Sunday, May 13, 2018
मां पर अस्फुट विचार
Friday, May 11, 2018
Wednesday, January 24, 2018
साहित्य मनुष्य को बेहतर बनाता है
मुम्बई, "उपन्यास और कविताएं
वस्तुतः जीवन और समाज की धड़कन होती है। व्यक्तित्व चेहरों से याद रखे जाते
हैं या कृति के माध्यम से। लेखक अपनी कृति से सदैव जीवित रहता है ।"यह उद्गार
हेमंत फाउंडेशन पुरस्कार समारोह के मुख्य अतिथि भोपाल से पधारे आईसेक्ट यूनिवर्सिटी
के रिसर्च जनरल अनुसंधान के संपादक सुप्रसिद्ध कवि विजयकांत वर्मा ने 20 जनवरी 2018 को श्री राजस्थानी
सेवा संघ के सभागार में व्यक्त किए।
कार्यक्रम का आरंभ दीप प्रज्वलन से शुरू हुआ। अतिथियों का स्वागत करते हुए
संस्था की अध्यक्ष सुप्रसिद्ध साहित्यकार संतोष श्रीवास्तव ने अपने स्वागत भाषण
में कहा
"यह पुरस्कार हमारे लिए एक इम्तिहान की तरह है जिसे हम जीवन की चुनौती मानकर
हर साल आयोजित करते हैं और आयोजित करते रहेंगे।" सितारों के आगे जहां और भी
है अभी इश्क के इम्तिहां और भी है"
आयोजन की प्रस्तावना तथा संस्था का परिचय कथाकार
पत्रकार संस्था की सचिव प्रमिला वर्मा ने दिया। उन्होंने विजय वर्मा कथा सम्मान
एवं हेमंत स्मृति कविता सम्मान का संक्षिप्त इतिहास भी बतलाया। विजय वर्मा
सम्मान के लिए चयनित पुस्तक "दीनानाथ की चक्की" के बारे में बोलते
हुए सुप्रसिद्ध पत्रकार हरीश पाठक ने कहा "अशोक मिश्र की कहानियां विमर्शवादी
या फैशनेबल कहानियां नहीं है।उन्होंने संग्रह की कहानी `पत्रकार बुद्धिराम @पत्रकारिता डॉट
कॉम" का विशेष उल्लेख किया । उन्होंने कहा कि इस
कहानी में पत्रकारिता का पूरा सच बहुत ही विश्वसनीय ढंग से लिखा गया है। पाठक ने
अशोक मिश्र की कहानी ‘दीनानाथ की चक्की’ और अन्य की विस्तार से चर्चा की ।
हेमंत स्मृति कविता सम्मान के लिए चयनित पुस्तक वसंत
के पहले दिन से पहले पर नवभारत टाइम्स मुंबई के सहायक संपादक हरि मृदुल ने कहा
"राकेशजी की कविता चालू मुहावरों और बड़बोलेपन से पूरी तरह मुक्त है इसीलिए
गहरी है, पाठक से बतियाती और संवेदना को छूती इस तरह की कविताएं काफी कम लिखी जा रही
हैं । इन्हीं अर्थों में "बसन्त के पहले दिन से पहले " एक मूल्यवान
संग्रह है उनके पास प्रतिरोध की इकाई प्रभावशाली कविताएं हैं। विजय वर्मा कथा
सम्मान सूर्यबालाजी के कर कमलों द्वारा अशोक मिश्र एवं विजयकांत वर्मा द्वारा
हेमंत स्मृति कविता सम्मान राकेश पाठक को प्रदान किया गया ।
अपने वक्तव्य में कथाकार अशोक मिश्र ने कहा
"मेरे लिए कहानी लिखना किसी आम आदमी की पीड़ा को वाणी देने जैसा है । मेरी
कोशिश होती है कि अन्याय, असमानता, पक्षपात, अव्यवस्था, शोषण के दुष्चक्र में पिसते और मेहनत मजदूरी कर गुजारा करने वाले मजदूर या
किसान की दशा का थोड़ा सा चित्रण कर सके तो शायद लिखना सार्थक कहलाएगा ।"
डॉ राकेश पाठक ने संस्था को धन्यवाद देते हुए कहा
"कविता आम आदमी को बेहतर मनुष्य बनाने का काम करती है। इस हिंसक समय में
प्रेम कविताएं मनुष्यता का संदेश देती हैं। उन्होंने अपनी एक प्रेम कविता का पाठ
रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया।जेजेटी यूनिवर्सिटी के कुलपति एवं राजस्थानी सेवा
संघ के प्रमुख विशिष्ट अतिथि विनोद टीबड़ेवाला ने राजनीतिक गतिविधियों पर गहरी चिंता
व्यक्त की और साहित्यकारों की लेखनी से परिवर्तन होने का आव्हान किया।
समारोह की अध्यक्ष सुप्रसिद्ध साहित्यकार सूर्यबाला ने कहा।
"यह दोनों पुरस्कार एक बहन एक मां द्वारा अपने दिवंगत रचनाकार भाई और सगे
बेटे को दी गई श्रद्धांजलि है । संतोषजी ने अपने दुख के अंकुरों को रोपकर उन्हें
संवेदना और रचनात्मकता के घने छायादार वृक्ष में परिवर्तित कर दिया। इन पुरस्कारों
का हमारे महानगर के साहित्यिक परिदृश्य को बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है और इस
मंच से पुरस्कृत नामों की विश्वसनीयता पर कभी सवाल नहीं उठे।"
कवि गजलकार देवमणि पांडेय ने कार्यक्रम का संचालन
किया।
कार्यक्रम में शहर के वरिष्ठ साहित्यकार एवं
पत्रकारिता की दुनिया से जुड़े संपादक और साहित्यकारों की गरिमामय उपस्थिति
रही। विशेष रूप से कानपुर से आए वाणी के संपादक श्री हरि वाणी, झांसी से आए वरिष्ठ कवि साकेत सुमन चतुर्वेदी ,कोलकाता से आए
वरिष्ठ कवि कपिल आर्य, समाजसेवी विजय वर्मा, धीरेंद्र अस्थाना, सूरजप्रकाश, बृजभूषण साहनी, राजेश विक्रांत, फिरोज खान, असीमा भट्ट ,ज्योति गजभिए ,रीता रामदास, अमर त्रिपाठी ,मुरलीधर पांडे,नागेन्द्र नाथ
गुप्ता,विद्याभूषण त्रिवेदी,आभा दवे ,वनमाली चतुर्वेदी,,सुनील सिंह
आदि रचनाकारों की उपस्थिति विशेष रूप से दर्ज़ की गई।
Friday, April 7, 2017
वैचारिक वर्चस्व की जंग और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद
उमेश चतुर्वेदी
भारतीय विश्वविद्यालयों को इन दिनों वैचारिकता
की धार पर जलाने और उन्हें तप्त बनाए रखने की कोशिश जोरदार ढंग से चल रही है।
ज्ञान की वैश्विक अवधारणा के विस्तार के प्रतिबिंब मानी जाती रही आधुनिक
विश्वविद्यलाय व्यवस्था में अगर संघर्ष बढ़े हैं तो इसकी बड़ी वजह यह है कि
पारंपरिक तौर पर विश्वविद्यालयों में जिस खास वैचारिक धारा का प्रभुत्व रहा है,
उसे चुनौती मिल रही है। आजाद भारत से पहले भले ही भारतीय विश्वविद्यालयों की
संख्या कम थी, लेकिन उनका वैचारिक आधार भारतीयता, राष्ट्रवाद और अपनी संस्कृति के
नाभिनाल से गहरे तक जुड़ा हुआ था। आजादी
के बाद देश में विश्वविद्यालय भले ही बढ़ते गए, लेकिन उनका वैचारिक और सांस्कृतिक
सरोकार भारतीयता की देसी अवधारणा और परंपरा से पूरी तरह कटता गया। इसके पीछे कौन
लोग थे, इस पर अब सवाल उठने लगा है।
भारतीय विश्वविद्यालयों का वैचारिक चिंतन किस
तरह आजादी के बाद यूरोपीय अवधारणा का गुलाम होता गया, उसकी सही व्याख्या किसी
राष्ट्रवादी विचारक ने नहीं, बल्कि समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने की है। अपने
आलेख ‘अयोध्या और उससे आगे’ में किशन पटनायक ने लिखा
है- “यूरोप के बुद्धिजीवी, खासकर विश्वविद्यालयों से संबंधित बुद्धिजीवी, का हमेशा
यह रूख रहा है कि गैर यूरोपीय जनसमूहों के लोग अपना कोई स्वतंत्र ज्ञान विकसित न
करें । विभिन्न क्षेत्रों में चल रही अपनी पारंपरिक प्रणालियों को संजीवित न करें,
संवर्धित न करें। आश्चर्य की बात है कि कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों का भी यही रूख
रहा, बल्कि अधिक रहा। ” किशन पटनायक की जो व्याख्या है, दरअसल उसे ही राष्ट्रवादी
विचारधारा भी मानती है। विश्वविद्यालयों की परिधि में काम कर रही राष्ट्रवादी
विचारधारा की प्रबल प्रतिनिधि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की भी सोच ऐसी ही है।
इसीलिए जब दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालेज में राष्ट्र विरोधी ताकतों को
सगर्व बोलने को बुलावा मिलता है, या फिर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में
राष्ट्र के टुकड़े-टुकड़े होने के नारे खुलेआम लगते हैं तो उसके प्रतिकार में अखिल
भारतीय विद्यार्थी परिषद को आना पड़ता है। दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालेज
में देशद्रोही नारे लगाने के आरोपी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र उमर खालिद
और शेहला राशिद के बोलने का अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा विरोध दरअसल
विश्वविद्यालयों को लेकर कम्युनिस्ट विचारकों और बुद्धिजीवियों की संकुचित सोच का
विरोध है। लेकिन दुर्भाग्यवश
विश्वविद्यालयों में अब तक जमी रही वामपंथी विचारधारा इसे अभिव्यक्ति पर
हमले के तौर पर प्रचारित करने लगी और उसने इसे संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति के हमले
के तौर पर प्रचारित करके अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को कठघरे में खड़ा करने की
कोशिश की।
Tuesday, July 26, 2016
सूचना सेवा में सुधार पर बासवान समिति ने खड़े किये हाथ
संघ लोकसेवा आयोग परीक्षा से संबंधित सुधारों पर कार्य करने के लिए बी एस बासवान समिति ने भारतीय सूचना सेवा में सुधार के सवाल पर हाथ खड़े कर दिये हैं, इससे इस सेवा में सुधार के लिए किये जा रहे प्रयासों को झटका लगा है।
हालांकि समिति ने अभी अंतिम रिपोर्ट सरकार को सौंपी नहीं है लेकिन भारतीय सूचना सेवा में सुधार के लिए छात्रों की ओर से किये जा रहे प्रयासों के जवाब में समिति के अध्यक्ष बी एस बासवान की ओर से जयपुर के छात्र श्याम शर्मा को ईमेल कर कहा गया है ‘भारतीय सूचना सेवा को सिविल सेवाओं में रखना या न रखना, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का काम है, समिति का नहीं। मुझे लगता है कि वे यथास्थिति बनाये रखना चाहते हैं।’
हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, जयपुर के छात्र श्याम शर्मा ने प्रधानमंत्री कार्यालय व बासवान समिति को पत्र लिखकर मांग की थी कि भारतीय सूचना सेवा की पेशागत आवश्यकताओं को देखते हुए इसे ग्रुप ‘ए’ पेशेवर सेवा के तौर पर चिन्ह्ति किया जाए तथा इसमें प्रवेश के लिए मीडिया व जनसंचार विषयों की विशेषज्ञता अनिवार्य की जाए।
उल्लेखनीय है कि भारतीय सूचना सेवा में शीर्षस्थ पदों पर नियुक्तियों के लिए अब तक विशेषज्ञता अनिवार्य नहीं है और सिविल सेवाओं में निचले रैंकों पर रहने वाले प्रतिभागी अनिच्छा के साथ इस सेवा में पहुंचते हैं जिससे सरकार की कार्यदक्षता तो प्रभावित होती ही है, साथ ही, संचार कौशल संयुक्त पेशेवर प्रतिभा के साथ भी अन्याय होता है। इस संबंध में मीडिया स्कैन, दिल्ली पत्रकार संघ,आईआईएमसी छात्र संघ तथा अन्य तमाम मीडिया संगठनों व छात्र संगठनों ने बासवान समिति को पत्र लिखा है।
इन संगठनों का मानना है कि यह स्थिति पत्रकारिता के छात्रों के साथ अन्याय जैसी है। देशभर में बड़ी संख्या में पत्रकारिता संस्थानों से सैकड़ों की संख्या में स्नातक होकर पत्रकारिता और जनसंचार के छात्र निकलते हैं और उनके कौशलों की आवश्यकता वाली एक लोकसेवा भी अस्तित्व में है फिर भी उनको अवसर देने के स्थान पर इस सेवा में ऐसे लोगों को मौका दिया जा रहा है जिनके पास पत्रकारिता और जनसंचार की बेसिक जानकारी तक नहीं है। इसलिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय, केंद्रीय कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग, संघ लोकसेवा आयोग और प्रधानमंत्री कार्यालय से मांग की गयी है कि देशभर में पत्रकारिता के छात्रों के हित में भारतीय सूचना सेवा को पूरी तरह विशेषज्ञ सेवा के रूप में ग्रुप ए पेशेवर सेवा के रूप में चिन्हित किया जाए।
Wednesday, May 25, 2016
आपकी मदद चाहिए..
मेरी कार चोरी हुए दस दिन हो गए..दिल्ली पुलिस ने इसे कैजुअली लिया..हम चाहते हैं कि आगे से ऐसे मामलों को दिल्ली पुलिस कैजुअली ना ले..इसलिए एक याचिका डाली है..जो नीचे दिए गए लिंक पर है..कृपया इस पर क्लिक करें और अपना हस्ताक्षर करके सहयोग करें..ताकि आगे किसी की कार चोरी हो तो पुलिस उसे कैजुअली ना ले..
https://www.change.org/p/home-ministry-of-india-my-car-is-stolen/c/456065495यहां करें क्लिक
https://www.change.org/p/home-ministry-of-india-my-car-is-stolen/c/456065495यहां करें क्लिक
Monday, May 9, 2016
उत्तराखंड में किस करवट बैठेगा राजनीतिक ऊंट
उमेश चतुर्वेदी
दुनियाभर के लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था वाले समाजों में
आखिरी उम्मीद की किरण न्यायपालिका कितनी बन पाई है, यह शोध का विषय है। लेकिन कुछ
अपवादों को छोड़ दें तो भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका ही आखिरी उम्मीद की किरण
बनकर उभरी है। हाल के दिनों आए जजों की नियुक्ति वाली कोलेजियम को बहाल करने वाले
फैसले को छोड़ दें तो अभी-भी सर्वोच्च न्यायपालिका इंसाफ की आखिरी उम्मीद बनी हुई
है। उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार के बहुमत परीक्षण कराने का आदेश भी कम से कम
कांग्रेस पार्टी के लिए आखिरी उम्मीद की ही तरह आया है। इसलिए वह इसे लोकतंत्र की
जीत बताते नहीं अघा रही है। अपने समाज में चूंकि न्यायिक फैसलों की आलोचना की
परंपरा नहीं है, लिहाजा अगर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला नहीं भी आता तो यही
कांग्रेस दुखी होने के बावजूद भी उस फैसले को लोकतंत्र की हार नहीं बताती। लेकिन
यह तय है कि लोकतंत्र की असल जीत या हार इस फैसले से नहीं, बल्कि 10 मई को
देहरादून में विधानसभा के पटल पर होगी। अगर हरीश रावत जीत गए तो निश्चित तौर पर
कांग्रेस के लिए झूमने का मौका होगा। सत्ता तंत्र में लगातार छीजती जा रही
कांग्रेस की उत्तर भारत में एक और सरकार लौट आएगी। लेकिन अगर हार हो गई तो इसमें
कोई दो राय नहीं कि देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए वे क्षण बेहद दुखद होंगे।
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उमेश चतुर्वेदी भारतीय विश्वविद्यालयों को इन दिनों वैचारिकता की धार पर जलाने और उन्हें तप्त बनाए रखने की कोशिश जोरदार ढंग से चल रह...
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उमेश चतुर्वेदी 1984 के जुलाई महीने की उमस भरी गर्मी में राहत की उम्मीद लेकर मैं अपने एक सहपाठी मित्र की दुकान पर पहुंचा। बलिया स्टेशन पर ...