Friday, May 25, 2012


उच्च शिक्षा व्यवस्था पर फिर उठा सवाल
उमेश चतुर्वेदी
तेजी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था और आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर बढ़ते अपने देश का गुणगान करते हम नहीं थकते। उलटबांसियों के बीच आगे बढ़ती अपनी अर्थव्यवस्था का मंदी से जूझ रहे अमेरिका और यूरोप के देश भी मानने लगे हैं। ऐसे में अव्वल तो होना यह चाहिए था कि अपनी शिक्षा व्यवस्था भी कम से कम दुनिया के स्तर की होनी चाहिए। निश्चित तौर पर मजबूत अर्थव्यवस्था के जरिए गंभीर और गुणवत्ता आधारित शिक्षा व्यवस्था बहाल की जा सकती है। नालंदा और तक्षशिला जैसे गुणवत्ता आधारित विश्वविद्यालयों की परंपरा वाले देश में ऐसी उम्मीद भी बेमानी नहीं है। लेकिन हाल ही में आई यूनिवर्सिटास -21 की रिपोर्ट ने अपनी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और दुनिया के सामने उसकी हैसियत की पोल खोल कर रख दी है।

Monday, May 14, 2012


राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए पाठ्यक्रमों का विरोध
उमेश चतुर्वेदी
संसद के साठ साल पूरे होने के मौके पर दिए एक साक्षात्कार में पहली संसद के सदस्य रहे और मौजूदा राज्यसभा सदस्य रिशांग किशिंग ने एक बड़ी मार्के की बात कही है। उन्होंने कहा है कि पहले संसद में जनता से जुड़े मुद्दे उठाए जाते थे, लेकिन अब मुद्दे दलगत और राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए उठाए जाते हैं। एनसीईआरटी की किताब में छपे संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर से जुडे कार्टून का मसला भी रिशांग किशिंग की चिंताओं को ही जाहिर कर रहा है। दिलचस्प यह है कि जिस कार्टून को लेकर विवाद खड़ा हुआ, उसे शंकर जैसे मशहूर कार्टूनिस्ट ने बनाया है। 1949 में बनाए गए इस कार्टून को लेकर पता नहीं तब अंबेडकर या नेहरू ने कैसी प्रतिक्रिया दी होगी, , लेकिन एनसीईआरटी की किताब में प्रकाशित हुए इस कार्टून को लेकर दलितों की राजनीति करने वाले बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों का मानना कुछ और ही है। इन राजनीतिक दलों को लगता है कि ऐसे कार्टून को पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने बाबा साहब अंबेडकर को लेकर छात्रों के मन में गलत संदेश जाएगा।

Wednesday, May 9, 2012


जरूरी है बराबरी के आधार वाली बुनियादी शिक्षा
उमेश चतुर्वेदी
जब से शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया गया है, तभी से नामी गिरामी पब्लिक और निजी स्कूलों ने इसकी काट खोजने की कवायद जारी रखी है। शिक्षा के अधिकार कानून में निजी और पब्लिक स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है। निजी और पब्लिक स्कूलों को सबसे ज्यादा परेशानी इसी प्रावधान से रही है। क्योंकि उनकी मोटी कमाई का एक बड़ा हिस्सा इसके जरिए कम होता नजर आ रहा है भले ही उनके पाठ्यक्रमों में कृष्ण और सुदामा की पौराणिक कथा दोस्ती की मिसाल के तौर पर शामिल हो, लेकिन हकीकत में वे कृष्ण और सुदामा को साथ बैठाने और पढ़ाने की अवधारणा से ही पीछा छुड़ाने की कोशिश करते रहे हैं।

Sunday, May 6, 2012


शहरी मध्यवर्ग के समर्थन के बिना नक्सली
उमेश चतुर्वेदी
छत्तीसगढ़ में सुकमा के जिलाधिकारी एलेक्स पॉल मेनन के अगवा प्रकरण ने नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकारी मशीनरी की लाचारगी की पोल तो खोली ही है, लेकिन एक नई तरह का संकेत भी दिया है। नक्सलियों ने मध्यस्थता के लिए जिन लोगों के नाम सुझाए थे, उनमें से दो अहम शख्सीयतों ने मध्यस्थता का प्रस्ताव ठुकराने में देर नहीं लगाई। सुप्रीम कोर्ट के वकील और अन्ना हजारे की कोर टीम के अहम सदस्य प्रशांत भूषण की ख्याति वामपंथी विचारों के लिए भी रही है। लेकिन उन्होंने इस बार ना सिर्फ मध्यस्थता का प्रस्ताव ठुकरा दिया, बल्कि किसी सिविल अधिकारी को बंधक बनाने की नक्सली रणनीति पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। नक्सलियों ने आदिवासी महासभा के अध्यक्ष मनीष कुंजम का भी नाम मध्यस्थों के लिए सुझाया था। लेकिन उन्होंने भी सिर्फ पॉल मेनन के लिए दवाएं ले जाने का मानवीय रास्ता ही अख्तियार किया। उन्होंने भी मध्यस्थता में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।

Saturday, April 7, 2012


चुप्पी के पीछे क्या है?
उमेश चतुर्वेदी
उत्तराखंड में कांग्रेस को सरकार में लौटे करीब एक महीने का वक्त बीत चुका है। लेकिन पार्टी की आपसी खींचतान थमने का नाम नहीं ले रही है। ऐसे में राहुल गांधी की चुप्पी पर सवाल उठना लाजिमी है। इसकी वजह है जनवरी-फरवरी के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को जोरदार जीत दिलाने के लिए की गई उनकी जी तोड़ मेहनत। यह सच है कि उनकी कोशिश के नतीजे अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहे। लेकिन यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपनी सीटें बढ़ाने में कामयाब रही, उत्तराखंड में सरकार में लौटी। तो क्या यह मान लिया जाय कि राहुल गांधी अपेक्षा के अनुरूप नतीजे नहीं मिलने से निराश हैं और चुपचाप बैठ गए हैं। भरपूर मेहनत और जी तोड़ कोशिशों का नतीजा बेहतर नहीं आता तो निराशा स्वाभाविक है। लेकिन यह भी सच है कि राजनीति की दुनिया में सक्रिय हस्तियां देर तक निराशा के गर्त में नहीं डूबी रहतीं। फिर कांग्रेस कोई छोटी-मोटी पार्टी नहीं है और राहुल गांधी उसके मामूली कार्यकर्ता भर नहीं है। तो क्या यह मान लिया जाय कि पार्टी में ये चुप्पी कांग्रेस में तूफानी बदलाव के पहले के सन्नाटे जैसी है।

Saturday, March 31, 2012


                      क्या हुआ कि अन्ना अब दूर हो गए
उमेश चतुर्वेदी 
अन्ना हजारे की टीम को पिछले दिनों सिर्फ चेतावनी देकर संसद ने छोड़ दिया। हालांकि मुलायम सिंह यादव जैसे नेता ने तो उन्हें संसद में मुजरिमों की तरह बुलाए जाने की मांग की। नाराज वह शरद यादव भी कम नहीं रहे, जिनकी दाढ़ी में तिनका वाली कहावत का टीम अन्ना ने इस्तेमाल किया। अन्ना हजारे की टीम के खिलाफ कोरस गान में कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों के नेताओं के अलावा छोटे-बड़े सभी दल शामिल रहे। हालांकि एक दिन पहले यानी 26 मार्च को सुषमा स्वराज, गुरुदास दासगुप्ता और वासुदेव आचार्य भी अन्ना हजारे के खिलाफ विरोध में शामिल रहे और उन्हें चेतावनी देने की मांग करते रहे। उस दिन कांग्रेस मंद मुस्कान के साथ गुस्से के इस गुब्बार को देखती रही।

Saturday, March 24, 2012


मोहन धारिया और टाइम की उम्मीदों पर कितना खरा उतरेंगे मोदी
उमेश चतुर्वेदी
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खबरों में रहना आता है। हासिल हुए मौकों को अपने पक्ष में मोड़ने और प्रचारित करने में भी उन्हें महारत हासिल है। 2002 के गुजरात दंगों के दाग़ की वजह से मीडिया और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के निशाने पर रहना मोदी की नियति हो गई है। लेकिन इसके बावजूद मोदी का ये कमाल ही कहेंगे कि वो मीडिया को अपने तईं इस्तेमाल कर लेते हैं और सारा मजमा लूट ले जाते हैं। गुजरात के विकास कार्यों में जिस मुस्तैदी से वे जुटे हैं, उसके चलते अब उनके विरोधी भी मानने लगे हैं कि उनका राजनीतिक दमखम 2014 के आम चुनावों में बतौर बीजेपी नेता दिख सकता है। तभी तो कभी जनता पार्टी से दोहरी सदस्यता के नाम पर अलग होने वाले युवा तुर्क मोहन धारिया भी ये कहने से खुद को रोक नहीं पाते कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो उन्हें खुशी हुई।

सुबह सवेरे में