्र के हैं और दो बुंदेलखंड के। खुद योजना आयोग की उत्तर प्रदेश विकास रिपोर्ट ही मानती है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तुलना में पूर्वी उत्तर प्रदेश में निवेश भी कम हो रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां 66.8 प्रतिशत निवेश हुआ है तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में महज साढ़े सत्रह फीसदी ही निवेश हुआ। आज बिजली विकास का पैमाना बन गई है। लेकिन खुद राज्य के ही नियोजन विभाग के मुताबिक ग्रामीण विद्युतीकरण के मसले में भी पूर्वी उत्तर प्रदेश सिर्फ बुंदेलखंड इलाके से ही आगे है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जहां 88.81 प्रतिशत गांवों में बिजली पहुंच गई है, वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश के 76.78 प्रतिशत गांवों को ही बिजली नसीब हो पाई है। नियोजन विभाग ने अपने प्रमुख पैमाने पर राज्य की प्रति व्यक्ति आय का जो आंकड़ा दिया है, उसमें भी उत्तर प्रदेश काफी पीछे है। इसके मुताबिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय जहां 17083 रुपए है, वहीं पूर्वांचल के लोगों की प्रति व्यक्ति आय 9499 रुपए है। कुल सिंचित भूमि के हिसाब से भी पूर्वी उत्तर प्रदेश बाकी इलाकों से पीछे है। पश्चिमी इलाके में जहां 62 फीसदी भूमि सिंचित है, वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश में ये आंकड़ा महज चालीस फीसद ही है। राज्य नियोजन विभाग की वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक विकास में भी पश्चिमी उप्र का पलड़ा अन्य क्षेत्रों से काफी भारी है। राज्य नियोजन विभाग की वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2004-05 में जहां पश्चिमी उप्र में पंजीकृत कारखानों की अनुमानित संख्या 7265 थी, वहीं मध्य उप्र में यह 2245, पूर्वी उप्र में 1379 और बुंदेलखंड में महज 159 थी। और तो और साक्षरता के मसले पर भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश राज्य के दूसरे इलाकों से पीछे ही है। पूर्वांचल के जहां 55.22 प्रतिशत लोग साक्षर हैं, वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 58.44 प्रतिशत लोग साक्षर है। इस मामले में बुंदेलखंड दूसरे इलाकों से आगे है, जहां के करीब 60.32 प्रतिशत लोग साक्षर हैं। शिक्षा भले ही आज विकास का सबसे बड़ा पैमाना माना जा रहा हो। लेकिन प्रति लाख जनसंख्या पर प्राथमिक विद्यालयों की संख्या के लिहाज से भी पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य के दूसरे क्षेत्रों से पीछे है। सबसे ज्यादा प्राथमिक स्कूल 104 प्रतिलाख बुंदेलखंड में हैं। ऐसा इसलिए संभव हो पाया है, क्योंकि इस इलाके का जनसंख्या घनत्व राज्य के दूसरे इलाकों की तुलना में बेहद कम है। वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रति लाख जनसंख्या पर 79 स्कूल हैं तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में ये आंकड़ा महज 68 है। यही हालत अस्पतालों और उनमें मौजूद बिस्तरों की भी है।
आंकड़ों का आधार गवाह है कि उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड से पूर्वी उत्तर प्रदेश की थोड़ी बेहतर स्थिति है। लोगों को पता है कि उनके यहां बिजली नहीं आने वाली, सड़कों में गड्ढे ढूंढ़ने की उनकी अनवरत यात्रा जारी रहेगी। इन दुश्वारियों को झेलने के बावजूद अगर यहां अलग राज्य की मांग सिरे से परवान चढ़ती नजर नहीं आ रही तो इसकी एक बड़ी वजह ये है कि यहां के लोग राष्ट्रीयताबोध से बेहद ओतप्रोत हैं।
1962 में गाजीपुर के तत्कालीन सांसद विश्वनाथ गहमरी ने जब इस इलाके की गरीबी की दास्तान सुनाते हुए लोकसभा को बताया था कि यहां के गरीब लोग गोबर से अनाज का दाना निकाल कर खाने को मजबूर हैं, तो नेहरू की ऑंखें भी छलछला उठी थीं। इस घटना को बीते भी पांचवा दशक होने को है। अब लोग बेशक गोबर से दाना निकाल कर नहीं खा रहे, लेकिन यहां की ज्यादातर आबादी की हालत में खास बदलाव नहीं आया है। ऐसे हालात में भी मायावती के सुझाव के बावजूद अलग राज्य की मांग को लेकर कोई खास सुगबुगाहट नजर नहीं आ रही है।
(यह लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित हो चुका है।)
Saturday, February 13, 2010
अब नहीं जलती लालटेन
उमेश चतुर्वेदी
हम जैसे – जैसे एक उम्र की सीमा को पार करने लगते हैं, अपने पुराने दिन, घर-परिवार की बातें और स्कूल की शरारतें याद आने लगती हैं। भले ही किसी की उम्र ज्यादा क्यों न हो गई हो, उसकी मौत उसके साथ बिताए दिनों की बेसाख्ता याद दिलाने लगती है। अपने मिडिल स्कूल के एक गुरूजी की मौत के बाद मुझे जितनी उनकी याद आई, उसके साथ ही उनकी छड़ी की सोहबत में गुजारे स्कूली दिन भी स्मृतियों में ताजा हो गए। यही वजह रही कि इस बार गांव जाने के बाद मैं अपने मिडिल स्कूल जा पहुंचा। स्कूल की बिल्डिंग वैसी ही खड़ी है, जैसी शायद पिछली सदी के चालीस के दशक में खड़ी थी। लेकिन चालीस के दशक से ही चलती रही एक परंपरा ने यहां भी अपना दम तोड़ दिया है।
दरअसल तब आठवीं का इम्तहान भी बोर्ड के तहत देना होता था। हमारे स्कूल की चूंकि पढ़ाई की दुनिया में बरसों पुरानी साख थी, लिहाजा इस साख को बचाए रखने के लिए हमारे गुरूजी लोग जाड़े का दिन आते ही स्कूल में ही छात्रों के बिस्तर लगवा देते। इसके लिए धान की पुआल दो कमरों में डालकर उस पर दरी बिछा दी जाती। ये इंतजाम स्कूल की तरफ से ही होता था। फिर उस पर अपने घरों से ओढ़ना-बिछौना लाकर आठवीं के छात्र डाल देते। सिरहाने उनकी पूरी किताबें और नोटबुक होती। तब स्कूल में बिजली नहीं थी, लिहाजा सबको अपने लिए लालटेन भी लानी होती थी। दीपावली बाद से लेकर मार्च – अप्रैल में इम्तहान होने तक सभी छात्र को सिर्फ दिन में एक बार घर जाने की अनुमति होती थी। यह मौका शाम की छुट्टियों के बाद ही आता। घर जाकर सभी लोग खाना खाते, कपड़े बदलते और रात के खाने के साथ ही देसी फास्टफूड की पोटली लेकर आते थे। दिन में कक्षाओं में पढ़ाई होती और रात में गुरूजी लोग के निर्देशन में लालटेन की रोशनी में पढ़ाई होती। छात्रों का रिजल्ट खराब न हो, इसके लिए गुरूजी लोग खास ध्यान देते। छात्रों को गुरूकुल की भांति हर दिन चार बजे भोर में जगाया जाता। गुरूजी लोग भी जागते और पढ़ाई कराते। इतनी मेहनत के बाद भी गुरू लोग अपने ही खर्च से स्कूल में खाना बनाते। इसके लिए अलग से कोई फीस नहीं ली जाती थी। हां, परीक्षा पास होने के बाद हर छात्र गुरू दक्षिणा के तौर पर पांच या दस रूपए देता था। अगर मानें तो तीन-चार महीने की पढ़ाई का यही गुरूओं का मेहनताना होता।
स्कूल में पहुंचते ही मुझे अपने जमाने के वे दिन याद आने लगे। मैंने पूछताछ शुरू की तो पता चला कि यह परंपरा टूटे कई साल हो गए। वैसे तो अब खाते-पीते परिवारों के बच्चे यहां पढ़ने ही नहीं आते। उनके लिए अब कस्बे में ही अंग्रेजी नाम वाले कई स्कूल खुल गए हैं। जहां वे मोटी फीस देकर पढ़ते हैं। ये बात और है कि इन स्कूलों के चलाने वाले लोग हमारे स्कूल की लालटेन की रोशनी से ही निकले हुए हैं। कहते हैं, व्यक्ति अपने शुरूआती जीवन में सीखता है, उसे बाद के दिनों में भी अख्तियार किए रखता है। लेकिन तकरीबन इस नि:स्वार्थ परंपरा को हम अपनी जिंदगी में उतार नहीं पाए हैं। बाजार के दबाव ने हमारी शिक्षा व्यवस्था को भी पूरी तरह निगल लिया है। जहां अब गुरू न तो छात्रों को अपने परिवार का अंग समझता है ना ही छात्रों के मन में उसके लिए श्रद्धा ही बची है। ऐसे में शिक्षा भी व्यवसाय बन गई है। जहां लोग अपनी हैसियत के मुताबिक कीमत देकर उसे हासिल कर रहे हैं। जो बड़ी कीमत देकर ऊंची तालीम हासिल नहीं कर पाता है, उसे बाजार में खुद के पिछड़ने का मलाल रह जाता है। लेकिन आज से करीब दो दशक पहले तक स्थिति ऐसी नहीं थी। कस्बे के जमींदार, थानेदार से लेकर चौकीदार तक का बेटा एक साथ पढ़ते थे। सबकी लालटेनें एक साथ जलती थीं और इनकी सम्मिलित रोशनी समाज में मौजूद अंधियारे को मिटाने की कोशिश करती थीं। ऐसा नहीं कि तब सारे गुरू दूध के धुले ही थे। समाज में कभी-भी सबकुछ दूध का धुला ही नहीं होता। लेकिन उसकी फिजाओं में इसकी तासीर कम या ज्यादा जरूर होती है। कहना ना होगा कि तब के दिनों में शिक्षा कम से कम दुकानदारी के तासीर से मुक्त थी, जहां अध्यापक हर छात्र को पढ़ाना और उसे काबिल आदमी बनाना अपना कर्तव्य समझता था। शायद यही वजह है कि लालटेन से जो रोशनी निकलती थी, वह शिक्षा के साथ एक रिश्ते का भी प्रसार करती थी। आज स्कूल भी वही है। अध्यापकों को पहले से कई गुना ज्यादा पगार मिलती है। वहां बिजली भी आ गई है। उसकी रोशनी की चमक भी कहीं ज्यादा है। लेकिन अफसोस रिश्तों की वह डोर बाकी नहीं बची है, जो लालटेन वाले दिनों की खास पहचान हुआ करती थी।
जनसत्ता के कॉलम दुनिया मेरे आगे में प्रकाशित
हम जैसे – जैसे एक उम्र की सीमा को पार करने लगते हैं, अपने पुराने दिन, घर-परिवार की बातें और स्कूल की शरारतें याद आने लगती हैं। भले ही किसी की उम्र ज्यादा क्यों न हो गई हो, उसकी मौत उसके साथ बिताए दिनों की बेसाख्ता याद दिलाने लगती है। अपने मिडिल स्कूल के एक गुरूजी की मौत के बाद मुझे जितनी उनकी याद आई, उसके साथ ही उनकी छड़ी की सोहबत में गुजारे स्कूली दिन भी स्मृतियों में ताजा हो गए। यही वजह रही कि इस बार गांव जाने के बाद मैं अपने मिडिल स्कूल जा पहुंचा। स्कूल की बिल्डिंग वैसी ही खड़ी है, जैसी शायद पिछली सदी के चालीस के दशक में खड़ी थी। लेकिन चालीस के दशक से ही चलती रही एक परंपरा ने यहां भी अपना दम तोड़ दिया है।
दरअसल तब आठवीं का इम्तहान भी बोर्ड के तहत देना होता था। हमारे स्कूल की चूंकि पढ़ाई की दुनिया में बरसों पुरानी साख थी, लिहाजा इस साख को बचाए रखने के लिए हमारे गुरूजी लोग जाड़े का दिन आते ही स्कूल में ही छात्रों के बिस्तर लगवा देते। इसके लिए धान की पुआल दो कमरों में डालकर उस पर दरी बिछा दी जाती। ये इंतजाम स्कूल की तरफ से ही होता था। फिर उस पर अपने घरों से ओढ़ना-बिछौना लाकर आठवीं के छात्र डाल देते। सिरहाने उनकी पूरी किताबें और नोटबुक होती। तब स्कूल में बिजली नहीं थी, लिहाजा सबको अपने लिए लालटेन भी लानी होती थी। दीपावली बाद से लेकर मार्च – अप्रैल में इम्तहान होने तक सभी छात्र को सिर्फ दिन में एक बार घर जाने की अनुमति होती थी। यह मौका शाम की छुट्टियों के बाद ही आता। घर जाकर सभी लोग खाना खाते, कपड़े बदलते और रात के खाने के साथ ही देसी फास्टफूड की पोटली लेकर आते थे। दिन में कक्षाओं में पढ़ाई होती और रात में गुरूजी लोग के निर्देशन में लालटेन की रोशनी में पढ़ाई होती। छात्रों का रिजल्ट खराब न हो, इसके लिए गुरूजी लोग खास ध्यान देते। छात्रों को गुरूकुल की भांति हर दिन चार बजे भोर में जगाया जाता। गुरूजी लोग भी जागते और पढ़ाई कराते। इतनी मेहनत के बाद भी गुरू लोग अपने ही खर्च से स्कूल में खाना बनाते। इसके लिए अलग से कोई फीस नहीं ली जाती थी। हां, परीक्षा पास होने के बाद हर छात्र गुरू दक्षिणा के तौर पर पांच या दस रूपए देता था। अगर मानें तो तीन-चार महीने की पढ़ाई का यही गुरूओं का मेहनताना होता।
स्कूल में पहुंचते ही मुझे अपने जमाने के वे दिन याद आने लगे। मैंने पूछताछ शुरू की तो पता चला कि यह परंपरा टूटे कई साल हो गए। वैसे तो अब खाते-पीते परिवारों के बच्चे यहां पढ़ने ही नहीं आते। उनके लिए अब कस्बे में ही अंग्रेजी नाम वाले कई स्कूल खुल गए हैं। जहां वे मोटी फीस देकर पढ़ते हैं। ये बात और है कि इन स्कूलों के चलाने वाले लोग हमारे स्कूल की लालटेन की रोशनी से ही निकले हुए हैं। कहते हैं, व्यक्ति अपने शुरूआती जीवन में सीखता है, उसे बाद के दिनों में भी अख्तियार किए रखता है। लेकिन तकरीबन इस नि:स्वार्थ परंपरा को हम अपनी जिंदगी में उतार नहीं पाए हैं। बाजार के दबाव ने हमारी शिक्षा व्यवस्था को भी पूरी तरह निगल लिया है। जहां अब गुरू न तो छात्रों को अपने परिवार का अंग समझता है ना ही छात्रों के मन में उसके लिए श्रद्धा ही बची है। ऐसे में शिक्षा भी व्यवसाय बन गई है। जहां लोग अपनी हैसियत के मुताबिक कीमत देकर उसे हासिल कर रहे हैं। जो बड़ी कीमत देकर ऊंची तालीम हासिल नहीं कर पाता है, उसे बाजार में खुद के पिछड़ने का मलाल रह जाता है। लेकिन आज से करीब दो दशक पहले तक स्थिति ऐसी नहीं थी। कस्बे के जमींदार, थानेदार से लेकर चौकीदार तक का बेटा एक साथ पढ़ते थे। सबकी लालटेनें एक साथ जलती थीं और इनकी सम्मिलित रोशनी समाज में मौजूद अंधियारे को मिटाने की कोशिश करती थीं। ऐसा नहीं कि तब सारे गुरू दूध के धुले ही थे। समाज में कभी-भी सबकुछ दूध का धुला ही नहीं होता। लेकिन उसकी फिजाओं में इसकी तासीर कम या ज्यादा जरूर होती है। कहना ना होगा कि तब के दिनों में शिक्षा कम से कम दुकानदारी के तासीर से मुक्त थी, जहां अध्यापक हर छात्र को पढ़ाना और उसे काबिल आदमी बनाना अपना कर्तव्य समझता था। शायद यही वजह है कि लालटेन से जो रोशनी निकलती थी, वह शिक्षा के साथ एक रिश्ते का भी प्रसार करती थी। आज स्कूल भी वही है। अध्यापकों को पहले से कई गुना ज्यादा पगार मिलती है। वहां बिजली भी आ गई है। उसकी रोशनी की चमक भी कहीं ज्यादा है। लेकिन अफसोस रिश्तों की वह डोर बाकी नहीं बची है, जो लालटेन वाले दिनों की खास पहचान हुआ करती थी।
जनसत्ता के कॉलम दुनिया मेरे आगे में प्रकाशित
Thursday, January 21, 2010
एक दुनिया ऐसी भी
उमेश चतुर्वेदी
किसी सभा संगत में बोलने का मौका मिले तो अच्छे-भले लोगों की बांछें खिल उठती हैं, ऐसे में किसी नए-नवेले को अवसर मिले तो उसकी खुशियों का पारावार नहीं होगा। दिल्ली की एक संगत से बुलावा मिला तो मेरी भी हालत कुछ वैसी ही थी। लेकिन वहां पहुंचकर जो अनुभव हुआ, उसने मेरी आंखें ही खोल दीं। देश की हालत पर चर्चा करते हुए मैंने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की उस रिपोर्ट का जिक्र कर बैठा – जिसके मुताबिक देश के आज भी करीब चौरासी करोड़ लोग रोजाना सिर्फ बीस रूपए या उससे नीचे पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। योजना आयोग की बनाई इस कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र मैंने इसलिए किया, ताकि वहां बैठे नौजवान श्रोताओं को पता चला कि मॉल और महंगी गाड़ियों से अटी दिल्ली-मुंबई के बाहर की देसी दुनिया और उसके लोग कैसे हैं। इस उदाहरण के बाद पता नहीं कितने नौजवानों की आंखें खुलीं, लेकिन एक नौजवान ने जैसे सवाल मेरी ओर उछाले, उससे चौंकने की बारी मेरी थी।
दरअसल वह नौजवान मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत की इतनी बदतर हालत है। जिस कॉलेज से वह आया था, वह दिल्ली के संभ्रांत कॉलेजों में गिना जाता है। माना जाता है कि वहां संभ्रांत तबके के लोगों के ही बच्चे पढ़ते हैं। जाहिर है वह बच्चा भी वैसे ही समाज से था। महंगे और आधुनिक फ्लैट से निकल कर महंगी गाड़ियों के बाद चमकते मॉल और रेस्तरां और बेहतरीन स्कूलों के बीच उसकी जिंदगी गुजरी थी या गुजर रही है। वह मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत में सचमुच इतनी गरीबी और बदहाली है। उसे लगता था कि मैं उसे बेवकूफ बना रहा हूं। अव्वल तो वह यह मानने को तैयार ही नहीं था कि योजना आयोग ने ऐसी कमेटी भी बनाई थी, जिसने कोई ऐसी रिपोर्ट भी दी थी। भारत में ऐसी गरीबी और बदहाली को तो खैर वह मान ही नहीं रहा था। वह तो शुक्र है कि जिस संगत में गया था, वहां इंटरनेट की सुविधा थी। लिहाजा मैंने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की वह रिपोर्ट डाउनलोड की और उसे पढ़ने के लिए दे दिया।
कई लोगों को लग सकता है कि दिल्ली में संभ्रांत घरों के ऐसे भी बच्चे हैं, जिन्हें अखबारी और टीवी की दुनिया से इतना भी वास्ता नहीं है कि वे ऐसी जानकारियों से लैस रह सकें। लेकिन यही सच है। खाए-अघाए वर्ग के बच्चों का एक बड़ा तबका ना सिर्फ ऐसी जानकारियों से दूर है, बल्कि उसे सामान्य ज्ञान की भी जानकारी नहीं है। रही बात भारत की गरीबी की, तो इस बारे में भी उनकी जानकारी अधूरी या अधकचरी है।
इस अनुभव के बाद मुझे लगा कि मैकाले की स्वर्ग में बैठी आत्मा बेहद खुश होगी। मैकाले ने 1835 में जिस शिक्षा व्यस्था की नींव रखी थी, उसका मकसद था भारत नहीं इंडिया का निर्माण। मैकाले सफल कितना सफल हो पाया, यह तो अलग शोध का विषय है, लेकिन उदारीकरण के दौरान या उसके बाद पैदा हुई महानगरीय पीढ़ी ने उसकी मंशा जरूर पूरी कर दी है। मैकाले तो सफल नहीं हुआ, लेकिन उदारीकरण ने वह सीमा रेखा जरूर खींच दी है, जिससे भारत और इंडिया साफ बंटे नजर आ रहे हैं।
इस घटना के बाद मुझे प्रिंस क्रोपाटकिन की किताब – नवयुवकों से दो बातें – काफी शिद्दत से याद आने लगी। जिसे मैंने किशोरावस्था की ओर कदम रखते वक्त पढ़ा था। इस किताब में वह डॉक्टर, अध्यापक और वकील जैसे प्रोफेशनल से पूछते हैं कि अगर उनके सामने गरीब और बेसहारा आम आदमी और उसके बच्चे अपनी समस्या लेकर आते हैं तो उनका क्या जवाब होगा या फिर वे कैसे उससे निबटेंगे। जाहिर है, जवाब पारंपरिक ही होंगे कि मसलन डॉक्टर रोगी के लिए फल और दूध के साथ दवाइयां ही सुझाएगा। तब क्रोपाटकिन दूसरा सवाल उछालते हैं कि जब उनके पास इसकी सामर्थ्य ही नहीं होगी, तब ... और क्रोपाटकिन का यह सवाल ही आंख खोल देता है। काश कि ऐसी किताबें आज की महानगरीय पीढ़ी को पढ़ने को दी जातीं और वह इससे कुछ संदेश लेती। तब शायद उन्हें पता चलता कि देश की असल हालत क्या है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या आज की यह महानगरीय पीढ़ी इसके लिए तैयार भी है या नहीं...
किसी सभा संगत में बोलने का मौका मिले तो अच्छे-भले लोगों की बांछें खिल उठती हैं, ऐसे में किसी नए-नवेले को अवसर मिले तो उसकी खुशियों का पारावार नहीं होगा। दिल्ली की एक संगत से बुलावा मिला तो मेरी भी हालत कुछ वैसी ही थी। लेकिन वहां पहुंचकर जो अनुभव हुआ, उसने मेरी आंखें ही खोल दीं। देश की हालत पर चर्चा करते हुए मैंने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की उस रिपोर्ट का जिक्र कर बैठा – जिसके मुताबिक देश के आज भी करीब चौरासी करोड़ लोग रोजाना सिर्फ बीस रूपए या उससे नीचे पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। योजना आयोग की बनाई इस कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र मैंने इसलिए किया, ताकि वहां बैठे नौजवान श्रोताओं को पता चला कि मॉल और महंगी गाड़ियों से अटी दिल्ली-मुंबई के बाहर की देसी दुनिया और उसके लोग कैसे हैं। इस उदाहरण के बाद पता नहीं कितने नौजवानों की आंखें खुलीं, लेकिन एक नौजवान ने जैसे सवाल मेरी ओर उछाले, उससे चौंकने की बारी मेरी थी।
दरअसल वह नौजवान मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत की इतनी बदतर हालत है। जिस कॉलेज से वह आया था, वह दिल्ली के संभ्रांत कॉलेजों में गिना जाता है। माना जाता है कि वहां संभ्रांत तबके के लोगों के ही बच्चे पढ़ते हैं। जाहिर है वह बच्चा भी वैसे ही समाज से था। महंगे और आधुनिक फ्लैट से निकल कर महंगी गाड़ियों के बाद चमकते मॉल और रेस्तरां और बेहतरीन स्कूलों के बीच उसकी जिंदगी गुजरी थी या गुजर रही है। वह मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत में सचमुच इतनी गरीबी और बदहाली है। उसे लगता था कि मैं उसे बेवकूफ बना रहा हूं। अव्वल तो वह यह मानने को तैयार ही नहीं था कि योजना आयोग ने ऐसी कमेटी भी बनाई थी, जिसने कोई ऐसी रिपोर्ट भी दी थी। भारत में ऐसी गरीबी और बदहाली को तो खैर वह मान ही नहीं रहा था। वह तो शुक्र है कि जिस संगत में गया था, वहां इंटरनेट की सुविधा थी। लिहाजा मैंने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की वह रिपोर्ट डाउनलोड की और उसे पढ़ने के लिए दे दिया।
कई लोगों को लग सकता है कि दिल्ली में संभ्रांत घरों के ऐसे भी बच्चे हैं, जिन्हें अखबारी और टीवी की दुनिया से इतना भी वास्ता नहीं है कि वे ऐसी जानकारियों से लैस रह सकें। लेकिन यही सच है। खाए-अघाए वर्ग के बच्चों का एक बड़ा तबका ना सिर्फ ऐसी जानकारियों से दूर है, बल्कि उसे सामान्य ज्ञान की भी जानकारी नहीं है। रही बात भारत की गरीबी की, तो इस बारे में भी उनकी जानकारी अधूरी या अधकचरी है।
इस अनुभव के बाद मुझे लगा कि मैकाले की स्वर्ग में बैठी आत्मा बेहद खुश होगी। मैकाले ने 1835 में जिस शिक्षा व्यस्था की नींव रखी थी, उसका मकसद था भारत नहीं इंडिया का निर्माण। मैकाले सफल कितना सफल हो पाया, यह तो अलग शोध का विषय है, लेकिन उदारीकरण के दौरान या उसके बाद पैदा हुई महानगरीय पीढ़ी ने उसकी मंशा जरूर पूरी कर दी है। मैकाले तो सफल नहीं हुआ, लेकिन उदारीकरण ने वह सीमा रेखा जरूर खींच दी है, जिससे भारत और इंडिया साफ बंटे नजर आ रहे हैं।
इस घटना के बाद मुझे प्रिंस क्रोपाटकिन की किताब – नवयुवकों से दो बातें – काफी शिद्दत से याद आने लगी। जिसे मैंने किशोरावस्था की ओर कदम रखते वक्त पढ़ा था। इस किताब में वह डॉक्टर, अध्यापक और वकील जैसे प्रोफेशनल से पूछते हैं कि अगर उनके सामने गरीब और बेसहारा आम आदमी और उसके बच्चे अपनी समस्या लेकर आते हैं तो उनका क्या जवाब होगा या फिर वे कैसे उससे निबटेंगे। जाहिर है, जवाब पारंपरिक ही होंगे कि मसलन डॉक्टर रोगी के लिए फल और दूध के साथ दवाइयां ही सुझाएगा। तब क्रोपाटकिन दूसरा सवाल उछालते हैं कि जब उनके पास इसकी सामर्थ्य ही नहीं होगी, तब ... और क्रोपाटकिन का यह सवाल ही आंख खोल देता है। काश कि ऐसी किताबें आज की महानगरीय पीढ़ी को पढ़ने को दी जातीं और वह इससे कुछ संदेश लेती। तब शायद उन्हें पता चलता कि देश की असल हालत क्या है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या आज की यह महानगरीय पीढ़ी इसके लिए तैयार भी है या नहीं...
Friday, November 13, 2009
बलिया के चारबज्जी रेल की याद
उमेश चतुर्वेदी
1984 के जुलाई महीने की उमस भरी गर्मी में राहत की उम्मीद लेकर मैं अपने एक सहपाठी मित्र की दुकान पर पहुंचा। बलिया स्टेशन पर सर्वोदय बुक स्टाल नाम की आज भी ये दुकान वैसे ही खड़ी है – जैसी अस्सी के दशक में थी। तब मैं ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था और जिला मुख्यालय से रोज ब रोज के साबका ने किशोर आंखों में साहित्य और पत्रकारिता के लिए अनजान से सपने रोपने शुरू कर दिए थे। ऐसे में मेरे सहपाठी की दुकान मेरे लिए ज्यादा मुफीद थी। रोजाना छोटी लाइन की छुकछुक करती भाप इंजन से चलने वाली ट्रेनों के सहारे हमें अपने इंटर कालेज में आना होता था और वापसी भी ट्रेन से करनी होती। ऐसे में स्टेशन की भीड़भरी गर्मी में ये दुकान मुझे दो तरह की राहत देती थी- पंखे के नीचे सुकून से बैठने और मुफ्त में मनचाही किताबें पढ़ने की..यहां मैंने न जाने कितनी किताबें पढ़ी, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, पत्रकारिता और सेक्स...सबकुछ खैर....इसकी चर्चा फिर कभी .....
इसी दौरान किताबों के नए आए सेट की एक किताब पर नजर गई ...कोहबर की शर्त..किताब के लेखक के बारे में पढ़ा, बलिया जिले के बलिहार गांव के ही निवासी थे केशव प्रसाद मिश्र। इस किताब ने मुझे इसलिए भी आकर्षित किया – क्योंकि इसकी पहली ही लाइन की शुरूआत उसी चार बजे की ट्रेन की चर्चा से होती है – जिससे रोजाना शाम को हम अपने घरों के लिए लौटते थे। कोहबर की शर्त में आपको ये लाइन कुछ ऐसे मिलेगी – चारबज्जी ट्रेन हांफती हुई सी खड़ी थी। कोहबर की शर्त की जब-जब मेरे सामने चर्चा होती है – मेरी स्मृतियों में भाप इंजन वाली वह चार बजे वाली ट्रेन आ जाती है। जिसे हम पहली ट्रेन भी बोला करते थे। तो कुछ इस नास्टेलजिक अंदाज में मेरा कोहबर की शर्त से परिचय हुआ।
ये तो बहुत बाद में जान पाया कि 1982 में जिस गाने - कवन दिसा में लेके चला रे बटोहिया - को सुनकर मैं अपनी मां से उस फिल्म को देखने की जिद्द करता था, वह फिल्म नदिया के पार इसी उपन्यास पर बनी थी। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि अपनी ही माटी की कहानी पर बनी इस फिल्म को मैं बहुत बाद में देख पाया – क्योंकि तब मेरे परिवार की नजर में फिल्म देखना उतना ही खराब काम था – जितना शराब पीना। 1982 में बनी ये फिल्म सुपरडुपर हिट रही। हालत ये थी कि लोग किरासन तेल वाला स्टोव और खाना बनाने का बर्तन तक लेकर सिनेमा हाल जाते थे कि अगर उस शो का टिकट नहीं मिला तो बाद वाले शो में जरूर देखेंगे। लेकिन दुर्भाग्य देखिए....बलिया के पढ़े-लिखे लोगों तक को ये पता नहीं चला कि जिस चौबेछपरा, बलिहार और छेड़ी से वे रोजाना गुजरते हैं – उन्हीं गांवों की ये कहानी है। फिल्म की ज्यादातर शूटिंग जौनपुर में हुई थी। लिहाजा लोग इसे जौनपुर की ही कहानी मानते रहे। मजे की बात ये कि जिस लेखक की कहानी पर ये जबर्दस्त फिल्म बनी – उस लेखक को लोग जान भी नहीं पाए।
केशव प्रसाद मिश्र बलिया जिले के बलिहार गांव के ही निवासी थे। पढ़ाई-लिखाई के बाद उन्होंने इलाहाबाद के मशहूर एजी ऑफिस यानी ऑडिटर जनरल के दफ्तर में नौकरी कर ली। और इलाहाबाद के ही होकर रह गए। कोहबर की शर्त जैसा भावुकता पूर्ण उपन्यास लिखने वाले इस लेखक को वह चर्चा भी नहीं मिली – जिसके वे हकदार थे। उपन्यास पढ़ने के बाद अगर आपकी आंखों से आंसू ना गिरे – ऐसा हो ही नहीं सकता। फिल्म देखकर लोग भावुक तो होते ही रहे हैं। आखिर क्या वजह रही कि उन्हें वह चर्चा नहीं मिली – जिसके वे हकदार थे। इसे समझने के लिए वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह का एक अनुभव ही काफी रहेगा। 1982 में नदिया के पार के सुपर-डुपर हिट होने के बाद अरविंद , इलाहाबाद में केशवप्रसाद मिश्र का इंटरव्यू लेने जा पहुंचे। तब अरविंद इलाहाबाद में ही रहते थे। केशव प्रसाद मिश्र ने अरविंद की आवभगत तो की, लेकिन पहले नदिया के पार फिल्म देख आने का सुझाव दे डाला। बातचीत के लिए तैयार नहीं हुए। आज के दौर में जब किताबें आने से पहले ही चर्चाओं और गोष्ठियों के जरिए हंगामा बरपाने और खुद को चमकाने की कोशिशें तेज हो जाती हैं – केशव प्रसाद मिश्र इन सबसे दूर थे। हिंदी के बड़े-बड़े लेखकों से उनका साबका पड़ता रहा। उसी बलिया के दूधनाथ सिंह और अमरकांत से लेकर शेखर जोशी, उपेंद्र नाथ अश्क, भैरव प्रसाद गुप्त आदि से संपर्क रहा। लेकिन केशव जी चर्चाओं से दूर भागते रहते थे। पूर्वांचल की माटी के ही एक और मूर्धन्य कलमकार विवेकी राय उन्हें एक अच्छे इंसान के तौर पर शिद्दत से याद करते हैं। उनका कहना है कि केशव प्रसाद मिश्र में आधुनिक दौर का बड़बोलापन नहीं आ पाया था। इसलिए वे खुद की चर्चाओं से हमेशा दूर रहा करते थे। साहित्यिक गोष्ठियों और सेमिनारों में जाते तो थे – लेकिन खुद बोलने से बचते थे। कुछ वैसे ही जैसे उनके उपन्यास कोहबर की शर्त की नायिका गूंजा की बड़ी बहन चुपचाप सबकुछ खुद पर ही झेलती रहती है। कुछ – कुछ कोहबर की शर्त की वैद्य जी की तरह वे थे, जो अपनी जिम्मेदारियों को चुपचाप निभाते रहे।
1936 में - देहाती दुनिया - के जरिए आंचलिक उपन्यास की दुनिया में जो बिरवा आचार्य शिवपूजन सहाय ने रोपा था, नागार्जुन ने बलचनमा, रतिनाथ की चाची और वरूण के बेटे के जरिए उसे आगे बढ़ाया। लेकिन आंचलिक लेखन में नई क्रांति मैला आंचल और परती परिकथा के जरिए फणीश्वर नाथ रेणु लाने में सफल रहे। विवेकी राय ने भी नमामि ग्रामं, सोनामाटी और समर शेष है जैसे उपन्यासों के जरिए आंचलिक उपन्यासों की दुनिया में सार्थक हस्तक्षेप किया है। केशव प्रसाद मिश्र इसी कड़ी के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे। हैरतअंगेज समानता आचार्य शिवपूजन सहाय के देहाती दुनिया, मैला आंचल और कोहबर की शर्त – तीनों में है। जहां पहले और आखिरी उपन्यास में भोजपुरी इलाके की महिलाओं के दर्द को आवाज देने की कोशिश की गई है, वहीं यही काम मैला आंचल के जरिए रेणु जी पूर्णिया और कटिहार के आसपास की महिलाओं और लड़कियों की संवेदना को नए सुर देते हैं। मैला आंचल की कमली और कोहबर की शर्त की गूंजा की हालत में आज भी खास बदलाव नहीं आया है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि दोनों ही नायिकाएं अपने मनचाहे साथियों को पा लेती हैं। इसके लिए उन्हें भले ही चाहे जितना संघर्ष करना पड़ता है। लेकिन हकीकत में ये आज भी दूर की कौड़ी है। आज भी भोजपुरी इलाके की लड़कियों को वह स्वतंत्रता हासिल नहीं है। लेकिन इन लेखकों ने अपनी रचनाओं के जरिए एक क्रांति लाने की कोशिश जरूर की। फिल्म और टेलीविजन माध्यमों पर आकर इन नायिकाओं का दर्द घर-घर की महिलाओं का दर्द बन गया। फिल्म माध्यम में आने के बाद रेणु को लेकर चर्चाओं का विस्तार ही हुआ – उनकी कहानी लालपान की बेगम पर बनी फिल्म तीसरी कसम के जरिए भी लोग रेणु को जानते हैं। मैला आंचल को टीवी पर जब पेश किया गया - तब भी उन्हें ढंग से याद किया गया। लेकिन केशव प्रसाद मिश्र यहीं पर पिछड़ गए। 1982 में आई नदिया के पार के लेखक के तौर पर उन्हें उस बलिया के लोग भी कायदे से नहीं जान पाए – जिनके बीच के केशव जी थे। जहां रहकर उस चारबज्जी ट्रेन की उमस और दुर्गंधभरी कितनी यात्राएं बलिया से रेवती स्टेशन के बीच की थी। ( उपन्यास की भूमिका में इसका भी जिक्र है। ) राजश्री वालों ने 1982 में नदिया के पार बनाने के बाद केशव जी को सम्मान तो दिया था। लेकिन 1994 में जब सूरज बड़जात्या अपनी इसी फिल्म का शहरी संस्करण – हम आपके हैं कौन – बनाई तो उस समय इस लेखक को कायदे से याद नहीं किया गया। लेकिन माधुरी दीक्षित और सलमान खान की इस फिल्म से बड़जात्या परिवार की तिजोरी कितनी भरी – ये सबको पता है।
केशव प्रसाद मिश्र की एक और महत्वपूर्ण रचना है उनका उपन्यास, देहरी के आरपार । कोहबर की शर्त की नायिका गूंजा को उसकी चाहत तो मिल गई – लेकिन ममता की देहरी को पार करने की इच्छा पूरी ही नहीं होती। कभी उसके पिता रामाधार कौशिक की कृपणता तो कभी उनकी भोगवादी दृष्टि ममता की राह में आड़े आ जाती है। बिन मां की ये बच्ची अपनी चाहतों – अपने सपनों को रोजाना टूटते हुए देखती है। पूरबिया बाप इलाहाबाद के पढ़े-लिखे माहौल में खुद को आधुनिक दिखाने की कोशिशों में जुटा रहता है। लेकिन अंदर से वह अपनी दकियानूसी सोच को छोड़ नहीं पाता। मां नहीं है – लिहाजा अपना दर्द ममता किससे बांटे। इसी बीच उसकी हेमंत से भेंट होती है। कुछ ऐसा संयोग बनता है कि हेमंत से शादी के लिए रामाधार कौशिक तैयार हो जाते हैं। ममता हेमंत से बंध जाती है। लेकिन उसकी कसक बाकी रह जाती है। ममता जो ममता के तौर पर जाना जाना चाहती है – उसकी वह पहचान नहीं बन पाती। अब उसकी नई पहचान हेमंत बन जाते हैं। ममता का दर्द कुछ कम तो होता है – लेकिन कसक के साथ। उसकी कसक को केशव जी ने जो शब्द दिए हैं – भावुक आंखों में आंसू लाने के लिए काफी हैं। आप भी गौर फरमाइए –
“ आज रात के साढ़े दस बजे तक , परिचय के लिए डॉ. रामाधार कौशिक एमबीबीएस की बेटी ममता हूं , उसके बाद हेमंत से जुड़ जाउंगी। उस हेमंत से, जिन्होंने मुझे नई जिंदगी दी है। जिंदगी का अर्थ दिया है, जीने की रूचि जगाई है- इस थके –हारे, निराश मन में, आस और विश्वास भरा है। ”
इस ममता में मुझे आज भी बलिया, गाजीपुर, छपरा, बनारस जैसे इलाके की ढेरों ममताएं नजर आती हैं। इस उपन्यास के प्रकाशित हुए करीब तीन दशक बीत गए हैं – लेकिन ममता की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है।
आज के दौर के महत्वपूर्ण कवि हैं केदारनाथ सिंह। केदार जी का गांव चकिया , केशव जी के गांव बलिहार से चार-पांच किलोमीटर की ही दूरी पर है। दोनों ने रचनात्मकता के नए प्रतिमान बनाए। केदारजी को सभी जानते हैं। केशव जी की उतनी पूछ और पहुंच नहीं रही। लेकिन मेरी स्मृतियों में दोनों की रचनाओं का एक-एक बिंब टंगा हुआ है। केदार जी की एक कविता है – मांझी का पुल। बलिया-छपरा रेलमार्ग पर यूपी-बिहार सीमा पर घाघरा पर बने इस रेलवे पुल की धमक रात के गहरे सन्नाटे में दूर-दूर तक सुनाई देती है। केदार जी अपनी कविता में कहते हैं – दूर कहीं स्मृतियों में टंगा है मांझी का पुल।
बलिया की रचनात्मकता की जब भी चर्चा होती है – मेरे भी अंदर कहीं न कहीं मांझी का ये पुल फांस की तरह टंगा नजर आता है। इसके साथ ही याद आती है हांफती सी खड़ी चारबज्जी ट्रेन, जिसे इसी मांझी के पुल से रोजाना गुजरना होता है।
केशव जी हमारे बीच नहीं हैं – लेकिन उनकी रचनाधर्मिता की कीर्ति को कभी हम मांझी के पुल के पार भी ले जा सकेंगे। जवाब हम सबको ढूंढ़ना है।
Saturday, November 7, 2009
कोड़ा अभी क्यों नजर आ रहे हैं भ्रष्टाचारी
उमेश चतुर्वेदी
झारखंड में जारी चुनावों और पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के खिलाफ छापेमारी के बीच कोई संबंध है...ये सवाल इन दिनों बड़ी शिद्दत से उठ रहा है। सवाल उठने की वजह भी है। झारखंड जैसे छोटे और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर राज्य का पांच साल तक मधु कोड़ा बेरहमी से शोषण करते रहे और अकूत संपति बनाते रहे – इसकी जानकारी आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय और इंटेलिजेंस ब्यूरो को एक दिन में तो मिली नहीं होगी। जाहिर है- इसकी खबर पहले भी अपनी इन दमदार एजेंसियों के जरिए केंद्र सरकार को रही ही होगी। लेकिन तब तो केंद्र सरकार ने मधु कोड़ा के खिलाफ कोई कदम उठाया नहीं। उनके ठिकानों पर छापे भी नहीं मारे गए। लेकिन जैसे ही झारखंड में चुनावों का ऐलान हुआ- मधु कोड़ा अचानक ही केंद्र सरकार की नजर में इतने बड़े खलनायक बन गए कि उनके खिलाफ जांच में केंद्र सरकार को इंटरपोल की मदद लेनी पड़ रही है। इन विधायकों की अकूत कमाई के जो राज खुल रहे हैं, वे चौंकाने वाले हैं।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि जो मधु कोड़ा आज झारखंड के अब तक के सबसे बड़े घोटाले और निर्मम अवैध कमाई के चलते खलनायक बन चुके हैं, अब तक उनकी 1450 करोड़ की कमाई का पता चल चुका है, उसमें क्या कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं है। कांग्रेस गांधी जी के बताए रास्ते पर चलने का दावा करती है। गांधी जी ने कहा था कि अन्याय करने से ज्यादा अन्याय सहने वाला भी होता है। पता नहीं कांग्रेस ने अन्याय सहा या नहीं या फिर उसके विधायकों ने कोड़ा न्याय में हिस्सेदारी की या नहीं...लेकिन ये सच जरूर है कि इस भ्रष्टाचार में वह भी बराबर की भागीदार है। क्योंकि सांप्रदायिकता को सत्ता से दूर रखने के नाम पर अपने 11 विधायकों के सहयोग से उसने मधु कोड़ा की 2007 में सरकार बनवाई थी। इतना ही नहीं, उसने अपने विधायक आलमगीर को विधानसभा का अध्यक्ष भी बनवाया। सरकार की वह महत्वपूर्ण सहयोगी रही है। यह कौन भरोसा करेगा कि राज्य सरकार के आठ हजार करोड़ के बजट में से चार हजार करोड़ का घोटाला होता रहे। इतना बड़ा घोटाला कि राज्य के टटपूंजिए ठेकेदार और पत्रकार तक मालामाल होते रहे और सरकार की महत्वपूर्ण सहयोगी को पता तक नहीं चल पाया। शायद पंजाब के बाद ये झारखंड पहला राज्य है, जिसके राज्यपाल और उनके दफ्तर तक पर खुलेआम भ्रष्टाचार का आरोप लगा। तब कांग्रेस या केंद्र सरकार ने चुप्पी साधे रखी। उसे अपने राजधर्म के निर्वाह की याद नहीं आई।
झारखंड में चुनावी बिगुल बज चुका है। लोकसभा चुनावों को बीते अभी छह महीने भी नहीं बीते हैं। तब भारतीय जनता पार्टी ने इस राज्य में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई थी। केंद्रीय सरकार की अगुआई कर रही कांग्रेस को पता है कि भाजपा को जनसमर्थन का वह उफान अभी कम नहीं हुआ है। हरियाणा, महाराष्ट्र और अरूणाचल प्रदेश में कांग्रेस ने सत्ता की सीढ़ी को एक बार फिर पार कर लिया है, लेकिन झारखंड में एक बार फिर इन तीनों राज्यों का इतिहास दोहराया जाता नहीं दिख रहा है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी कांग्रेस को हिंदी पट्टी में जिंदा करने के अभियान में शिद्दत से जुटे हुए हैं। उनकी कोशिशों का फायदा पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में तो दिखा, लेकिन बिहार और झारखंड की धरती पर उनकी कोशिशें कामयाब होती नहीं दिख रही हैं। ऐसे में सत्ता की ताकत का सहारा लिया जा रहा है और ऐन चुनावों के वक्त ही मधु कोड़ा, एनोस एक्का और हरिनारायण सिंह समेत भ्रष्ट पूर्व मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ छापेमारी का अभियान शुरू कर दिया गया है।
इस पूरी कवायद का मकसद जितना झारखंड की भ्रष्टाचार मुक्त करना नहीं है, उससे कहीं ज्यादा राज्य की चुनावी बयार में फायदा उठाना है। अगर ऐसा नहीं होता तो केंद्र की ओर से इस भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए पहले से ही प्रयास किए जा रहे होते। मधु कोड़ा के भ्रष्टाचार के किस्से तो रांची के सियासी गलियारों से लेकर राजधानी दिल्ली के राजनीतिक चौराहों तक चटखारे लेकर सुनाए जा रहे थे। आम लोगों तक को पता था कि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर झारखंड की माटी का किस कदर दोहन हो रहा है। पत्रकारीय गलियारे भी इन चटखारों से भरे पड़े थे। तब किसी सरकारी एजेंसी या जिम्मेदार विभाग को इसके खिलाफ कार्रवाई करने की क्यों नहीं सूझी।
मधु कोड़ा हों या एनोस एक्का, उनके पास इतनी सियासी ताकत और कौशल नहीं है कि वे अपने पर हो रहे सरकारी अमले की छापेमारी को भी खुद के पक्ष में साबित कर दें। देश के दलित और पिछड़े वर्ग के कई नेताओं ने अपने खिलाफ छापेमारी और सरकारी कार्रवाई को पूरी कुशलता के साथ अपने वोटरों के खिलाफ भावनात्मक तौर पर उभारने में कामयाब होते रहे हैं। लेकिन झारखंड में ऐसा होता नहीं दिख रहा है। कांग्रेस को झारखंड के इन नेताओं की इस कमजोरी की पूरी जानकारी है। शायद यही वजह है कि कांग्रेस इसका भी चुनावी फायदा उठाने की तैयारी में है।
सन 2000 में जब छोटे राज्यों का गठन हुआ था तो उसकी सबसे बड़ी वजह ये बताई गई थी कि राजनीतिक आकाओं की उपेक्षा के चलते उस खास क्षेत्र का वह विकास नहीं हुआ, जिसके वे हकदार थे। तब तर्क दिया गया कि छोटे राज्यों की कमान उनके अपने बीच के नेताओं के हाथ होगी और वे अपनी माटी और अपने लोगों की समस्याओं को ध्यान में रखकर इलाके का समुचित विकास करेंगे। लेकिन दुर्भाग्य ये कि छोटे होने बाद ये राज्य भ्रष्टाचार के और बड़े भंवर में फंस गए। रही-सही कसर छोटे-छोटे ग्रुपों की राजनीतिक और चुनावी सफलता ने पूरी कर दी। झारखंड इस गिरावट का बेहतर उदाहरण बन गया है। उससे भी बड़ा दुर्भाग्य ये कि इस गिरावट में राष्ट्रीय पार्टियां - रहा किनारे बैठ - की तर्ज पर भागीदार रहीं। इससे भी बड़े दुर्भाग्य की बात ये कि भ्रष्टाचार पर रोक लगाने की असल वजह टैक्स चुकाने वाली माटी के असल हकदार लोगों को फायदा पहुंचाना नहीं रहा, बल्कि इसका भी इस्तेमाल सियासी फायदे के लिए किया जा रहा है। ये बात नंगी आंखों से सबको नजर आ रही है। इससे बड़े दुर्भाग्य की बात और क्या होगी कि झारखंड के भूखे-नंगे मूल निवासियों के हितों की बात दिल से कोई नहीं कर रहा है। यहां के माटी पुत्रों को आज भी छोटी नौकरियों के लिए बाहर जाना पड़ रहा है। दिल्ली- मुंबई की घरेलू नौकरानियों के तौर पर झारखंड की बच्चियों को अपने दिन काटने पड़ रहे हैं। आए दिन उनसे यौन दुर्व्यहार की खबरें महानगरीय अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं। साफ है इसके लिए जिम्मेदार मधु कोड़ा, एनोस एक्का और हरिनारायण जैसे राजनेता ही हैं। वहीं उनका साथ देने के चलते शिबू सोरेन, कांग्रेस और आरजेडी भी इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। ऐसा नहीं कि इस कुचक्र को झारखंड की जनता-जनार्दन नहीं समझ पाई है। देखना ये है कि वह चुनावी बयार में इसका हिसाब नेताओं से चुका पाती है या नहीं।
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