उमेश चतुर्वेदी
आम आदमी भी समझता है कि महंगाई रोकने के दावे और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को बाजार से नियंत्रणमुक्त करने की कोशिशें साथ- साथ नहीं चल सकतीं। लेकिन केंद्र सरकार दोनों ही स्थितियों में आगे बढ़ने की बात करती रहती है। जिस समय वह महंगाई रोकने का दावा करती है, उसी वक्त वह डीजल एवं एलपीजी की कीमतों को बाजार के हवाले करने की बातें भी करती है। इसी सिलसिले में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने डीजल और एलपीजी की सब्सिडी खत्म करने की बात कह कर खासकर आम लोगों की चिंताएं बढ़ा दी हैं। बहरहाल यह पहला मौका नहीं है, जब केंद्र सरकार के किसी जिम्मेदार मंत्री ने ऐसा बयान दिया है। दिसंबर 2010 में ही डीजल पर दी जाने वाली सब्सिडी पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया नाखुशी जाहिर कर चुके हैं। इसी साल मई में तब के वन और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को भी देश के वास्तविक विकास में डीजल की सब्सिडी बाधा लग रही थी। इसके फौरन बाद एक बार फिर मोंटेक सिंह अहलूवालिया को डीजल सब्सिडी चुभने लगी थी। रही-सही कसर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसी साल मई में ही पूरी कर दी, जब उन्होंने डीजल की कीमतों को बाजार के हवाले करने का ऐलान कर दिया था।
सरकार के जिम्मेदार लोगों के बयान से साफ है कि भले ही अपना देश अब भी संवैधानिक रूप से लोक कल्याणकारी होने का संवैधानिक तमगा धारण किए हुए है, लेकिन हकीकत कुछ और है। सरकारी फैसलों से साफ है कि देश की पूरी की पूरी व्यवस्था को बाजार के हवाले करने का फैसला कर लिया गया है। पेट्रोल की कीमतें बाजार के हवाले करके इसे पहले ही साबित किया जा चुका है। इसी तरह डीजल और एलपीजी की कीमतों को बाजार के हवाले करने की तैयारी काफी पहले से कर ली गई है। डीजल की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने का वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने इस बार भी ऐलान करते वक्त वही पुराना रोना रोया है। उन्होंने कहा है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत जुलाई में बढ़कर 116-118 डॉलर बैरल हो गई, जबकि जून में यह 110 डॉलर बैरल थी। इसका असर भारत पर पड़ेगा। इसी तर्क के आधार पर पेट्रोल की कीमतें बढ़ाई गईं। लेकिन वित्त मंत्री यह बताना भूल गए कि इसी साल जब कुछ वक्त तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें 90-95 डॉलर प्रति बैरल पर आ गई थीं तो बाजार के नियमों के मुताबिक घरेलू बाजार में पेट्रोल की कीमतें घट जानी चाहिए थीं। लेकिन हकीकत तो यह है कि ऐसा नहीं हुआ। यह मांग भी कोई अलग नहीं है। क्योंकि जिन देशों में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बाजार के हवाले हैं, वहां तो ऐसा ही होता है।
पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बार-बार बढ़ाने या बाजार के हवाले करने का तर्क देते वक्त सरकार यह बताना नहीं भूलती कि ईंधन और उर्वरक की सब्सिडी के मद में उसे अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ता है। भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार यह रकम हर साल करीब 73 हजार 637 करोड़ बैठती है। निश्चित तौर पर इतनी बड़ी रकम भारत सरकार के लिए बोझ ही है। लेकिन सरकार को इसका भी खुलासा करना चाहिए कि इतनी बड़ी सब्सिडी के बावजूद देश के आम आदमी के हिस्से क्या आता है। हकीकत तो यह है कि खाद की सब्सिडी किसानों के नाम पर हर बार दी जाती है, लेकिन उसका फायदा खाद बनाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियां उठाती हैं। इसी तरह डीजल पर सब्सिडी देते वक्त सरकार किसानों का ही बहाना बनाती है। लेकिन खुद सरकार भी मानती है कि 75 फीसदी डीजल और चालीस फीसदी रसोई गैस और केरोसिन का इस्तेमाल उद्योगों में होता है। यही वजह है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक शरद यादव ने पिछले दिनों पेट्रोलियम मंत्रालय को लिखकर डीजल की सब्सिडी खत्म करने का सुझाव दिया था। उन्होंने अपनी चिट्ठी में लिखा था कि डीजल की सब्सिडी का सबसे ज्यादा फायदा मोबाइल टावरों, मॉल, होटल और बड़ी कंपनियों को हो रहा है, क्योंकि उनके यहां बिजली डीजल से चलने वाले जेनरेटरों से ही तैयार की जाती है। शरद यादव ने इसे ध्यान दिलाते हुए कहा था कि डीजल से सब्सिडी खत्म करके किसानों को सीधे सहायता मुहैया कराई जाय। लेकिन शरद यादव की मांग को पूरा करने में व्यवहारिक दिक्कत यह है कि अगर किसानों को सीधे सहयोग दिया जाएगा तो भ्रष्टाचार की नई गंगा शुरू हो जाएगी। हां, एक उपाय यह जरूर हो सकता है कि डीजल के किसानों को राशन कार्ड दिए जाएं। लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए राशन की जैसी बंदरबाट हो रही है और जिस तरह रसूखदार लोगों तक ने बीपीएल कार्ड बनवा लिए हैं, उससे साफ है कि किसानों के नाम पर राशन से डीजल हासिल करने के नए भ्रष्टाचारी खेल की शुरूआत हो जाएगी। वैसे भी जब सब्सिडी घटाने की बात आती है या फिर इनकी कीमतों को बाजार के हवाले करने का तर्क दिया जाता है, तब इस तथ्य को धीरे से बताया जाता है। लेकिन ऐसा करते वक्त सरकारें भूल जाती हैं कि सब्सिडी घटाने की असल मार किसानों और आम आदमी को भुगतनी पड़ती है। देश में बिजली की जो हालत है, उसमें खेती में ऊर्जा का सबसे बड़ा माध्यम डीजल ही है। जाहिर है कि अगर डीजल की कीमतें बढ़ती हैं तो खेती की लागत भी बढ़ेगी। जिसे बड़े किसान तो भुगत सकते हैं, लेकिन छोटे किसानों के लिए इसे झेल पाना आसान नहीं होगा। इस लिहाज से खेती की लागत बढ़ जाएगी और खेती का संकट बढ़ जाएगा। इसी तरह जब डीजल की कीमत में एक रूपए की बढ़ोत्तरी होती है तो महंगाई में डेढ़ गुना तक बढ जाती है। फिर जिस सब्सिडी को रोकने की बात की जा रही है, खुद पेट्रोलियम मंत्रालय ही मानता है कि डीजल पर सब्सिडी सिर्फ 3.80 रूपए प्रति लीटर दी जा रही है। इसी तरह सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए दिए जा रहे केरोसिन पर 18.82 रूपए प्रति लीटर सब्सिडी दी जा रही है। जाहिर है कि कम से कम डीजल पर सब्सिडी भी ज्यादा नहीं है।
यह सच है कि हम अपनी ऊर्जा जरूरतों का तीन चौथाई हिस्सा आयात करते हैं। इससे सरकारी खजाने पर बोझ तो है ही। इसी लिए हम अमेरिका और ब्रिटेन की नकल पर अपने यहां पहले पेट्रोल को बाजार के हवाले कर चुके हैं और अब डीजल और एलपीजी को भी करने जा रहे हैं। ऐसे में हमें सरकार से पूछना पडेगा कि जब पेट्रोलियम को बाजार के हवाले करने के मामले में अमेरिका की नकल की जा सकती है, तब अमेरिका में जनता को राहत देने जैसी नकल क्यों नहीं की जा सकती। मसलन-जब 2004 में पेट्रोल की कीमतों में भारी तेजी आई थी, तब अमेरिकी संसद ने सेना के तेल भंडार में कटौती करके तेल को बाजार में भेजने के लिए तब के अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश को मजबूर कर दिया था। बुश ने इसके खिलाफ लाखों तर्क दिए थे, पर संसद ने कह दिया था कि सरकार की प्राथमिकता फिलहाल तो तेल की कीमतों पर नियंत्रण रखना ही होना चाहिए। जिस राह पर भारत सरकार चल रही है, क्या इस दौर में उससे अमेरिका जैसे कदम उठाने की उम्मीद भी की जा सकती है ?
Tuesday, August 2, 2011
Thursday, July 28, 2011
खुदरा में विदेशी निवेश : किसको नफा, किसे नुकसान
उमेश चतुर्वेदी
खुदरा व्यापार में भी विदेशी निवेश की मंजूरी देकर भारत सरकार ने एक बार फिर बहस को जन्म दे दिया है। उदारीकरण की शुरूआत के ठीक बीस साल बाद रिटेल सेक्टर को विदेशी निवेश के लिए खोलने के बाद बहस एक बार फिर वही है कि देशभर में फैले करीब डेढ़ करोड़ खुदरा दुकानदारों का क्या होगा। इतनी संख्या तो खुद भारत सरकार ही मानती है। लेकिन यह संख्या इससे और ज्यादा ही है। क्योंकि देशभर में रेहड़ी-पटरी वाले व्यापारियों का अभी तक कोई मुकम्मल आंकड़ा तैयार नहीं किया जा सका है। लेकिन अगर भारत सरकार के बिजनेस पोर्टल की ही मान लें तो भारत भर में फैले करीब डेढ़ करोड़ खुदरा दुकानदार तो हैं हीं और उनके साथ करीब नौ करोड़ लोगों की जिंदगी भी जुड़ी है।
खुदरा व्यापार में भी विदेशी निवेश की मंजूरी देकर भारत सरकार ने एक बार फिर बहस को जन्म दे दिया है। उदारीकरण की शुरूआत के ठीक बीस साल बाद रिटेल सेक्टर को विदेशी निवेश के लिए खोलने के बाद बहस एक बार फिर वही है कि देशभर में फैले करीब डेढ़ करोड़ खुदरा दुकानदारों का क्या होगा। इतनी संख्या तो खुद भारत सरकार ही मानती है। लेकिन यह संख्या इससे और ज्यादा ही है। क्योंकि देशभर में रेहड़ी-पटरी वाले व्यापारियों का अभी तक कोई मुकम्मल आंकड़ा तैयार नहीं किया जा सका है। लेकिन अगर भारत सरकार के बिजनेस पोर्टल की ही मान लें तो भारत भर में फैले करीब डेढ़ करोड़ खुदरा दुकानदार तो हैं हीं और उनके साथ करीब नौ करोड़ लोगों की जिंदगी भी जुड़ी है।
Saturday, July 23, 2011
विरोध के सुरों के बीच दार्जिलिंग क्षेत्रीय प्रशासन
उमेश चतुर्वेदी
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की अजीब-सी फितरत है। पहले वे समस्याएं पैदा करते हैं, फिर उसे अपने राजनीतिक हितों के लिए बढ़ावा देते हैं, समाधान भी वही करते हैं और चलते-चलते ऐसा समाधान करते हैं कि उस समाधान में भी भविष्य के लिए कुछ नई समस्याएं रह जाती हैं। दार्जिलिंग टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन यानी दार्जिलिंग क्षेत्रीय प्रशासन बनाने को लेकर हुआ त्रिपक्षीय समझौता भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की इसी खासियत का ताजा उदाहरण है। समझौता हुआ नहीं कि इसके विरोध की लहरें तेजी से उठने लगीं हैं। दार्जिलिंग से सटे जलपाईगुड़ी जिले के जिन तराई और दोआर्स वाले इलाकों को इस प्रशासनिक व्यवस्था के अधीन लाया गया है, वहां इसका विरोध शुरू हो गया है। यहां सक्रिय संस्थाएं आमरा बंगाली, जन जागरण, जन चेतना के साथ ही स्थानीय अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद भी विरोध के इस सुर में अपना सुर मिलाने लगी है। समझौते के ठीक अगले दिन यानी 19 जुलाई से 48 घंटे के व्यापक बंद का जिस तेजी से इन संस्थाओं ने ऐलान किया और लोगों का उसे जितना समर्थन मिला है, उससे साफ है कि आने वाले दिनों में दार्जिलिंग टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन यानी डीटीए की राह आसान नहीं होगी। दरअसल जिस डीटीए के गठन को लेकर पश्चिम बंगाल की ममता सरकार और पी चिदंबरम का गृहमंत्रालय अपनी उपलब्धि बताते नहीं थक रहा है, उसके गठन की सबसे बड़ी वजह पिछली सदी के अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में अलग गोरखालैंड राज्य के गठन का हिंसक आंदोलन रहा है। इस हिंसक आंदोलन की कीमत इन इलाकों में रह रहे गैर नेपाली मूल के लोगों ने चुकाई है। दरअसल तराई और दोआर्स के इलाकों में नेपाली मूल से कहीं ज्यादा बांग्ला और हिंदी भाषी लोग हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान से गए लोगों का यहां के मोहल्ला व्यापार पर तो कब्जा है ही, राजनीतिक और सामाजिक जीवन में अपनी आर्थिक समृद्धि के जरिए उनका हस्तक्षेप बना हुआ है। स्थानीय बांग्लाभाषियों का तो खैर यह इलाका है ही। फिर आदिवासी, बोडो और राजवंशी समुदाय भी अच्छी खासी संख्या में है। इनकी भी अलग गोरखालैंड राज्य के प्रति सहानुभूति नहीं रही है। नेपाली मूल के अलग गोरखालैंड राज्य के गठन के हिंसक आंदोलन के शिकार यही लोग हुए थे। हालांकि स्थानीय नेपाली समुदाय के साथ उनके रिश्तों में उस दौर की तल्खी नहीं है। लेकिन इतिहास तो इतिहास होता है और उसे झुठलाया जाना आसान नहीं होता। इतिहास में मिली टीस भविष्य को आशंकित करने के लिए काफी होती है। पश्चिम बंगाल सरकार और केंद्रीय गृहमंत्रालय ने इतिहास की इस टीस को ठीक से नहीं समझा। दिलचस्प बात यह है कि इस समझौते की इस कमी को पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी सरकार के एक स्तंभ रहे अशोक भट्टाचार्य ने खुलकर इस समझौते का विरोध किया है। अखबारों में उनके बयान भी आए हैं। इन बयानों के मुताबिक तराई और दोआर्स के इलाक़ो को गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन में लाए जाने से इन इलाक़ो में मौजूद आदिवासियों, बंगालियों, बोडो और राजवंशी समाज के लोगों के मन में निराशा पैदा होगी, जिससे समस्या के समाधान की बजाए नई दिक़्कते ही बढ़ेंगीं। हालांकि ममता सरकार ने एक समिति के गठन का भी ऐलान किया है, जो तराई और दोआर्स के इलाकों को इस नए प्रशासन में शामिल करने के लिए सुझाव देगी। लेकिन तराई और दोआर्स में रह रहे गैर नेपाली समुदाय के लोगों को आशंका है कि समिति की रिपोर्ट डीटीए और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के ही पक्ष में रिपोर्ट देगी।
नाराज तो अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर लंबे समय तक संघर्षरत रहे गोरखा लिबरेशन फ्रंट के सुभाष घीसिंग भी हैं। इसके साथ ही अखिल भारतीय गोरखा लीग भी इसके विरोध में है। यह सच है कि इस समय गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का दार्जिलिंग के इलाकों में बोलबाला है। हालांकि इसका गठन सिर्फ तीन साल पहले यानी 2008 में हुआ था। इस सच को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि अलग गोरखालैंड की अपनी पैरवी के दम पर पूरी दुनिया में तहलका मचाने वाले सुभाष घीसिंग और उनका संगठन हाशिए पर पड़ा है। उन्हें डीटीए के गठन के विमर्श में भी शामिल नहीं किया गया। समझौता तो खैर गृहमंत्रालय, पश्चिम बंगाल सरकार और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के रोशन गिरी के ही बीच हुआ है। यह ठीक है कि गोरखा लीग और सुभाष घीसिंग को इस समझौते में शामिल नहीं किया जा सकता था। लेकिन विचार-विमर्श की प्रक्रिया में उन्हें शामिल किया जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इससे घीसिंग और गोरखा लीग का नाराज होना अस्वाभाविक नहीं है। जिस तरह से इसके गठन के बाद ही विरोध शुरू हो गया है, उसमें राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश में घीसिंग और अखिल गोरखा लीग भी जुट सकता है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि पश्चिम बंगाल और देश की सरकार और उसके अधिकारी इस आशंका को क्यों नहीं समझ पाए। अब दार्जिलिंग इलाके में यह सवाल भी पूछा जाना शुरू हो गया है कि 2008 में नेपाली भाषियों के अलग राज्य के मुद्दे पर गठित गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के सामने आखिर क्या मजबूरी रही कि उसने इस नए प्रशासन के मसविदे को मंजूरी दे दी। अगर इस मांग ने जोर पकड़ा तो गोरखा जनमु्क्ति मोर्चा के भी पाला बदलते देर नहीं लगेगी।
डीटीए 1988 में बनी गोरखालैंड हिल काउंसिल की जगह लेने जा रही है। जिसे हिल काउंसिल से कहीं ज्यादा अधिकार हासिल हैं। गृह मंत्री पी चिदंबरम ने खुद इसका ऐलान करते हुए कहा कि क्षेत्रीय प्रशासन को व्यापक अधिकार दिए गए हैं और उनके पास रोज़मर्रा के काम काज से संबंधित लगभग सभी विभाग मौजूद हैं। हालांकि उसे कानून बनाने के अधिकार हासिल नहीं है। समझौते के मुताबिक इस प्रशासन के लिए 45 सदस्य चुने जाएंगे, जबकि पांच को राज्य सरकार मनोनीत करेगी। उपर से देखने में यह व्यवस्था बेहद साफ-सुथरी नजर आ रही है। लेकिन हकीकत तो यह है कि इसका राजनीतिक विरोध शुरू हो गया है। राज्य की विपक्षी पार्टियों का आरोप है कि इस प्रशासन के गठन में उनसे सलाह-मशविरा भी नहीं किया गया। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी तो यहां तक कह रही है कि ममता बनर्जी ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए यह नया प्रशासन बनवाया है। विपक्षी दलों के इस आरोप में दम इसलिए नजर आता है, क्योंकि अपने चुनाव प्रचार के दौरान ममता बनर्जी ने इस इलाके में और अधिकार प्राप्त नई व्यवस्था बनाने का वादा किया था। ममता बनर्जी को अभी विधानसभा से इस प्रशासन को कानूनी जामा पहनाने के लिए विधेयक पारित कराना होगा। चूंकि नए समझौते के तहत गोरखालैंड प्रशासन के पास 54 विभाग होंगे जिसके तहत भूमि के मामले की देख-रेख का अधिकार भी शामिल है। इसलिए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का विरोध उसे विधानसभा में झेलना होगा। क्योंकि भूमि सुधार कम्युनिस्ट पार्टियों की जान रहे हैं और राज्य में उनके 34 साल के शासन की प्रमुख वजह भी रहे हैं। जाहिर है कि नए समझौते के तहत बन रहे इस प्रशासन को चौतरफा विरोध शुरू हो गया है और गोरखालैंड में आंदोलनों का जो इतिहास रहा है, उससे आशंकाएं ही बढ़ती हैं। क्योंकि विरोध के इन सुरों के बीच फिर किसी गोरखा या राजनीतिक समूह ने अलग राज्य की वीणा बजानी शुरू की तो गोरखालैंड में शांति बनाए रखना आसान नहीं होगा। व्यापक राजनीतिक विमर्श की कमी लोकतांत्रिक समाज में अविश्वसनीयता को ही बढ़ाती है और यह अविश्वसनीयता कई बार महत्वाकांक्षी राजनीतिक दलों को अपनी ताकत बढ़ाने का माहौल मुहैया कराती हैं।
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की अजीब-सी फितरत है। पहले वे समस्याएं पैदा करते हैं, फिर उसे अपने राजनीतिक हितों के लिए बढ़ावा देते हैं, समाधान भी वही करते हैं और चलते-चलते ऐसा समाधान करते हैं कि उस समाधान में भी भविष्य के लिए कुछ नई समस्याएं रह जाती हैं। दार्जिलिंग टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन यानी दार्जिलिंग क्षेत्रीय प्रशासन बनाने को लेकर हुआ त्रिपक्षीय समझौता भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की इसी खासियत का ताजा उदाहरण है। समझौता हुआ नहीं कि इसके विरोध की लहरें तेजी से उठने लगीं हैं। दार्जिलिंग से सटे जलपाईगुड़ी जिले के जिन तराई और दोआर्स वाले इलाकों को इस प्रशासनिक व्यवस्था के अधीन लाया गया है, वहां इसका विरोध शुरू हो गया है। यहां सक्रिय संस्थाएं आमरा बंगाली, जन जागरण, जन चेतना के साथ ही स्थानीय अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद भी विरोध के इस सुर में अपना सुर मिलाने लगी है। समझौते के ठीक अगले दिन यानी 19 जुलाई से 48 घंटे के व्यापक बंद का जिस तेजी से इन संस्थाओं ने ऐलान किया और लोगों का उसे जितना समर्थन मिला है, उससे साफ है कि आने वाले दिनों में दार्जिलिंग टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन यानी डीटीए की राह आसान नहीं होगी। दरअसल जिस डीटीए के गठन को लेकर पश्चिम बंगाल की ममता सरकार और पी चिदंबरम का गृहमंत्रालय अपनी उपलब्धि बताते नहीं थक रहा है, उसके गठन की सबसे बड़ी वजह पिछली सदी के अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में अलग गोरखालैंड राज्य के गठन का हिंसक आंदोलन रहा है। इस हिंसक आंदोलन की कीमत इन इलाकों में रह रहे गैर नेपाली मूल के लोगों ने चुकाई है। दरअसल तराई और दोआर्स के इलाकों में नेपाली मूल से कहीं ज्यादा बांग्ला और हिंदी भाषी लोग हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान से गए लोगों का यहां के मोहल्ला व्यापार पर तो कब्जा है ही, राजनीतिक और सामाजिक जीवन में अपनी आर्थिक समृद्धि के जरिए उनका हस्तक्षेप बना हुआ है। स्थानीय बांग्लाभाषियों का तो खैर यह इलाका है ही। फिर आदिवासी, बोडो और राजवंशी समुदाय भी अच्छी खासी संख्या में है। इनकी भी अलग गोरखालैंड राज्य के प्रति सहानुभूति नहीं रही है। नेपाली मूल के अलग गोरखालैंड राज्य के गठन के हिंसक आंदोलन के शिकार यही लोग हुए थे। हालांकि स्थानीय नेपाली समुदाय के साथ उनके रिश्तों में उस दौर की तल्खी नहीं है। लेकिन इतिहास तो इतिहास होता है और उसे झुठलाया जाना आसान नहीं होता। इतिहास में मिली टीस भविष्य को आशंकित करने के लिए काफी होती है। पश्चिम बंगाल सरकार और केंद्रीय गृहमंत्रालय ने इतिहास की इस टीस को ठीक से नहीं समझा। दिलचस्प बात यह है कि इस समझौते की इस कमी को पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी सरकार के एक स्तंभ रहे अशोक भट्टाचार्य ने खुलकर इस समझौते का विरोध किया है। अखबारों में उनके बयान भी आए हैं। इन बयानों के मुताबिक तराई और दोआर्स के इलाक़ो को गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन में लाए जाने से इन इलाक़ो में मौजूद आदिवासियों, बंगालियों, बोडो और राजवंशी समाज के लोगों के मन में निराशा पैदा होगी, जिससे समस्या के समाधान की बजाए नई दिक़्कते ही बढ़ेंगीं। हालांकि ममता सरकार ने एक समिति के गठन का भी ऐलान किया है, जो तराई और दोआर्स के इलाकों को इस नए प्रशासन में शामिल करने के लिए सुझाव देगी। लेकिन तराई और दोआर्स में रह रहे गैर नेपाली समुदाय के लोगों को आशंका है कि समिति की रिपोर्ट डीटीए और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के ही पक्ष में रिपोर्ट देगी।
नाराज तो अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर लंबे समय तक संघर्षरत रहे गोरखा लिबरेशन फ्रंट के सुभाष घीसिंग भी हैं। इसके साथ ही अखिल भारतीय गोरखा लीग भी इसके विरोध में है। यह सच है कि इस समय गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का दार्जिलिंग के इलाकों में बोलबाला है। हालांकि इसका गठन सिर्फ तीन साल पहले यानी 2008 में हुआ था। इस सच को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि अलग गोरखालैंड की अपनी पैरवी के दम पर पूरी दुनिया में तहलका मचाने वाले सुभाष घीसिंग और उनका संगठन हाशिए पर पड़ा है। उन्हें डीटीए के गठन के विमर्श में भी शामिल नहीं किया गया। समझौता तो खैर गृहमंत्रालय, पश्चिम बंगाल सरकार और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के रोशन गिरी के ही बीच हुआ है। यह ठीक है कि गोरखा लीग और सुभाष घीसिंग को इस समझौते में शामिल नहीं किया जा सकता था। लेकिन विचार-विमर्श की प्रक्रिया में उन्हें शामिल किया जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इससे घीसिंग और गोरखा लीग का नाराज होना अस्वाभाविक नहीं है। जिस तरह से इसके गठन के बाद ही विरोध शुरू हो गया है, उसमें राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश में घीसिंग और अखिल गोरखा लीग भी जुट सकता है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि पश्चिम बंगाल और देश की सरकार और उसके अधिकारी इस आशंका को क्यों नहीं समझ पाए। अब दार्जिलिंग इलाके में यह सवाल भी पूछा जाना शुरू हो गया है कि 2008 में नेपाली भाषियों के अलग राज्य के मुद्दे पर गठित गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के सामने आखिर क्या मजबूरी रही कि उसने इस नए प्रशासन के मसविदे को मंजूरी दे दी। अगर इस मांग ने जोर पकड़ा तो गोरखा जनमु्क्ति मोर्चा के भी पाला बदलते देर नहीं लगेगी।
डीटीए 1988 में बनी गोरखालैंड हिल काउंसिल की जगह लेने जा रही है। जिसे हिल काउंसिल से कहीं ज्यादा अधिकार हासिल हैं। गृह मंत्री पी चिदंबरम ने खुद इसका ऐलान करते हुए कहा कि क्षेत्रीय प्रशासन को व्यापक अधिकार दिए गए हैं और उनके पास रोज़मर्रा के काम काज से संबंधित लगभग सभी विभाग मौजूद हैं। हालांकि उसे कानून बनाने के अधिकार हासिल नहीं है। समझौते के मुताबिक इस प्रशासन के लिए 45 सदस्य चुने जाएंगे, जबकि पांच को राज्य सरकार मनोनीत करेगी। उपर से देखने में यह व्यवस्था बेहद साफ-सुथरी नजर आ रही है। लेकिन हकीकत तो यह है कि इसका राजनीतिक विरोध शुरू हो गया है। राज्य की विपक्षी पार्टियों का आरोप है कि इस प्रशासन के गठन में उनसे सलाह-मशविरा भी नहीं किया गया। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी तो यहां तक कह रही है कि ममता बनर्जी ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए यह नया प्रशासन बनवाया है। विपक्षी दलों के इस आरोप में दम इसलिए नजर आता है, क्योंकि अपने चुनाव प्रचार के दौरान ममता बनर्जी ने इस इलाके में और अधिकार प्राप्त नई व्यवस्था बनाने का वादा किया था। ममता बनर्जी को अभी विधानसभा से इस प्रशासन को कानूनी जामा पहनाने के लिए विधेयक पारित कराना होगा। चूंकि नए समझौते के तहत गोरखालैंड प्रशासन के पास 54 विभाग होंगे जिसके तहत भूमि के मामले की देख-रेख का अधिकार भी शामिल है। इसलिए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का विरोध उसे विधानसभा में झेलना होगा। क्योंकि भूमि सुधार कम्युनिस्ट पार्टियों की जान रहे हैं और राज्य में उनके 34 साल के शासन की प्रमुख वजह भी रहे हैं। जाहिर है कि नए समझौते के तहत बन रहे इस प्रशासन को चौतरफा विरोध शुरू हो गया है और गोरखालैंड में आंदोलनों का जो इतिहास रहा है, उससे आशंकाएं ही बढ़ती हैं। क्योंकि विरोध के इन सुरों के बीच फिर किसी गोरखा या राजनीतिक समूह ने अलग राज्य की वीणा बजानी शुरू की तो गोरखालैंड में शांति बनाए रखना आसान नहीं होगा। व्यापक राजनीतिक विमर्श की कमी लोकतांत्रिक समाज में अविश्वसनीयता को ही बढ़ाती है और यह अविश्वसनीयता कई बार महत्वाकांक्षी राजनीतिक दलों को अपनी ताकत बढ़ाने का माहौल मुहैया कराती हैं।
Thursday, July 21, 2011
प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का पहला बलिया फिल्म फेस्टिवल
2006 से जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का उन्नीसवां और बलिया का पहला प्रतिरोध का सिनेमा फिल्म फेस्टिवल आगामी 10 और 11 सितम्बर को बलिया के बापू भवन टाउन हॉल में सुबह 10 बजे से होने जा रहा है। टाउन हॉल बलिया बलिया रेलवे स्टेशन के बहुत नजदीक है। जल्द ही हम अपने ब्लॉग www.gorakhpurfilmfestival.blogspot.comपर कार्यक्रम का विस्तृत ब्यौरा देंगे।
इस फेस्टिवल में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व के वृत्त चित्र, लघु फिल्म और फीचर फिल्मों के अलावा संकल्प, बलिया द्वारा भिखारी ठाकुर के प्रसिद्ध नाटक बिदेशिया का मंचन भी किया जाएगा। इसके साथ ही गोरख पाण्डेय की कविता पोस्टरों और जन चेतना के चितेरे के नाम से प्रगतिशील चित्रकार चित्त प्रसाद, जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के प्रतिनिधि चित्रों की प्रदर्शनी भी आयोजित की जा रही है। फिल्म फेस्टिवल में प्रमुख भारतीय फिल्मकारों के शामिल होने की भी संभावना है।
प्रतिरोध के सिनेमा अभियान के दूसरे फिल्म फेस्टिवलों की तरह यह फेस्टिवल भी बिना किसी सरकारी, गैर सरकारी और एन जी ओ की स्पांसरशिप के आयोजित किया जा रहा है। प्रतिरोध की संस्कृति के इच्छुक ईमानदार सामन्य जन ही इसके स्पांसर हैं। इसलिए आपसे अनुरोध है कि इस आयोजन में हर तरह से शामिल होकर प्रतिरोध का सिनेमा अभियान को सफल और मजबूत बनाएँ। इस पूरे आयोजन में प्रवेश नि:शुल्क है और किसी भी प्रकार के औपचारिक निमंत्रण की जरुरत नही है। इस बारे में और जानकारी संकल्प ,जन संस्कृति मंच, बलिया के सचिव आशीष त्रिवेदी से उनके फोन नंबर 09918377816 या ashistrivedi1@gmail.com से हासिल की जा सकती है। (प्रेस विज्ञप्ति)
इस फेस्टिवल में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व के वृत्त चित्र, लघु फिल्म और फीचर फिल्मों के अलावा संकल्प, बलिया द्वारा भिखारी ठाकुर के प्रसिद्ध नाटक बिदेशिया का मंचन भी किया जाएगा। इसके साथ ही गोरख पाण्डेय की कविता पोस्टरों और जन चेतना के चितेरे के नाम से प्रगतिशील चित्रकार चित्त प्रसाद, जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के प्रतिनिधि चित्रों की प्रदर्शनी भी आयोजित की जा रही है। फिल्म फेस्टिवल में प्रमुख भारतीय फिल्मकारों के शामिल होने की भी संभावना है।
प्रतिरोध के सिनेमा अभियान के दूसरे फिल्म फेस्टिवलों की तरह यह फेस्टिवल भी बिना किसी सरकारी, गैर सरकारी और एन जी ओ की स्पांसरशिप के आयोजित किया जा रहा है। प्रतिरोध की संस्कृति के इच्छुक ईमानदार सामन्य जन ही इसके स्पांसर हैं। इसलिए आपसे अनुरोध है कि इस आयोजन में हर तरह से शामिल होकर प्रतिरोध का सिनेमा अभियान को सफल और मजबूत बनाएँ। इस पूरे आयोजन में प्रवेश नि:शुल्क है और किसी भी प्रकार के औपचारिक निमंत्रण की जरुरत नही है। इस बारे में और जानकारी संकल्प ,जन संस्कृति मंच, बलिया के सचिव आशीष त्रिवेदी से उनके फोन नंबर 09918377816 या ashistrivedi1@gmail.com से हासिल की जा सकती है। (प्रेस विज्ञप्ति)
Friday, July 8, 2011
आधुनिकताबोध और ग्रामीण सभ्यता
उमेश चतुर्वेदी
साध्य और साधन एक ही हों, लेकिन साधक की पृष्ठभूमि अलग हो तो आधुनिक सभ्यता और समाज का नजरिया दोनों को लेकर बदल जाता है। आज के दौर में आधुनिकता को व्यापक बनाने का ठेका सरकारों के पास ही है, लिहाजा उनका भी रवैया कुछ ऐसा ही नजर आता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन में कम से कम साध्य और साधन के स्तर पर बराबरी तो थी ही। दोनों का लक्ष्य भ्रष्टाचार के भस्मासुर का विरोध करना था और दोनों ने अनशन और सत्याग्रह को ही अपना साधन बनाया। लेकिन समाज और व्यक्ति को आधुनिक बनाने की कथित जिम्मेदारी संभाल रही सरकारों का रवैया दोनों ही आंदोलनों को लेकर एक जैसा नहीं रहा। इन आंदोलनों को तोड़ने और उन्हें नुकसान पहुंचाने को लेकर हुई सत्ता और विपक्ष की राजनीति पर काफी चर्चा हो चुकी है। लेकिन अभी तक आंदोलन की मीमांसा उनके नेताओं और उनमें शामिल हुए लोगों की पृष्ठभूमि को लेकर नहीं हुआ है।
चार अप्रैल को दिल्ली के जंतर-मंतर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन पर बैठे अन्ना हजारे को चार दिनों में जो समर्थन मिला, उसमें ज्यादातर शहरी मध्यवर्ग था। इस तथ्य पर शायद ही किसी को एतराज हो। एनजीओ और सिविल सोसायटी के नाम पर जो लोग इस आंदोलन में कूदे वे महज 30 फीसदी भारत का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। क्योंकि 2011 की जनगणना के शुरूआती आंकड़े तो यही बताते हैं कि देश की करीब तीस फीसदी आबादी ही शहरों-छोटे नगरों या कस्बों में निवास करती है। देश की बाकी 70 फीसदी आबादी अब भी गांवों-ढाणियों में रह रही है। अन्ना के चार दिनों के अनशन को जिस तरह शहरी मध्यवर्ग का समर्थन मिला, दूर – दूर से शहरी मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले नौजवानों का हुजूम दिल्ली की ओर बढ़ने लगा तो सरकार की सांसत बढ़ गई। उसने अपने तेजतर्रार, दूसरे शब्दों में कहें तो शातिर मंत्री कपिल सिब्बल को अन्ना हजारे को मनाने में लगाया। आठ अप्रैल को जिस तरह सरकार अन्ना के सामने दंडवत करते नजर आई, उसे देश की आम जनता की जीत बताया गया। जनता की जीत तो यह थी, लेकिन जिस जनता की जीत हुई या अभी होनी बाकी है, उस जनता की पहचान होनी बाकी है। आज जो सिविल सोसायटी या एनजीओ अन्ना के साथ खड़े हैं, उनके कर्ता-धर्ता ज्यादातर शहरी मध्यवर्ग का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।
लेकिन चार जून को रामलीला मैदान में आने वाले लोगों में से ज्यादातर की पृष्ठभूमि ग्रामीण थी। रामदेव के साथ योग भले ही शहरी मध्यवर्ग के लोग करते हैं, लेकिन उनके भगवा चोले और साधुवेश को ग्रामीण लोगों का समर्थन ज्यादा है। रामलीला मैदान में जुटी भीड़ भी ज्यादातर ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली ही थी। हम गांधी और गांव की बात तो करते हैं, हमारी सरकारें उनका पारायण तो करती हैं, लेकिन जैसे ही अपनी सत्ता की हनक दिखाने का मौका आता है, ग्रामीण लोगों पर सरकारी कहर तोड़ने में कोई भी सरकार पीछे नहीं रहती। उत्तर प्रदेश के भट्टा पारसौल में जिस तरह घरों में घुसकर पुलिस ने पुरूषों-महिलाओं और बच्चों को पीटा, क्या दिल्ली-मुंबई या फिर ऐसे ही किसी शहरी समाज में पुलिस या सरकार ऐसी हिम्मत दिखा सकती है। शहरी मध्यवर्ग की मोमबत्तियों का डर उसे ऐसा करने से रोक देता है। भारत भले ही गांवों का देश हो, ग्रामीण सभ्यता वाला देश हो, लेकिन हकीकत तो यह है कि गांव और ग्रामीण अब हाशिए पर हैं। ग्रामीण होना मौजूदा मानकों के मुताबिक सभ्यता और संस्कृति से दूर पिछड़ा होने की निशानी है। शायद यही वजह है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के सुदूर गाजीपुर में रह रहे हिंदी साहित्यकार विवेकी राय कहते हैं कि दरअसल आज की सारी लड़ाइयां शहरी हैं। गांव तो सिर्फ मुखौटा है। गांवों को मुखौटा बनाने और उन्हें असभ्यता से सभ्यता की ओर लाने वाली नीतियों की शुरूआत नेहरू सरकार के दौरान ही हो गई थी। जयप्रकाश नारायण का नेहरू से मतभेद की बड़ी वजह यह सोच भी थी। यही वजह है कि 1955-56 में नेहरू के बुलावे के बाद भी जयप्रकाश नारायण उनकी कैबिनेट में शामिल नहीं हुए। गांवों और उनकी आवाज को तब से लेकर अब तक दबाया ही जा रहा है। इस देश की नीतियां, विकास के पैमाने और सभ्यता के मानदंड शहरों को केंद्र में रखकर बनाए जाते हैं। इसका ही असर है कि गांव को अगर आठ घंटे बिजली और चलताऊ सड़क मिल गई तो मान लिया जाता है कि बहुत कुछ हो गया, लेकिन शहर में चार घंटे बिजली कटती है तो हाहाकार मच जाता है। शहरों के आंसू पोंछने के लिए राजनीति और नौकरशाही आगे रहती है, लेकिन फटेहाली में जीते गांव के लिए सिर्फ घड़ियाली आंसू बहाए जाते हैं और अगर ग्रामीण सभ्यता ने इन आंसुओं की पहचान कर ली तो उसे पुलिस और डंडे के जोर पर दबा दिया जाता है। यही वजह है कि आज देश के करीब एक चौथाई जिलों में सरकारों का कोई असर नहीं है। पुलिस, नेता और अधिकारी की तुलना में इन गांव वालों को नक्सली कहीं ज्यादा अपने और भरोसेमंद लगते हैं।
बाबा रामदेव को अगर नक्सलियों ने भी समर्थन देने का ऐलान किया तो उसके भी संकेत साफ हैं। उन्हें पता है कि रामदेव के अनशन में शहरी मध्यवर्ग की तुलना में गांव-गिरांव के लोग कुछ ज्यादा ही शामिल थे। बाबा रामदेव और उनके समर्थकों के खिलाफ जैसी कार्रवाई पुलिस और सरकार ने की, उससे इसी धारणा को बल मिलता है कि ग्रामीण सभ्यता के खिलाफ आज की पूरी व्यवस्था है। वह तो भला हो लोकतंत्र का कि पांच साल में एक बार गांव वालों की पूछ बढ़ जाती है। लेकिन वह भी कितने दिनों के लिए, सिर्फ चुनावी प्रक्रिया के पूरी होने तक ही गांव वालों की पूछ-परख रहती है। दिलचस्प बात यह है कि ग्रामीण सभ्यता को शहरी मानदंडों के मुताबिक हांकने वाली सरकारों को बनाने में सबसे ज्यादा योगदान इस ग्रामीण आबादी का ही होता है। चुनाव के दिन गांव वाले ही ज्यादा वोट डालने निकलते हैं। शहरी मध्यवर्ग तो उस दिन अपने शहरों के इंडिया गेट, गेट वे ऑफ इंडिया या गोमतीनगर में पिकनिक पर होता है। उसकी नजर में मतदान बेकार की कवायद होती है।
साध्य और साधन एक ही हों, लेकिन साधक की पृष्ठभूमि अलग हो तो आधुनिक सभ्यता और समाज का नजरिया दोनों को लेकर बदल जाता है। आज के दौर में आधुनिकता को व्यापक बनाने का ठेका सरकारों के पास ही है, लिहाजा उनका भी रवैया कुछ ऐसा ही नजर आता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन में कम से कम साध्य और साधन के स्तर पर बराबरी तो थी ही। दोनों का लक्ष्य भ्रष्टाचार के भस्मासुर का विरोध करना था और दोनों ने अनशन और सत्याग्रह को ही अपना साधन बनाया। लेकिन समाज और व्यक्ति को आधुनिक बनाने की कथित जिम्मेदारी संभाल रही सरकारों का रवैया दोनों ही आंदोलनों को लेकर एक जैसा नहीं रहा। इन आंदोलनों को तोड़ने और उन्हें नुकसान पहुंचाने को लेकर हुई सत्ता और विपक्ष की राजनीति पर काफी चर्चा हो चुकी है। लेकिन अभी तक आंदोलन की मीमांसा उनके नेताओं और उनमें शामिल हुए लोगों की पृष्ठभूमि को लेकर नहीं हुआ है।
चार अप्रैल को दिल्ली के जंतर-मंतर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन पर बैठे अन्ना हजारे को चार दिनों में जो समर्थन मिला, उसमें ज्यादातर शहरी मध्यवर्ग था। इस तथ्य पर शायद ही किसी को एतराज हो। एनजीओ और सिविल सोसायटी के नाम पर जो लोग इस आंदोलन में कूदे वे महज 30 फीसदी भारत का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। क्योंकि 2011 की जनगणना के शुरूआती आंकड़े तो यही बताते हैं कि देश की करीब तीस फीसदी आबादी ही शहरों-छोटे नगरों या कस्बों में निवास करती है। देश की बाकी 70 फीसदी आबादी अब भी गांवों-ढाणियों में रह रही है। अन्ना के चार दिनों के अनशन को जिस तरह शहरी मध्यवर्ग का समर्थन मिला, दूर – दूर से शहरी मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले नौजवानों का हुजूम दिल्ली की ओर बढ़ने लगा तो सरकार की सांसत बढ़ गई। उसने अपने तेजतर्रार, दूसरे शब्दों में कहें तो शातिर मंत्री कपिल सिब्बल को अन्ना हजारे को मनाने में लगाया। आठ अप्रैल को जिस तरह सरकार अन्ना के सामने दंडवत करते नजर आई, उसे देश की आम जनता की जीत बताया गया। जनता की जीत तो यह थी, लेकिन जिस जनता की जीत हुई या अभी होनी बाकी है, उस जनता की पहचान होनी बाकी है। आज जो सिविल सोसायटी या एनजीओ अन्ना के साथ खड़े हैं, उनके कर्ता-धर्ता ज्यादातर शहरी मध्यवर्ग का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।
लेकिन चार जून को रामलीला मैदान में आने वाले लोगों में से ज्यादातर की पृष्ठभूमि ग्रामीण थी। रामदेव के साथ योग भले ही शहरी मध्यवर्ग के लोग करते हैं, लेकिन उनके भगवा चोले और साधुवेश को ग्रामीण लोगों का समर्थन ज्यादा है। रामलीला मैदान में जुटी भीड़ भी ज्यादातर ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली ही थी। हम गांधी और गांव की बात तो करते हैं, हमारी सरकारें उनका पारायण तो करती हैं, लेकिन जैसे ही अपनी सत्ता की हनक दिखाने का मौका आता है, ग्रामीण लोगों पर सरकारी कहर तोड़ने में कोई भी सरकार पीछे नहीं रहती। उत्तर प्रदेश के भट्टा पारसौल में जिस तरह घरों में घुसकर पुलिस ने पुरूषों-महिलाओं और बच्चों को पीटा, क्या दिल्ली-मुंबई या फिर ऐसे ही किसी शहरी समाज में पुलिस या सरकार ऐसी हिम्मत दिखा सकती है। शहरी मध्यवर्ग की मोमबत्तियों का डर उसे ऐसा करने से रोक देता है। भारत भले ही गांवों का देश हो, ग्रामीण सभ्यता वाला देश हो, लेकिन हकीकत तो यह है कि गांव और ग्रामीण अब हाशिए पर हैं। ग्रामीण होना मौजूदा मानकों के मुताबिक सभ्यता और संस्कृति से दूर पिछड़ा होने की निशानी है। शायद यही वजह है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के सुदूर गाजीपुर में रह रहे हिंदी साहित्यकार विवेकी राय कहते हैं कि दरअसल आज की सारी लड़ाइयां शहरी हैं। गांव तो सिर्फ मुखौटा है। गांवों को मुखौटा बनाने और उन्हें असभ्यता से सभ्यता की ओर लाने वाली नीतियों की शुरूआत नेहरू सरकार के दौरान ही हो गई थी। जयप्रकाश नारायण का नेहरू से मतभेद की बड़ी वजह यह सोच भी थी। यही वजह है कि 1955-56 में नेहरू के बुलावे के बाद भी जयप्रकाश नारायण उनकी कैबिनेट में शामिल नहीं हुए। गांवों और उनकी आवाज को तब से लेकर अब तक दबाया ही जा रहा है। इस देश की नीतियां, विकास के पैमाने और सभ्यता के मानदंड शहरों को केंद्र में रखकर बनाए जाते हैं। इसका ही असर है कि गांव को अगर आठ घंटे बिजली और चलताऊ सड़क मिल गई तो मान लिया जाता है कि बहुत कुछ हो गया, लेकिन शहर में चार घंटे बिजली कटती है तो हाहाकार मच जाता है। शहरों के आंसू पोंछने के लिए राजनीति और नौकरशाही आगे रहती है, लेकिन फटेहाली में जीते गांव के लिए सिर्फ घड़ियाली आंसू बहाए जाते हैं और अगर ग्रामीण सभ्यता ने इन आंसुओं की पहचान कर ली तो उसे पुलिस और डंडे के जोर पर दबा दिया जाता है। यही वजह है कि आज देश के करीब एक चौथाई जिलों में सरकारों का कोई असर नहीं है। पुलिस, नेता और अधिकारी की तुलना में इन गांव वालों को नक्सली कहीं ज्यादा अपने और भरोसेमंद लगते हैं।
बाबा रामदेव को अगर नक्सलियों ने भी समर्थन देने का ऐलान किया तो उसके भी संकेत साफ हैं। उन्हें पता है कि रामदेव के अनशन में शहरी मध्यवर्ग की तुलना में गांव-गिरांव के लोग कुछ ज्यादा ही शामिल थे। बाबा रामदेव और उनके समर्थकों के खिलाफ जैसी कार्रवाई पुलिस और सरकार ने की, उससे इसी धारणा को बल मिलता है कि ग्रामीण सभ्यता के खिलाफ आज की पूरी व्यवस्था है। वह तो भला हो लोकतंत्र का कि पांच साल में एक बार गांव वालों की पूछ बढ़ जाती है। लेकिन वह भी कितने दिनों के लिए, सिर्फ चुनावी प्रक्रिया के पूरी होने तक ही गांव वालों की पूछ-परख रहती है। दिलचस्प बात यह है कि ग्रामीण सभ्यता को शहरी मानदंडों के मुताबिक हांकने वाली सरकारों को बनाने में सबसे ज्यादा योगदान इस ग्रामीण आबादी का ही होता है। चुनाव के दिन गांव वाले ही ज्यादा वोट डालने निकलते हैं। शहरी मध्यवर्ग तो उस दिन अपने शहरों के इंडिया गेट, गेट वे ऑफ इंडिया या गोमतीनगर में पिकनिक पर होता है। उसकी नजर में मतदान बेकार की कवायद होती है।
ग्लैमर की चाशनी के बीच गुम होते सामाजिक सवाल
उमेश चतुर्वेदी
प्रबंधन के पारंपरिक पाठ्यक्रमों में सिखाया जाता रहा है कि हर धंधे की नैतिकता होती है। प्रबंधन का पारंपरिक तरीका नहीं अब नहीं रहा, 1991 में शुरू हुए उदारीकरण ने धंधा शब्द को भी प्रोफेशन के बतौर स्थापित कर दिया है। लिहाजा प्रोफेशन की मान्यताएं भी बदल गई हैं। उदारीकरण और वैश्वीकरण की शुरूआत के दौर में इसके नफे-नुकसान को लेकर बहसों का जो दौर चल रहा था, उसमें एक सवाल प्रमुखता से उठा था। वह था प्रोफेशन की नैतिकता और सांस्कृतिक गिरावट का। जानकारों को आशंका थी कि उदारीकरण के दौर में पैसा बनाने के लिए नैतिकता और वर्जनाओं की सीमाएं टूटेंगी। जो निश्चित रूप से सामाजिक जीवन के लिए अच्छा नहीं होगा। नीरज ग्रोवर की हत्या के आरोप से छूट गई कन्नड़ अभिनेत्री मारिया सुसईराज को कलर्स चैनल के बहुप्रचारित शो बिग बॉस से ऑफर मिलने और उसके बदले में पांच करोड़ रूपए की भारी-भरकम रकम देने की खबर उदारीकरण के शुरूआती दौर की उन्हीं आशंकाओं को ही सही साबित कर रही है। चेहरे से शालीन दिखने वाले हॉरर फिल्में बनाने के लिए मशहूर राम गोपाल वर्मा भी मारिया के नाम से पैसे कमाने के लिए पीछे रहने वालों में से नहीं रहे। उन्होंने भी मारिया को लेकर फिल्म बनाने की घोषणा कर दी। यह बात और है कि मारिया के छूटने और उसे लेकर फिल्में और टीवी शो बनाने के खिलाफ लोगों के उतरने और इस दौड़ में शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कूद जाने से कलर्स और रामगोपाल वर्मा की फिलहाल घिग्घी बंद है। कलर्स सफाई देते फिर रहा है कि उसने मारिया को कोई प्रस्ताव नहीं दिया।
लेकिन कलर्स का जो अतीत रहा है और खासतौर पर बिग बॉस बनाते वक्त उसने जो लटके-झटके इस्तेमाल किए, उससे शक की गुंजाइश अब भी बनी हुई है। बिग बॉस में पहले भी उसने राहुल महाजन, मोनिका बेदी, डॉली बिंद्रा, राजा चौधरी, कमाल राशिद खान, वीना मलिक जैसी नकारात्मक छवि वाले लोगों को ही शामिल करके टीआरपी और दाम दोनों कमाए हैं। राहुल महाजन बिग बॉस में इसलिए शामिल नहीं किए गए थे कि वे भारतीय जनता पार्टी के सर्वसुलभ और सर्वस्वीकार्य नेता प्रमोद महाजन के बेटे हैं, नशाखोरी और बीवी के साथ मारपीट के चलते उनकी जो नकारात्मक शोहरत बनी, कलर्स और बिग बॉस की निर्माता कंपनी एंडमोल को उसने आकर्षित किया। मोनिका बेदी फिल्मों में तो कोई कमाल नहीं दिखा पाईं, लेकिन डॉन अब्दुल सलेम की माशूका के तौर पर उन्होंने भारत सरकार के नाक में जरूर दम कर दिया। उनकी यही कुख्याति ही कलर्स को अपने साथ जोड़ने के लिए उत्साहित किया। राजा चौधरी की भी ख्याति आए दिन पत्नी श्वेता तिवारी के साथ मारपीट करना और गली-मुहल्लों के गुंडों की तरह लड़ने-पिटने की रही है। कमाल राशिद खान की गालियां भला कौन भूल सकता है। सी ग्रेड की फिल्में बनाने वाले कमाल राशिद खान की भी नकारात्मक छवि ही रही है। पाकिस्तानी फिल्मों की बी ग्रेड की हीरोइन वीना मलिक न तो पाकिस्तानी सिनेमा की दुनिया में कुछ कर पाईं और न ही हिंदुस्तानी सिनेमा में दस्तक दे पाईं। लेकिन क्रिकेट मैचों की फिक्सिंग में अपने पूर्व प्रेमी पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी मोहम्मद आसिफ के चलते चर्चा में जरूर आ गईं। खबर तो यह भी है कि मैच फिक्सिंग में सटोरियों और आसिफ के साथ रहकर उन्होंने पैसे कमाए और जब खुलासा हुआ तो आसिफ के खिलाफ खड़ी हो गईं। डाली बिंद्रा की गालियों को भला कौन भूल सकता है। अस्मित पटेल के बारे में कम ही लोग जानते हैं कि उनके दादा रजनी पटेल समाजवादी आंदोलन की मशहूर हस्ती थे। लेकिन बिग बॉस के पिछले सीजन में उन्होंने कैमरे के सामने वीना मलिक से साथ जो किया, उससे स्वर्ग में बैठी उनके दादा की आत्मा जरूर सोच में पड़ गई होगी। बिग बॉस में इतनी नकारात्मक छवियों वाले लोगों को शामिल किया जा चुका है कि मारिया सुसईराज को भी कलर्स से ऑफर मिलने पर लोगों को हैरत नहीं हुई। लेकिन यह पहला मौका है, जब फिल्म और टीवी शो के धंधे की नैतिकता पर सवाल उठाया गया। निश्चित तौर पर इसकी शुरूआत फिल्म निर्माता अशोक पंडित ने की। उनके साथ उस नीरज ग्रोवर के दोस्त भी शामिल हुए, जिसकी हत्या करके उसकी लाश को तीन सौ टुकड़ों में करके जलाने और फेंकने और इस दौरान मस्ती से शॉपिंग करने का मारिया सुसईराज पर आरोप हैं। अब मारिया सफाई दे रही है कि लाश को तीन सौ टुकड़ों में नहीं काटा गया था। ऐसी सफाई के जरिए वह जाहिर करे कि वह निर्दोष है, लेकिन यह कहते वक्त भी उसकी नैतिकता आड़े नहीं आती। मानो नीरज ग्रोवर कोई बकरा या मुर्गा था, जिसे तीन सौ या तीन टुकड़े में काटकर खाने वाले शौकीनों को बेचना था।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मारिया जैसे लोगों को ऐसी शोहरत और पैसे देकर ग्लैमराइज किया जाना चाहिए। क्या इंसानी जान की कीमत कुछ नहीं होती। क्या समाज में अच्छे लोगों की कमी हो गई है कि मारिया या मोनिका बेदी जैसों पर ही भरोसा किया जा सकता है। सवाल तो यह भी है कि क्या टीवी शो और फिल्में बनाने वाले लोगों के घरों में मारिया जैसे चरित्र पैदा होंगे तो वे उन्हें समाज के सामने इसी तरह पेश करेंगे। क्या समाज में नैतिकता के लिए कोई जगह नहीं है। क्या ऐसे ही लोगों के जरिए पैसे कमाए जाएंगे। मारिया, मोनिका या ऐसी ही हस्तियों को अगर महिमामंडित किया जाएगा तो क्या गारंटी है कि कई दूसरे लोगों को ऐसे कदम उठाकर शोहरत हासिल करने की प्रेरणा नहीं मिलेगी।
मारिया को हीरोइन बनाने में हमारी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भी कम हाथ नहीं है। मारिया की रिहाई की खबर को ग्लैमराइज तरीके से पेश किया गया। खबरों के बारे में आम धारणा है कि उन्हें निरपेक्ष तरीके से पेश किया जाना चाहिए। लेकिन जब कोई लिज हर्ले किसी शेन वार्न के साथ खुलेआम चुंबन लेती है या कोई मोनिका वेदी और मारिया सुसईराज जैसे गंभीर आरोपी जेल से छूटते हैं, कैमरे उनके पीछे भागते कैमरे निरपेक्ष रवैया अख्तियार नहीं कर पाते। ऐसी घटनाओं को वे ग्लैमर की चाशनी में पेश करते हैं। सवाल यह है कि यही कैमरे किसी पप्पू यादव, किसी शहाबुद्दीन या किसी मुख्तार अंसारी को कवर करते वक्त ग्लैमराइज तो नहीं होते। उन्हें राजनीति में तो तमाम बुराइयां नजर आती हैं, उसे लेकर घंटों हायतौबा भी मचाने में पीछे नहीं रहते। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि जब कोई मारिया या मोनिका रिहा होती है तो कैमरों की भाषा क्यों बदल जाती है। इस सवाल का जवाब ढूंढे़ बिना समाज में लगातार आ रही इस गिरावट और नकारात्मक शोहरत वाले लोगों को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति पर रोक नहीं लग सकेगी।
मारिया को लेकर नीरज ग्रोवर के मुट्ठीभर दोस्तों ने जैसे ही सवाल उठाए, उनके पीछे समाज का एक तबका तो खड़ा नजर आ ही रहा है। अशोक पंडित और नीरज ग्रोवर के दोस्तों के साथ रजा मुराद और टीवी-फिल्म की दूसरी हस्तियों का उठ खड़ा होना दरअसल समाज के उस गुस्से की ही अभिव्यक्ति है, जो नकारात्मक छवियों वाले लोगों को ग्लैमर की चाशनी में पेश करने को लेकर जमा हो रही थी। संभवत: यह पहला मौका है, जब किसी नकारात्मक छवि के खिलाफ समाज का एक तबका उठ खडा़ हुआ है। अब देखना यह है कि ऐसी हस्तियों से निबटने के लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कब कदम उठाता है। लेकिन मारिया पर उठते सवालों से एक चीज तो तय है कि ऐसी नकारात्मक छवियों को ग्लैमर की चाशनी में पकाने की कोशिशों पर लगाम लगाने से पहले लोगों को सोचना पड़ेगा।
Saturday, July 2, 2011
गेहूं की राजनीति पर सवार शिवराज सरकार
विदुर सरकार
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने दक्षिणी राज्यों और छत्तीसगढ़ की तर्ज पर 2013 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए चुनावी बिसात बिछाना शुरू कर दिया है और लोक लुभावने निर्णय लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। जिससे की उनकी सरकार पार्टी के जनाधार को व्यापक तरिके से भी बढ़ा सके। इसी क्रम में प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अभी पिछले ही सप्ताह प्रधानमंत्री से मुलाकात कर प्रदेश में रिकार्ड गेहूं की पैदावार से उत्पन्न भण्डारण की समस्या से अवगत कराया और साथ ही पर्याप्त गोदाम न होने के कारण ज्यादातर गेहूं खुले में पड़ा है, जिससे उसके खराब होने की सम्भावना को देखते हुये आग्रह किया कि केन्द्र सरकार गेहूं का प्रदेश को एक साल का अग्रिम आवंटन कर दे जिससे कि भण्डारण की समस्या हल भी हो जाएगी और राज्य सरकार गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों को तीन रूपये किलो की दर से अनाज बांटेगी। इससे अनाज का भी सही उपयोग हो जायेगा और साथ ही जरूरतमंदों को भी सस्ते दाम पर अनाज मिल जाएगा। इस समय लगभग 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं खुले में रखा है जिससे सुरक्षित भण्डारण की आवश्यकता है।
अव्वल तो यह सम्भव नहीं है कि केन्द्र सरकार एक साल का अग्रिम आवंटन राज्य सरकार को कर दे और अगर कर भी देती है तो शिवराज सिंह चौहान 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं को गरीबों में 3 रूपये किलो की दर से बांट देते हैं तो जाहिर है कि उसका राजनीतिक फायदा उन्हें जरूर मिलेगा। क्योंकि कमर तोड़ महंगाई से जूझ रहे लोग राज्य सरकार के इस कदम से जरूर कृतार्थ होंगे। जो बाद में वोटो में भी तब्दील हो सकते है। कुछ इसी तरह का फायदा छत्तीसगढ़ और दक्षिणी राज्यों ने गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को एक रू किलो की दर से चावल बांटकर उठा चुके हैं।
उपर से देखने पर 3 रू प्रति किलो का गेहूं गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों को बांटने से राजनैतिक लाभ तो दिख रहा है। लेकिन इसके आर्थिक पक्ष को बारीकी से अध्ययन करे तो पायेंगे कि पूरा का पूरा मुददा हवा-हवाई है। क्योंकि इस योजना को हकीकत में लाते ही राज्य सरकार की अर्थव्यवस्था ढगमगाना तय है और मध्यप्रदेश सरकार की आज की आर्थिक स्थिति को देखते हुए ऐसा हो पाना असंभव है।
वैसे मुख्यमंत्री के अनुसार लगभग 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं खुले में पड़ा है। जिससे सुरक्षित भण्डारण की आवश्यकता है। अगर हम मान लें कि केन्द्र सरकार 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं को प्रदेश को साल भर कर अग्रिम आबंटन कर देती है तो और गेहूं के समर्थन मूल्य 11 रू की दर भी तय की जाए तो राज्य सरकार प्रति किलो 8 रू की सब्सिडी देगी। 8 रू प्रति किलो के हिसाव से राज्य सरकार पर केवल गेहूं की सब्सिडी का लगभग 14500 करोड़ का अतिरिक्त भार पड़ेगा। जिसे सरकार को अपनी ही वार्षिक योजना से लेना होगा। यह भार गैर योजना मद में होगा। ऐसे में सवाल उठता है कि राज्य सरकार अपनी 2011-12 की कुल वार्षिक योजना जो 23000 करोड़ रूपए की है, उसमें गैर योजना गत राशि के तौर पर 14500 करोड़ रूपए लेकर खर्च कर पाना कितना सम्भव हो पाएगा। और अगर राज्य सरकार ऐसा कर भी पाती है तो तो क्या अन्य कल्याणकारी क्षेत्रों जैसे शिक्षा , स्वास्थ्य, ऊर्जा, कृषि, उद्य़ोग आदि पर उलटा असर नही पड़ेगा। अव्वल तो ऐसा करना प्रदेश के वित्तीय प्रबंधन के लिहाज से ठीक नहीं होगा और व्यवहारिक रूप से भी यह सम्मभव नहीं है। तो क्या मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान गेहूं के मुददे पर राजनीति कर रहे हैं और केन्द्र सरकार से ऐसी मांग कर रहे है। जिसे अगर केन्द्र सरकार नहीं मानती तो गेहूं का सड़ना और गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों को पर्याप्त मात्रा में गेहूं सस्ते दामों में न उपलबध कराने का ठीकरा भी केन्द्र सरकार पर मढ़ दिया जाएगा। अगर केन्द्र सरकार खुदा न खास्ता खुले में पड़े गेहूं को राज्य सरकार को एक साल का अग्रिम आवंटन करने को राजी हो जाती है तो मुख्यमंत्री को गेहूं को समर्थन मूल्य पर लेकर गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों में 3 रूपये प्रति किलो के हिसाब से बांटना राज्य सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है। विकास के मूलमंत्र पर दोबारा सत्ता पर आसीन शिवराज अब तीसरी पारी के लिए अभी से राजनीतिक बिसात बिछा रहे हैं पर उनको शायद यह नहीं पता कि कभी-कभी ऐसे कदम उल्टे भी हो जाते हैं।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने दक्षिणी राज्यों और छत्तीसगढ़ की तर्ज पर 2013 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए चुनावी बिसात बिछाना शुरू कर दिया है और लोक लुभावने निर्णय लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। जिससे की उनकी सरकार पार्टी के जनाधार को व्यापक तरिके से भी बढ़ा सके। इसी क्रम में प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अभी पिछले ही सप्ताह प्रधानमंत्री से मुलाकात कर प्रदेश में रिकार्ड गेहूं की पैदावार से उत्पन्न भण्डारण की समस्या से अवगत कराया और साथ ही पर्याप्त गोदाम न होने के कारण ज्यादातर गेहूं खुले में पड़ा है, जिससे उसके खराब होने की सम्भावना को देखते हुये आग्रह किया कि केन्द्र सरकार गेहूं का प्रदेश को एक साल का अग्रिम आवंटन कर दे जिससे कि भण्डारण की समस्या हल भी हो जाएगी और राज्य सरकार गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों को तीन रूपये किलो की दर से अनाज बांटेगी। इससे अनाज का भी सही उपयोग हो जायेगा और साथ ही जरूरतमंदों को भी सस्ते दाम पर अनाज मिल जाएगा। इस समय लगभग 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं खुले में रखा है जिससे सुरक्षित भण्डारण की आवश्यकता है।
अव्वल तो यह सम्भव नहीं है कि केन्द्र सरकार एक साल का अग्रिम आवंटन राज्य सरकार को कर दे और अगर कर भी देती है तो शिवराज सिंह चौहान 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं को गरीबों में 3 रूपये किलो की दर से बांट देते हैं तो जाहिर है कि उसका राजनीतिक फायदा उन्हें जरूर मिलेगा। क्योंकि कमर तोड़ महंगाई से जूझ रहे लोग राज्य सरकार के इस कदम से जरूर कृतार्थ होंगे। जो बाद में वोटो में भी तब्दील हो सकते है। कुछ इसी तरह का फायदा छत्तीसगढ़ और दक्षिणी राज्यों ने गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को एक रू किलो की दर से चावल बांटकर उठा चुके हैं।
उपर से देखने पर 3 रू प्रति किलो का गेहूं गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों को बांटने से राजनैतिक लाभ तो दिख रहा है। लेकिन इसके आर्थिक पक्ष को बारीकी से अध्ययन करे तो पायेंगे कि पूरा का पूरा मुददा हवा-हवाई है। क्योंकि इस योजना को हकीकत में लाते ही राज्य सरकार की अर्थव्यवस्था ढगमगाना तय है और मध्यप्रदेश सरकार की आज की आर्थिक स्थिति को देखते हुए ऐसा हो पाना असंभव है।
वैसे मुख्यमंत्री के अनुसार लगभग 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं खुले में पड़ा है। जिससे सुरक्षित भण्डारण की आवश्यकता है। अगर हम मान लें कि केन्द्र सरकार 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं को प्रदेश को साल भर कर अग्रिम आबंटन कर देती है तो और गेहूं के समर्थन मूल्य 11 रू की दर भी तय की जाए तो राज्य सरकार प्रति किलो 8 रू की सब्सिडी देगी। 8 रू प्रति किलो के हिसाव से राज्य सरकार पर केवल गेहूं की सब्सिडी का लगभग 14500 करोड़ का अतिरिक्त भार पड़ेगा। जिसे सरकार को अपनी ही वार्षिक योजना से लेना होगा। यह भार गैर योजना मद में होगा। ऐसे में सवाल उठता है कि राज्य सरकार अपनी 2011-12 की कुल वार्षिक योजना जो 23000 करोड़ रूपए की है, उसमें गैर योजना गत राशि के तौर पर 14500 करोड़ रूपए लेकर खर्च कर पाना कितना सम्भव हो पाएगा। और अगर राज्य सरकार ऐसा कर भी पाती है तो तो क्या अन्य कल्याणकारी क्षेत्रों जैसे शिक्षा , स्वास्थ्य, ऊर्जा, कृषि, उद्य़ोग आदि पर उलटा असर नही पड़ेगा। अव्वल तो ऐसा करना प्रदेश के वित्तीय प्रबंधन के लिहाज से ठीक नहीं होगा और व्यवहारिक रूप से भी यह सम्मभव नहीं है। तो क्या मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान गेहूं के मुददे पर राजनीति कर रहे हैं और केन्द्र सरकार से ऐसी मांग कर रहे है। जिसे अगर केन्द्र सरकार नहीं मानती तो गेहूं का सड़ना और गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों को पर्याप्त मात्रा में गेहूं सस्ते दामों में न उपलबध कराने का ठीकरा भी केन्द्र सरकार पर मढ़ दिया जाएगा। अगर केन्द्र सरकार खुदा न खास्ता खुले में पड़े गेहूं को राज्य सरकार को एक साल का अग्रिम आवंटन करने को राजी हो जाती है तो मुख्यमंत्री को गेहूं को समर्थन मूल्य पर लेकर गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों में 3 रूपये प्रति किलो के हिसाब से बांटना राज्य सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है। विकास के मूलमंत्र पर दोबारा सत्ता पर आसीन शिवराज अब तीसरी पारी के लिए अभी से राजनीतिक बिसात बिछा रहे हैं पर उनको शायद यह नहीं पता कि कभी-कभी ऐसे कदम उल्टे भी हो जाते हैं।
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