उमेश चतुर्वेदी
आम आदमी भी समझता है कि महंगाई रोकने के दावे और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को बाजार से नियंत्रणमुक्त करने की कोशिशें साथ- साथ नहीं चल सकतीं। लेकिन केंद्र सरकार दोनों ही स्थितियों में आगे बढ़ने की बात करती रहती है। जिस समय वह महंगाई रोकने का दावा करती है, उसी वक्त वह डीजल एवं एलपीजी की कीमतों को बाजार के हवाले करने की बातें भी करती है। इसी सिलसिले में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने डीजल और एलपीजी की सब्सिडी खत्म करने की बात कह कर खासकर आम लोगों की चिंताएं बढ़ा दी हैं। बहरहाल यह पहला मौका नहीं है, जब केंद्र सरकार के किसी जिम्मेदार मंत्री ने ऐसा बयान दिया है। दिसंबर 2010 में ही डीजल पर दी जाने वाली सब्सिडी पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया नाखुशी जाहिर कर चुके हैं। इसी साल मई में तब के वन और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को भी देश के वास्तविक विकास में डीजल की सब्सिडी बाधा लग रही थी। इसके फौरन बाद एक बार फिर मोंटेक सिंह अहलूवालिया को डीजल सब्सिडी चुभने लगी थी। रही-सही कसर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसी साल मई में ही पूरी कर दी, जब उन्होंने डीजल की कीमतों को बाजार के हवाले करने का ऐलान कर दिया था।
सरकार के जिम्मेदार लोगों के बयान से साफ है कि भले ही अपना देश अब भी संवैधानिक रूप से लोक कल्याणकारी होने का संवैधानिक तमगा धारण किए हुए है, लेकिन हकीकत कुछ और है। सरकारी फैसलों से साफ है कि देश की पूरी की पूरी व्यवस्था को बाजार के हवाले करने का फैसला कर लिया गया है। पेट्रोल की कीमतें बाजार के हवाले करके इसे पहले ही साबित किया जा चुका है। इसी तरह डीजल और एलपीजी की कीमतों को बाजार के हवाले करने की तैयारी काफी पहले से कर ली गई है। डीजल की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने का वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने इस बार भी ऐलान करते वक्त वही पुराना रोना रोया है। उन्होंने कहा है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत जुलाई में बढ़कर 116-118 डॉलर बैरल हो गई, जबकि जून में यह 110 डॉलर बैरल थी। इसका असर भारत पर पड़ेगा। इसी तर्क के आधार पर पेट्रोल की कीमतें बढ़ाई गईं। लेकिन वित्त मंत्री यह बताना भूल गए कि इसी साल जब कुछ वक्त तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें 90-95 डॉलर प्रति बैरल पर आ गई थीं तो बाजार के नियमों के मुताबिक घरेलू बाजार में पेट्रोल की कीमतें घट जानी चाहिए थीं। लेकिन हकीकत तो यह है कि ऐसा नहीं हुआ। यह मांग भी कोई अलग नहीं है। क्योंकि जिन देशों में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बाजार के हवाले हैं, वहां तो ऐसा ही होता है।
पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बार-बार बढ़ाने या बाजार के हवाले करने का तर्क देते वक्त सरकार यह बताना नहीं भूलती कि ईंधन और उर्वरक की सब्सिडी के मद में उसे अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ता है। भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार यह रकम हर साल करीब 73 हजार 637 करोड़ बैठती है। निश्चित तौर पर इतनी बड़ी रकम भारत सरकार के लिए बोझ ही है। लेकिन सरकार को इसका भी खुलासा करना चाहिए कि इतनी बड़ी सब्सिडी के बावजूद देश के आम आदमी के हिस्से क्या आता है। हकीकत तो यह है कि खाद की सब्सिडी किसानों के नाम पर हर बार दी जाती है, लेकिन उसका फायदा खाद बनाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियां उठाती हैं। इसी तरह डीजल पर सब्सिडी देते वक्त सरकार किसानों का ही बहाना बनाती है। लेकिन खुद सरकार भी मानती है कि 75 फीसदी डीजल और चालीस फीसदी रसोई गैस और केरोसिन का इस्तेमाल उद्योगों में होता है। यही वजह है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक शरद यादव ने पिछले दिनों पेट्रोलियम मंत्रालय को लिखकर डीजल की सब्सिडी खत्म करने का सुझाव दिया था। उन्होंने अपनी चिट्ठी में लिखा था कि डीजल की सब्सिडी का सबसे ज्यादा फायदा मोबाइल टावरों, मॉल, होटल और बड़ी कंपनियों को हो रहा है, क्योंकि उनके यहां बिजली डीजल से चलने वाले जेनरेटरों से ही तैयार की जाती है। शरद यादव ने इसे ध्यान दिलाते हुए कहा था कि डीजल से सब्सिडी खत्म करके किसानों को सीधे सहायता मुहैया कराई जाय। लेकिन शरद यादव की मांग को पूरा करने में व्यवहारिक दिक्कत यह है कि अगर किसानों को सीधे सहयोग दिया जाएगा तो भ्रष्टाचार की नई गंगा शुरू हो जाएगी। हां, एक उपाय यह जरूर हो सकता है कि डीजल के किसानों को राशन कार्ड दिए जाएं। लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए राशन की जैसी बंदरबाट हो रही है और जिस तरह रसूखदार लोगों तक ने बीपीएल कार्ड बनवा लिए हैं, उससे साफ है कि किसानों के नाम पर राशन से डीजल हासिल करने के नए भ्रष्टाचारी खेल की शुरूआत हो जाएगी। वैसे भी जब सब्सिडी घटाने की बात आती है या फिर इनकी कीमतों को बाजार के हवाले करने का तर्क दिया जाता है, तब इस तथ्य को धीरे से बताया जाता है। लेकिन ऐसा करते वक्त सरकारें भूल जाती हैं कि सब्सिडी घटाने की असल मार किसानों और आम आदमी को भुगतनी पड़ती है। देश में बिजली की जो हालत है, उसमें खेती में ऊर्जा का सबसे बड़ा माध्यम डीजल ही है। जाहिर है कि अगर डीजल की कीमतें बढ़ती हैं तो खेती की लागत भी बढ़ेगी। जिसे बड़े किसान तो भुगत सकते हैं, लेकिन छोटे किसानों के लिए इसे झेल पाना आसान नहीं होगा। इस लिहाज से खेती की लागत बढ़ जाएगी और खेती का संकट बढ़ जाएगा। इसी तरह जब डीजल की कीमत में एक रूपए की बढ़ोत्तरी होती है तो महंगाई में डेढ़ गुना तक बढ जाती है। फिर जिस सब्सिडी को रोकने की बात की जा रही है, खुद पेट्रोलियम मंत्रालय ही मानता है कि डीजल पर सब्सिडी सिर्फ 3.80 रूपए प्रति लीटर दी जा रही है। इसी तरह सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए दिए जा रहे केरोसिन पर 18.82 रूपए प्रति लीटर सब्सिडी दी जा रही है। जाहिर है कि कम से कम डीजल पर सब्सिडी भी ज्यादा नहीं है।
यह सच है कि हम अपनी ऊर्जा जरूरतों का तीन चौथाई हिस्सा आयात करते हैं। इससे सरकारी खजाने पर बोझ तो है ही। इसी लिए हम अमेरिका और ब्रिटेन की नकल पर अपने यहां पहले पेट्रोल को बाजार के हवाले कर चुके हैं और अब डीजल और एलपीजी को भी करने जा रहे हैं। ऐसे में हमें सरकार से पूछना पडेगा कि जब पेट्रोलियम को बाजार के हवाले करने के मामले में अमेरिका की नकल की जा सकती है, तब अमेरिका में जनता को राहत देने जैसी नकल क्यों नहीं की जा सकती। मसलन-जब 2004 में पेट्रोल की कीमतों में भारी तेजी आई थी, तब अमेरिकी संसद ने सेना के तेल भंडार में कटौती करके तेल को बाजार में भेजने के लिए तब के अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश को मजबूर कर दिया था। बुश ने इसके खिलाफ लाखों तर्क दिए थे, पर संसद ने कह दिया था कि सरकार की प्राथमिकता फिलहाल तो तेल की कीमतों पर नियंत्रण रखना ही होना चाहिए। जिस राह पर भारत सरकार चल रही है, क्या इस दौर में उससे अमेरिका जैसे कदम उठाने की उम्मीद भी की जा सकती है ?
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