Friday, July 8, 2011
ग्लैमर की चाशनी के बीच गुम होते सामाजिक सवाल
उमेश चतुर्वेदी
प्रबंधन के पारंपरिक पाठ्यक्रमों में सिखाया जाता रहा है कि हर धंधे की नैतिकता होती है। प्रबंधन का पारंपरिक तरीका नहीं अब नहीं रहा, 1991 में शुरू हुए उदारीकरण ने धंधा शब्द को भी प्रोफेशन के बतौर स्थापित कर दिया है। लिहाजा प्रोफेशन की मान्यताएं भी बदल गई हैं। उदारीकरण और वैश्वीकरण की शुरूआत के दौर में इसके नफे-नुकसान को लेकर बहसों का जो दौर चल रहा था, उसमें एक सवाल प्रमुखता से उठा था। वह था प्रोफेशन की नैतिकता और सांस्कृतिक गिरावट का। जानकारों को आशंका थी कि उदारीकरण के दौर में पैसा बनाने के लिए नैतिकता और वर्जनाओं की सीमाएं टूटेंगी। जो निश्चित रूप से सामाजिक जीवन के लिए अच्छा नहीं होगा। नीरज ग्रोवर की हत्या के आरोप से छूट गई कन्नड़ अभिनेत्री मारिया सुसईराज को कलर्स चैनल के बहुप्रचारित शो बिग बॉस से ऑफर मिलने और उसके बदले में पांच करोड़ रूपए की भारी-भरकम रकम देने की खबर उदारीकरण के शुरूआती दौर की उन्हीं आशंकाओं को ही सही साबित कर रही है। चेहरे से शालीन दिखने वाले हॉरर फिल्में बनाने के लिए मशहूर राम गोपाल वर्मा भी मारिया के नाम से पैसे कमाने के लिए पीछे रहने वालों में से नहीं रहे। उन्होंने भी मारिया को लेकर फिल्म बनाने की घोषणा कर दी। यह बात और है कि मारिया के छूटने और उसे लेकर फिल्में और टीवी शो बनाने के खिलाफ लोगों के उतरने और इस दौड़ में शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कूद जाने से कलर्स और रामगोपाल वर्मा की फिलहाल घिग्घी बंद है। कलर्स सफाई देते फिर रहा है कि उसने मारिया को कोई प्रस्ताव नहीं दिया।
लेकिन कलर्स का जो अतीत रहा है और खासतौर पर बिग बॉस बनाते वक्त उसने जो लटके-झटके इस्तेमाल किए, उससे शक की गुंजाइश अब भी बनी हुई है। बिग बॉस में पहले भी उसने राहुल महाजन, मोनिका बेदी, डॉली बिंद्रा, राजा चौधरी, कमाल राशिद खान, वीना मलिक जैसी नकारात्मक छवि वाले लोगों को ही शामिल करके टीआरपी और दाम दोनों कमाए हैं। राहुल महाजन बिग बॉस में इसलिए शामिल नहीं किए गए थे कि वे भारतीय जनता पार्टी के सर्वसुलभ और सर्वस्वीकार्य नेता प्रमोद महाजन के बेटे हैं, नशाखोरी और बीवी के साथ मारपीट के चलते उनकी जो नकारात्मक शोहरत बनी, कलर्स और बिग बॉस की निर्माता कंपनी एंडमोल को उसने आकर्षित किया। मोनिका बेदी फिल्मों में तो कोई कमाल नहीं दिखा पाईं, लेकिन डॉन अब्दुल सलेम की माशूका के तौर पर उन्होंने भारत सरकार के नाक में जरूर दम कर दिया। उनकी यही कुख्याति ही कलर्स को अपने साथ जोड़ने के लिए उत्साहित किया। राजा चौधरी की भी ख्याति आए दिन पत्नी श्वेता तिवारी के साथ मारपीट करना और गली-मुहल्लों के गुंडों की तरह लड़ने-पिटने की रही है। कमाल राशिद खान की गालियां भला कौन भूल सकता है। सी ग्रेड की फिल्में बनाने वाले कमाल राशिद खान की भी नकारात्मक छवि ही रही है। पाकिस्तानी फिल्मों की बी ग्रेड की हीरोइन वीना मलिक न तो पाकिस्तानी सिनेमा की दुनिया में कुछ कर पाईं और न ही हिंदुस्तानी सिनेमा में दस्तक दे पाईं। लेकिन क्रिकेट मैचों की फिक्सिंग में अपने पूर्व प्रेमी पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी मोहम्मद आसिफ के चलते चर्चा में जरूर आ गईं। खबर तो यह भी है कि मैच फिक्सिंग में सटोरियों और आसिफ के साथ रहकर उन्होंने पैसे कमाए और जब खुलासा हुआ तो आसिफ के खिलाफ खड़ी हो गईं। डाली बिंद्रा की गालियों को भला कौन भूल सकता है। अस्मित पटेल के बारे में कम ही लोग जानते हैं कि उनके दादा रजनी पटेल समाजवादी आंदोलन की मशहूर हस्ती थे। लेकिन बिग बॉस के पिछले सीजन में उन्होंने कैमरे के सामने वीना मलिक से साथ जो किया, उससे स्वर्ग में बैठी उनके दादा की आत्मा जरूर सोच में पड़ गई होगी। बिग बॉस में इतनी नकारात्मक छवियों वाले लोगों को शामिल किया जा चुका है कि मारिया सुसईराज को भी कलर्स से ऑफर मिलने पर लोगों को हैरत नहीं हुई। लेकिन यह पहला मौका है, जब फिल्म और टीवी शो के धंधे की नैतिकता पर सवाल उठाया गया। निश्चित तौर पर इसकी शुरूआत फिल्म निर्माता अशोक पंडित ने की। उनके साथ उस नीरज ग्रोवर के दोस्त भी शामिल हुए, जिसकी हत्या करके उसकी लाश को तीन सौ टुकड़ों में करके जलाने और फेंकने और इस दौरान मस्ती से शॉपिंग करने का मारिया सुसईराज पर आरोप हैं। अब मारिया सफाई दे रही है कि लाश को तीन सौ टुकड़ों में नहीं काटा गया था। ऐसी सफाई के जरिए वह जाहिर करे कि वह निर्दोष है, लेकिन यह कहते वक्त भी उसकी नैतिकता आड़े नहीं आती। मानो नीरज ग्रोवर कोई बकरा या मुर्गा था, जिसे तीन सौ या तीन टुकड़े में काटकर खाने वाले शौकीनों को बेचना था।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मारिया जैसे लोगों को ऐसी शोहरत और पैसे देकर ग्लैमराइज किया जाना चाहिए। क्या इंसानी जान की कीमत कुछ नहीं होती। क्या समाज में अच्छे लोगों की कमी हो गई है कि मारिया या मोनिका बेदी जैसों पर ही भरोसा किया जा सकता है। सवाल तो यह भी है कि क्या टीवी शो और फिल्में बनाने वाले लोगों के घरों में मारिया जैसे चरित्र पैदा होंगे तो वे उन्हें समाज के सामने इसी तरह पेश करेंगे। क्या समाज में नैतिकता के लिए कोई जगह नहीं है। क्या ऐसे ही लोगों के जरिए पैसे कमाए जाएंगे। मारिया, मोनिका या ऐसी ही हस्तियों को अगर महिमामंडित किया जाएगा तो क्या गारंटी है कि कई दूसरे लोगों को ऐसे कदम उठाकर शोहरत हासिल करने की प्रेरणा नहीं मिलेगी।
मारिया को हीरोइन बनाने में हमारी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भी कम हाथ नहीं है। मारिया की रिहाई की खबर को ग्लैमराइज तरीके से पेश किया गया। खबरों के बारे में आम धारणा है कि उन्हें निरपेक्ष तरीके से पेश किया जाना चाहिए। लेकिन जब कोई लिज हर्ले किसी शेन वार्न के साथ खुलेआम चुंबन लेती है या कोई मोनिका वेदी और मारिया सुसईराज जैसे गंभीर आरोपी जेल से छूटते हैं, कैमरे उनके पीछे भागते कैमरे निरपेक्ष रवैया अख्तियार नहीं कर पाते। ऐसी घटनाओं को वे ग्लैमर की चाशनी में पेश करते हैं। सवाल यह है कि यही कैमरे किसी पप्पू यादव, किसी शहाबुद्दीन या किसी मुख्तार अंसारी को कवर करते वक्त ग्लैमराइज तो नहीं होते। उन्हें राजनीति में तो तमाम बुराइयां नजर आती हैं, उसे लेकर घंटों हायतौबा भी मचाने में पीछे नहीं रहते। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि जब कोई मारिया या मोनिका रिहा होती है तो कैमरों की भाषा क्यों बदल जाती है। इस सवाल का जवाब ढूंढे़ बिना समाज में लगातार आ रही इस गिरावट और नकारात्मक शोहरत वाले लोगों को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति पर रोक नहीं लग सकेगी।
मारिया को लेकर नीरज ग्रोवर के मुट्ठीभर दोस्तों ने जैसे ही सवाल उठाए, उनके पीछे समाज का एक तबका तो खड़ा नजर आ ही रहा है। अशोक पंडित और नीरज ग्रोवर के दोस्तों के साथ रजा मुराद और टीवी-फिल्म की दूसरी हस्तियों का उठ खड़ा होना दरअसल समाज के उस गुस्से की ही अभिव्यक्ति है, जो नकारात्मक छवियों वाले लोगों को ग्लैमर की चाशनी में पेश करने को लेकर जमा हो रही थी। संभवत: यह पहला मौका है, जब किसी नकारात्मक छवि के खिलाफ समाज का एक तबका उठ खडा़ हुआ है। अब देखना यह है कि ऐसी हस्तियों से निबटने के लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कब कदम उठाता है। लेकिन मारिया पर उठते सवालों से एक चीज तो तय है कि ऐसी नकारात्मक छवियों को ग्लैमर की चाशनी में पकाने की कोशिशों पर लगाम लगाने से पहले लोगों को सोचना पड़ेगा।
Saturday, July 2, 2011
गेहूं की राजनीति पर सवार शिवराज सरकार
विदुर सरकार
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने दक्षिणी राज्यों और छत्तीसगढ़ की तर्ज पर 2013 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए चुनावी बिसात बिछाना शुरू कर दिया है और लोक लुभावने निर्णय लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। जिससे की उनकी सरकार पार्टी के जनाधार को व्यापक तरिके से भी बढ़ा सके। इसी क्रम में प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अभी पिछले ही सप्ताह प्रधानमंत्री से मुलाकात कर प्रदेश में रिकार्ड गेहूं की पैदावार से उत्पन्न भण्डारण की समस्या से अवगत कराया और साथ ही पर्याप्त गोदाम न होने के कारण ज्यादातर गेहूं खुले में पड़ा है, जिससे उसके खराब होने की सम्भावना को देखते हुये आग्रह किया कि केन्द्र सरकार गेहूं का प्रदेश को एक साल का अग्रिम आवंटन कर दे जिससे कि भण्डारण की समस्या हल भी हो जाएगी और राज्य सरकार गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों को तीन रूपये किलो की दर से अनाज बांटेगी। इससे अनाज का भी सही उपयोग हो जायेगा और साथ ही जरूरतमंदों को भी सस्ते दाम पर अनाज मिल जाएगा। इस समय लगभग 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं खुले में रखा है जिससे सुरक्षित भण्डारण की आवश्यकता है।
अव्वल तो यह सम्भव नहीं है कि केन्द्र सरकार एक साल का अग्रिम आवंटन राज्य सरकार को कर दे और अगर कर भी देती है तो शिवराज सिंह चौहान 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं को गरीबों में 3 रूपये किलो की दर से बांट देते हैं तो जाहिर है कि उसका राजनीतिक फायदा उन्हें जरूर मिलेगा। क्योंकि कमर तोड़ महंगाई से जूझ रहे लोग राज्य सरकार के इस कदम से जरूर कृतार्थ होंगे। जो बाद में वोटो में भी तब्दील हो सकते है। कुछ इसी तरह का फायदा छत्तीसगढ़ और दक्षिणी राज्यों ने गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को एक रू किलो की दर से चावल बांटकर उठा चुके हैं।
उपर से देखने पर 3 रू प्रति किलो का गेहूं गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों को बांटने से राजनैतिक लाभ तो दिख रहा है। लेकिन इसके आर्थिक पक्ष को बारीकी से अध्ययन करे तो पायेंगे कि पूरा का पूरा मुददा हवा-हवाई है। क्योंकि इस योजना को हकीकत में लाते ही राज्य सरकार की अर्थव्यवस्था ढगमगाना तय है और मध्यप्रदेश सरकार की आज की आर्थिक स्थिति को देखते हुए ऐसा हो पाना असंभव है।
वैसे मुख्यमंत्री के अनुसार लगभग 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं खुले में पड़ा है। जिससे सुरक्षित भण्डारण की आवश्यकता है। अगर हम मान लें कि केन्द्र सरकार 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं को प्रदेश को साल भर कर अग्रिम आबंटन कर देती है तो और गेहूं के समर्थन मूल्य 11 रू की दर भी तय की जाए तो राज्य सरकार प्रति किलो 8 रू की सब्सिडी देगी। 8 रू प्रति किलो के हिसाव से राज्य सरकार पर केवल गेहूं की सब्सिडी का लगभग 14500 करोड़ का अतिरिक्त भार पड़ेगा। जिसे सरकार को अपनी ही वार्षिक योजना से लेना होगा। यह भार गैर योजना मद में होगा। ऐसे में सवाल उठता है कि राज्य सरकार अपनी 2011-12 की कुल वार्षिक योजना जो 23000 करोड़ रूपए की है, उसमें गैर योजना गत राशि के तौर पर 14500 करोड़ रूपए लेकर खर्च कर पाना कितना सम्भव हो पाएगा। और अगर राज्य सरकार ऐसा कर भी पाती है तो तो क्या अन्य कल्याणकारी क्षेत्रों जैसे शिक्षा , स्वास्थ्य, ऊर्जा, कृषि, उद्य़ोग आदि पर उलटा असर नही पड़ेगा। अव्वल तो ऐसा करना प्रदेश के वित्तीय प्रबंधन के लिहाज से ठीक नहीं होगा और व्यवहारिक रूप से भी यह सम्मभव नहीं है। तो क्या मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान गेहूं के मुददे पर राजनीति कर रहे हैं और केन्द्र सरकार से ऐसी मांग कर रहे है। जिसे अगर केन्द्र सरकार नहीं मानती तो गेहूं का सड़ना और गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों को पर्याप्त मात्रा में गेहूं सस्ते दामों में न उपलबध कराने का ठीकरा भी केन्द्र सरकार पर मढ़ दिया जाएगा। अगर केन्द्र सरकार खुदा न खास्ता खुले में पड़े गेहूं को राज्य सरकार को एक साल का अग्रिम आवंटन करने को राजी हो जाती है तो मुख्यमंत्री को गेहूं को समर्थन मूल्य पर लेकर गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों में 3 रूपये प्रति किलो के हिसाब से बांटना राज्य सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है। विकास के मूलमंत्र पर दोबारा सत्ता पर आसीन शिवराज अब तीसरी पारी के लिए अभी से राजनीतिक बिसात बिछा रहे हैं पर उनको शायद यह नहीं पता कि कभी-कभी ऐसे कदम उल्टे भी हो जाते हैं।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने दक्षिणी राज्यों और छत्तीसगढ़ की तर्ज पर 2013 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए चुनावी बिसात बिछाना शुरू कर दिया है और लोक लुभावने निर्णय लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। जिससे की उनकी सरकार पार्टी के जनाधार को व्यापक तरिके से भी बढ़ा सके। इसी क्रम में प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अभी पिछले ही सप्ताह प्रधानमंत्री से मुलाकात कर प्रदेश में रिकार्ड गेहूं की पैदावार से उत्पन्न भण्डारण की समस्या से अवगत कराया और साथ ही पर्याप्त गोदाम न होने के कारण ज्यादातर गेहूं खुले में पड़ा है, जिससे उसके खराब होने की सम्भावना को देखते हुये आग्रह किया कि केन्द्र सरकार गेहूं का प्रदेश को एक साल का अग्रिम आवंटन कर दे जिससे कि भण्डारण की समस्या हल भी हो जाएगी और राज्य सरकार गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों को तीन रूपये किलो की दर से अनाज बांटेगी। इससे अनाज का भी सही उपयोग हो जायेगा और साथ ही जरूरतमंदों को भी सस्ते दाम पर अनाज मिल जाएगा। इस समय लगभग 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं खुले में रखा है जिससे सुरक्षित भण्डारण की आवश्यकता है।
अव्वल तो यह सम्भव नहीं है कि केन्द्र सरकार एक साल का अग्रिम आवंटन राज्य सरकार को कर दे और अगर कर भी देती है तो शिवराज सिंह चौहान 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं को गरीबों में 3 रूपये किलो की दर से बांट देते हैं तो जाहिर है कि उसका राजनीतिक फायदा उन्हें जरूर मिलेगा। क्योंकि कमर तोड़ महंगाई से जूझ रहे लोग राज्य सरकार के इस कदम से जरूर कृतार्थ होंगे। जो बाद में वोटो में भी तब्दील हो सकते है। कुछ इसी तरह का फायदा छत्तीसगढ़ और दक्षिणी राज्यों ने गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को एक रू किलो की दर से चावल बांटकर उठा चुके हैं।
उपर से देखने पर 3 रू प्रति किलो का गेहूं गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों को बांटने से राजनैतिक लाभ तो दिख रहा है। लेकिन इसके आर्थिक पक्ष को बारीकी से अध्ययन करे तो पायेंगे कि पूरा का पूरा मुददा हवा-हवाई है। क्योंकि इस योजना को हकीकत में लाते ही राज्य सरकार की अर्थव्यवस्था ढगमगाना तय है और मध्यप्रदेश सरकार की आज की आर्थिक स्थिति को देखते हुए ऐसा हो पाना असंभव है।
वैसे मुख्यमंत्री के अनुसार लगभग 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं खुले में पड़ा है। जिससे सुरक्षित भण्डारण की आवश्यकता है। अगर हम मान लें कि केन्द्र सरकार 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं को प्रदेश को साल भर कर अग्रिम आबंटन कर देती है तो और गेहूं के समर्थन मूल्य 11 रू की दर भी तय की जाए तो राज्य सरकार प्रति किलो 8 रू की सब्सिडी देगी। 8 रू प्रति किलो के हिसाव से राज्य सरकार पर केवल गेहूं की सब्सिडी का लगभग 14500 करोड़ का अतिरिक्त भार पड़ेगा। जिसे सरकार को अपनी ही वार्षिक योजना से लेना होगा। यह भार गैर योजना मद में होगा। ऐसे में सवाल उठता है कि राज्य सरकार अपनी 2011-12 की कुल वार्षिक योजना जो 23000 करोड़ रूपए की है, उसमें गैर योजना गत राशि के तौर पर 14500 करोड़ रूपए लेकर खर्च कर पाना कितना सम्भव हो पाएगा। और अगर राज्य सरकार ऐसा कर भी पाती है तो तो क्या अन्य कल्याणकारी क्षेत्रों जैसे शिक्षा , स्वास्थ्य, ऊर्जा, कृषि, उद्य़ोग आदि पर उलटा असर नही पड़ेगा। अव्वल तो ऐसा करना प्रदेश के वित्तीय प्रबंधन के लिहाज से ठीक नहीं होगा और व्यवहारिक रूप से भी यह सम्मभव नहीं है। तो क्या मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान गेहूं के मुददे पर राजनीति कर रहे हैं और केन्द्र सरकार से ऐसी मांग कर रहे है। जिसे अगर केन्द्र सरकार नहीं मानती तो गेहूं का सड़ना और गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों को पर्याप्त मात्रा में गेहूं सस्ते दामों में न उपलबध कराने का ठीकरा भी केन्द्र सरकार पर मढ़ दिया जाएगा। अगर केन्द्र सरकार खुदा न खास्ता खुले में पड़े गेहूं को राज्य सरकार को एक साल का अग्रिम आवंटन करने को राजी हो जाती है तो मुख्यमंत्री को गेहूं को समर्थन मूल्य पर लेकर गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों में 3 रूपये प्रति किलो के हिसाब से बांटना राज्य सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है। विकास के मूलमंत्र पर दोबारा सत्ता पर आसीन शिवराज अब तीसरी पारी के लिए अभी से राजनीतिक बिसात बिछा रहे हैं पर उनको शायद यह नहीं पता कि कभी-कभी ऐसे कदम उल्टे भी हो जाते हैं।
Wednesday, June 15, 2011
नया नहीं है राजनीति से संन्यासियों का रिश्ता
उमेश चतुर्वेदी
हिंदी साहित्य के मध्यकाल में कृष्णभक्त कवियों की एक धारा रही, जिन्हें
अष्टछाप के नाम से जाना जाता है। इसी अष्टछाप के आठ कवियों में एक कवि
कुंभनदास भी थे। एक बार बादशाह अकबर के बुलावे पर उन्हें मुगल सल्तनत की
तब की राजधानी फतेहपुर सीकरी जाना पड़ा था। मजबूरी में राजधानी की यात्रा
के बाद उनकी व्यथा कुछ यूं फूटी थी –
संतन को कहा सीकरी सों काम ?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम ।।
संभवत: तभी से हिंदीभाषी इलाकों में एक मुहावरा ही चल पड़ा – संतन को कहा
सीकरी सों काम। जब भी संत-सन्यासी और साधु राजनीति और देशनीति के सवालों
से जूझने की कोशिश करने लगते हैं, कुंभनदास की ये पंक्तियां प्रबुद्ध
हिंदी समाज के साथ ही भारतीय राजनीति के पुरोधा उछालने लगते हैं। काले धन
की देशवापसी और उसके लिए योगगुरू रामदेव के अनशन को लेकर एक बार फिर यही
सवाल उछाला जा रहा है। बिहार की राजनीति से अप्रासंगिकता की हद तक किनारे
हो चुके लालू यादव हों या कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी और दिग्विजय
सिंह या फिर कपिल सिब्बल, योगगुरू रामदेव पर हमला करते वक्त सबका यही
कहना है कि उनका काम योग सिखाना है, राजनीति करना नहीं। भारतीय जनता
पार्टी की राजनीति में जब साधु-संतों का प्रवेश बढ़ा था, तब भी यही सवाल
उठाया गया था। एक वामपंथी सांस्कृतिक संगठन की कर्ता-धर्ता को बाबाओं में
सिर्फ गुंडे और मवाली ही नजर आ रहे हैं।
लेकिन यह हकीकत नहीं है। कुंभनदास को सीकरी जाना भले ही पसंद नहीं था।
लेकिन यह भी सच है कि अंग्रेजी शासन के खिलाफ पहला विद्रोह संन्यासियों
ने ही किया था। 1773 से तीस बरसों तक यह संघर्ष इतना तेज बढ़ा कि उसकी
अनुगूंज आज भी बंगाल के समाज में देखी-समझी जा सकती है। दरअसल 1757 में
प्लासी युद्ध में सिराजुद्दौला को हराने के बाद बंगाल के शासन पर काबिज
हुए अंग्रेजों के जुल्मों ने किसानों और कारीगरों की कमर तोड़ दी।
रही-सही कसर 1769 के अकाल ने पूरी कर दी। कहा जाता है कि उस अकाल में
करीब तीन करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हुए। अकाल की विभीषिका इतनी त्रासद
थी कि उसका जिक्र और अंग्रेजी दमन और शोषण की कहानी बताते हुए एडमंड बर्क
हाउस ऑफ लॉर्ड्स में बेहोश हो गए। उस वक्त भी लोगों में इस शोषण के खिलाफ
गुस्सा तो था, लेकिन हथियार उठाने से लोग हिचक रहे थे। ऐसे में दशनामी
संप्रदाय के साधुओं ने अंग्रेजों और उनके पिट्ठू जमींदारों के खिलाफ
हथियार उठा लिया। तकरीबन तीन दशकों तक चले इस युद्ध में साधनहीन
सन्यासियों की ही पराजय हुई। लेकिन उत्तरी बंगाल से लेकर बिहार तक में इन
देशभक्त संन्यासियों की दिलेरी और देशभक्ति ने लोगों का दिल जीत लिया। आज
जिस वंदेमातरम को हम गाते हैं, वह इसी सन्यासी विद्रोह पर आधारित
बंकिमचंद्र चटर्जी की अमरकृति आनंदमठ का एक अंश है। दिलचस्प बात यह है कि
सन्यासी विद्रोह की ज्यादा जानकारी इतिहास में नहीं मिलती है। लेकिन
बंगाल के लोकजीवन में यह विद्रोह किंवदंतियों के तौर पर आज भी जिंदा है।
यह सच है कि इतिहास की पुस्तकों में इस विद्रोह की ज्यादा जानकारी नहीं
मिलती। प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत की पुस्तक 1857 - बिहार-झारखंड
में महायुद्ध में इस विद्रोह का जिक्र है। चौधरी के मुताबिक इन
विद्रोहियों की संख्या एक दौर में 50 हजार तक जा पहुंची थी।
आजादी के आंदोलन में स्वामी श्रद्धानंद और राहुल सांकृत्यायन की भूमिका
को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है। आजादी के आंदोलन में किसानों को
संगठित करने और अंग्रेजी शासन के खिलाफ उनके विद्रोह की अगुआई करने वाले
स्वामी श्रद्धानंद भी संन्यासी ही थे। आजमगढ़ के केदार पांडे संन्यासी
होकर बिहार के सीवान जिले के मैरवा मठ पर राहुल सांकृत्यायन के नाम से
बतौर संन्यासी विराजमान थे। अगर वे चाहते तो संन्यासी के तौर पर मलाई
खाते हुए वहां जिंदगी गुजार देते, लेकिन छपरा में जमींदारों और अंग्रेज
हुकूमत का किसानों के खिलाफ जोर-जुल्म उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ और किसानों
के आंदोलन की अगुआई करने की उन्होंने ठान ली। इस आंदोलन में जमींदारों के
गुर्गों ने उनकी जमकर पिटाई की। इस दौरान उनका सिर तक फट गया। भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन के इस हालिया इतिहास में संन्यासियों के इस आंदोलन को
नकार पाना मुश्किल है।
भारत में राजनीति में संन्यासियों की सक्रियता नई बात नहीं है।
पाटलिपुत्र के महान मौर्यवंश की स्थापना भी चाणक्य ने की थी और वे भी एक
तरह से सन्यासी ही थे। यह सच है कि मौर्य वंश के शासक चंद्रगुप्त मौर्य
थे। लेकिन इतिहास भी मानता है कि चाणक्य का बौद्धिक कौशल नहीं होता तो
चंद्रगुप्त मौर्य न तो नंद वंश का नाश कर पाते और न ही पाटलिपुत्र में
मौर्यवंश की स्थापना कर पाते। अर्थनीति और राजनीति के धुरंधर विद्वान के
तौर पर स्थापित चाणक्य को भारतीय इतिहास का चमकता सितारा मानने से उन
लोगों को भी शायद ही एतराज होगा, जिन्हें संन्यासी होते हुए रामदेव के
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से परेशानी हो रही है। मुगलों से विद्रोह करके
शिवाजी महाराज ने जिस मराठा साम्राज्य की नींव डाली थी, उसकी कल्पना
समर्थ गुरू रामदास के बिना की ही नहीं जा सकती। समर्थ गुरू रामदास ही वह
शख्सियत थे, जिनसे प्रेरणा लेकर शिवाजी ने औरंगजेब की सेनाओं के खिलाफ
गोलकुंडा की पहाड़ियों से छापामार युद्ध जारी रखा और मराठा राज्य की
मजबूत नींव रखने में सफल हुए। ये तो चंद बानगी है। भारतीय इतिहास में ऐसे
ढेरों पन्ने मिल जाएंगे, जिनमें संन्यासियों ने सामाजिक हित के लिए खुद
को कुर्बान कर दिया।
सच तो यह है कि राजनीति की दुनिया सदा से कालिख से भरी रही है। डॉक्टर
राममनोहर लोहिया राजनीति की इस कालिख को माला पहनाने वाली कौम के तौर पर
देखते थे। शायद यही वजह है कि कुंभनदास जैसे कवि राजधानी आने से बचना
चाहते थे। कुंभन की पीड़ा ही है कि अपनी कविता में वे कहते हैं - जिनको
मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम। कुंभनदास तो जिनका मुंह नहीं
देखना चाहिए, उन्हें सलाम करने को बाध्य हुए। लेकिन क्रांतिकारी संन्यासी
उन लोगों को सलाम नहीं करना चाहता। शायद यही प्रवृत्ति आज के राजनेताओं
को खलती है। शायद यही वजह है कि राजनीति में संन्यासियों का कूदना उन्हें
पसंद नहीं आता।
हिंदी साहित्य के मध्यकाल में कृष्णभक्त कवियों की एक धारा रही, जिन्हें
अष्टछाप के नाम से जाना जाता है। इसी अष्टछाप के आठ कवियों में एक कवि
कुंभनदास भी थे। एक बार बादशाह अकबर के बुलावे पर उन्हें मुगल सल्तनत की
तब की राजधानी फतेहपुर सीकरी जाना पड़ा था। मजबूरी में राजधानी की यात्रा
के बाद उनकी व्यथा कुछ यूं फूटी थी –
संतन को कहा सीकरी सों काम ?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम ।।
संभवत: तभी से हिंदीभाषी इलाकों में एक मुहावरा ही चल पड़ा – संतन को कहा
सीकरी सों काम। जब भी संत-सन्यासी और साधु राजनीति और देशनीति के सवालों
से जूझने की कोशिश करने लगते हैं, कुंभनदास की ये पंक्तियां प्रबुद्ध
हिंदी समाज के साथ ही भारतीय राजनीति के पुरोधा उछालने लगते हैं। काले धन
की देशवापसी और उसके लिए योगगुरू रामदेव के अनशन को लेकर एक बार फिर यही
सवाल उछाला जा रहा है। बिहार की राजनीति से अप्रासंगिकता की हद तक किनारे
हो चुके लालू यादव हों या कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी और दिग्विजय
सिंह या फिर कपिल सिब्बल, योगगुरू रामदेव पर हमला करते वक्त सबका यही
कहना है कि उनका काम योग सिखाना है, राजनीति करना नहीं। भारतीय जनता
पार्टी की राजनीति में जब साधु-संतों का प्रवेश बढ़ा था, तब भी यही सवाल
उठाया गया था। एक वामपंथी सांस्कृतिक संगठन की कर्ता-धर्ता को बाबाओं में
सिर्फ गुंडे और मवाली ही नजर आ रहे हैं।
लेकिन यह हकीकत नहीं है। कुंभनदास को सीकरी जाना भले ही पसंद नहीं था।
लेकिन यह भी सच है कि अंग्रेजी शासन के खिलाफ पहला विद्रोह संन्यासियों
ने ही किया था। 1773 से तीस बरसों तक यह संघर्ष इतना तेज बढ़ा कि उसकी
अनुगूंज आज भी बंगाल के समाज में देखी-समझी जा सकती है। दरअसल 1757 में
प्लासी युद्ध में सिराजुद्दौला को हराने के बाद बंगाल के शासन पर काबिज
हुए अंग्रेजों के जुल्मों ने किसानों और कारीगरों की कमर तोड़ दी।
रही-सही कसर 1769 के अकाल ने पूरी कर दी। कहा जाता है कि उस अकाल में
करीब तीन करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हुए। अकाल की विभीषिका इतनी त्रासद
थी कि उसका जिक्र और अंग्रेजी दमन और शोषण की कहानी बताते हुए एडमंड बर्क
हाउस ऑफ लॉर्ड्स में बेहोश हो गए। उस वक्त भी लोगों में इस शोषण के खिलाफ
गुस्सा तो था, लेकिन हथियार उठाने से लोग हिचक रहे थे। ऐसे में दशनामी
संप्रदाय के साधुओं ने अंग्रेजों और उनके पिट्ठू जमींदारों के खिलाफ
हथियार उठा लिया। तकरीबन तीन दशकों तक चले इस युद्ध में साधनहीन
सन्यासियों की ही पराजय हुई। लेकिन उत्तरी बंगाल से लेकर बिहार तक में इन
देशभक्त संन्यासियों की दिलेरी और देशभक्ति ने लोगों का दिल जीत लिया। आज
जिस वंदेमातरम को हम गाते हैं, वह इसी सन्यासी विद्रोह पर आधारित
बंकिमचंद्र चटर्जी की अमरकृति आनंदमठ का एक अंश है। दिलचस्प बात यह है कि
सन्यासी विद्रोह की ज्यादा जानकारी इतिहास में नहीं मिलती है। लेकिन
बंगाल के लोकजीवन में यह विद्रोह किंवदंतियों के तौर पर आज भी जिंदा है।
यह सच है कि इतिहास की पुस्तकों में इस विद्रोह की ज्यादा जानकारी नहीं
मिलती। प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत की पुस्तक 1857 - बिहार-झारखंड
में महायुद्ध में इस विद्रोह का जिक्र है। चौधरी के मुताबिक इन
विद्रोहियों की संख्या एक दौर में 50 हजार तक जा पहुंची थी।
आजादी के आंदोलन में स्वामी श्रद्धानंद और राहुल सांकृत्यायन की भूमिका
को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है। आजादी के आंदोलन में किसानों को
संगठित करने और अंग्रेजी शासन के खिलाफ उनके विद्रोह की अगुआई करने वाले
स्वामी श्रद्धानंद भी संन्यासी ही थे। आजमगढ़ के केदार पांडे संन्यासी
होकर बिहार के सीवान जिले के मैरवा मठ पर राहुल सांकृत्यायन के नाम से
बतौर संन्यासी विराजमान थे। अगर वे चाहते तो संन्यासी के तौर पर मलाई
खाते हुए वहां जिंदगी गुजार देते, लेकिन छपरा में जमींदारों और अंग्रेज
हुकूमत का किसानों के खिलाफ जोर-जुल्म उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ और किसानों
के आंदोलन की अगुआई करने की उन्होंने ठान ली। इस आंदोलन में जमींदारों के
गुर्गों ने उनकी जमकर पिटाई की। इस दौरान उनका सिर तक फट गया। भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन के इस हालिया इतिहास में संन्यासियों के इस आंदोलन को
नकार पाना मुश्किल है।
भारत में राजनीति में संन्यासियों की सक्रियता नई बात नहीं है।
पाटलिपुत्र के महान मौर्यवंश की स्थापना भी चाणक्य ने की थी और वे भी एक
तरह से सन्यासी ही थे। यह सच है कि मौर्य वंश के शासक चंद्रगुप्त मौर्य
थे। लेकिन इतिहास भी मानता है कि चाणक्य का बौद्धिक कौशल नहीं होता तो
चंद्रगुप्त मौर्य न तो नंद वंश का नाश कर पाते और न ही पाटलिपुत्र में
मौर्यवंश की स्थापना कर पाते। अर्थनीति और राजनीति के धुरंधर विद्वान के
तौर पर स्थापित चाणक्य को भारतीय इतिहास का चमकता सितारा मानने से उन
लोगों को भी शायद ही एतराज होगा, जिन्हें संन्यासी होते हुए रामदेव के
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से परेशानी हो रही है। मुगलों से विद्रोह करके
शिवाजी महाराज ने जिस मराठा साम्राज्य की नींव डाली थी, उसकी कल्पना
समर्थ गुरू रामदास के बिना की ही नहीं जा सकती। समर्थ गुरू रामदास ही वह
शख्सियत थे, जिनसे प्रेरणा लेकर शिवाजी ने औरंगजेब की सेनाओं के खिलाफ
गोलकुंडा की पहाड़ियों से छापामार युद्ध जारी रखा और मराठा राज्य की
मजबूत नींव रखने में सफल हुए। ये तो चंद बानगी है। भारतीय इतिहास में ऐसे
ढेरों पन्ने मिल जाएंगे, जिनमें संन्यासियों ने सामाजिक हित के लिए खुद
को कुर्बान कर दिया।
सच तो यह है कि राजनीति की दुनिया सदा से कालिख से भरी रही है। डॉक्टर
राममनोहर लोहिया राजनीति की इस कालिख को माला पहनाने वाली कौम के तौर पर
देखते थे। शायद यही वजह है कि कुंभनदास जैसे कवि राजधानी आने से बचना
चाहते थे। कुंभन की पीड़ा ही है कि अपनी कविता में वे कहते हैं - जिनको
मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम। कुंभनदास तो जिनका मुंह नहीं
देखना चाहिए, उन्हें सलाम करने को बाध्य हुए। लेकिन क्रांतिकारी संन्यासी
उन लोगों को सलाम नहीं करना चाहता। शायद यही प्रवृत्ति आज के राजनेताओं
को खलती है। शायद यही वजह है कि राजनीति में संन्यासियों का कूदना उन्हें
पसंद नहीं आता।
Saturday, June 11, 2011
उमा की वापसी के मायने
उमेश चतुर्वेदी
उमा भारती की भारतीय जनता पार्टी में वापसी के वक्त जिस उत्साह की उम्मीद की जा रही थी, दिल्ली के पार्टी मुख्यालय में वैसा तो कुछ नजर नहीं आया। लेकिन जिस उत्तर प्रदेश की कमान उन्हें सौंपी गई है, वहां से उनके खिलाफ पहला बयान जरूर आ गया। पार्टी उपाध्यक्ष और कभी भारतीय जनता पार्टी के बजरंगी चेहरा रहे विनय कटियार ने उनका वैसा स्वागत नहीं किया, जैसी सदाशयता और उत्साही प्रतिक्रिया शिवराज सिंह चौहान ने दी। बारहवीं और तेरहवीं लोकसभा के सदस्य रहे विनय कटियार की तरफ से ठंडी प्रतिक्रिया के अपने खास अर्थ हैं। जिन्होंने तेरहवीं और बारहवीं लोकसभा का नजारा देखा है, उन्हें पता है कि भारतीय जनता पार्टी की तब की हल्ला ब्रिगेड को संसदीय कार्य मंत्री मदन लाल खुराना या बाद में प्रमोद महाजन तक चुप कराने का अपना संवैधानिक और पार्टीगत दायित्व नहीं निभा पाते थे, उस हल्ला ब्रिगेड को उमा भारती अपने एक इशारे से चुप करा देती थीं। मध्य प्रदेश से सांसद प्रह्लाद पटेल, राजस्थान से सांसद श्रीचंद कृपलानी और उत्तर प्रदेश से विनय कटियार भारतीय जनता पार्टी की हल्ला ब्रिगेड के प्रमुख सदस्य थे और कांग्रेसी आरोपों का तुर्शी-बतुर्शी जवाब देने में माहिर थे। उसी ब्रिगेड के सदस्य विनय कटियार को अगर उमा भारती की पार्टी में वापसी सहजता से स्वीकार्य नहीं है तो सवाल उठेंगे ही। हालांकि विनय कटियार ने अगले ही दिन अपना बयान बदलने में देर नहीं लगाई। उत्तर प्रदेश की राजनीति में तीसरे स्थान पर खिसक चुकी भारतीय जनता पार्टी को पहले स्थान पर लाने की नितिन गडकरी की कोशिशों के बीच विनय कटियार की ठंडी और व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया से साफ है उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की राह आसान नहीं है।
उमा भारती की वापसी के दौरान यूं तो गडकरी के अलावा दूसरे कोई बड़े नेता मौजूद नहीं थे, सिवा शाहनवाज हुसैन के। 10 नवंबर 2004 को भारतीय जनता पार्टी की उच्चाधिकार प्राप्त समिति की बैठक में आडवाणी को खरीखोटी सुनाने के बाद जब उमा भारती बाहर निकलीं थीं तो उस वक्त मौजूद भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता हक्के-बक्के रह गए थे। लेकिन किसी ने उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं दिखाई थी। उस वक्त उन्हें शांत करते हुए उन्हें रोकने की कोशिश सिर्फ और सिर्फ राजनाथ सिंह ने की थी। उमा की वापसी के दौरान पार्टी मुख्यालय में राजनाथ सिंह की गैरमौजूदगी इसीलिए खलती रही। शाहनवाज हुसैन की मौजूदगी की वजह यह है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते उमा भारती ने शाहनवाज को अपनी कार्यसमिति में शामिल किया था। हालांकि शाहनवाज इससे बहुत आगे निकल चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी में उनकी हैसियत बदल चुकी है। लेकिन उमा की वापसी के वक्त पार्टी मुख्यालय में मौजूद रहकर उन्होंने सदाशयता का ही परिचय दिया है।
2008 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के पहले भारतीय जनता पार्टी और उमा भारती के कुछ शुभचिंतकों ने उमा भारती को पार्टी में लौट जाने का सुझाव दिया था। उन शुभचिंतकों की सलाह थी कि उमा जैसी नेता भारतीय जनता पार्टी के पास नहीं है और उमा के पास भारतीय जनता पार्टी जैसा संगठन नहीं है। उमा के लिए मजबूत संगठन बनाना आसान नहीं था तो पार्टी के लिए उमा जैसा नेता मिलना कठिन था। ऐसे में दोनों एक-दूसरे के पूरक बन सकते थे। लेकिन उमा को लगता था कि 2003 के जिस प्रचंड जनादेश के सहारे उन्होंने मध्यप्रदेश में दस साल के दिग्विजयी शासन को उखाड़ फेंका था, उसमें सिर्फ और सिर्फ उनका ही योगदान था। उमा जैसी नेता यह भूल गईं कि कैडर आधारित पार्टियों में कार्यकर्ता अपने नेता के साथ सहानुभूति तो रख सकते हैं, उसका आदर भी कर सकते हैं। लेकिन वोट डालने का मौका आते ही वे पार्टी की डोर छोड़ने में हिचकते हैं। जाहिर है कि उमा का अपने संगठन और अपनी जनप्रियता से मोहभंग हुआ। कैडर आधारित पार्टियों के साथ एक और मजबूरी होती है कि वहां के नेता के लिए अपनी पार्टी से अलग ताकत हासिल कर पाना आसान नहीं होता। यह सिद्धांत सिर्फ भारतीय जनता पार्टी पर ही लागू नहीं होता, उसकी धुर विरोधी वामपंथी पार्टियों के लिए भी यही सच है। एक दौर में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में सैफुद्दीन चौधरी की तूती बोलती थी, लेकिन सीपीएम से अलग होने के बाद उनकी कोई पहचान नहीं है। जबकि उन्होंने भी अपनी अलग पार्टी बनाई और पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों का विकल्प बनने की कोशिश भी की। और तो और उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सियासत भी इसका उदाहरण है। अगर इस सियासत का थोड़ा-बहुत कोई अपवाद है तो वे हैं झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी। भारतीय जनता पार्टी से अलग होने के बाद भी वे कम से कम अपना राजनीतिक वजूद बचाए रखने में कामयाब हैं।
रही बात उत्तर प्रदेश में उमा भारती के आने के बाद बदलते चुनावी समीकरणों की तो उसे लेकर अंकगणितीय फार्मूला देना आसान नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में सरकार चला चुकी भारतीय जनता पार्टी की हालत यह है कि वह तीसरे नंबर पर खिसक गई है। पिछले दो-तीन चुनावों से माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के मतदाता मजबूत नेतृत्व के अभाव में उससे दूर भागते जा रहे हैं। 1991 में जब पहली बार कल्याण सिंह की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत मिला था तो उसमें पिछड़े वर्ग के वोटरों का बड़ा योगदान था। ब्राह्मण और बनिया की पार्टी मानी जाती रही भारतीय जनता पार्टी को पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहां चौहान यानी नोनिया, कोइरी, कुर्मी और राजभर जातियों का भरपूर सहयोग मिला था। वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसे लोध राजपूतों का एकमुश्त समर्थन मिला था। पूर्वी उत्तर प्रदेश से पार्टी के पास ओमप्रकाश सिंह जैसा पिछड़ा नेतृत्व था। लेकिन पार्टी की गुटबाजी में ओमप्रकाश सिंह किनारे लगा दिए गए। 1999 के लोकसभा चुनावों में कल्याण सिंह की बेरूखी ने लोध राजपूतों को भारतीय जनता पार्टी से अलग कर दिया, जिसकी वजह से पार्टी 23 लोकसभा सीटें हार गईं। उमा भारती भी उसी लोध राजपूत समुदाय से आती हैं और माना जा रहा है कि कल्याण सिंह की नाराजगी की वजह से जो लोध वोट बैंक भारतीय जनता पार्टी से दूर चला गया था, उसे वापस खींचने में मदद मिलेगी। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में जिस तरह भारतीय समाज पार्टी ने अपना दबदबा बनाया है, उसमें नोनिया और राजभर जातियों के वोट वापस भारतीय जनता पार्टी की तरफ मोड़ना आसान नहीं होगा। इसके लिए उमा भारती को कोशिश करनी होगी। हालांकि उनकी कोशिशों का तब तक कोई मतलब नहीं है, जब तक उत्साही और मजबूत की नेतृत्व की कमी से जूझ रही उत्तर प्रदेश इकाई के भारतीय जनता पार्टी के सभी प्रमुख नेता उमा भारती का सहयोग करें। वैसे दो-तीन चुनावों से उत्तर प्रदेश से भारतीय जनता पार्टी के मतदाताओं के मोहभंग की वजह राज्य में दमदार नेतृत्व की कमी भी रही। भारतीय जनता पार्टी का आलाकमान कलराज मिश्र और लालजी टंडन पर चाहे जितना भरोसा करे, लेकिन उनकी राजनीतिक हनक वैसी नहीं है, जैसी जनता नेतृत्व से उम्मीद करती है। चूंकि उमा राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र और लालजी टंडन की तुलना में जवान हैं, घोटाले और भ्रष्टाचार के खुलासों के दौर में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप नहीं हैं, फिर उनका अतीत फायर ब्रांड नेता का रहा है। ऐसे में पार्टी के लिए उनसे उम्मीदें बांधना गैरमौजूं भी नहीं है।
उमा के उत्तर प्रदेश की चुनावी कमान संभालने के बाद अगर किसी पार्टी की परेशानी बढ़ सकती है तो वह कांग्रेस हो सकती है। क्योंकि ऐसा माना जा रहा था कि ब्राह्मण मतदाता कांग्रेस की तरफ झुक रहा है। लेकिन हकीकत तो यही है कि भ्रष्टाचार, महंगाई और बाबा रामदेव से निबटने के तरीकों को लेकर ब्राह्णण मतदाता कांग्रेस से नाराज नजर आ रहा है। पिछले दो चुनावों से अगर वह कभी कांग्रेस और कभी बहुजन समाज पार्टी की तरफ तैरता रहा है तो इसकी बड़ी वजह भारतीय जनता पार्टी के पास राज्य में मजबूत नेतृत्व का अभाव रहा है। चूंकि उमा दमदार रहीं हैं, लिहाजा भारतीय जनता पार्टी का पारंपरिक मतदाता उन पर भरोसा कर सकता है।
उमा भारती की भारतीय जनता पार्टी में वापसी के वक्त जिस उत्साह की उम्मीद की जा रही थी, दिल्ली के पार्टी मुख्यालय में वैसा तो कुछ नजर नहीं आया। लेकिन जिस उत्तर प्रदेश की कमान उन्हें सौंपी गई है, वहां से उनके खिलाफ पहला बयान जरूर आ गया। पार्टी उपाध्यक्ष और कभी भारतीय जनता पार्टी के बजरंगी चेहरा रहे विनय कटियार ने उनका वैसा स्वागत नहीं किया, जैसी सदाशयता और उत्साही प्रतिक्रिया शिवराज सिंह चौहान ने दी। बारहवीं और तेरहवीं लोकसभा के सदस्य रहे विनय कटियार की तरफ से ठंडी प्रतिक्रिया के अपने खास अर्थ हैं। जिन्होंने तेरहवीं और बारहवीं लोकसभा का नजारा देखा है, उन्हें पता है कि भारतीय जनता पार्टी की तब की हल्ला ब्रिगेड को संसदीय कार्य मंत्री मदन लाल खुराना या बाद में प्रमोद महाजन तक चुप कराने का अपना संवैधानिक और पार्टीगत दायित्व नहीं निभा पाते थे, उस हल्ला ब्रिगेड को उमा भारती अपने एक इशारे से चुप करा देती थीं। मध्य प्रदेश से सांसद प्रह्लाद पटेल, राजस्थान से सांसद श्रीचंद कृपलानी और उत्तर प्रदेश से विनय कटियार भारतीय जनता पार्टी की हल्ला ब्रिगेड के प्रमुख सदस्य थे और कांग्रेसी आरोपों का तुर्शी-बतुर्शी जवाब देने में माहिर थे। उसी ब्रिगेड के सदस्य विनय कटियार को अगर उमा भारती की पार्टी में वापसी सहजता से स्वीकार्य नहीं है तो सवाल उठेंगे ही। हालांकि विनय कटियार ने अगले ही दिन अपना बयान बदलने में देर नहीं लगाई। उत्तर प्रदेश की राजनीति में तीसरे स्थान पर खिसक चुकी भारतीय जनता पार्टी को पहले स्थान पर लाने की नितिन गडकरी की कोशिशों के बीच विनय कटियार की ठंडी और व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया से साफ है उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की राह आसान नहीं है।
उमा भारती की वापसी के दौरान यूं तो गडकरी के अलावा दूसरे कोई बड़े नेता मौजूद नहीं थे, सिवा शाहनवाज हुसैन के। 10 नवंबर 2004 को भारतीय जनता पार्टी की उच्चाधिकार प्राप्त समिति की बैठक में आडवाणी को खरीखोटी सुनाने के बाद जब उमा भारती बाहर निकलीं थीं तो उस वक्त मौजूद भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता हक्के-बक्के रह गए थे। लेकिन किसी ने उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं दिखाई थी। उस वक्त उन्हें शांत करते हुए उन्हें रोकने की कोशिश सिर्फ और सिर्फ राजनाथ सिंह ने की थी। उमा की वापसी के दौरान पार्टी मुख्यालय में राजनाथ सिंह की गैरमौजूदगी इसीलिए खलती रही। शाहनवाज हुसैन की मौजूदगी की वजह यह है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते उमा भारती ने शाहनवाज को अपनी कार्यसमिति में शामिल किया था। हालांकि शाहनवाज इससे बहुत आगे निकल चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी में उनकी हैसियत बदल चुकी है। लेकिन उमा की वापसी के वक्त पार्टी मुख्यालय में मौजूद रहकर उन्होंने सदाशयता का ही परिचय दिया है।
2008 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के पहले भारतीय जनता पार्टी और उमा भारती के कुछ शुभचिंतकों ने उमा भारती को पार्टी में लौट जाने का सुझाव दिया था। उन शुभचिंतकों की सलाह थी कि उमा जैसी नेता भारतीय जनता पार्टी के पास नहीं है और उमा के पास भारतीय जनता पार्टी जैसा संगठन नहीं है। उमा के लिए मजबूत संगठन बनाना आसान नहीं था तो पार्टी के लिए उमा जैसा नेता मिलना कठिन था। ऐसे में दोनों एक-दूसरे के पूरक बन सकते थे। लेकिन उमा को लगता था कि 2003 के जिस प्रचंड जनादेश के सहारे उन्होंने मध्यप्रदेश में दस साल के दिग्विजयी शासन को उखाड़ फेंका था, उसमें सिर्फ और सिर्फ उनका ही योगदान था। उमा जैसी नेता यह भूल गईं कि कैडर आधारित पार्टियों में कार्यकर्ता अपने नेता के साथ सहानुभूति तो रख सकते हैं, उसका आदर भी कर सकते हैं। लेकिन वोट डालने का मौका आते ही वे पार्टी की डोर छोड़ने में हिचकते हैं। जाहिर है कि उमा का अपने संगठन और अपनी जनप्रियता से मोहभंग हुआ। कैडर आधारित पार्टियों के साथ एक और मजबूरी होती है कि वहां के नेता के लिए अपनी पार्टी से अलग ताकत हासिल कर पाना आसान नहीं होता। यह सिद्धांत सिर्फ भारतीय जनता पार्टी पर ही लागू नहीं होता, उसकी धुर विरोधी वामपंथी पार्टियों के लिए भी यही सच है। एक दौर में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में सैफुद्दीन चौधरी की तूती बोलती थी, लेकिन सीपीएम से अलग होने के बाद उनकी कोई पहचान नहीं है। जबकि उन्होंने भी अपनी अलग पार्टी बनाई और पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों का विकल्प बनने की कोशिश भी की। और तो और उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सियासत भी इसका उदाहरण है। अगर इस सियासत का थोड़ा-बहुत कोई अपवाद है तो वे हैं झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी। भारतीय जनता पार्टी से अलग होने के बाद भी वे कम से कम अपना राजनीतिक वजूद बचाए रखने में कामयाब हैं।
रही बात उत्तर प्रदेश में उमा भारती के आने के बाद बदलते चुनावी समीकरणों की तो उसे लेकर अंकगणितीय फार्मूला देना आसान नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में सरकार चला चुकी भारतीय जनता पार्टी की हालत यह है कि वह तीसरे नंबर पर खिसक गई है। पिछले दो-तीन चुनावों से माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के मतदाता मजबूत नेतृत्व के अभाव में उससे दूर भागते जा रहे हैं। 1991 में जब पहली बार कल्याण सिंह की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत मिला था तो उसमें पिछड़े वर्ग के वोटरों का बड़ा योगदान था। ब्राह्मण और बनिया की पार्टी मानी जाती रही भारतीय जनता पार्टी को पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहां चौहान यानी नोनिया, कोइरी, कुर्मी और राजभर जातियों का भरपूर सहयोग मिला था। वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसे लोध राजपूतों का एकमुश्त समर्थन मिला था। पूर्वी उत्तर प्रदेश से पार्टी के पास ओमप्रकाश सिंह जैसा पिछड़ा नेतृत्व था। लेकिन पार्टी की गुटबाजी में ओमप्रकाश सिंह किनारे लगा दिए गए। 1999 के लोकसभा चुनावों में कल्याण सिंह की बेरूखी ने लोध राजपूतों को भारतीय जनता पार्टी से अलग कर दिया, जिसकी वजह से पार्टी 23 लोकसभा सीटें हार गईं। उमा भारती भी उसी लोध राजपूत समुदाय से आती हैं और माना जा रहा है कि कल्याण सिंह की नाराजगी की वजह से जो लोध वोट बैंक भारतीय जनता पार्टी से दूर चला गया था, उसे वापस खींचने में मदद मिलेगी। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में जिस तरह भारतीय समाज पार्टी ने अपना दबदबा बनाया है, उसमें नोनिया और राजभर जातियों के वोट वापस भारतीय जनता पार्टी की तरफ मोड़ना आसान नहीं होगा। इसके लिए उमा भारती को कोशिश करनी होगी। हालांकि उनकी कोशिशों का तब तक कोई मतलब नहीं है, जब तक उत्साही और मजबूत की नेतृत्व की कमी से जूझ रही उत्तर प्रदेश इकाई के भारतीय जनता पार्टी के सभी प्रमुख नेता उमा भारती का सहयोग करें। वैसे दो-तीन चुनावों से उत्तर प्रदेश से भारतीय जनता पार्टी के मतदाताओं के मोहभंग की वजह राज्य में दमदार नेतृत्व की कमी भी रही। भारतीय जनता पार्टी का आलाकमान कलराज मिश्र और लालजी टंडन पर चाहे जितना भरोसा करे, लेकिन उनकी राजनीतिक हनक वैसी नहीं है, जैसी जनता नेतृत्व से उम्मीद करती है। चूंकि उमा राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र और लालजी टंडन की तुलना में जवान हैं, घोटाले और भ्रष्टाचार के खुलासों के दौर में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप नहीं हैं, फिर उनका अतीत फायर ब्रांड नेता का रहा है। ऐसे में पार्टी के लिए उनसे उम्मीदें बांधना गैरमौजूं भी नहीं है।
उमा के उत्तर प्रदेश की चुनावी कमान संभालने के बाद अगर किसी पार्टी की परेशानी बढ़ सकती है तो वह कांग्रेस हो सकती है। क्योंकि ऐसा माना जा रहा था कि ब्राह्मण मतदाता कांग्रेस की तरफ झुक रहा है। लेकिन हकीकत तो यही है कि भ्रष्टाचार, महंगाई और बाबा रामदेव से निबटने के तरीकों को लेकर ब्राह्णण मतदाता कांग्रेस से नाराज नजर आ रहा है। पिछले दो चुनावों से अगर वह कभी कांग्रेस और कभी बहुजन समाज पार्टी की तरफ तैरता रहा है तो इसकी बड़ी वजह भारतीय जनता पार्टी के पास राज्य में मजबूत नेतृत्व का अभाव रहा है। चूंकि उमा दमदार रहीं हैं, लिहाजा भारतीय जनता पार्टी का पारंपरिक मतदाता उन पर भरोसा कर सकता है।
Wednesday, June 1, 2011
कैसे विश्वस्तरीय बनें देसी विश्वविश्वविद्यालय
उमेश चतुर्वेदी
कांग्रेसी हलके में जयराम रमेश की ख्याति एक ऐसे राजनता के तौर पर है, जो अपनी बात खुलकर रखता है। जैतापुर में परमाणु परियोजना लगाए जाने को लेकर लोगों के विरोध का समर्थन हो या फिर मुंबई की आदर्श सोसायटी को गिराने की मंशा जाहिर करना हो या फिर लवासा के प्रोजेक्ट को लेकर खुला बयान हो, जयराम अपनी बात खुलकर रखते रहे हैं। इसके लिए कई बार कांग्रेसी राजनीति में उनकी तरफ भौंहें तनती रही हैं, कई बार केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य भी उनसे परेशान नजर आते रहे हैं। जयराम रमेश की मुखरता ने एक बार अपना कमाल दिखाया है। उन्होंने यह कहकर नई बहस को ही जन्म दे दिया है कि देश में विश्व स्तरीय छात्र तो हैं, लेकिन विश्वस्तरीय फैकल्टी नहीं है। मजे की बात है कि हमेशा की तरह उनके बयानों से अलग रहने वाली कांग्रेस पार्टी ने एक बार फिर इस बयान से खुद को अलग कर दिया है। विरोध के सुर विपक्षी भारतीय जनता पार्टी से लेकर उदारीकरण के दौर में करोड़ों-लाखों का पैकेज दिलवाते रहे आईआईएम और आईआईटी के प्रोफेसरों की तरफ से भी उठे हैं। लेकिन हैरत की बात यह है कि देश में शिक्षा के बदलाव के लिए कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे संस्थानों के हिमायती मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल जयराम रमेश के समर्थन में पहले उतर आए और जब ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स का दबाव पड़ा तो जयराम रमेश के विरोध में उतर आए। बहरहाल समर्थन में उतरे कपिल सिब्बल का कहना था कि रमेश की बात इसलिए ठीक है कि अगर सचमुच विश्वस्तरीय फैकल्टी होती तो दुनिया के टॉप 100-150 विश्वविद्यालयों में भारत के भी किसी विश्वविद्यालय और संस्थान का नाम होता।
जयराम रमेश के बयान और कपिल सिब्बल के बयानों की तासीर और अहमियत में फर्क है। जयराम रमेश की ख्याति बयानबाज राजनेता की है। हालांकि उनकी संजीदगी पर भी सवाल नहीं उठाए जा सकते। लेकिन कपिल सिब्बल का उनके समर्थन में उतरने का अपना महत्व भी है और उस पर सवाल भी है। अगर कपिल सिब्बल को लगता है कि देश में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय नहीं हैं तो सबसे बड़ा सवाल तो यही उठता है कि आखिर इसके लिए वे क्या कर रहे हैं। यह जानते हुए भी कि निजी शैक्षिक संस्थान सिर्फ शिक्षा की दुकानें बनते जा रहे हैं, वे इनके समर्थन में क्यों खड़े हैं। यह सच है कि डीम्ड विश्वविद्यालयों की खेप अर्जुन सिंह ने बढ़ाई। आनन-फानन में उन्हें मान्यता दे दी गई। कुकुरमुत्तों की तरफ खुलते इन विश्वविद्यालयों में शिक्षा का क्या हाल है, दिल्ली की सीमा से सटे फरीदाबाद में स्थित दो डीम्ड विश्वविद्यालयों के छात्रों और अध्यापकों से निष्पक्ष और औचक बातचीत से ही जाना जा सकता है। मानव संसाधन विकास मंत्री बनते ही कपिल सिब्बल ने जिस तरह इन विश्वविद्यालयों पर लगाम लगाने की कोशिशें शुरू की, उससे लगा कि वे देश की उच्च शिक्षा व्यवस्था को सुधारना चाहते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि यह कवायद उनकी सिर्फ हनक बढ़ाने की कवायद ही साबित हुई। डीम्ड विश्वविद्यालयों में छात्रों से वसूली का खेल जारी है। जब राजधानी दिल्ली के नजदीक मानव संसाधन विकास मंत्रालय के नाक के नीचे स्थित विश्वविद्यालयों का यह हाल है और मंत्रालय कुछ करने में खुद को नाकाम पा रहा है तो देश के दूर-दराज के इलाकों के डीम्ड विश्वविद्यालयों की हालत क्या होगी, इसका अंदाजा लगाना आसान है।
रही बात विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों की तो सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत आज अपनी जीडीपी का करीब चार प्रतिशत शिक्षा पर खर्च कर रहा है। उसका भी सिर्फ दसवां हिस्सा यानी दशमलव 4 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाता है। जबकि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में उच्च शिक्षा पर खर्च जीडीपी के एक से लेकर सवा फीसदी तक है। दूसरी बात यह है कि विकसित देशों में, जहां के विश्वविद्यालय आज के मानकों के मुताबिक विश्वस्तरीयता के उपरी पायदान पर हैं, वहां कम से कम शैक्षिक संस्थान संकीर्ण राजनीति के दायरे से बाहर हैं। वहां के विश्वविद्यालयों में नियुक्ति की योग्यता राजनीतिक प्रतिबद्धता और संपर्क नहीं है, बल्कि ज्ञान है। लेकिन क्या ऐसी स्थिति भारतीय विश्वविद्यालयों में है। बेहतर माने जाने वाले दिल्ली के ही जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में नियुक्ति के लिए एक खास तरह की विचारधारा वाला होना जरूरी है। वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय में तो ऐरू-गैरू नत्थू-खैरू तक राजनीति और तिकड़म के बल पर नियुक्ति पा जाते हैं। विकसित देशों में विश्वविद्यालयों को अकादमिक स्वायत्तता के साथ ही प्रशासनिक स्वायत्तता भी हासिल है। ज्ञान और शिक्षा के लिए प्रतिबद्ध लोगों की टीम वहां की शिक्षा व्यवस्था को ऊंचाईयों पर ले जाने के लिए तत्पर रहती है। लेकिन ऐसी सोच रखने वाले यहां अध्यापक कितने हैं।
अब एक नजर जयराम के खिलाफ कपिल सिब्बल के तर्कों पर भी देना चाहिए। रमेश के बयान के बाद सरकार की होती किरकिरी के बाद ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स के दबाव में कपिल सिब्बल ने बयान दिया कि देश में विश्वस्तरीय शोध का माहौल ही नहीं है। ऐसे में सवाल कपिल सिब्बल से ही पूछा जाएगा कि आखिर मंत्री रहते या देश में ज्यादातर वक्त तक उनकी पार्टी की सरकार रहते ऐसे उपाय क्यों नहीं हो पाए कि आजादी के 63 सालों में देश में विश्वस्तरीय शोध और पढ़ाई का माहौल बन पाया।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था की कमी के लिए माना गया कि यहां अध्यापकों का वेतन विकसित देशों के अध्यापकों की तुलना में कम है। छठवें वेतन आयोग ने अध्यापकों की इस कमी को पूरा तो किया है। लेकिन इसके बावजूद अध्यापकों और प्रोफेसरों में अपने काम के प्रति प्रतिबद्धता कम ही नजर आ रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में तो अध्यापकों को खुलेआम राजनीति करते देखा जा सकता है। जब दिल्ली विश्वविद्यालय की यह हालत है तो देश के दूसरे इलाके के विश्वविद्यालयों का अंदाजा लगाया जाना आसान होगा। फिर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश की अब भी करीब 25 फीसदी जनता निरक्षर है। कॉलेज और विश्वविद्यालय जाने वाले युवाओं में से सिर्फ बमुश्किल 14 फीसदी को ही दाखिला मिल पाता है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देश के ज्यादातर विश्वविद्यालय सिर्फ और सिर्फ डिग्रियां बांटने की मशीन बन गए हैं। गुणवत्ता आधारित शिक्षा पर उनका ध्यान नहीं है। उनके लिए अकादमिक कैलेंडर को पूरा करना और परीक्षाएं दिलवाकर डिग्रियां बांट देना ही महत्वपूर्ण काम रह गया है। ऐसे में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों की उम्मीद भी बेमानी ही है।
बहरहाल जिन यूरोपीय या अमेरिकी विश्वविद्यालयों की तुलना में जयराम रमेश ने भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाए हैं, वे भी दूध के धुले नहीं हैं। दुनिया में अपनी गुणवत्ता आधारित शिक्षा के लिए मशहूर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की कारस्तानी हाल ही में उजागर हुई है। लीबिया पर नाटो और अमेरिकी कार्रवाई शुरू होने के कुछ ही दिनों बाद यानी 4 मार्च, 2011 को लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के निदेशक सर हावर्ड डेवीज को इस्तीफा देना पड़ा। इसकी वजह रही लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के लीबिया के तानाशाह कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के साथ आर्थिक रिश्तों का खुलासा। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में गद्दाफी के बेटे सैफ-अल-कदाफी ने 2003 से 2008 तक पढ़ाई की थी। जहां से उसे पी.एच.डी.की डिग्री मिली । आरोप है कि उसकी थिसिस इंटरनेट से कटपेस्ट करके तैयार की गई और इसमें उसकी मदद स्कूल के एक डीन ने ही की थी। खुलासा तो यह भी हुआ है कि गद्दाफी से लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स को लाखों पौण्ड की धनराशि मिलती रही है। सिर्फ 2003 से 2008 के बीच ही 22 लाख पौंड के बदले लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स ने लीबिया के 400 भावी नेताओं और ब़ड़े अधिकारियों को ट्रेनिंग दी थी। और तो और लीबिया के सॉवरिन वेल्थ फण्ड के प्रचार के लिए लन्दन स्कूल ने 50,000 पौण्ड की फीस ली थी। लीबियाई सरकार द्वारा खड़े किये गये ‘गद्दाफी इण्टरनेशनल चैरिटी एण्ड डेवलपमेण्ट फाउण्डेशन’ से 15 लाख पौण्ड का अनुदान भी मिला था।
कुछ ऐसे ही आरोप येल विश्वविद्यालय पर लगते रहे हैं। येल विश्वविद्यालय पर कई विवादास्पद कंपनियों से वित्तीय रिश्ते रखने के आरोप भी लगते रहे हैं। 2009 में केमिस्ट्री के लिए नोबेल पुरस्कार हासिल कर चुके वेंकटरमण रामाकृष्णन ने पिछले ही साल बयान दिया था कि दुनिया के विश्वस्तरीय माने जाने वाले विश्वविद्यालयों ने अपने मूल कैंपस से बाहर जाकर जो कैंपस खोले, उनका मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसा ही बनाना रहा है। वहां से कोई खास शोध और उपलब्धि हासिल नहीं हुई है।
भारत की जो बदहाल शैक्षिक व्यवस्था है, उसमें कुकुरमुत्तों की तरह उगते संस्थानों का मकसद सिर्फ पैसा बनाना रह गया है, उसमें जयराम के बयान के सिर्फ नकारात्मक पक्ष की चर्चा करने से बेहतर यह होगा कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने की तरफ सकारात्मक पहल की जाय। हालांकि जानकारों के एक तबके को लगता है कि जयराम का यह बयान दरअसल भारतीय शिक्षा व्यवस्था में कथित विश्वस्तरीय माने जाने वाले संस्थानों के प्रवेश की राह खोलने की पहल है। अगर रमेश का यह बयान इस सोच से भी प्रभावित है तो उसे स्वीकार करना कठिन होगा।
कांग्रेसी हलके में जयराम रमेश की ख्याति एक ऐसे राजनता के तौर पर है, जो अपनी बात खुलकर रखता है। जैतापुर में परमाणु परियोजना लगाए जाने को लेकर लोगों के विरोध का समर्थन हो या फिर मुंबई की आदर्श सोसायटी को गिराने की मंशा जाहिर करना हो या फिर लवासा के प्रोजेक्ट को लेकर खुला बयान हो, जयराम अपनी बात खुलकर रखते रहे हैं। इसके लिए कई बार कांग्रेसी राजनीति में उनकी तरफ भौंहें तनती रही हैं, कई बार केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य भी उनसे परेशान नजर आते रहे हैं। जयराम रमेश की मुखरता ने एक बार अपना कमाल दिखाया है। उन्होंने यह कहकर नई बहस को ही जन्म दे दिया है कि देश में विश्व स्तरीय छात्र तो हैं, लेकिन विश्वस्तरीय फैकल्टी नहीं है। मजे की बात है कि हमेशा की तरह उनके बयानों से अलग रहने वाली कांग्रेस पार्टी ने एक बार फिर इस बयान से खुद को अलग कर दिया है। विरोध के सुर विपक्षी भारतीय जनता पार्टी से लेकर उदारीकरण के दौर में करोड़ों-लाखों का पैकेज दिलवाते रहे आईआईएम और आईआईटी के प्रोफेसरों की तरफ से भी उठे हैं। लेकिन हैरत की बात यह है कि देश में शिक्षा के बदलाव के लिए कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे संस्थानों के हिमायती मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल जयराम रमेश के समर्थन में पहले उतर आए और जब ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स का दबाव पड़ा तो जयराम रमेश के विरोध में उतर आए। बहरहाल समर्थन में उतरे कपिल सिब्बल का कहना था कि रमेश की बात इसलिए ठीक है कि अगर सचमुच विश्वस्तरीय फैकल्टी होती तो दुनिया के टॉप 100-150 विश्वविद्यालयों में भारत के भी किसी विश्वविद्यालय और संस्थान का नाम होता।
जयराम रमेश के बयान और कपिल सिब्बल के बयानों की तासीर और अहमियत में फर्क है। जयराम रमेश की ख्याति बयानबाज राजनेता की है। हालांकि उनकी संजीदगी पर भी सवाल नहीं उठाए जा सकते। लेकिन कपिल सिब्बल का उनके समर्थन में उतरने का अपना महत्व भी है और उस पर सवाल भी है। अगर कपिल सिब्बल को लगता है कि देश में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय नहीं हैं तो सबसे बड़ा सवाल तो यही उठता है कि आखिर इसके लिए वे क्या कर रहे हैं। यह जानते हुए भी कि निजी शैक्षिक संस्थान सिर्फ शिक्षा की दुकानें बनते जा रहे हैं, वे इनके समर्थन में क्यों खड़े हैं। यह सच है कि डीम्ड विश्वविद्यालयों की खेप अर्जुन सिंह ने बढ़ाई। आनन-फानन में उन्हें मान्यता दे दी गई। कुकुरमुत्तों की तरफ खुलते इन विश्वविद्यालयों में शिक्षा का क्या हाल है, दिल्ली की सीमा से सटे फरीदाबाद में स्थित दो डीम्ड विश्वविद्यालयों के छात्रों और अध्यापकों से निष्पक्ष और औचक बातचीत से ही जाना जा सकता है। मानव संसाधन विकास मंत्री बनते ही कपिल सिब्बल ने जिस तरह इन विश्वविद्यालयों पर लगाम लगाने की कोशिशें शुरू की, उससे लगा कि वे देश की उच्च शिक्षा व्यवस्था को सुधारना चाहते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि यह कवायद उनकी सिर्फ हनक बढ़ाने की कवायद ही साबित हुई। डीम्ड विश्वविद्यालयों में छात्रों से वसूली का खेल जारी है। जब राजधानी दिल्ली के नजदीक मानव संसाधन विकास मंत्रालय के नाक के नीचे स्थित विश्वविद्यालयों का यह हाल है और मंत्रालय कुछ करने में खुद को नाकाम पा रहा है तो देश के दूर-दराज के इलाकों के डीम्ड विश्वविद्यालयों की हालत क्या होगी, इसका अंदाजा लगाना आसान है।
रही बात विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों की तो सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत आज अपनी जीडीपी का करीब चार प्रतिशत शिक्षा पर खर्च कर रहा है। उसका भी सिर्फ दसवां हिस्सा यानी दशमलव 4 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाता है। जबकि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में उच्च शिक्षा पर खर्च जीडीपी के एक से लेकर सवा फीसदी तक है। दूसरी बात यह है कि विकसित देशों में, जहां के विश्वविद्यालय आज के मानकों के मुताबिक विश्वस्तरीयता के उपरी पायदान पर हैं, वहां कम से कम शैक्षिक संस्थान संकीर्ण राजनीति के दायरे से बाहर हैं। वहां के विश्वविद्यालयों में नियुक्ति की योग्यता राजनीतिक प्रतिबद्धता और संपर्क नहीं है, बल्कि ज्ञान है। लेकिन क्या ऐसी स्थिति भारतीय विश्वविद्यालयों में है। बेहतर माने जाने वाले दिल्ली के ही जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में नियुक्ति के लिए एक खास तरह की विचारधारा वाला होना जरूरी है। वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय में तो ऐरू-गैरू नत्थू-खैरू तक राजनीति और तिकड़म के बल पर नियुक्ति पा जाते हैं। विकसित देशों में विश्वविद्यालयों को अकादमिक स्वायत्तता के साथ ही प्रशासनिक स्वायत्तता भी हासिल है। ज्ञान और शिक्षा के लिए प्रतिबद्ध लोगों की टीम वहां की शिक्षा व्यवस्था को ऊंचाईयों पर ले जाने के लिए तत्पर रहती है। लेकिन ऐसी सोच रखने वाले यहां अध्यापक कितने हैं।
अब एक नजर जयराम के खिलाफ कपिल सिब्बल के तर्कों पर भी देना चाहिए। रमेश के बयान के बाद सरकार की होती किरकिरी के बाद ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स के दबाव में कपिल सिब्बल ने बयान दिया कि देश में विश्वस्तरीय शोध का माहौल ही नहीं है। ऐसे में सवाल कपिल सिब्बल से ही पूछा जाएगा कि आखिर मंत्री रहते या देश में ज्यादातर वक्त तक उनकी पार्टी की सरकार रहते ऐसे उपाय क्यों नहीं हो पाए कि आजादी के 63 सालों में देश में विश्वस्तरीय शोध और पढ़ाई का माहौल बन पाया।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था की कमी के लिए माना गया कि यहां अध्यापकों का वेतन विकसित देशों के अध्यापकों की तुलना में कम है। छठवें वेतन आयोग ने अध्यापकों की इस कमी को पूरा तो किया है। लेकिन इसके बावजूद अध्यापकों और प्रोफेसरों में अपने काम के प्रति प्रतिबद्धता कम ही नजर आ रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में तो अध्यापकों को खुलेआम राजनीति करते देखा जा सकता है। जब दिल्ली विश्वविद्यालय की यह हालत है तो देश के दूसरे इलाके के विश्वविद्यालयों का अंदाजा लगाया जाना आसान होगा। फिर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश की अब भी करीब 25 फीसदी जनता निरक्षर है। कॉलेज और विश्वविद्यालय जाने वाले युवाओं में से सिर्फ बमुश्किल 14 फीसदी को ही दाखिला मिल पाता है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देश के ज्यादातर विश्वविद्यालय सिर्फ और सिर्फ डिग्रियां बांटने की मशीन बन गए हैं। गुणवत्ता आधारित शिक्षा पर उनका ध्यान नहीं है। उनके लिए अकादमिक कैलेंडर को पूरा करना और परीक्षाएं दिलवाकर डिग्रियां बांट देना ही महत्वपूर्ण काम रह गया है। ऐसे में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों की उम्मीद भी बेमानी ही है।
बहरहाल जिन यूरोपीय या अमेरिकी विश्वविद्यालयों की तुलना में जयराम रमेश ने भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाए हैं, वे भी दूध के धुले नहीं हैं। दुनिया में अपनी गुणवत्ता आधारित शिक्षा के लिए मशहूर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की कारस्तानी हाल ही में उजागर हुई है। लीबिया पर नाटो और अमेरिकी कार्रवाई शुरू होने के कुछ ही दिनों बाद यानी 4 मार्च, 2011 को लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के निदेशक सर हावर्ड डेवीज को इस्तीफा देना पड़ा। इसकी वजह रही लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के लीबिया के तानाशाह कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के साथ आर्थिक रिश्तों का खुलासा। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में गद्दाफी के बेटे सैफ-अल-कदाफी ने 2003 से 2008 तक पढ़ाई की थी। जहां से उसे पी.एच.डी.की डिग्री मिली । आरोप है कि उसकी थिसिस इंटरनेट से कटपेस्ट करके तैयार की गई और इसमें उसकी मदद स्कूल के एक डीन ने ही की थी। खुलासा तो यह भी हुआ है कि गद्दाफी से लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स को लाखों पौण्ड की धनराशि मिलती रही है। सिर्फ 2003 से 2008 के बीच ही 22 लाख पौंड के बदले लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स ने लीबिया के 400 भावी नेताओं और ब़ड़े अधिकारियों को ट्रेनिंग दी थी। और तो और लीबिया के सॉवरिन वेल्थ फण्ड के प्रचार के लिए लन्दन स्कूल ने 50,000 पौण्ड की फीस ली थी। लीबियाई सरकार द्वारा खड़े किये गये ‘गद्दाफी इण्टरनेशनल चैरिटी एण्ड डेवलपमेण्ट फाउण्डेशन’ से 15 लाख पौण्ड का अनुदान भी मिला था।
कुछ ऐसे ही आरोप येल विश्वविद्यालय पर लगते रहे हैं। येल विश्वविद्यालय पर कई विवादास्पद कंपनियों से वित्तीय रिश्ते रखने के आरोप भी लगते रहे हैं। 2009 में केमिस्ट्री के लिए नोबेल पुरस्कार हासिल कर चुके वेंकटरमण रामाकृष्णन ने पिछले ही साल बयान दिया था कि दुनिया के विश्वस्तरीय माने जाने वाले विश्वविद्यालयों ने अपने मूल कैंपस से बाहर जाकर जो कैंपस खोले, उनका मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसा ही बनाना रहा है। वहां से कोई खास शोध और उपलब्धि हासिल नहीं हुई है।
भारत की जो बदहाल शैक्षिक व्यवस्था है, उसमें कुकुरमुत्तों की तरह उगते संस्थानों का मकसद सिर्फ पैसा बनाना रह गया है, उसमें जयराम के बयान के सिर्फ नकारात्मक पक्ष की चर्चा करने से बेहतर यह होगा कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने की तरफ सकारात्मक पहल की जाय। हालांकि जानकारों के एक तबके को लगता है कि जयराम का यह बयान दरअसल भारतीय शिक्षा व्यवस्था में कथित विश्वस्तरीय माने जाने वाले संस्थानों के प्रवेश की राह खोलने की पहल है। अगर रमेश का यह बयान इस सोच से भी प्रभावित है तो उसे स्वीकार करना कठिन होगा।
Saturday, May 28, 2011
पानी बिच सड़क है कि सड़क बिच पानी
उमेश चतुर्वेदी
बरसों पहले बचपन में एक कविता पढ़ी थी-
सारी बिच नारी है कि नारी बिच सारी।
नारी ही की सारी है कि सारी की नारी।
हाल के दिनों में अपने गांव की यात्रा के बाद एक बार फिर यही कविता याद आ गई, लेकिन थोड़े से संशोधन के साथ। नजारा ही कुछ ऐसा था कि कविता का यह बीज फूटे बिना नहीं रह पाया। नजारे की चर्चा बाद में, पहले कविता-
पानी की सड़क है कि सड़क का ही पानी।
पानी बिच सड़क है कि सड़क बिच पानी।
बलिया में डीएम और एसपी के दफ्तर और बंगले से महज डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर बलिया-गोरखपुर हाईवे पर ऐसा ही हाल है। इस बार मई में ही बादलों की कृपा हो गई है, गरमी के बीच बरसात का पानी कायदे से सूख जाना चाहिए, लेकिन हालत यह है कि पूरी सड़क पानी में तब्दील है। नरक के बीच से रोजाना हजारों लोगों को गुजरना है। लेकिन न तो डीएम साहब को इसकी फिक्र है और एसपी साहब का तो खैर इलाका ही नहीं रहा। यही हालत बलिया में तिखमपुर के पास बलिया-बांसडीह-सहतवार सड़क का भी है। गंदगी से पार पाकर आना-जाना लोगों की मजबूरी है। दिलचस्प बात यह है कि इसी सड़क पर किनारे बलिया सदर की विधानसभा सदस्य मंजू सिंह का आलीशान मकान है। उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार है। लेकिन बलिया को नरक गाथा से मुक्ति नहीं मिल रही। बलिया नगरपालिका पर भी बसपा का कब्जा है। लेकिन पूरा शहर खुदा पड़ा है। बरसात का मौसम आने वाला है, लेकिन शहर की सड़कें अब तक साफ नहीं हो पाई हैं। मौसम विभाग का कहना है कि इस बार मानसून अच्छा रहने वाला है। भगवान करे कि ऐसा ही हो, ऐसे में अंदाज लगाना आसान है कि इस बार बलिया वालों की बरसात कैसे बीतेगी। जिस बलिया का प्रतिनिधित्व चंद्रशेखर जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के नेता ने किया हो, वहां का यही हाल है। वैसे हमारे बलिया में एक मित्र हैं, पेशे से वकील इस मित्र का कहना है कि बलिया वाले इसी के काबिल हैं। जब विरोध का जज्बा ही उनमें नहीं रहा तो नरक में रहें या स्वर्ग में, सरकार और प्रशासन की सेहत पर क्या फर्क पड़ता है।
Saturday, May 14, 2011
यूपीए बिना चैन कहां रे
उमेश चतुर्वेदी
राजनीति में किसी की कमजोरी कई बार किसी की मजबूती का सबब बन जाती है। 2 जी घोटाले से जूझ रही द्रविड़ मुनेत्र कषगम की विदाई ने केंद्र की यूपीए सरकार की मजबूती की नींव रख दी है। सीबीआई अदालत और आयकर अधिकारियों के दफ्तरों की चक्कर काट रही कनिमोझी को कानूनी पचड़े से बचाने के लिए द्रविड़ मुनेत्र कषगम का यूपीए के साथ रहना मजबूरी है। सत्ता का साथ ही उन्हें अधिकारियों से राहत दिलवा सकता है। इस लिहाज से देखें तो दो हफ्ते कनिमोझी के खिलाफ सीबीआई के आरोप पत्र दाखिल करने के पहले जब डीएमके की कार्यसमिति ने केंद्र सरकार से समर्थन वापसी की अटकलों को टाल कर भावी राजनीतिक आशंकाओं के बीच अपने बचाव की राह तलाश ली थी। अन्यथा मीडिया का एक बड़ा वर्ग मानकर चल रहा था कि कनिमोझी का आरोप पत्र में नाम यूपीए सरकार से डीएमके के अलगाव का संदेश लेकर आएगा।
मौजूदा दौर में चूंकि राजनीति सिर्फ सत्ता को साधने और उसके जरिए राजनीतिक से ज्यादा आर्थिक फायदे उठाने का खेल हो गई है, लिहाजा जैसे ही किसी घोटाले और उससे जुड़े राजनीतिक विवाद शुरू होते हैं, सत्ता की सेहत और उसके भविष्य पर सवाल उठाए जाने लगते हैं। यही वजह है कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में डीएमके सांसद कनिमोझी के खिलाफ सीबीआई के आरोप पत्र दाखिल करने के बाद केंद्र सरकार की सेहत पर सवाल उठने लगे थे। लेकिन द्रविड़ मुनेत्र कजगम के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन से समर्थन की वापसी इतनी आसान नहीं थी। तमिलनाडु भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और भारतीय जनता पार्टी की केंद्रीय समिति के सदस्य सी पी राधाकृष्णन पहले ही जाहिर कर चुके थे कि डीएमके की वह बैठक महज दिखावा थी। ज्यादा से ज्यादा इस बैठक की राजनीतिक व्याख्या की जाती तो वह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पर दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा भर थी। लेकिन तमिलनाडु की सत्ता से विदाई के बाद डीएमके के लिए अब विकल्प सीमित हो गए हैं। 2 जी स्पेक्ट्रम में जिस तरह डीएमके आकंठ डूबी नजर आ रही है, उसमें उसके लिए बचाव की राह यूपीए के साथ में ही नजर आती है। अगर उसे कड़ा कदम उठाना ही होता तो वह तभी उठा लेती, जब उसके एक अहम सहयोगी और पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री ए राजा को सीबीआई ने सलाखों के पीछे डाल दिया। हालांकि क्या सचमुच सीबीआई उन्हें सलाखों के पीछे डालने की हिम्मत जुटा पाती। क्या सीबीआई को इसके लिए उसके राजनीतिक हुक्मरानों का समर्थन हासिल हो पाता...जाहिर है नहीं...सीबीआई या किसी जांच एजेंसी को ए राजा जैसे ताकतवर दल के नेता और उदारीकरण के दौर में सत्ता का समानांतर केंद्र बने कारपोरेट के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत कम से कम आज के दौर में नहीं है। गठबंधन राजनीति की मजबूरियों और उसमें शामिल दलों के आर्थिक हितों के साथ जुड़े कारपोरेट की ताकत को समझने के लिए 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला बेहतर उदाहरण है। 2007 से 2 जी स्पेक्ट्रम को लेकर खुलेआम नियमों की धज्जियां उड़ाई जाती रहीं, लेकिन सत्ता का जिम्मेदार तंत्र राजा, उनके अफसरों और कारपोरेट जगत की हस्तियों के खिलाफ कदम उठाने की हिम्मत नहीं कर पाया। आज अगर सत्ता और कारपोरेट की हस्तियां जेल में हैं तो उसके लिए कोई राजनीतिक ताकत या इच्छाशक्ति जिम्मेदार नहीं है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट की नकेल ने सीबीआई को ऐसा करने के लिए मजबूर किया है। अगर राजनीतिक नेतृत्व ने जिम्मेदारी और इच्छाशक्ति दिखाई होती तो शायद घोटाले के तार इतनी दूर तक नहीं पहुंचते।
पहले राजा और बाद में कनिमोझी के खिलाफ अगर सीबीआई को आरोप पत्र दाखिल करना पड़ा तो इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की कड़ी निगरानी जिम्मेदार है। यह तथ्य डीएमके सुप्रीमो भी जानते हैं। इसलिए उनकी कोशिश यही रही है कि यूपीए को समर्थन के एवज में इस मामले को ज्यादा से ज्यादा हलका बना सकें, ताकि इस केस की आंच में अधिक से अधिक उनकी राजनीति में हलकी सी झुलसन आ सके, उनकी राजनीति खाक न हो सके। सीबीआई की चार्जशीट से करूणानिधि की दूसरी पत्नी और कनिमोझी की मां दयालु अम्माल का नाम गायब होना एक तरह से करूणानिधि की कामयाबी भी है। सुप्रीम कोर्ट की कड़ी निगरानी के बावजूद कार्यपालिका अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते मनमाना कदम उठाने में कामयाब रही है। लेकिन अदालत के सामने सीबीआई के वे तर्क कितने दिनों तक टिकेंगे, देखना दिलचस्प रहेगा। क्योंकि जिस कलईंजर टीवी में स्वान टेलीकॉम ने एक तरह से रिश्वतखोरी के तहत निवेश किया है, उसके साठ फीसदी हिस्से की मालकिन दयालु अम्माल ही हैं। बाकी चालीस फीसदी में से आधे-आधे की मालिक कनिमोझी और कलईंजर टीवी के प्रबंध निदेशक शरत कुमार हैं। सीबीआई ने दयालु अम्माल को क्लीन चिट देने के लिए तर्क दिया है कि वे तमिल के अलावा दूसरी कोई भाषा न तो बोल सकती हैं और न ही समझ सकती हैं। सिर्फ तमिल जानना ही किसी के निर्दोष होने की गारंटी कैसे हो सकता है। सीबीआई का यह तर्क आसानी से गले नहीं उतरता कि चालीस फीसदी के मालिक रिश्वतखोरी के लिए जिम्मेदार तो हैं, लेकिन साठ फीसदी की मालकिन इसके लिए जिम्मेदार न हो। दयालु अम्माल का नाम चार्जशीट से अलग कराना एक तरह से करूणानिधि कामयाबी ही कही जाएगी।
तमिलनाडु विधानसभा चुनावों के नतीजों ने साफ कर दिया है कि अगर तमिलनाडु में करूणानिधि और उनके कुनबे को थोड़े सुकून के साथ जीना है तो उन्हें यूपीए के साथ रहना ही होगा। बदले माहौल में केंद्र सरकार से अलग होने का जोखिम उठाना करूणानिधि के लिए आसान नहीं है। क्योंकि राज्य की राजनीति में जयललिता के साथ उनका जो छत्तीस का आंकड़ा है, उसमें ज्यादा उम्मीद भी बेमानी है। इस बात की गारंटी नहीं है कि पिछली दफा की तरह जयललिता इस बार भी करूणानिधि को निशाना नहीं बनाएंगी। पिछली बार जब जयललिता ने देर रात करूणानिधि को गिरफ्तार किया था, तब भी डीएमके केंद्र की एनडीए सरकार का प्रमुख घटक था और उसके दिग्गज मुरासोली मारन और टीआर बालू केंद्रीय कैबिनेट में शामिल थे। इसके बाद भी जयललिता ने करूणानिधि को उन मंत्रियों समेत गिरफ्तार करने से नहीं हिचकी थीं। जहां राजनीतिक बदले की भावना इस हद तक हो, वहां विधानसभा चुनावों में हार की आशंका के बीच करूणानिधि केंद्र से अलग होने की हिम्मत कैसे जुटा सकते हैं। वैसे कनिमोझी का नाम सीबीआई की चार्जशीट में आने के बाद कांग्रेस के रणनीतिकारों के माथे पर बल पड़ने लगे थे। इसीलिए कांग्रेस ने वैकल्पिक इंतजाम कर रखे थे। डीएमके के बाहर जाने की हालत में समाजवादी पार्टी का विकल्प उन्होंने तैयार कर रखा था। लेकिन बदले माहौल में कांग्रेस को शायद उस विकल्प को आजमाने की जरूरत ही नहीं पड़े। सबसे बड़ी बात यह कि तमिलनाडु चुनावों में हार के बाद डीएमके अब दबाव की बजाय याचना की भूमिका में होगा और इससे केंद्र सरकार को कम से कम डीएमके की तरफ से किसी खतरे की आशंका नहीं रहेगी। अगर कनिमोझी को राहत पानी है या करूणानिधि के दुलारे ए राजा को जेल के बाहर की दुनिया जल्द देखनी है तो यूपीए का साथ ही इन उम्मीदों का सहारा बन सकता है।
राजनीति में किसी की कमजोरी कई बार किसी की मजबूती का सबब बन जाती है। 2 जी घोटाले से जूझ रही द्रविड़ मुनेत्र कषगम की विदाई ने केंद्र की यूपीए सरकार की मजबूती की नींव रख दी है। सीबीआई अदालत और आयकर अधिकारियों के दफ्तरों की चक्कर काट रही कनिमोझी को कानूनी पचड़े से बचाने के लिए द्रविड़ मुनेत्र कषगम का यूपीए के साथ रहना मजबूरी है। सत्ता का साथ ही उन्हें अधिकारियों से राहत दिलवा सकता है। इस लिहाज से देखें तो दो हफ्ते कनिमोझी के खिलाफ सीबीआई के आरोप पत्र दाखिल करने के पहले जब डीएमके की कार्यसमिति ने केंद्र सरकार से समर्थन वापसी की अटकलों को टाल कर भावी राजनीतिक आशंकाओं के बीच अपने बचाव की राह तलाश ली थी। अन्यथा मीडिया का एक बड़ा वर्ग मानकर चल रहा था कि कनिमोझी का आरोप पत्र में नाम यूपीए सरकार से डीएमके के अलगाव का संदेश लेकर आएगा।
मौजूदा दौर में चूंकि राजनीति सिर्फ सत्ता को साधने और उसके जरिए राजनीतिक से ज्यादा आर्थिक फायदे उठाने का खेल हो गई है, लिहाजा जैसे ही किसी घोटाले और उससे जुड़े राजनीतिक विवाद शुरू होते हैं, सत्ता की सेहत और उसके भविष्य पर सवाल उठाए जाने लगते हैं। यही वजह है कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में डीएमके सांसद कनिमोझी के खिलाफ सीबीआई के आरोप पत्र दाखिल करने के बाद केंद्र सरकार की सेहत पर सवाल उठने लगे थे। लेकिन द्रविड़ मुनेत्र कजगम के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन से समर्थन की वापसी इतनी आसान नहीं थी। तमिलनाडु भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और भारतीय जनता पार्टी की केंद्रीय समिति के सदस्य सी पी राधाकृष्णन पहले ही जाहिर कर चुके थे कि डीएमके की वह बैठक महज दिखावा थी। ज्यादा से ज्यादा इस बैठक की राजनीतिक व्याख्या की जाती तो वह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पर दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा भर थी। लेकिन तमिलनाडु की सत्ता से विदाई के बाद डीएमके के लिए अब विकल्प सीमित हो गए हैं। 2 जी स्पेक्ट्रम में जिस तरह डीएमके आकंठ डूबी नजर आ रही है, उसमें उसके लिए बचाव की राह यूपीए के साथ में ही नजर आती है। अगर उसे कड़ा कदम उठाना ही होता तो वह तभी उठा लेती, जब उसके एक अहम सहयोगी और पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री ए राजा को सीबीआई ने सलाखों के पीछे डाल दिया। हालांकि क्या सचमुच सीबीआई उन्हें सलाखों के पीछे डालने की हिम्मत जुटा पाती। क्या सीबीआई को इसके लिए उसके राजनीतिक हुक्मरानों का समर्थन हासिल हो पाता...जाहिर है नहीं...सीबीआई या किसी जांच एजेंसी को ए राजा जैसे ताकतवर दल के नेता और उदारीकरण के दौर में सत्ता का समानांतर केंद्र बने कारपोरेट के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत कम से कम आज के दौर में नहीं है। गठबंधन राजनीति की मजबूरियों और उसमें शामिल दलों के आर्थिक हितों के साथ जुड़े कारपोरेट की ताकत को समझने के लिए 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला बेहतर उदाहरण है। 2007 से 2 जी स्पेक्ट्रम को लेकर खुलेआम नियमों की धज्जियां उड़ाई जाती रहीं, लेकिन सत्ता का जिम्मेदार तंत्र राजा, उनके अफसरों और कारपोरेट जगत की हस्तियों के खिलाफ कदम उठाने की हिम्मत नहीं कर पाया। आज अगर सत्ता और कारपोरेट की हस्तियां जेल में हैं तो उसके लिए कोई राजनीतिक ताकत या इच्छाशक्ति जिम्मेदार नहीं है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट की नकेल ने सीबीआई को ऐसा करने के लिए मजबूर किया है। अगर राजनीतिक नेतृत्व ने जिम्मेदारी और इच्छाशक्ति दिखाई होती तो शायद घोटाले के तार इतनी दूर तक नहीं पहुंचते।
पहले राजा और बाद में कनिमोझी के खिलाफ अगर सीबीआई को आरोप पत्र दाखिल करना पड़ा तो इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की कड़ी निगरानी जिम्मेदार है। यह तथ्य डीएमके सुप्रीमो भी जानते हैं। इसलिए उनकी कोशिश यही रही है कि यूपीए को समर्थन के एवज में इस मामले को ज्यादा से ज्यादा हलका बना सकें, ताकि इस केस की आंच में अधिक से अधिक उनकी राजनीति में हलकी सी झुलसन आ सके, उनकी राजनीति खाक न हो सके। सीबीआई की चार्जशीट से करूणानिधि की दूसरी पत्नी और कनिमोझी की मां दयालु अम्माल का नाम गायब होना एक तरह से करूणानिधि की कामयाबी भी है। सुप्रीम कोर्ट की कड़ी निगरानी के बावजूद कार्यपालिका अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते मनमाना कदम उठाने में कामयाब रही है। लेकिन अदालत के सामने सीबीआई के वे तर्क कितने दिनों तक टिकेंगे, देखना दिलचस्प रहेगा। क्योंकि जिस कलईंजर टीवी में स्वान टेलीकॉम ने एक तरह से रिश्वतखोरी के तहत निवेश किया है, उसके साठ फीसदी हिस्से की मालकिन दयालु अम्माल ही हैं। बाकी चालीस फीसदी में से आधे-आधे की मालिक कनिमोझी और कलईंजर टीवी के प्रबंध निदेशक शरत कुमार हैं। सीबीआई ने दयालु अम्माल को क्लीन चिट देने के लिए तर्क दिया है कि वे तमिल के अलावा दूसरी कोई भाषा न तो बोल सकती हैं और न ही समझ सकती हैं। सिर्फ तमिल जानना ही किसी के निर्दोष होने की गारंटी कैसे हो सकता है। सीबीआई का यह तर्क आसानी से गले नहीं उतरता कि चालीस फीसदी के मालिक रिश्वतखोरी के लिए जिम्मेदार तो हैं, लेकिन साठ फीसदी की मालकिन इसके लिए जिम्मेदार न हो। दयालु अम्माल का नाम चार्जशीट से अलग कराना एक तरह से करूणानिधि कामयाबी ही कही जाएगी।
तमिलनाडु विधानसभा चुनावों के नतीजों ने साफ कर दिया है कि अगर तमिलनाडु में करूणानिधि और उनके कुनबे को थोड़े सुकून के साथ जीना है तो उन्हें यूपीए के साथ रहना ही होगा। बदले माहौल में केंद्र सरकार से अलग होने का जोखिम उठाना करूणानिधि के लिए आसान नहीं है। क्योंकि राज्य की राजनीति में जयललिता के साथ उनका जो छत्तीस का आंकड़ा है, उसमें ज्यादा उम्मीद भी बेमानी है। इस बात की गारंटी नहीं है कि पिछली दफा की तरह जयललिता इस बार भी करूणानिधि को निशाना नहीं बनाएंगी। पिछली बार जब जयललिता ने देर रात करूणानिधि को गिरफ्तार किया था, तब भी डीएमके केंद्र की एनडीए सरकार का प्रमुख घटक था और उसके दिग्गज मुरासोली मारन और टीआर बालू केंद्रीय कैबिनेट में शामिल थे। इसके बाद भी जयललिता ने करूणानिधि को उन मंत्रियों समेत गिरफ्तार करने से नहीं हिचकी थीं। जहां राजनीतिक बदले की भावना इस हद तक हो, वहां विधानसभा चुनावों में हार की आशंका के बीच करूणानिधि केंद्र से अलग होने की हिम्मत कैसे जुटा सकते हैं। वैसे कनिमोझी का नाम सीबीआई की चार्जशीट में आने के बाद कांग्रेस के रणनीतिकारों के माथे पर बल पड़ने लगे थे। इसीलिए कांग्रेस ने वैकल्पिक इंतजाम कर रखे थे। डीएमके के बाहर जाने की हालत में समाजवादी पार्टी का विकल्प उन्होंने तैयार कर रखा था। लेकिन बदले माहौल में कांग्रेस को शायद उस विकल्प को आजमाने की जरूरत ही नहीं पड़े। सबसे बड़ी बात यह कि तमिलनाडु चुनावों में हार के बाद डीएमके अब दबाव की बजाय याचना की भूमिका में होगा और इससे केंद्र सरकार को कम से कम डीएमके की तरफ से किसी खतरे की आशंका नहीं रहेगी। अगर कनिमोझी को राहत पानी है या करूणानिधि के दुलारे ए राजा को जेल के बाहर की दुनिया जल्द देखनी है तो यूपीए का साथ ही इन उम्मीदों का सहारा बन सकता है।
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