Saturday, June 11, 2011

उमा की वापसी के मायने

उमेश चतुर्वेदी
मा भारती की भारतीय जनता पार्टी में वापसी के वक्त जिस उत्साह की उम्मीद की जा रही थी, दिल्ली के पार्टी मुख्यालय में वैसा तो कुछ नजर नहीं आया। लेकिन जिस उत्तर प्रदेश की कमान उन्हें सौंपी गई है, वहां से उनके खिलाफ पहला बयान जरूर आ गया। पार्टी उपाध्यक्ष और कभी भारतीय जनता पार्टी के बजरंगी चेहरा रहे विनय कटियार ने उनका वैसा स्वागत नहीं किया, जैसी सदाशयता और उत्साही प्रतिक्रिया शिवराज सिंह चौहान ने दी। बारहवीं और तेरहवीं लोकसभा के सदस्य रहे विनय कटियार की तरफ से ठंडी प्रतिक्रिया के अपने खास अर्थ हैं। जिन्होंने तेरहवीं और बारहवीं लोकसभा का नजारा देखा है, उन्हें पता है कि भारतीय जनता पार्टी की तब की हल्ला ब्रिगेड को संसदीय कार्य मंत्री मदन लाल खुराना या बाद में प्रमोद महाजन तक चुप कराने का अपना संवैधानिक और पार्टीगत दायित्व नहीं निभा पाते थे, उस हल्ला ब्रिगेड को उमा भारती अपने एक इशारे से चुप करा देती थीं। मध्य प्रदेश से सांसद प्रह्लाद पटेल, राजस्थान से सांसद श्रीचंद कृपलानी और उत्तर प्रदेश से विनय कटियार भारतीय जनता पार्टी की हल्ला ब्रिगेड के प्रमुख सदस्य थे और कांग्रेसी आरोपों का तुर्शी-बतुर्शी जवाब देने में माहिर थे। उसी ब्रिगेड के सदस्य विनय कटियार को अगर उमा भारती की पार्टी में वापसी सहजता से स्वीकार्य नहीं है तो सवाल उठेंगे ही। हालांकि विनय कटियार ने अगले ही दिन अपना बयान बदलने में देर नहीं लगाई। उत्तर प्रदेश की राजनीति में तीसरे स्थान पर खिसक चुकी भारतीय जनता पार्टी को पहले स्थान पर लाने की नितिन गडकरी की कोशिशों के बीच विनय कटियार की ठंडी और व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया से साफ है उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की राह आसान नहीं है।
उमा भारती की वापसी के दौरान यूं तो गडकरी के अलावा दूसरे कोई बड़े नेता मौजूद नहीं थे, सिवा शाहनवाज हुसैन के। 10 नवंबर 2004 को भारतीय जनता पार्टी की उच्चाधिकार प्राप्त समिति की बैठक में आडवाणी को खरीखोटी सुनाने के बाद जब उमा भारती बाहर निकलीं थीं तो उस वक्त मौजूद भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता हक्के-बक्के रह गए थे। लेकिन किसी ने उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं दिखाई थी। उस वक्त उन्हें शांत करते हुए उन्हें रोकने की कोशिश सिर्फ और सिर्फ राजनाथ सिंह ने की थी। उमा की वापसी के दौरान पार्टी मुख्यालय में राजनाथ सिंह की गैरमौजूदगी इसीलिए खलती रही। शाहनवाज हुसैन की मौजूदगी की वजह यह है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते उमा भारती ने शाहनवाज को अपनी कार्यसमिति में शामिल किया था। हालांकि शाहनवाज इससे बहुत आगे निकल चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी में उनकी हैसियत बदल चुकी है। लेकिन उमा की वापसी के वक्त पार्टी मुख्यालय में मौजूद रहकर उन्होंने सदाशयता का ही परिचय दिया है।
2008 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के पहले भारतीय जनता पार्टी और उमा भारती के कुछ शुभचिंतकों ने उमा भारती को पार्टी में लौट जाने का सुझाव दिया था। उन शुभचिंतकों की सलाह थी कि उमा जैसी नेता भारतीय जनता पार्टी के पास नहीं है और उमा के पास भारतीय जनता पार्टी जैसा संगठन नहीं है। उमा के लिए मजबूत संगठन बनाना आसान नहीं था तो पार्टी के लिए उमा जैसा नेता मिलना कठिन था। ऐसे में दोनों एक-दूसरे के पूरक बन सकते थे। लेकिन उमा को लगता था कि 2003 के जिस प्रचंड जनादेश के सहारे उन्होंने मध्यप्रदेश में दस साल के दिग्विजयी शासन को उखाड़ फेंका था, उसमें सिर्फ और सिर्फ उनका ही योगदान था। उमा जैसी नेता यह भूल गईं कि कैडर आधारित पार्टियों में कार्यकर्ता अपने नेता के साथ सहानुभूति तो रख सकते हैं, उसका आदर भी कर सकते हैं। लेकिन वोट डालने का मौका आते ही वे पार्टी की डोर छोड़ने में हिचकते हैं। जाहिर है कि उमा का अपने संगठन और अपनी जनप्रियता से मोहभंग हुआ। कैडर आधारित पार्टियों के साथ एक और मजबूरी होती है कि वहां के नेता के लिए अपनी पार्टी से अलग ताकत हासिल कर पाना आसान नहीं होता। यह सिद्धांत सिर्फ भारतीय जनता पार्टी पर ही लागू नहीं होता, उसकी धुर विरोधी वामपंथी पार्टियों के लिए भी यही सच है। एक दौर में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में सैफुद्दीन चौधरी की तूती बोलती थी, लेकिन सीपीएम से अलग होने के बाद उनकी कोई पहचान नहीं है। जबकि उन्होंने भी अपनी अलग पार्टी बनाई और पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों का विकल्प बनने की कोशिश भी की। और तो और उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सियासत भी इसका उदाहरण है। अगर इस सियासत का थोड़ा-बहुत कोई अपवाद है तो वे हैं झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी। भारतीय जनता पार्टी से अलग होने के बाद भी वे कम से कम अपना राजनीतिक वजूद बचाए रखने में कामयाब हैं।
रही बात उत्तर प्रदेश में उमा भारती के आने के बाद बदलते चुनावी समीकरणों की तो उसे लेकर अंकगणितीय फार्मूला देना आसान नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में सरकार चला चुकी भारतीय जनता पार्टी की हालत यह है कि वह तीसरे नंबर पर खिसक गई है। पिछले दो-तीन चुनावों से माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के मतदाता मजबूत नेतृत्व के अभाव में उससे दूर भागते जा रहे हैं। 1991 में जब पहली बार कल्याण सिंह की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत मिला था तो उसमें पिछड़े वर्ग के वोटरों का बड़ा योगदान था। ब्राह्मण और बनिया की पार्टी मानी जाती रही भारतीय जनता पार्टी को पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहां चौहान यानी नोनिया, कोइरी, कुर्मी और राजभर जातियों का भरपूर सहयोग मिला था। वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसे लोध राजपूतों का एकमुश्त समर्थन मिला था। पूर्वी उत्तर प्रदेश से पार्टी के पास ओमप्रकाश सिंह जैसा पिछड़ा नेतृत्व था। लेकिन पार्टी की गुटबाजी में ओमप्रकाश सिंह किनारे लगा दिए गए। 1999 के लोकसभा चुनावों में कल्याण सिंह की बेरूखी ने लोध राजपूतों को भारतीय जनता पार्टी से अलग कर दिया, जिसकी वजह से पार्टी 23 लोकसभा सीटें हार गईं। उमा भारती भी उसी लोध राजपूत समुदाय से आती हैं और माना जा रहा है कि कल्याण सिंह की नाराजगी की वजह से जो लोध वोट बैंक भारतीय जनता पार्टी से दूर चला गया था, उसे वापस खींचने में मदद मिलेगी। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में जिस तरह भारतीय समाज पार्टी ने अपना दबदबा बनाया है, उसमें नोनिया और राजभर जातियों के वोट वापस भारतीय जनता पार्टी की तरफ मोड़ना आसान नहीं होगा। इसके लिए उमा भारती को कोशिश करनी होगी। हालांकि उनकी कोशिशों का तब तक कोई मतलब नहीं है, जब तक उत्साही और मजबूत की नेतृत्व की कमी से जूझ रही उत्तर प्रदेश इकाई के भारतीय जनता पार्टी के सभी प्रमुख नेता उमा भारती का सहयोग करें। वैसे दो-तीन चुनावों से उत्तर प्रदेश से भारतीय जनता पार्टी के मतदाताओं के मोहभंग की वजह राज्य में दमदार नेतृत्व की कमी भी रही। भारतीय जनता पार्टी का आलाकमान कलराज मिश्र और लालजी टंडन पर चाहे जितना भरोसा करे, लेकिन उनकी राजनीतिक हनक वैसी नहीं है, जैसी जनता नेतृत्व से उम्मीद करती है। चूंकि उमा राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र और लालजी टंडन की तुलना में जवान हैं, घोटाले और भ्रष्टाचार के खुलासों के दौर में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप नहीं हैं, फिर उनका अतीत फायर ब्रांड नेता का रहा है। ऐसे में पार्टी के लिए उनसे उम्मीदें बांधना गैरमौजूं भी नहीं है।
उमा के उत्तर प्रदेश की चुनावी कमान संभालने के बाद अगर किसी पार्टी की परेशानी बढ़ सकती है तो वह कांग्रेस हो सकती है। क्योंकि ऐसा माना जा रहा था कि ब्राह्मण मतदाता कांग्रेस की तरफ झुक रहा है। लेकिन हकीकत तो यही है कि भ्रष्टाचार, महंगाई और बाबा रामदेव से निबटने के तरीकों को लेकर ब्राह्णण मतदाता कांग्रेस से नाराज नजर आ रहा है। पिछले दो चुनावों से अगर वह कभी कांग्रेस और कभी बहुजन समाज पार्टी की तरफ तैरता रहा है तो इसकी बड़ी वजह भारतीय जनता पार्टी के पास राज्य में मजबूत नेतृत्व का अभाव रहा है। चूंकि उमा दमदार रहीं हैं, लिहाजा भारतीय जनता पार्टी का पारंपरिक मतदाता उन पर भरोसा कर सकता है।

Wednesday, June 1, 2011

कैसे विश्वस्तरीय बनें देसी विश्वविश्वविद्यालय

उमेश चतुर्वेदी
कांग्रेसी हलके में जयराम रमेश की ख्याति एक ऐसे राजनता के तौर पर है, जो अपनी बात खुलकर रखता है। जैतापुर में परमाणु परियोजना लगाए जाने को लेकर लोगों के विरोध का समर्थन हो या फिर मुंबई की आदर्श सोसायटी को गिराने की मंशा जाहिर करना हो या फिर लवासा के प्रोजेक्ट को लेकर खुला बयान हो, जयराम अपनी बात खुलकर रखते रहे हैं। इसके लिए कई बार कांग्रेसी राजनीति में उनकी तरफ भौंहें तनती रही हैं, कई बार केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य भी उनसे परेशान नजर आते रहे हैं। जयराम रमेश की मुखरता ने एक बार अपना कमाल दिखाया है। उन्होंने यह कहकर नई बहस को ही जन्म दे दिया है कि देश में विश्व स्तरीय छात्र तो हैं, लेकिन विश्वस्तरीय फैकल्टी नहीं है। मजे की बात है कि हमेशा की तरह उनके बयानों से अलग रहने वाली कांग्रेस पार्टी ने एक बार फिर इस बयान से खुद को अलग कर दिया है। विरोध के सुर विपक्षी भारतीय जनता पार्टी से लेकर उदारीकरण के दौर में करोड़ों-लाखों का पैकेज दिलवाते रहे आईआईएम और आईआईटी के प्रोफेसरों की तरफ से भी उठे हैं। लेकिन हैरत की बात यह है कि देश में शिक्षा के बदलाव के लिए कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे संस्थानों के हिमायती मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल जयराम रमेश के समर्थन में पहले उतर आए और जब ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स का दबाव पड़ा तो जयराम रमेश के विरोध में उतर आए। बहरहाल समर्थन में उतरे कपिल सिब्बल का कहना था कि रमेश की बात इसलिए ठीक है कि अगर सचमुच विश्वस्तरीय फैकल्टी होती तो दुनिया के टॉप 100-150 विश्वविद्यालयों में भारत के भी किसी विश्वविद्यालय और संस्थान का नाम होता।
जयराम रमेश के बयान और कपिल सिब्बल के बयानों की तासीर और अहमियत में फर्क है। जयराम रमेश की ख्याति बयानबाज राजनेता की है। हालांकि उनकी संजीदगी पर भी सवाल नहीं उठाए जा सकते। लेकिन कपिल सिब्बल का उनके समर्थन में उतरने का अपना महत्व भी है और उस पर सवाल भी है। अगर कपिल सिब्बल को लगता है कि देश में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय नहीं हैं तो सबसे बड़ा सवाल तो यही उठता है कि आखिर इसके लिए वे क्या कर रहे हैं। यह जानते हुए भी कि निजी शैक्षिक संस्थान सिर्फ शिक्षा की दुकानें बनते जा रहे हैं, वे इनके समर्थन में क्यों खड़े हैं। यह सच है कि डीम्ड विश्वविद्यालयों की खेप अर्जुन सिंह ने बढ़ाई। आनन-फानन में उन्हें मान्यता दे दी गई। कुकुरमुत्तों की तरफ खुलते इन विश्वविद्यालयों में शिक्षा का क्या हाल है, दिल्ली की सीमा से सटे फरीदाबाद में स्थित दो डीम्ड विश्वविद्यालयों के छात्रों और अध्यापकों से निष्पक्ष और औचक बातचीत से ही जाना जा सकता है। मानव संसाधन विकास मंत्री बनते ही कपिल सिब्बल ने जिस तरह इन विश्वविद्यालयों पर लगाम लगाने की कोशिशें शुरू की, उससे लगा कि वे देश की उच्च शिक्षा व्यवस्था को सुधारना चाहते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि यह कवायद उनकी सिर्फ हनक बढ़ाने की कवायद ही साबित हुई। डीम्ड विश्वविद्यालयों में छात्रों से वसूली का खेल जारी है। जब राजधानी दिल्ली के नजदीक मानव संसाधन विकास मंत्रालय के नाक के नीचे स्थित विश्वविद्यालयों का यह हाल है और मंत्रालय कुछ करने में खुद को नाकाम पा रहा है तो देश के दूर-दराज के इलाकों के डीम्ड विश्वविद्यालयों की हालत क्या होगी, इसका अंदाजा लगाना आसान है।
रही बात विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों की तो सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत आज अपनी जीडीपी का करीब चार प्रतिशत शिक्षा पर खर्च कर रहा है। उसका भी सिर्फ दसवां हिस्सा यानी दशमलव 4 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाता है। जबकि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में उच्च शिक्षा पर खर्च जीडीपी के एक से लेकर सवा फीसदी तक है। दूसरी बात यह है कि विकसित देशों में, जहां के विश्वविद्यालय आज के मानकों के मुताबिक विश्वस्तरीयता के उपरी पायदान पर हैं, वहां कम से कम शैक्षिक संस्थान संकीर्ण राजनीति के दायरे से बाहर हैं। वहां के विश्वविद्यालयों में नियुक्ति की योग्यता राजनीतिक प्रतिबद्धता और संपर्क नहीं है, बल्कि ज्ञान है। लेकिन क्या ऐसी स्थिति भारतीय विश्वविद्यालयों में है। बेहतर माने जाने वाले दिल्ली के ही जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में नियुक्ति के लिए एक खास तरह की विचारधारा वाला होना जरूरी है। वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय में तो ऐरू-गैरू नत्थू-खैरू तक राजनीति और तिकड़म के बल पर नियुक्ति पा जाते हैं। विकसित देशों में विश्वविद्यालयों को अकादमिक स्वायत्तता के साथ ही प्रशासनिक स्वायत्तता भी हासिल है। ज्ञान और शिक्षा के लिए प्रतिबद्ध लोगों की टीम वहां की शिक्षा व्यवस्था को ऊंचाईयों पर ले जाने के लिए तत्पर रहती है। लेकिन ऐसी सोच रखने वाले यहां अध्यापक कितने हैं।
अब एक नजर जयराम के खिलाफ कपिल सिब्बल के तर्कों पर भी देना चाहिए। रमेश के बयान के बाद सरकार की होती किरकिरी के बाद ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स के दबाव में कपिल सिब्बल ने बयान दिया कि देश में विश्वस्तरीय शोध का माहौल ही नहीं है। ऐसे में सवाल कपिल सिब्बल से ही पूछा जाएगा कि आखिर मंत्री रहते या देश में ज्यादातर वक्त तक उनकी पार्टी की सरकार रहते ऐसे उपाय क्यों नहीं हो पाए कि आजादी के 63 सालों में देश में विश्वस्तरीय शोध और पढ़ाई का माहौल बन पाया।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था की कमी के लिए माना गया कि यहां अध्यापकों का वेतन विकसित देशों के अध्यापकों की तुलना में कम है। छठवें वेतन आयोग ने अध्यापकों की इस कमी को पूरा तो किया है। लेकिन इसके बावजूद अध्यापकों और प्रोफेसरों में अपने काम के प्रति प्रतिबद्धता कम ही नजर आ रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में तो अध्यापकों को खुलेआम राजनीति करते देखा जा सकता है। जब दिल्ली विश्वविद्यालय की यह हालत है तो देश के दूसरे इलाके के विश्वविद्यालयों का अंदाजा लगाया जाना आसान होगा। फिर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश की अब भी करीब 25 फीसदी जनता निरक्षर है। कॉलेज और विश्वविद्यालय जाने वाले युवाओं में से सिर्फ बमुश्किल 14 फीसदी को ही दाखिला मिल पाता है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देश के ज्यादातर विश्वविद्यालय सिर्फ और सिर्फ डिग्रियां बांटने की मशीन बन गए हैं। गुणवत्ता आधारित शिक्षा पर उनका ध्यान नहीं है। उनके लिए अकादमिक कैलेंडर को पूरा करना और परीक्षाएं दिलवाकर डिग्रियां बांट देना ही महत्वपूर्ण काम रह गया है। ऐसे में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों की उम्मीद भी बेमानी ही है।
बहरहाल जिन यूरोपीय या अमेरिकी विश्वविद्यालयों की तुलना में जयराम रमेश ने भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाए हैं, वे भी दूध के धुले नहीं हैं। दुनिया में अपनी गुणवत्ता आधारित शिक्षा के लिए मशहूर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की कारस्तानी हाल ही में उजागर हुई है। लीबिया पर नाटो और अमेरिकी कार्रवाई शुरू होने के कुछ ही दिनों बाद यानी 4 मार्च, 2011 को लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के निदेशक सर हावर्ड डेवीज को इस्तीफा देना पड़ा। इसकी वजह रही लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के लीबिया के तानाशाह कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के साथ आर्थिक रिश्तों का खुलासा। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में गद्दाफी के बेटे सैफ-अल-कदाफी ने 2003 से 2008 तक पढ़ाई की थी। जहां से उसे पी.एच.डी.की डिग्री मिली । आरोप है कि उसकी थिसिस इंटरनेट से कटपेस्ट करके तैयार की गई और इसमें उसकी मदद स्कूल के एक डीन ने ही की थी। खुलासा तो यह भी हुआ है कि गद्दाफी से लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स को लाखों पौण्ड की धनराशि मिलती रही है। सिर्फ 2003 से 2008 के बीच ही 22 लाख पौंड के बदले लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स ने लीबिया के 400 भावी नेताओं और ब़ड़े अधिकारियों को ट्रेनिंग दी थी। और तो और लीबिया के सॉवरिन वेल्थ फण्ड के प्रचार के लिए लन्दन स्कूल ने 50,000 पौण्ड की फीस ली थी। लीबियाई सरकार द्वारा खड़े किये गये ‘गद्दाफी इण्टरनेशनल चैरिटी एण्ड डेवलपमेण्ट फाउण्डेशन’ से 15 लाख पौण्ड का अनुदान भी मिला था।
कुछ ऐसे ही आरोप येल विश्वविद्यालय पर लगते रहे हैं। येल विश्वविद्यालय पर कई विवादास्पद कंपनियों से वित्तीय रिश्ते रखने के आरोप भी लगते रहे हैं। 2009 में केमिस्ट्री के लिए नोबेल पुरस्कार हासिल कर चुके वेंकटरमण रामाकृष्णन ने पिछले ही साल बयान दिया था कि दुनिया के विश्वस्तरीय माने जाने वाले विश्वविद्यालयों ने अपने मूल कैंपस से बाहर जाकर जो कैंपस खोले, उनका मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसा ही बनाना रहा है। वहां से कोई खास शोध और उपलब्धि हासिल नहीं हुई है।
भारत की जो बदहाल शैक्षिक व्यवस्था है, उसमें कुकुरमुत्तों की तरह उगते संस्थानों का मकसद सिर्फ पैसा बनाना रह गया है, उसमें जयराम के बयान के सिर्फ नकारात्मक पक्ष की चर्चा करने से बेहतर यह होगा कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने की तरफ सकारात्मक पहल की जाय। हालांकि जानकारों के एक तबके को लगता है कि जयराम का यह बयान दरअसल भारतीय शिक्षा व्यवस्था में कथित विश्वस्तरीय माने जाने वाले संस्थानों के प्रवेश की राह खोलने की पहल है। अगर रमेश का यह बयान इस सोच से भी प्रभावित है तो उसे स्वीकार करना कठिन होगा।

Saturday, May 28, 2011

पानी बिच सड़क है कि सड़क बिच पानी


उमेश चतुर्वेदी
बरसों पहले बचपन में एक कविता पढ़ी थी-
सारी बिच नारी है कि नारी बिच सारी।
नारी ही की सारी है कि सारी की नारी।
हाल के दिनों में अपने गांव की यात्रा के बाद एक बार फिर यही कविता याद आ गई, लेकिन थोड़े से संशोधन के साथ। नजारा ही कुछ ऐसा था कि कविता का यह बीज फूटे बिना नहीं रह पाया। नजारे की चर्चा बाद में, पहले कविता-
पानी की सड़क है कि सड़क का ही पानी।
पानी बिच सड़क है कि सड़क बिच पानी।
बलिया में डीएम और एसपी के दफ्तर और बंगले से महज डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर बलिया-गोरखपुर हाईवे पर ऐसा ही हाल है। इस बार मई में ही बादलों की कृपा हो गई है, गरमी के बीच बरसात का पानी कायदे से सूख जाना चाहिए, लेकिन हालत यह है कि पूरी सड़क पानी में तब्दील है। नरक के बीच से रोजाना हजारों लोगों को गुजरना है। लेकिन न तो डीएम साहब को इसकी फिक्र है और एसपी साहब का तो खैर इलाका ही नहीं रहा। यही हालत बलिया में तिखमपुर के पास बलिया-बांसडीह-सहतवार सड़क का भी है। गंदगी से पार पाकर आना-जाना लोगों की मजबूरी है। दिलचस्प बात यह है कि इसी सड़क पर किनारे बलिया सदर की विधानसभा सदस्य मंजू सिंह का आलीशान मकान है। उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार है। लेकिन बलिया को नरक गाथा से मुक्ति नहीं मिल रही। बलिया नगरपालिका पर भी बसपा का कब्जा है। लेकिन पूरा शहर खुदा पड़ा है। बरसात का मौसम आने वाला है, लेकिन शहर की सड़कें अब तक साफ नहीं हो पाई हैं। मौसम विभाग का कहना है कि इस बार मानसून अच्छा रहने वाला है। भगवान करे कि ऐसा ही हो, ऐसे में अंदाज लगाना आसान है कि इस बार बलिया वालों की बरसात कैसे बीतेगी। जिस बलिया का प्रतिनिधित्व चंद्रशेखर जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के नेता ने किया हो, वहां का यही हाल है। वैसे हमारे बलिया में एक मित्र हैं, पेशे से वकील इस मित्र का कहना है कि बलिया वाले इसी के काबिल हैं। जब विरोध का जज्बा ही उनमें नहीं रहा तो नरक में रहें या स्वर्ग में, सरकार और प्रशासन की सेहत पर क्या फर्क पड़ता है।

Saturday, May 14, 2011

यूपीए बिना चैन कहां रे

उमेश चतुर्वेदी
राजनीति में किसी की कमजोरी कई बार किसी की मजबूती का सबब बन जाती है। 2 जी घोटाले से जूझ रही द्रविड़ मुनेत्र कषगम की विदाई ने केंद्र की यूपीए सरकार की मजबूती की नींव रख दी है। सीबीआई अदालत और आयकर अधिकारियों के दफ्तरों की चक्कर काट रही कनिमोझी को कानूनी पचड़े से बचाने के लिए द्रविड़ मुनेत्र कषगम का यूपीए के साथ रहना मजबूरी है। सत्ता का साथ ही उन्हें अधिकारियों से राहत दिलवा सकता है। इस लिहाज से देखें तो दो हफ्ते कनिमोझी के खिलाफ सीबीआई के आरोप पत्र दाखिल करने के पहले जब डीएमके की कार्यसमिति ने केंद्र सरकार से समर्थन वापसी की अटकलों को टाल कर भावी राजनीतिक आशंकाओं के बीच अपने बचाव की राह तलाश ली थी। अन्यथा मीडिया का एक बड़ा वर्ग मानकर चल रहा था कि कनिमोझी का आरोप पत्र में नाम यूपीए सरकार से डीएमके के अलगाव का संदेश लेकर आएगा।

मौजूदा दौर में चूंकि राजनीति सिर्फ सत्ता को साधने और उसके जरिए राजनीतिक से ज्यादा आर्थिक फायदे उठाने का खेल हो गई है, लिहाजा जैसे ही किसी घोटाले और उससे जुड़े राजनीतिक विवाद शुरू होते हैं, सत्ता की सेहत और उसके भविष्य पर सवाल उठाए जाने लगते हैं। यही वजह है कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में डीएमके सांसद कनिमोझी के खिलाफ सीबीआई के आरोप पत्र दाखिल करने के बाद केंद्र सरकार की सेहत पर सवाल उठने लगे थे। लेकिन द्रविड़ मुनेत्र कजगम के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन से समर्थन की वापसी इतनी आसान नहीं थी। तमिलनाडु भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और भारतीय जनता पार्टी की केंद्रीय समिति के सदस्य सी पी राधाकृष्णन पहले ही जाहिर कर चुके थे कि डीएमके की वह बैठक महज दिखावा थी। ज्यादा से ज्यादा इस बैठक की राजनीतिक व्याख्या की जाती तो वह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पर दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा भर थी। लेकिन तमिलनाडु की सत्ता से विदाई के बाद डीएमके के लिए अब विकल्प सीमित हो गए हैं। 2 जी स्पेक्ट्रम में जिस तरह डीएमके आकंठ डूबी नजर आ रही है, उसमें उसके लिए बचाव की राह यूपीए के साथ में ही नजर आती है। अगर उसे कड़ा कदम उठाना ही होता तो वह तभी उठा लेती, जब उसके एक अहम सहयोगी और पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री ए राजा को सीबीआई ने सलाखों के पीछे डाल दिया। हालांकि क्या सचमुच सीबीआई उन्हें सलाखों के पीछे डालने की हिम्मत जुटा पाती। क्या सीबीआई को इसके लिए उसके राजनीतिक हुक्मरानों का समर्थन हासिल हो पाता...जाहिर है नहीं...सीबीआई या किसी जांच एजेंसी को ए राजा जैसे ताकतवर दल के नेता और उदारीकरण के दौर में सत्ता का समानांतर केंद्र बने कारपोरेट के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत कम से कम आज के दौर में नहीं है। गठबंधन राजनीति की मजबूरियों और उसमें शामिल दलों के आर्थिक हितों के साथ जुड़े कारपोरेट की ताकत को समझने के लिए 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला बेहतर उदाहरण है। 2007 से 2 जी स्पेक्ट्रम को लेकर खुलेआम नियमों की धज्जियां उड़ाई जाती रहीं, लेकिन सत्ता का जिम्मेदार तंत्र राजा, उनके अफसरों और कारपोरेट जगत की हस्तियों के खिलाफ कदम उठाने की हिम्मत नहीं कर पाया। आज अगर सत्ता और कारपोरेट की हस्तियां जेल में हैं तो उसके लिए कोई राजनीतिक ताकत या इच्छाशक्ति जिम्मेदार नहीं है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट की नकेल ने सीबीआई को ऐसा करने के लिए मजबूर किया है। अगर राजनीतिक नेतृत्व ने जिम्मेदारी और इच्छाशक्ति दिखाई होती तो शायद घोटाले के तार इतनी दूर तक नहीं पहुंचते।

पहले राजा और बाद में कनिमोझी के खिलाफ अगर सीबीआई को आरोप पत्र दाखिल करना पड़ा तो इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की कड़ी निगरानी जिम्मेदार है। यह तथ्य डीएमके सुप्रीमो भी जानते हैं। इसलिए उनकी कोशिश यही रही है कि यूपीए को समर्थन के एवज में इस मामले को ज्यादा से ज्यादा हलका बना सकें, ताकि इस केस की आंच में अधिक से अधिक उनकी राजनीति में हलकी सी झुलसन आ सके, उनकी राजनीति खाक न हो सके। सीबीआई की चार्जशीट से करूणानिधि की दूसरी पत्नी और कनिमोझी की मां दयालु अम्माल का नाम गायब होना एक तरह से करूणानिधि की कामयाबी भी है। सुप्रीम कोर्ट की कड़ी निगरानी के बावजूद कार्यपालिका अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते मनमाना कदम उठाने में कामयाब रही है। लेकिन अदालत के सामने सीबीआई के वे तर्क कितने दिनों तक टिकेंगे, देखना दिलचस्प रहेगा। क्योंकि जिस कलईंजर टीवी में स्वान टेलीकॉम ने एक तरह से रिश्वतखोरी के तहत निवेश किया है, उसके साठ फीसदी हिस्से की मालकिन दयालु अम्माल ही हैं। बाकी चालीस फीसदी में से आधे-आधे की मालिक कनिमोझी और कलईंजर टीवी के प्रबंध निदेशक शरत कुमार हैं। सीबीआई ने दयालु अम्माल को क्लीन चिट देने के लिए तर्क दिया है कि वे तमिल के अलावा दूसरी कोई भाषा न तो बोल सकती हैं और न ही समझ सकती हैं। सिर्फ तमिल जानना ही किसी के निर्दोष होने की गारंटी कैसे हो सकता है। सीबीआई का यह तर्क आसानी से गले नहीं उतरता कि चालीस फीसदी के मालिक रिश्वतखोरी के लिए जिम्मेदार तो हैं, लेकिन साठ फीसदी की मालकिन इसके लिए जिम्मेदार न हो। दयालु अम्माल का नाम चार्जशीट से अलग कराना एक तरह से करूणानिधि कामयाबी ही कही जाएगी।

तमिलनाडु विधानसभा चुनावों के नतीजों ने साफ कर दिया है कि अगर तमिलनाडु में करूणानिधि और उनके कुनबे को थोड़े सुकून के साथ जीना है तो उन्हें यूपीए के साथ रहना ही होगा। बदले माहौल में केंद्र सरकार से अलग होने का जोखिम उठाना करूणानिधि के लिए आसान नहीं है। क्योंकि राज्य की राजनीति में जयललिता के साथ उनका जो छत्तीस का आंकड़ा है, उसमें ज्यादा उम्मीद भी बेमानी है। इस बात की गारंटी नहीं है कि पिछली दफा की तरह जयललिता इस बार भी करूणानिधि को निशाना नहीं बनाएंगी। पिछली बार जब जयललिता ने देर रात करूणानिधि को गिरफ्तार किया था, तब भी डीएमके केंद्र की एनडीए सरकार का प्रमुख घटक था और उसके दिग्गज मुरासोली मारन और टीआर बालू केंद्रीय कैबिनेट में शामिल थे। इसके बाद भी जयललिता ने करूणानिधि को उन मंत्रियों समेत गिरफ्तार करने से नहीं हिचकी थीं। जहां राजनीतिक बदले की भावना इस हद तक हो, वहां विधानसभा चुनावों में हार की आशंका के बीच करूणानिधि केंद्र से अलग होने की हिम्मत कैसे जुटा सकते हैं। वैसे कनिमोझी का नाम सीबीआई की चार्जशीट में आने के बाद कांग्रेस के रणनीतिकारों के माथे पर बल पड़ने लगे थे। इसीलिए कांग्रेस ने वैकल्पिक इंतजाम कर रखे थे। डीएमके के बाहर जाने की हालत में समाजवादी पार्टी का विकल्प उन्होंने तैयार कर रखा था। लेकिन बदले माहौल में कांग्रेस को शायद उस विकल्प को आजमाने की जरूरत ही नहीं पड़े। सबसे बड़ी बात यह कि तमिलनाडु चुनावों में हार के बाद डीएमके अब दबाव की बजाय याचना की भूमिका में होगा और इससे केंद्र सरकार को कम से कम डीएमके की तरफ से किसी खतरे की आशंका नहीं रहेगी। अगर कनिमोझी को राहत पानी है या करूणानिधि के दुलारे ए राजा को जेल के बाहर की दुनिया जल्द देखनी है तो यूपीए का साथ ही इन उम्मीदों का सहारा बन सकता है।

Thursday, April 21, 2011

अन्ना के आंदोलन को पटरी से उतारने की कोशिश


उमेश चतुर्वेदी
“पिछले कुछ दिनों का घटनाक्रम चिंता का विषय है. ऐसा लगता है कि देश की भ्रष्ट ताकतें भ्रष्टाचार निरोधी प्रभावी कानून तैयार करने की प्रक्रिया को पटरी से उतारने के लिए एकजुट हो गई हैं. मेरा आपसे आग्रह है कि हम एकसाथ मिलकर उन ताकतों को पराजित कर सकते हैं. उन ताकतों की एक रणनीति यह है कि समिति में शामिल सामाजिक कार्यकर्ताओं की छवि खराब की जाए.”
अन्ना हजारे की चिट्ठी के ये अंश दरअसल उस पीड़ा की अभिव्यक्ति है, जो एक अच्छे काम को पटरी से उतारने की कोशिशें से उपजी है। इस पीड़ा में अन्ना का क्षोभ भी कहीं गहरे तक साया है। ऐसी तकलीफ गांधी जी को भी आजादी मिलने के कुछ पहले हुई थी, जब उनकी सोच के मुताबिक काम करने से तब के प्रमुख कांग्रेसी हिचकने लगे थे और लगता था कि आजाद भारत के कांग्रेसियों को गांधी जी की जरूरत ही नहीं रह गई है। तब गांधी ने कहा था कि इसी देश की मिट्टी से वे दोबारा कांग्रेस से भी बड़ा आंदोलन खड़ा कर देंगे। गांधी जी की उस पीड़ा और अन्ना हजारे के क्षोभ भरे दर्द में एक अंतर है। दरअसल गांधीजी को पीड़ा उनके अपने ही अनुयायियों से पहुंची थी, जबकि अन्ना को उनके आंदोलन के साथियों से ज्यादा दूसरे लोगों के हमलों का सामना करना पड़ रहा है। इसीलिए उनका क्षोभ गांधी से कहीं कम है, लेकिन उनका भी कर्म चूंकि बृहत्तर सामाजिक संदर्भों को पटरी पर लाने से जुड़ा है, इसीलिए दर्द भी है।
जन लोकपाल की मांग को लेकर अनिश्चित कालीन अनशन पर बैठे अन्ना की मांगों को मानना भारत सरकार की मजबूरी बन गई थी। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के दावा करते न थकने वाली भारत सरकार को नव उदारीकरण के दौर में लोकतंत्र भी एक नाटक सा होता जा रहा है। फिर पश्चिमी ताकतों के सामने लोकतांत्रिक होते दिखना भी उदारवाद का ही सहज विस्तार माना जा रहा है। ऐसे में भारत सरकार को लोकतांत्रिक दिखना जरूरी था। उसके सामने इसी साल जनवरी में शुरू हुए मिस्र की राजधानी काहिरा के तहरीर चौक पर लोकतांत्रिक शक्तियों ने जिस तरह वहां के राष्ट्रपति हुस्ने मुबारक को झुकने के लिए मजबूर कर दिया था, उसका उदाहरण अभी पुराना नहीं पड़ा है। ट्यूनिशिया की घटनाएं भी ताजा ही हैं, यमन में जारी लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शन अभी जारी ही है। नये मीडिया माध्यमों, सोशल मीडिया आदि के जरिए दुनिया जितनी छोटी हुई है, उतनी शायद इससे पहले कभी छोटी नहीं थी। इसका सहज असर पूरी दुनिया में दिख रहा है। चूंकि हम बाकी दुनिया की तुलना में खुद को कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक साबित करने का मौका नहीं छोड़ते, लिहाजा अन्ना हजारे के सामने हमारी सरकार को झुकना ही था। वह झुकी भी। खुद अन्ना को भी इतनी उम्मीद नहीं थी कि उनके अनशन के महज चार दिनों में देशव्यापी इतना ज्यादा समर्थन मिल जाएगा। लेकिन भारी समर्थन ने उनके आत्मविश्वास को किस कदर बढ़ा दिया है कि जन लोकपाल के लिए गठित समिति की पहली बैठक में शामिल होने के लिए जाते वक्त यह कहने से नहीं चूके कि अगर उनका अनशन चार दिन और चल जाता तो केंद्र सरकार गिर जाती। उसी अन्ना का आत्मविश्वास महज दो दिनों बाद डोलने लगता है और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने के लिए मजबूर होना पडता है तो जाहिर है कि उनके अंदर कहीं न कहीं कुछ अपने राजनीतिकों के दांव-पेंचों से कुछ न कुछ खदबदा रहा है।
इटली के विद्वान मेकियावेली ने अपनी मशहूर पुस्तक द प्रिंस में सत्ता के चरित्र की व्याख्या की है। इस व्याख्या के मुताबिक सत्ताएं चाहें अधिनायकवादी हों या फिर लोकतांत्रिक, उनके मूल में एक समानता होती है, विरोधी सुरों को आसानी से स्वीकार नहीं करना। सत्ता का यह लौहआवरण ही है कि वह जल्द झुकती भी नहीं। इसका उदाहरण अपने ही देश के छोटे-छोटे आंदोलनों में दिख जाएगा। जहां लोगों की मांगें जायज हैं, लेकिन सत्ता ने ठान लिया है कि वहां उसकी मर्जी से विकास हो तो इसके लिए वह जायज मांगों को लेकर खड़े लोगों तक पर गोलियां चलाने से नहीं हिचक रही हैं। सत्ता विरोधी सुरों को कुचलने के उदाहरण राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से ठीक नजदीक नोएडा या फरीदाबाद तक में दिख सकता है। ऐसे में यह सोचना की सत्ता अन्ना के सामने झुक गई और जन लोकपाल की राह आसान हो गई, दरअसल दिवास्वप्न जैसा ही था।
आंदोलन को तोड़ने की कोशिशें उसी दिन शुरू हो गईं, जब आंदोलन की कामयाबी के लिए अन्ना से ज्यादा सोनिया गांधी को ज्यादा जिम्मेदार बनाने की कांग्रेसी कोशिशें शुरू हो गईं। इतना ही नहीं, जन लोकपाल के लिए गठित ड्राफ्ट कमेटी में शांतिभूषण और उनके बेटे प्रशांत भूषण के शामिल किए जाने को वंशवाद से जोड़कर देखा-दिखाया जाने लगा। इन चर्चाओं और खबरों के पीछे जहां सत्ताधारी खेमें के कुछ लोग जुटे हैं तो कई लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें भगवा रंग से हर कीमत पर नाराजगी है। अन्ना हजारे ने नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के ग्रामीण विकास की सफल योजनाओं के लिए प्रशंसा क्या कर दी, अन्ना की लानत-मलामत का जैसे मौका ही मिल गया। अन्ना जब नीतीश या नरेंद्र मोदी की प्रशंसा कर रहे थे तो उसके पीछे उनका सहज हृदय काम कर रहा था। लेकिन अन्ना के आंदोलन के आगे मजबूर हुए ताकतवर लोगों को अन्ना के इस बयान में भी खोट और सांप्रदायिकता नजर आने लगी। नरेंद्र मोदी ने लाख गुनाह किए हों, लेकिन हकीकत तो यही है कि गुजरात की जनता ने उन्हें दोबारा चुना है। ऐसे में उन्हें गाली देना और उनके हाथों हुए विकास कार्यों की बिना वजह आलोचना करने के लिए गोधरा का भूत जगाना दरअसल नरेंद्र मोदी पर हमला नहीं था, बल्कि अन्ना के आंदोलन को पटरी से उतारने की कोशिश ही थी। इसमें एक खास विचारधारा के लोग कुछ ज्यादा ही सक्रिय हैं।
गांधीजी की अगुआई में जब कांग्रेस भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के केंद्र में थी, तब उसके साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी काम कर रहा था, सांप्रदायिकता विरोधी गांधी को भी आरएसस के साथ से परहेज नहीं था। गांधी की हत्या का आरोप आरएसस पर था, इसके बावजूद पंडित जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी शामिल थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने खुद आरएसएस को गणतंत्र दिवस की परेड में मार्च पास्ट के लिए बुलाया था। इसका यह मतलब था कि देश के समग्र विकास में वे सबको साथ लेकर चलने की विचारधारा पर चलते थे। अन्ना के मोदी समर्थक बयान को उस नजरिए से क्यों नहीं देखा गया और उसकी आलोचना करने की कोशिशें तेज हो गईं। साफ है कि अन्ना और उनकी टीम पर आरोप लगा-लगाकर दरअसल उनकी साख को धक्का पहुंचाने की कोशिशें शुरू हो गईं है।
आखिर क्या वजह है कि अन्ना की साख को चोट पहुंचाने की कोशिशें तेज हो रही हैं। इसके दो कारण हैं। पहला कारण तो विशुद्ध राजनीतिक है। अन्ना ने जन लोकपाल के लिए जो आंदोलन चलाया है, निश्चित तौर पर उसका फायदा पूरे देश को होना है। लेकिन चूंकि अन्ना और उनके साथियों ने इसका राजनीतिक फायदा उठाने की कोई मंशा जाहिर नहीं की है और न ही उनकी कोई मंशा है भी। उनके पास राजनीतिक संगठन भी नहीं है। इसके चलते देर-सवेर जब चुनाव होंगे तो विपक्षी राजनीतिक धारा के एक वर्ग को डर है कि इसका फायदा भारतीय जनता पार्टी को हो सकता है। भारतीय जनता पार्टी कालेधन, स्विस बैंक में जमा धन और भ्रष्टाचार के मसले को लेकर 2009 के आम चुनावों से ही आंदोलन कर रही है। हालांकि उसे इसका फायदा नहीं मिल पाया। लेकिन अन्ना की साख भरी आवाज ने जब लोगों को जगा दिया तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन तो ख़ड़ा हो गया, लेकिन चुनावी समर में जाहिर है कि यह सवाल उठाने का फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिल सकता है। हालांकि शांति भूषण या प्रशांत भूषण जैसे जिन लोगों पर सवाल उठाए जा रहे हैं, सच तो यह है कि वे खुद भी नहीं चाहेंगे कि अन्ना के साथ खड़े आंदोलन का फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिले। इसके बावजूद अन्ना की साख को गिराने की कोशिशें जारी हो रही हैं।
इसकी दूसरी वजह सत्ता के अहं को पहुंची चोट है, जिसका बदला वह चुकाना चाहेगी ही। वैसे सत्ता के इर्द-गिर्द भ्रष्टाचारियों का बोलबाला कुछ ज्यादा ही है। उन्हें एक और डर सता रहा है कि अगर जन लोकपाल बिल पास हुआ तो उनके तो हाथ-पांव ही बंध जाएंगे। इसके लिए वे अन्ना को ही जिम्मेदार मानते हैं और अन्ना को जनसमर्थन के मुद्दे पर पटखनी तो देने से फिलहाल वे रहे तो इसके लिए बेहतर उपाय यह है कि अन्ना की साख को ही चोट पहुंचाई जाय। लेकिन अन्ना की साख पर चोट पहुंचाने की कोशिशें में जुटे लोगों को यह पता होगा ही कि अन्ना के लिए दौड़ने-रोने और चलने वाला पूरा समाज है। अन्ना के पास कोई आर्थिक ताकत भी नहीं है। ऐसे लोगों के लिए समाज तभी उठ खड़ा होता है, जब उसकी साख होती है और अन्ना जैसे लोगों की साख एक दिन में नहीं आती। इसलिए उस पर चोट पहुंचाना भी आसान नहीं होता।

Tuesday, April 12, 2011

विधानसभा चुनावों के नतीजे और भावी राजनीति

उमेश चतुर्वेदी
क्रिकेट के विश्व कप में भारत की जीत ने उन करोड़ों भारतीयों की जिंदगी में भी बेशक कुछ पल के लिए रोशनी की लकीर खींच दी है, जिनकी जिंदगी की दहलीज को अब भी असल रोशनी का इंतजार है। उदारीकरण के दौर में लाख झुठलाया जाय, लेकिन कड़वी हकीकत तो यही है कि जिंदगी में असल रोशनी लाने की जिम्मेदारी राजनीति पर है और राजनीति की दिशाएं चुनाव तय करते हैं। इन दिनों देश के चार राज्यों में विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया जारी है। असम में चुनाव हो चुके है, नतीजों का इंतजार है। लेकिन शायद उन राज्यों के लोगों को छोड़ दें तो दूसरे इलाके के लोगों और मीडिया का ध्यान इस ओर नहीं इसका यह भी मतलब नहीं है कि इन चुनावों का कोई महत्व नहीं है और वे बेमानी हो गए है। इन चुनावों के नतीजे सिर्फ संबंधित राज्यों के लोगों के भाग्य को ही तय नहीं करेंगे, बल्कि देश की राजनीति पर भी असर डालेंगे। भारतीय जनता पार्टी के महासचिव अरूण जेटली इस चुनाव अभियान में इस तथ्य पर जोर दे रहे हैं। लेकिन उनकी भी बात का वजन इसलिए नहीं बढ़ रहा है, जिस केरल में प्रचार के दौरान उन्होंने यह कहा, उस केरल में भारतीय जनता पार्टी का खास दांव पर नहीं है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की लोककथाओं में पूरब यानी असम और बंगाल का ऐसे देस के तौर पर चित्रण है, जहां जादूगरनियां रहती हैं, जो वहां गए पुरूषों को तोता बनाकर पिंजरे में कैद कर लेती हैं। अपने खूबसूरत नागरिकों और शाक्त संप्रदाय के साथ ही उसकी तांत्रिक क्रियाओं के लिए इन राज्यों की शोहरत ने ही शायद इन लोककथाओं का जन्म दिया। लेकिन इन राज्यों की खूबसूरती को ग्रहण लग गया है। असम तीन दशकों से आतंकवाद की चपेट में है। यही वजह है कि इस राज्य में तीन दशकों में सिर्फ और सिर्फ आतंकवाद ही सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा रहा है। चाहे असम गण परिषद की अगुआई वाला मोर्चा रहा हो या फिर कांग्रेस, दोनों ने तीन दशकों में जितने भी चुनाव लड़े हैं, उनका सिर्फ एक ही मुद्दा रहा है- खून-खराबे पर काबू और आतंकवाद का सफाया। इसके बीच एक और मुद्दा काम करता है। यहां भाषा और उन्हें बोलने वाले भी चुनावी मुद्दा बनते रहे हैं। असम की राजभाषा असमी है। लेकिन यहां बांग्लाभाषी लोग भी हैं और बांग्लादेश से विस्थापित लोग भी है। असम गणपरिषद का गठन भी बांग्लादेश से आए लोगों को असम से बाहर निकालने के आंदोलन के तूल पकड़ने के बाद ही हुआ था। लेकिन अब इसमें बोडो को भी शामिल करने का आंदोलन शुरू हो गया है। इसके साथ ही बोडो को अलग राज्य बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी है। दिलचस्प बात यह है कि उल्फा और बोडो- दोनों उग्रवादियों के निशाने पर अब हिंदीभाषी मजदूर भी बनने लगे हैं। क्योंकि दोनों ही समुदायों को प्रवासी हिंदीभाषी दुश्मन और उनके रोजगार पर हक जताने वाले लगते हैं। इस बार जहां बीजेपी अकेले चुनावी मैदान में है। सबसे हैरतअंगेज बात यह है कि राज्य के बांग्लाभाषी इलाकों में बीजेपी का प्रभाव रहा है। 1999 के लोकसभा चुनाव में यहां से बीजेपी के चार सांसद चुने गए थे। लेकिन 2001 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की स्थानीय इकाई असम गणपरिषद के साथ चुनाव नहीं लड़ना चाहती थी। लेकिन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में सहभागी होने के चलते बीजेपी को असम गणपरिषद के साथ चुनावी वैतरणी में उतरना पड़ा और बीजेपी के साथ ही असम गणपरिषद को भी मुंह की खानी पड़ी। तब से लेकर तरूण गोगोई के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार चल रही है। हालांकि 2006 के विधानसभा चुनावों में तरूण गोगोई की अगुआई में कांग्रेस को साफ बहुमत नहीं मिल पाया। इत्र व्यापारी बदरुद्दीन अजमल की असम यूनाइडेट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एयूडीएफ) ने पिछले चुनाव में कांग्रेस को जोरदार झटका दिया था। हालांकि बाद में वह भी सरकार में शामिल हो गई। तरूण गोगोई की अकेली उपलब्धि उल्फा से बातचीत शुरू कराना है। हालांकि कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। विपक्षी असम गणपरिषद पिछले चुनावों में बिखरी हुई थी। उसमें दो-फाड़ हो गया था। लेकिन इस बार प्रफुल्ल मोहंत की अगुआई में पार्टी के साथ सीपीएम और सीपीआई का मोर्चा कांग्रेस को टक्कर दे रहा है। वैसे दिल्ली के राजनीतिक हलके में कहा जा रहा है कि असम गण परिषद और बीजेपी भले ही चुनावी मैदान में अलग-अलग हों, लेकिन उनके बीच सियासी समझ विकसित हो गई है। यानी जरूरत पड़ी तो दोनों दल चुनाव बाद एक साथ सरकार बना सकते हैं। हालांकि चुनाव पूर्व हुए कुछ सर्वेक्षणों में कांग्रेस की वापसी की उम्मीद जताई जा रही है। लेकिन सी वोटर के यशवंत देशमुख का मानना है कि वहां कांग्रेस की वापसी मुश्किल है।
पश्चिम बंगाल और केरल दो ऐसे राज्य हैं, जहां वामपंथ अपनी पकड़ और पहुंच बनाए हुए है। दुनिया के तमाम अहम देशों से मार्क्सवादी राजनीति की विदाई के दौर में भी पश्चिम बंगाल अलग उदाहरण बना हुआ है। संसदीय राजनीतिक परंपरा में शामिल वामपंथी सरकार की लगातार 34 साल से मौजूदगी को दुनिया हैरत की निगाह से देखत रही है। लेकिन इस बार माना जा रहा है कि ममता बनर्जी की अगुआई वाली तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस का गठबंधन वामपंथ के इस गढ़ को ध्वस्त कर देगा। सिंगूर और नंदीग्राम के बाद तृणमूल कांग्रेस की राज्य के मतदाताओं में बढ़ती पकड़ और पहुंच को पिछले लोकसभा चुनावों में देखा जा चुका है। इसलिए माना जा रहा है कि इस बार पश्चिम बंगाल का लाल दुर्ग ध्वस्त हो सकता है। चूंकि वामपंथी खेमे के पास इन दिनों ज्योति बसु जैसा कोई चमत्कारिक नेता नहीं है, लिहाजा इस मान्यता में दम भी देखा जा रहा है। वाममोर्चे के शासन ने राज्य में भूमि सुधार का जो इतिहास रचा, वह पूरे देश में कहीं नहीं दिखा। आम लोगों की असल रहनुमाई करने का दावा करने वाली इस राजनीतिक विचारधारा से उम्मीद कहीं ज्यादा थी। लेकिन यह उम्मीद तकरीबन हर मोर्चे पर विफल हुई है।
अंग्रेजों के साथ के चलते देश में सबसे पहले कहीं नवजागरण आया तो वह बंगाल ही था। इसके चलते आजादी मिलते तक पश्चिम बंगाल में उद्योगों का जाल बिछा हुआ था। 1977 में जब पहली बार वाम मोर्चा की सरकार बनी तो उम्मीद जगी कि इस राज्य में आम लोगों की भलाई की राह में ढेर सारे बदलाव होंगे। सबसे बड़ा बदलाव तो भूमि सुधारों का हुआ। तब से लेकर अब तक चुनावी राह से इस राज्य में वामपंथी सरकार बनी हुई है। चीन और वेनेजुएला को छोड़ दें तो तकरीबन पूरी दुनिया से कम्युनिस्ट विचारधारा वाली सरकारों की विदाई हो चुकी है। ऐसे में संसदीय परंपरा को आत्मसात करते हुए 34 सालों से सरकार चलाना सचमुच वामपंथी विचारधारा की कामयाबी का ही इतिहास है। लेकिन इस दौर में जिस तरह सत्ता के विकेंद्रीकरण के नाम पर स्थानीय स्तर तक वामपंथी कैडरों की ताकत में इजाफा हुआ, उसका नतीजा राज्य में एक नए तरह के शोषण के तौर पर दिखा। आम आदमी की सैद्धांतिक तौर पर बात करने वाली विचारधारा के लोगों ने आम लोगों पर कहर बरपाने शुरू कर दिए। औद्योगिक केंद्र रहे पश्चिम बंगाल से उद्योगों की विदाई हो गई। पूरबिया लोकगीतों में सजने वाला बंगाल और कोलकाता अपना रौनक खोने लगा। वाम मोर्चे की सांगठनिक गुंडई का नजारा सिंगूर और नंदीग्राम में दिखा। इसके खिलाफ ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने मोर्चा संभाला। कहा जा रहा है कि उसे नक्सलियों का भी समर्थन हासिल है। बंगला समाज अपने संस्कृति कर्मियों पर खासा गर्व करता है। लेकिन वाममोर्चे की सांगठनिक जबर्दस्ती और राज्य की बदहाली ने महाश्वेता देवी, शंखो घोष, अपर्णा सेन जैसे तमाम संस्कृति कर्मी भी राज्य की वाममोर्चा सरकार के खिलाफ हो गए। इसका नतीजा पिछले लोकसभा चुनाव में भी दिखा। इस बार वाम मोर्चा अपने पुराने सभी साथियों मसलन सीपीएम, सीपीआई, आरएसपी, फारवर्ड ब्लॉक के साथ अपना गढ़ बचाने की जुगत में जुटा है, वहीं ममता बनर्जी और कांग्रेस उसका मुकाबला कर रहे हैं। इसी राज्य की राजधानी कोलकाता में 1951 में भारतीय जनता पार्टी के पूर्व संगठन भारतीय जनसंघ की स्थापना श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने की थी। लेकिन यहां भारतीय जनता पार्टी एक कोने में पड़ी अपने अस्तित्व को साबित करने की जद्दोजहद में जुटी हुई है। चुनाव सर्वेक्षण मान रहे हैं कि इस बार तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस का राज्य सचिवालय रायटर्स बिल्डिंग पर कब्जा होने जा रहा है। लेकिन सीटों के बंटवारे को लेकर जिस तरह दोनों पार्टियों में खींचतान जारी रही, उससे दोनों पार्टियों का आपसी विश्वास बरकरार नहीं हो पाया है। कांग्रेस पार्टी के एक महत्वपूर्ण नेता का इन पंक्तियों के लेखक ने पूछा कि ममता बनर्जी से कांग्रेस का भरोसा बन गया है। तो उनका जवाब था कि पहले ममता खुद पर तो भरोसा करें। इस जवाब में ही छुपा है कि दोनों पार्टियों का भविष्य कैसा रहने वाला है। वैसे सच तो यह है कि वाममोर्चे की सांगठनिक जबर्दस्ती से पश्चिम बंगाल को मुक्ति दिलाने का दावा कर रही ममता बनर्जी के पास विकास का पहिया पटरी पर लाने के लिए कोई विशेष कार्यक्रम या रोडमैप नहीं है। अगर है भी तो अब तक नजर नहीं आया है। फिर तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता भी वाममोर्चे के कार्यकर्ताओं के तर्ज पर निचले स्तर तक तुर्की-बतुर्की काम करने की तैयारियों में जुट गए हैं। यानी अगर राज्य में सत्ता का परिवर्तन हुआ तो वहां सिर्फ राजनीति का ही नहीं, अराजकता का नया इतिहास भी रचा जाएगा। जिसे एक किनारे बैठकर देखने के लिए कांग्रेस भी मजबूर रहेगी।
दुनिया में वाम विचार धारा की पहली सरकार बतौर चुनाव देने वाले राज्य केरल में भी फिलहाल वाममोर्चा की सरकार है। राज्य के मुख्यमंत्री वी एस अच्युतानंदन की ईमानदारी और सादगी की वाममोर्चे कार्यकर्ताओं पर पूरी पकड़ है। इसके बावजूद उन्हें पिछली बार की ही तरह इस बार भी सीपीएम ने टिकट नहीं दिया। पिछली बार कार्यकर्ताओं के दबाव पर उन्हें ना सिर्फ टिकट दिया गया, बल्कि सीपीएम नेतृत्व को उन्हें मुख्यमंत्री भी बनाना पड़ा। इस बार उनको टिकट तो आखिरकार दबाव में दे दिया गया, लेकिन राज्य सचिव पनिराई विजयन के दबाव में अगर सत्ता मिलती भी है तो अच्युतानंदन को आसानी से मुख्यमंत्री की कुर्सी शायद ही मिले। वैसे देश का सबसे पहला संपूर्ण शिक्षित इस राज्य के ग़रीब परिवारों से आने वाले 54 प्रतिशत लोग बेरोज़गार हैं, जबकि प्रभावशाली परिवारों के मामले में यह आंकड़ा 24.8 प्रतिशत है। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के 41 फीसद हिस्से का उपभोग सिर्फ दस फीसद जनता करती है। अगर खाड़ी देशों में यहां के कामगारों को काम न मिला होता तो शायद कई घरों में चूल्हे भी नहीं जलते। भगवान का अपना देश के तौर पर विख्यात इस राज्य में पर्यटन की अकूत संभावनाओं के बावजूद राज्य सरकारें कुछ कर नहीं पाईं। इसके बावजूद राज्य के ज्यादातर लोगों की पहली पसंद वीएस अच्युतानंदन हैं। लेकिन बेरोजगारी और महंगाई के चलते इस बार माना जा रहा है कि कांग्रेस की वापसी होगी। इस बार कांग्रेस के साथ यहां केरल कांग्रेस और मुस्लिम लीग भी शामिल है। मजे की बात यह है कि उत्तर भारत में बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करने वाली कांग्रेस को केरल में मुस्लिम लीग सांप्रदायिक नजर नहीं आती। लेकिन कांग्रेस के सामने भी मुख्यमंत्री पद की चुनौती भी है। राज्य में कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के दो दावेदार है- राज्य कांग्रेस अध्यक्ष रमेश चेनिथला और पूर्व मुख्यमंत्री ओमान चांडी। पिछली बार ए के एंटनी को हटाने के बाद कुछ महीनों तक चांडी को ही कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बनाया था। लेकिन रमेश चेनिथला को उम्मीद है कि चुनाव बाद उनके पक्ष में भाग्य का दांव पलट सकता है।
सबसे दिलचस्प मुकाबला तमिलनाडु में हो रहा है। जहां एक तरफ करूणानिधि की अगुआई वाला डीएमके और कांग्रेस का गठबंधन है तो दूसरी तरफ जयललिता की अगुआई वाला एआईडीएमके है। जयललिता के साथ सीपीआई और सीपीएम भी है। तीसरा मोर्चा तमिल अभिनेता विजयकांतन की पार्टी डीएमडीके का है। पिछली बार उनकी पार्टी ने दस फीसदी वोट पाकर तहलका मचा दिया था। 1999 के लोकसभा चुनावों में राज्य से चार सीटें हासिल करने वाली बीजेपी एक बार फिर यहां अपना अस्तित्व तलाश रही है। हालांकि राज्य बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष सी पी राधाकृष्णन चाहते थे कि पार्टी जयललिता के साथ विधानसभा चुनावों में उतरे, लेकिन राज्य प्रभारी वेंकैयानायडू का तर्क था कि राज्य स्तरीय पार्टी से गठबंधन कैसे हो सकता है। हालांकि इस तर्क का आधार समझ में नहीं आया। इस बार राज्य का प्रभावी नाडर समुदाय का एक नेता टूटकर बीजेपी के साथ आने को तैयार था। लेकिन उसे पार्टी ने भाव ही नहीं दिया। बहरहाल यह राज्य ऐसा है, जहां भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है। भ्रष्टाचार को लेकर राज्य की जनता भी बंटी हुई नजर आ रही है। हालांकि वोटरों को खरीदने और मंगल सूत्र से लेकर लैपटाप देकर खरीदने की कोशिश हो रही है। चुनाव सर्वेक्षणों की मानें तो इस बार अम्मा की वापसी की संभावना ज्यादा है। पांचवा राज्य पुद्दुचेरी है, यहां की तीस सदस्यीय विधानसभा का चुनाव भी साथ ही हो रहा है। हालांकि उसकी राजनीतिक गूंज खास सुनाई नहीं दे रही है।
यह सच है कि अगर ममता को पश्चिम बंगाल में बहुमत के करीब सीटें मिलीं तो वह कांग्रेस का साथ छोड़ने से देर नहीं लगाएंगी। लेकिन तमिलनाडु में अगर जयललिता का संगठन जीतता है तो केंद्र के साथ डीएमके का साथ बना रहेगा। लेकिन क्योंकि भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे करूणानिधि परिवार के लिए सरकार का साथ ही संजीवनी बन सकता है। केरल और पश्चिम बंगाल की हार वाम मोर्चे के लिए सदमा तो होगा, लेकिन उम्मीद की जा सकती है कि संघर्षों के लिए मशहूर इस मोर्चे के नेता महंगाई और भ्रष्टाचार के मसले पर केंद्र की नाक में दम करने से नहीं हिचकेंगे। जिसकी अनूगूंज देर तक सुनाई देगी। केरल में प्रचार करते वक्त भारतीय जनता पार्टी महासचिव अरूण जेटली ने उम्मीद जताई है कि इन विधानसभा चुनावों के नतीजे राजनीतिक स्तर पर कई बदलाव लाएंगे। हो सकता है, बदलाव आएं, लेकिन इसमें बीजेपी का भी योगदान होगा, इसे लेकर संदेह की गुंजाइश बनी हुई है।

Monday, April 11, 2011

समाजवाद की प्रासंगिकता और तीसरी धारा की करवट लेती राजनीति

उमेश चतुर्वेदी
डॉक्टर राममनोहर लोहिया की जन्मशताब्दी बीत गई, स्वतंत्रता के बाद भारतीय मनीषा और राजनीति को झकझोर कर रख देने वाली इस शख्सियत की याद को जनमानस के बीच ताजा करने की कोशिश क्यों करती...लोकसभा की फकत चार साल की सदस्यता में ही इस शख्सियत ने शाश्वत सवालों को उठाकर तत्कालीन सरकारों को सोचने और बचाव की मुद्रा में आने के लिए बाध्य किया, भारतीय संसदीय इतिहास में ऐसी दूसरी नजीर नहीं मिलती। ऐसे में स्वाभाविक ही था कि लोहिया को सरकारी स्तर पर याद किया जाता और उनकी जन्मशताब्दी मनाई जाती। लेकिन ऐसा नहीं हो सका..जबकि इस सरकार और कांग्रेस पार्टी में अब भी लोहियावदी समाजवाद के अब भी कई समर्थक शामिल हैं। उम्मीद तो यह भी थी कि जयप्रकाश और लोहिया के नाम पर तीसरी कतार में खड़े होकर समाजवादी राजनीति करने वाले लोगों के बीच भी कोई हलचल होगी, लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा भी नहीं हुआ। ना सिर्फ समाजवादी, बल्कि मार्क्सवादी धारा के लोग भी मानते हैं कि देश में इन दिनों जैसी परिस्थितियां हैं, उनमें लोहिया की राह पर चलते हुए आंदोलन खड़े किए जा सकते हैं और उनके ही जरिए मौजूदा हालात से निबटा जा सकता है। लोहिया जन्मशताब्दी की पूर्व संध्या पर उनकी रचनाओं के लोकार्पण के मौके पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव एबी वर्धन का कहना कि देश में लोहियावादी तरीके से आंदोलन खड़ा करने की परिस्थितियां मौजूद हैं, लेकिन मौजूदा राजनीतिक तंत्र की साख ही संकट में है, लिहाजा जनता भरोसा करने को तैयार नहीं है।
यह सच है कि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय- दोनों ही मोर्चों पर हालात बेहद तकलीफदेह और कशमकश भरे हैं। महंगाई बेलगाम हो गई है, गरीब की जिंदगी को कौन कहे, निम्न मध्यवर्ग की जिंदगी भी बेकाबू महंगाई से बदहाल होती जा रही है। राजनीतिक तंत्र में भ्रष्टाचार संस्थानिक तौर पर जड़ जमा चुका है। राज्यों के मुख्यमंत्रियों से लेकर केंद्रीय मंत्रियों तक पर खुलेआम भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं, हसन अली जैसे टैक्स चोर के साथ महाराष्ट्र के तीन-तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों के पैसे के लेन-देन की बात सामने आती है, आजाद भारत के इतिहास में दूसरी बार प्रधानमंत्री पर अपनी सरकार बचाने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त का आरोप लगा है। इन सब मसलों से ऐसा नहीं कि जनता परेशान नहीं है..आम लोगों में रोष नहीं है...लेकिन शहरी इलाकों में आर्थिक उदारीकरण ने जिस तरह जिंदगी के संघर्ष को सामाजिक संघर्षों से भी कहीं ज्यादा बड़ा बना दिया है, इसलिए लोग सब चलता है- कहकर राजनीति और व्यवस्था के साख पर आए संकट को देखने के लिए मजबूर हैं। ऐसे में क्या लोहिया चुप रहते..निश्चित तौर पर वे नए सिरे से आंदोलन खड़ा कर देते, कमजोर लोगों और जनता के हक-हकूक की आवाज उठाना उनका उसूल था, लिहाजा वे अपने इस उसूल से किसी भी कीमत पर समझौते नहीं करते।
भारतीय राजनीति में मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान, शरद यादव और नीतीश कुमार जैसी शख्सियतें लोहिया और जयप्रकाश की समाजवादी धारा पर ही राजनीति करने का दावा करती रही हैं। कांग्रेस के मुखर प्रवक्ता मोहन प्रकाश भी लोहियावादी राजनीति के पुरोधा रहे हैं। ऐसे में अगर आम लोगों और मजलूमों की सहूलियत की बात करने वाली मनीषा इन राजनेताओं पर टकटकी लगाकर देखती हैं तो यह वाजिब ही है। लेकिन दुर्भाग्यवश समाजवादी धारा के सहारे राजनीति और सत्ता की सीढ़ियां नापती रही राजनेताओं की इस पहली पंक्ति को लोहिया याद तो हैं, लेकिन उनके उसूल लगातार पीछे छूटते गए हैं। हालांकि लोहिया की जन्मशताब्दी की पूर्व संध्या पर राजधानी दिल्ली में एक मंच पर जब लोहियावाद के समर्थक एक मंच पर जुटे तो एक बार फिर यही सवाल उठा कि क्या लोहिया की याद में लोगों की समस्याओं के लिए मैदान में उतरना और समाजवादियों को एक मंच पर लाना जरूरी नहीं हो गया है। शरद यादव हों या रामविलास पासवान या फिर मुलायम सिंह यादव, तीनों कम से कम एक मुद्दे पर सहमत रहे कि अगर मौजूदा हालात के खिलाफ मजबूत आवाज नहीं उठाई गई तो आने वाले वक्त में देश को और भी कठिन हालात और चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। जाहिर है कि इस मौके पर एक बार फिर से तीसरे मोर्चे को जिंदा करने और आम लोगों की राजनीति करने की मांग उठाई गई। इसकी राम विलास पासवान और मुलायम सिंह यादव ने जोरदार शब्दों में वकालत की। लेकिन शरद यादव इस सवाल से कन्नी काट गए। दरअसल राजनीति की दुनिया में रामविलास पासवान की हालत किसी से छुपी नहीं है। पहले लोकसभा और बाद में बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी की जो हालत हुई है, उसमें उन्हें समाजवाद और उनकी एकता की याद आनी स्वाभाविक है। उत्तर प्रदेश में दूसरी बड़ी ताकत रहे मुलायम सिंह को भी अपना जनाधार डोलता नजर आ रहा है, लिहाजा उन्हें भी समाजवादी एकता का शिगूफा पसंद आ रहा है। लेकिन क्या यह इतना आसान है।
डॉक्टर राममनोहर लोहिया पर आरोप लगता रहा है कि उन्होंने समाजवादी आंदोलन को बार-बार तोड़ा। 1963 में जब वे फर्रूखाबाद लोकसभा सीट से उपचुनाव में जीतकर संसद पहुंचे, तब एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार ने उनके बारे में लिखा था कि चीनी मिट्टी के बर्तनों में सांड़ घुस आया है। इससे साफ है कि लोहिया को लेकर एक वर्ग की धारणा क्या थी। कुछ इसी अंदाज में 1977 के बाद कई बार समाजवादी पार्टियां टूटीं और बिखरी हैं। उन्होंने अपने नेता लोहिया की इस विरासत को बखूबी संभाले रखा। तीन-तीन बार केंद्र की सत्ता में पहुंचने के बाद समाजवादी धारा के आंदोलन में इतना बिखराव हुआ कि राजनीतिक हलकों में इसे लेकर एक जुमला ही कहा जाने लगा – इस दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा। लेकिन ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि लोहिया ने समाजवादी आंदोलन को तोड़ा तो उसके पीछे उनके सिद्धांत और उसूल थे। जबकि बाद के दौर में समाजवादी आंदोलन के बिखरने की वजह समाजवादी नेताओं के अहं का आपसी टकराव और वंश-परिवारवाद का बढ़ावा रही है। लोहिया परिवार और वंशवादी राजनीति के खिलाफ थे, लेकिन उनके मौजूदा अनुआयियों के अंदर यह रोग कूट-कूट भर गया है। यही वजह है कि समाजवादी आंदोलन पर जनता का भरोसा कम होता गया है।
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के खेमे में बंटी भारतीय राजनीति में लोहिया के बहाने समाजवादी धारा के नेता भले ही आपसी एकता की चर्चा चला रहे हों, या फिर एक होना उनकी मौजूदा राजनीतिक मजबूरी हो, लेकिन सच तो यह है कि परिवारवाद और पैसावाद की परिधि से वे बाहर निकलने को तैयार नहीं है। समाजवादी धारा के नेता जब तक इन बुराइयों से दूर थे, अपने प्रभाव क्षेत्र की अधिसंख्य जनता के हीरो थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने उसूलों को तिलांजलि देकर उसी राजनीतिक संस्कृति को अख्तियार करना शुरू किया, जिसके विरोध में उनका पूरा विकास हुआ था, जनता की नजरों से वे उतरते गए। इसके साथ ही समाजवादी धारा की राजनीति की साख पर संकट बढ़ता गया। ऐसे में सवाल उठ सकता है कि उड़ीसा में बीजू जनता दल और हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल की साख अभी – भी क्यों बची हुई है। सच तो यह है कि उनकी साख अपनी समाजवादी सोच से ज्यादा बीजेपी की अपनी कमियों और खामियों के चलते बची हुई है।
तो क्या यह मान लिया जाय कि लोहिया के विचार और समाजवादी सोच पर आधारित उनकी राजनीति के दिन लद गए...इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं है। लेकिन इतना तय है कि जब तक आम आदमी का सही मायने में सशक्तिकरण हो सकेगा, देसी भाषाओं के जरिए लोकतांत्रिक ताकत हासिल नहीं की जा सकेंगी, राजनीति जनता से सीधे ताकत नहीं हासिल करेगी, लोहिया की प्रासंगिकता बनी रहेगी।

सुबह सवेरे में